प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब से आपका बोध-साहित्य पढ़ रहा हूँ, आपको सुन रहा हूँ, ऐसा आपने कहा था कि जीवन में ऐसा सार्थक कार्य चुनो जिसमें आप अपने-आप को पूरा झोंक सको और अपने स्वयं के लिए कुछ भी बचाकर मत रखना।
आचार्य जी, हम अगर शोध के क्षेत्र में भी जाना चाहे तो कुछ समय में ऐसा लगता है कि बुद्धि हमारी एक सीमा के बाद साथ नहीं देती। थोड़ा समझ आता है, उसके बाद हम वो नहीं कर पाते और जब फिर चेतना के उस स्तर से हम नीचे आते हैं तो फिर उसमें बहुत कष्ट होता है और हमारे पास कोई दूसरा मार्ग अभी तक चेतना को, जैसा मेरा अनुभव है, तो बुद्धि को ऊपर रखने के अलावा और कोई मार्ग मुझे समझ नहीं आता। कृपया इस बात पर प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: इसमें दिक्कत बुद्धि की थोड़े ही है, इसमें दिक्कत उस उम्मीद की है, अपेक्षा की है जो कहती है कि, "मैं जो कुछ करूँगा उसमें तुरंत सफलता मिल ही जाएगी।" दोनों बातें हो सकती थीं न? तुम कह रहे हो कि कुछ पढ़ते हो, रिसर्च , शोध वगैरह कर रहे हो और उसमें जब तक डूबे रहते हो तब तक तो शांति रहती है, लेकिन कई बार जो बात है, जिस मुद्दे से उलझ रहे हो, वो समझ में नहीं आती है और उसके बाद फिर निराशा, हताशा हो जाती है, बुद्धि ठप पड़ जाती है। दूसरी बात भी तो हो सकती थी कि अगर कुछ करना ही है और वो हो नहीं रहा है तो बुद्धि उसमें और ज़्यादा तल्लीनता से लिप्त हो जाए - ये भी तो हो सकता था न?
हार मिलने पर भीतर से दोनों तरह की प्रतिक्रियाएँ आ सकती हैं न, एक प्रतिक्रिया हो सकती है - हार इसलिए मिली क्योंकि मैं नाकाबिल हूँ, तो अब मैं आगे कोशिश नहीं करूँगा; और दूसरी हो सकती है कि - हार मिली है तो अब मैं दूनी कोशिश करूँगा। वो तो निर्भर इस पर करता है कि जो काम तुम कर रहे हो उसको तुम कीमत, मूल्य कितना देते हो। जो काम तुम कर रहे हो अगर तुमने उसको कीमत ही इतनी दी है कि, "भई! अगर ये एक-दो झटके में हो गया, थोड़े से श्रम में हो गया तब तो ठीक है और अगर उतने में नहीं हुआ तो हम और ज़्यादा जान लगाएँगे नहीं, क्योंकि इस काम की उससे ज़्यादा हैसियत ही नहीं है।"
तो फिर तो यही होगा कि जो करना चाह रहे हो अगर वो तुरत-फुरत नहीं हुआ, तो तुम उस काम के प्रति उदासीन हो जाओगे, उसको छोड़-छाड़ दोगे। इसमें बुद्धि की बात नहीं है। ये तो मूल्यांकन की बात है, वैल्यूएशन की बात है। जो काम तुम कर रहे हो उसका मूल्य कितना समझते हो, और जैसा तुम उस काम का मूल्यांकन कर रहे होगे, उसी हिसाब से तुम ये भीतरी उम्मीद तय कर लेते हो कि उस काम में तुमको अपने-आपको खपाना कितना है, समर्पित कितना करना है।
भई! आपको अगर पता है कि आप जो करने जा रहे हो वो बहुत बड़ा काम है तो क्या आप भीतर ये उम्मीद रखोगे कि वो काम जल्दी से पूरा हो जाए? नहीं न? क्योंकि आपको पता है कि आप जो माँग रहे हो वो बहुत बड़ी चीज़ है, वो इतनी जल्दी मिल ही नहीं सकती। दूसरी ओर अगर आपने ख़ुद को ही बता रखा है कि आप जिस चीज़ को लक्ष्य कर रहे हो, जो चीज़ आप पाना चाहते हो वो तो है ही छोटी सी, तो आप कहोगे कि, "देखो! ये छोटी सी चीज़ है मैं जिसके लिए कोशिश कर रहा हूँ, ये जल्दी से मिल गई तो ठीक और जल्दी से नहीं मिली तो फिर बेईमानी है, नाइंसाफी, ये गलत हो गया हमारे साथ।"
