सही-गलत के पार || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

12 min
51 reads
सही-गलत के पार || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

श्रोता: कैसे जानें कि क्या सही है, क्या गलत है?

वक्ता: सोमवीर मुझे कैसे पता चले कि जो भी मैं तुमसे कह रहा हूँ, वह सही है या गलत है? मुझे ये ख्याल भी नहीं आया कि पिछले बीस मिनट से जो मैं बोल रहा हूँ, वह सही है या गलत है मैं जो बोल रहा हूँ, मैं वही बोल सकता हूँ, मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं है तो मैं सोचूं ही क्यों कि वह सही है या गलत है सोमवीर मैं क्यों सोचूं कि इस हॉल में सिर्फ मैं ही हूँ जिसने कुर्ता पहन रखा है, यह सही है या गलत? मैं क्यों सोचूं कि कुर्ता भी मैंने गुलाबी रंग का पहन रखा है, ये सही है या गलत? और सोमवीर ये क्यों सोचे कि उसकी ये जो मस्त मूछें हैं, जो इस हौल में किसी के पास नहीं हैं, वो सही है या गलत?

पहले तुम मुझे बताओ कि हम सोचे ही क्यों कि कोई सही है या गलत है

श्रोता: तो सर किसी और को सही गलत लग सकता है, जो मैंने कहा

वक्ता: आहा! अब आई खुलकर बात सामने तो सही-गलत हमेशा किसी दुसरे के संदर्भ में है, कि किसी और को बुरा न लग जाए, वरना हम तो जैसे हैं, वैसे हैं मैं पूरे ध्यान से, अपनी समझ से जो कर सकता हूँ, कर रहा हूँ और मैं कर क्या सकता हूँ? सोमवीर तुम तो ये भी नहीं जान पाओगे कि तुमने जो सवाल पूछा है, वह सही है या गलत है इतने लोग बैठे हैं यहाँ, बहुत लोगों को लग सकता है कि तुम्हारी बात सही है और बहुत लोगों को लग सकता है कि गलत है किस-किस की सुनोगे, कहाँ तक सुनोगे और इन सब की सुनने में तुम्हारी अपनी आवाज़ का क्या होगा? दूसरों की आवाज़ से बिल्कुल गहराई तक भर जाओगे और तुम्हारी अपनी आवाज़ खो जाएगी कभी कुछ कहोगे तो दादा जी की आवाज़ सुनाई देगी,कभी कुछ कहोगे तो पड़ोसियों की आवाज़ सुनाई देगी, कभी चाचा जी की, कभी टीचर्स की, कभी पापा की, कभी किसी टी.वी एक्टर की, कभी किसी धर्म गुरु की, कभी कॉर्पोरेट पर्सनालिटी की एक हज़ार आवाजें सुनाई देंगी, पर अपनी नहीं सुनाई देगी कितने लोगों को ऐसी जिंदगी चाहिए जहाँ और सभी की आवाजें सुनाई दें पर अपनी खो गयी हो? किस-किस को नहीं चाहिए ऐसी जिंदगी?

(सभी श्रोतागण हाथ उठाते हैं)

अब तो हाथ बड़ी तेज़ी से उठा दिए, पर जी सब ऐसे ही रहे हो, जहाँ अपना कुछ पता नहीं पर दूसरों का दिया सब कुछ ले लिया है मज़े की बात ये है कि जिनकी आवाज़ तुम पर हावी हो रही है, उनके पास खुद की आवाज़ नहीं है, वो किसी और की आवाज़ में बोल रहे हैं तो तुम बोल रहे हो चाचा जी की आवाज़ में, और चाचा जी बोल रहे हैं अपने चाचा जी की आवाज़ में, और उनके चाचा जी बोल रहे हैं अपने ताऊ जी की आवाज़ में, और ताऊ जी बोल रहे हैं अपनी बीवी की आवाज़ में| ये बड़ा मज़ेदार खेल चल रहा है, किसी को अपना कुछ पता नहीं और दूसरों के दिए सही-गलत लेके चल रहे हैं कोई जैन धर्म से यहाँ पर बैठा है?

(दो श्रोता हाथ उठाते हैं)

चलो अच्छा है दो है दोनों बताना कि छोटे से जानवर को मारना अच्छा है या बुरा?

श्रोता: बुरा है

वक्ता: कितने छोटे जानवर को मारना बुरा है?

श्रोता: जो दिखाई न दे

वक्ता: जो दिखाई न दे उसको मरना भी बुरा है इसीलिए जो जैन साधु होते हैं वो क्या करते हैं?

वक्ता: मुहँ पर कपड़ा बांध कर रखते है

वक्ता: तो यकीन है तुम्हें कि छोटे से छोटे जानवर को न मारा जाए?

श्रोता (वही जो जैन धर्म से हैं ): हाँ सर

वक्ता: कितने लोग हैं यहाँ जो मासाहारी हैं? वह खड़े हो जाएँ

(कुछ श्रोता खड़े होते हैं)

वक्ता (पहले श्रोता से): क्या जानवरों को मारना बुरा है?

श्रोता: कभी अच्छा होता है, कभी बुरा

वक्ता (दुसरे श्रोता से) : क्या जानवरों को मारना बुरा है?

श्रोता: कभी अच्छा और कभी बुरा

वक्ता: यहाँ मुस्लिम धर्म से कौन-कौन हैं?

(कुछ श्रोतागण हाथ उठाते हैं)

ईद-द-उल-जुहा आती है तो क़ुरबानी देते हो? क़ुरबानी हमेशा जानवर की दी जाती है? क्या जानवर की क़ुरबानी बुरी बात है?

श्रोता: क़ुरबानी ठीक है|

वक्ता: कितने बड़े जानवर की क़ुरबानी ठीक है? बकरे की ठीक है? ऊँट की ठीक है? अरब में देते हैं ऊँट की क़ुरबानी।

कुछ कहते हैं कि छोटे से छोटे जानवर को मारना भी गलत है, और कुछ कहते हैं कि बड़े से बड़े जानवर को मारना भी ठीक है। मज़े की बात ये है कि न उन्होंने जाना है कि जानवर को मरना क्यों गलत है और न इन्होंने जाना है कि जानवर को मरना सही क्यों है। वो जैन पैदा नहीं हुए थे, ये मुसलमान पैदा नहीं हुए थे। उन्हें पैदा होने के बाद ‘जैन’ उपनाम दिया गया, इन्हें पैदा होने के बाद ‘मुसलमान’ बनाया गया। इन दोनों का सही-गलत बाहार से आ रहा है। पर जैनों को यही लगेगा कि हम जो बात कह रहे हैं वह बिल्कूल ठीक है कि जानवरों को मत मारो, और दुसरे हैं जो मांस खाते हैं चाहे हिंदू हों, क्रिस्चियन हों, मुसलमान हों, वह कहेंगे कि जानवरों को मरने में क्या बुराई है? वो कहेंगे कि हमारी किताबों में भी लिखा है कि मार सकते हो और बहुत किताबें हैं जिनमें ऐसा लिखा है। तुम्हारे वेदों में लिखा हुआ है। अश्वमेघ यज्ञ, अजमेघ यज्ञ। अश्वमेघ समझते हो? घोड़े को मारना। अजमेघ समझते हो? बकरे को मारना। नरमेघ यज्ञ तक की बात है, आदमी को मार कर यज्ञ। ठीक है, मारलो।