गलत क्या हो गया? अगर वाकई कुछ कर रहे हो, तो करो ही तभी जब वो काम करने लायक हो। इसी को प्यार कहते हैं। जो कुछ भी कर रहे हो कर ही क्यों रहे हो अगर उसको हैसियत नहीं देते? और अगर हैसियत देते हो इसलिए कर रहे हो, तो थोड़ा सा करके रुक क्यों जाते हो? तो जो ऑथेंटिसिटी (सत्यता) वाली बात है न उसका एक पहलू ये भी है, अच्छा किया सवाल पूछा। गलत चुनाव नहीं करेंगे, ऐसे काम करेंगे ही नहीं जो करने लायक नहीं हैं। ऐसे काम करेंगे नहीं जिनको हम हृदय से मूल्य देते नहीं हैं, क्योंकि ऐसे कामों को करने पर दिल बहुत जल्दी टूटता है। जिस चीज़ को आप मूल्य नहीं देते, उसमें आप जान नहीं लगा पाओगे। फिर वही नतीजा निकलेगा - कुछ दिन तक करा, फिर इरादा टूट गया, प्रेरणा खत्म हो गई। हम कहते हैं न - डिमोटिवेट (हताश) हो गए। वो डिमोटिवेट हो ही इसीलिए गए क्योंकि चुना ही काम ऐसा था जिसको भीतर से हम ही इज़्ज़त नहीं देते। किसी मजबूरी में चुन लिया।
लेकिन बताने वाले हमको बता गए हैं कि ऑथेंटिसिटी कभी मजबूर अनुभव करती नहीं। मजबूरी सिर्फ उनके लिए है जिन्हें कुछ खोने का डर हो। मजबूर इंसान को किया जा सकता है उसका हाथ मरोड़ कर, शास्त्रीय तरीके से अगर समझे तो ऑथेंटिक तो आत्मा होती है और आत्मा के हाथ-पाँव होते नहीं। जब उसके हाथ-पाँव होते नहीं तो तुम उसका मरोड़ क्या लोगे? और जब मरोड़ नहीं लोगे तो उसे मजबूर कैसे कर लोगे? तो बेबसी और मजबूरी की भावना से शुरू करके कोई काम करिए मत। वो काम आपको बहुत उबाएगा, आपको उसमें खीझ होगी, चिढ़ होगी, आप उस काम को बेबसी में ढोएँगे। वैसा काम मान लीजिए आपका पूरा भी हो गया, तो भी आपको उससे कोई आंतरिक संतुष्टि नहीं मिलेगी। आप कहेंगे - हाँ भाई! ये प्रोजेक्ट था, पूरा कर दिया, खत्म हो गया।
दूसरी ओर, अगर काम हृदय से चुना है, ऑथेंटिकली चुना है, तो वो काम ज़िंदगी भर भी पूरा ना हो तो भी आप शिकायत नहीं कर पाएँगे। आपने खुद चुना है भाई! जानते-बूझते चुना है। और बिलकुल निर्विकल्प होकर चुना है। निर्विकल्प समझते हैं? चॉइसलेस होकर, ये कह कर कि, "इसके अलावा हम और कुछ कर ही नहीं सकते थे। हमें पता है कि ये नहीं करेंगे तो जीएँगे नहीं, तो यही करना ही है, अब शिकायत क्या करें?" आप जो भी अपना रिसर्च सब्जेक्ट (शोध का विषय), टॉपिक वगैरह चुन रहे हैं, उसमें अगर ये सोचकर चुन रहे हैं कि बस जल्दी से निपट जाए, तो वो पता नहीं निपटेगा कि नहीं निपटेगा, आप निपट जाएँगे।
ये सोच कर मत लीजिए कि जल्दी पूरा होगा, देर से पूरा होगा। ईश्वर करे कि आपको काम ऐसा नसीब हो जो आपकी उम्र भर पूरा ना हो, और आपकी पूरी उम्र उसी काम में डूबे-डूबे बीत जाए। इससे बेहतर ज़िंदगी हो सकती है क्या? इससे बेहतर ज़िंदगी हो सकती है क्या कि आपको एक अनंत प्रोजेक्ट मिल गया जो पूरा हो ही नहीं सकता, तो आपने पूरी उम्र क्या किया? उसमें डूबे रहे। और ये ख़तरा भी नहीं था कि ये पूरा हो जाएगा।
उलटा हो गया न? लोग चाहते हैं कि काम जल्दी-से-जल्दी पूरा हो जाए, आप वो काम चुनिए जो पूरा होने से रहा। और वो काम, थोड़ा सा इशारा दिए दे देता हूँ, कभी भी पूरी तरह से बाहरी नहीं हो सकता। बाहर की दुनिया का तो कोई भी काम हो, वो पूरा किया जा सकता है।
वो याद न आर्कमिडीज का, कि, "मुझे एक तुम बहुत लंबी रोड (छड़ी) दे दो और कोई जगह दे दो फलक्रम टिकाने के लिए, मैं तो चाँद को ही हिला दूँगा। तो बाहर की दुनिया का, यूनिवर्स (ब्रह्माण्ड) से संबंधित तो कोई भी काम हो, बड़े-से-बड़ा हो उसे किसी-न-किसी तरीके से आप पूरा कर लोगे। उसका अंत आ जाएगा, और ऑथेंटिसिटी माँगती है कुछ ऐसा जो अनंत हो। तो वो काम थोड़ा सा आंतरिक हो तभी मज़ा आएगा। भीतर कुछ बैठा है न जो मर नहीं रहा, जो जिए जा रहा है, वो जब तक जी रहा है काम को भी जीना चाहिए। नहीं तो अजीब सिचुएशन (स्थिति) हो जाती है, जो काम करने वाला है वो जिंदा है, काम खत्म हो गया। काम करने वाला फिर तड़पेगा। अपने ही ऊपर काम कर लीजिए। काम करने वाला अपने ही ऊपर काम कर ले। फिर काम और काम करने वाला जब खत्म होंगे, तो एक साथ खत्म होंगे।
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