सवाल ये है कि हमने क्या जाना है? हमें सब कुछ किसी बाहरी व्यक्ति या किताब ने ही बता दिया है, या जीवन में हमारी अपनी भी कोई दृष्टि है? सही-गलत हम सब के पास है। यहाँ कोई नहीं है तुम में से जो किसी बात को सही या किसी को गलत न समझता हो, लेकिन तुम में से बहुत कम होंगे जिन्होंने सही- गलत को अपनी नज़र से पाया है। हमारा सही वो है जो दूसरों ने बता दिया कि सही है, और गलत वो है जो दूसरों ने बता दिया कि गलत है। इसलिए हमारे सही और गलत, दोनों ही गलत हैं क्योंकि वो हमारे हैं ही नहीं, वो उधार के हैं। न हमारे सही में कोई दम है, न हमारे गलत में। इसी कारण अक्सर जो तुम्हें सही लगता है वो तुम कर नहीं पाते और अक्सर जो गलत लगता है उससे बच नहीं पाते।

पाया है न कितनी बार कि सर की बात तो सही है पर कर नहीं पा रहे, या फिर सर बात तो गलत है पर करने का मन बहुत करता है। वो इसलिए ही होता है क्यूंकि वो सही गलत तुम्हारे है ही नहीं। तुम्हें किसी ने बता दिया है कि हमेशा सच बोलो, पर सच है क्या इसका तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम्हें किसी ने बता दिया है कि पढ़ाई करना अच्छी बात है, पर पढ़ाई को तुम समझते नहीं, शिक्षा क्या है तुम जानते नहीं। तुम्हें किसी ने बता दिया है कि हिंसा मत करो, बलात्कार मत करो, हर बच्चे को बचपन में ये सब बातें बताई जाती हैं, पर दुनिया हत्यारों से, बलात्कारियों से भरी हुई है क्योंकि उन्होंने खुद कभी समझा नहीं, उन्हें बस बता दिया गया कि ये सही है, ये गलत है।

सही-गलत क्या है ये पूछो मत किसी से, अपनी साफ़ नजर से देखो। अगर कुछ ‘गलत’ है, तो वो है अपनी आंख से न देखना और अपनी आंख का मतलब अपनी आंख, फिर जैन की आंख नहीं, मुसलमान की आंख नहीं, बेटे की आंख नहीं, भारतीय की आंख नहीं, दोस्त की आंख नहीं, भाई की आंख नहीं, तुम्हारी अपनी आंख। अपनी दृष्टि को हम जानते नहीं और जिसको हम अपना बोलते हैं वो हमारा अपना है नहीं, वो उधार का है। एक मात्र ‘सही’ है अपने पांव पर चलना, अपने कान से सुनना, अपनी नजर से देखना, अपने विवेक से जानना, बस यही सही है और कुछ न सही है, न गलत है| ।

दूसरों की परवाह ही मत करो वरना डर में रहोगे।

श्रोता: सर, जो सही है वो कोई करने देता नहीं।

वक्ता: न तुमने हाथ उठाया सवाल पूछने के लिए, न इंतज़ार किया, लगा कि अब वक्त आ गया है पूछने का तो पूछ लिया और कह रही हो कि जो सही है, वो कोई करने देता नहीं। मेरी अनुमति तक नहीं मांगी कि सवाल पूछ लूँ, मैं बोले जा रहा था और बीच में रोक कर, ‘सर जो सही है वो कोई करने देता नहीं’ कहने लगीं। अरे! करने देता नहीं तो तुम ये सवाल कैसे पूछ लेतीं? और यही मज़े की बात है कि जब तुम जानते हो कि यही ठीक है, अपनी समझ से जानते हो, तो कोई तुम्हें रोक सकता नहीं। अमेरिकी लेखिका अयन रैंड का उपन्यास है, ‘फाउंटेन हेड’ और उसमें एक छात्र है-होवार्ड रोअर्क। इस उपन्यास की कहानी कि शुरुआत ही यहाँ से होती है कि उसे यूनिवर्सिटी से निकाला जा रहा है। वो आर्किटेक्चर की पढ़ाई कर रहा है और कुछ ऐसे डिज़ाइन हैं जो उसके शिक्षक को पसंद नहीं आते, वो बिलकुल अलग किस्म के डिज़ाइन बनाता है। तो शुरु में ही उसमें बातचीत है जिसमें कॉलेज का डीन होवार्ड रोअर्क से कह रहा है कि तुमने ये जो डिज़ाइन बनाये हैं, तो कौन तुम्हें अनुमति देगा ऐसी बिल्डिंग तैयार करने की? डीन कहता है कि तुम जो ये बना कर ले आये हो, ये इतना नया है कि तुम्हें कौन अनुमति देगा ऐसी बिल्डिंग बनाने की? तो रोअर्क कहता है कि सवाल ये नहीं है कि मुझे कौन बनाने देगा, सवाल ये है कि मुझे कौन रोकेगा? बात समझ रहे हो?

तुम्हें कोई रोक सकता कैसे है? तुम्हें कोई तभी रोक सकता है जब तुम्हारे सामने दूसरे रास्ते भी हों। जब तुम जानते हो कि एक ही रास्ता है जिस पर तुम चल सकते हो, तो कोई तुम्हें दूसरे रस्ते पर कैसे भेज देगा? तुम्हारे लिए दूसरा रास्ता है ही नहीं। जो लोग ये कह देते हैं कि जीवन या तो ऐसे बीतेगा या नहीं बीतेगा, उनका जीवन वैसे ही बीतता है जैसे बीतना चाहिए। तुम्हें दूसरे आकर इसलिए विचलित कर देते हैं क्योंकि तुम बहुत आसानी से तैयार हो जाते हो विचलित होने के लिए, वरना कोई तुम्हें विचलित कर सकता नहीं। एक बार तुम ये तय कर लो, जान ही जाओ कि यही उचित है और यही रास्ता है फिर तुम विकल्पहीन हो जाते हो। उसी बात को थोड़े बड़े तरीके से ऐसे कहा जाता सकता है कि ‘शेर मर जायेगा लेकिन घास नहीं खाएगा’ क्योंकि उसके पास विकल्प ही नहीं है घास खाने का| पर तुम्हारे पास है।

तुम्हारा खाना छीन लिया जाता है, तो तुम घास खाना शुरु कर देते हो। अगर तुम इंकार ही कर दो कि जिंदगी में कभी घास नहीं खाऊंगा तो कोई तुम्हारा खाना भी नहीं छीनेगा क्योंकि उन्हें पता है कि अगर खाना छीन लिया तो ये मर जाएगी, पर घास तो नहीं खाएगी। लोग तुम पर हावी इसलिए हो जाते हैं क्योंकि तुम राज़ी हो उन्हें हावी होने देने के लिए और तुम राज़ी इस कारण हो क्योंकि तुमने अपने सही-गलत खुद जाने नहीं हैं। जो अपने अनुसार चल रहा होता है, जो अपनी दृष्टि से देख रहा होता है, वो जानता है कि ये रहा रास्ता। तुम लाख कोशिश कर लो उसे विचलित नहीं कर पाओगे क्योंकि उसे दिख ही रहा है कि सामने है पानी का गिलास और उसमें मक्खी पड़ी हुई है, उसे साफ़-साफ़ अपनी आँखों से दिख रहा है। तो तुम उसे राज़ी नहीं कर पाओगे कि तू ये पानी पी जा। तुम उसे लाख दुहाई दो, भावुक कर दो, आंसू बहाओ, चाहे तुम उसे ये बताओ कि तुम्हरी ये परिवार के प्रति उत्तरदायित्व है, धार्मिक किताबों में लिखा है कि पानी में पड़ी हुई मक्खी को निगल जाना चाहिए पर वो कहेगा, ‘न! अपनी आँखों से देख रहा हूँ, नहीं पीयूँगा’। और जो अपनी आँखों से नहीं देख रहा है उसको तो तुम कुछ भी खिला-पिला सकते हो। वो कुछ भी निगल जाएगा।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories