सही-गलत का फैसला कैसे करें?

Acharya Prashant

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सही-गलत का फैसला कैसे करें?
क्या तुम यह चाहते हो कि तुम जो कुछ करते रहो, उसको लेकर भीतर कोई जिज्ञासा ही न उठे और तुम इसी निष्कर्ष में और आश्वस्ति में रहे आओ कि तुम जो भी कुछ कर रहे हो वह ठीक ही है? यह तो एक आंतरिक ईमानदारी और सतर्कता की निशानी होती है न कि जो कुछ भी कर रहे हो उसको लेकर के भीतर सवाल है। उस सवाल का होना अच्छा है। हाँ, उस सवाल के होने से थोड़ी खिसियाहट रहती है, असुविधा रहती है; क्योंकि तुम कभी भी अपनेआप को यह प्रमाण-पत्र नहीं दे सकते कि जो भी तुम कर रहे हो वह अच्छा कर रहे हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरी उम्र बत्तीस साल है और मैं पिछले एक-डेढ़ साल से आपको सुन रहा हूँ। और ये मेरा फ़र्स्ट टाइम है, जो मैं आपसे इंटरेक्ट (बातचीत करना) हो रहा हूँ ऑनलाइन शिविर के माध्यम से। जब मैंने आपको सुनना नहीं चालू किया था तो मेरे जीवन जीने के जो मूल्य थे, ऐसा था कि चलो भई अच्छा काम करना है, जैसे— जो अपना काम करना है, ईमानदारी से करना है, भ्रष्ट नहीं होना है और जैसे समाज के लिए कुछ करना है, दान-पुण्य करना है; मतलब जो चीज़ें अच्छी मानी जाती हैं, आदर्श मानी जाती है समाज में, वैसा जीवन जीना है। लेकिन फिर जब से आपको सुनना चालू किया तब से समझ में आया कि ये सब तो कंडीशनिंग (संस्कार) है और सब उल्टा-पुल्टा है, मतलब एक नया ही आयाम जानने को मिला।

तो अभी मेरा प्रश्न यह है कि मैं जो कुछ भी करता हूँ, तो मेरे मन में फिर डाउट (संदेह) आने लगता है। और मैं आपकी शिक्षाओं को भी फिर उसमें जोड़ने लगता हूँ कि क्या मैं यह सही कर रहा हूँ? तो फिर मेरे मन में शंका आती है कि क्या इससे भी अच्छा कोई काम हो सकता है? क्या मैं अपना समय बर्बाद तो नहीं कर रहा हूँ? तो क्या सही है, क्या गलत है, इन दोनों के बीच मन डाउट में रहता है।

आचार्य प्रशांत: तो अच्छा है न। क्या, इसमें समस्या क्या है? जिसको तुम डाउट कह रहे हो, शंका, उसको जिज्ञासा की तरह देखो। क्या तुम यह चाहते हो कि तुम जो कुछ करते रहो, उसको लेकर भीतर कोई जिज्ञासा ही न उठे और तुम इसी निष्कर्ष में और आश्वस्ति में रहे आओ कि तुम जो भी कुछ कर रहे हो वह ठीक ही है?

यह तो एक आंतरिक ईमानदारी और सतर्कता की निशानी होती है न कि जो कुछ भी कर रहे हो उसको लेकर के भीतर सवाल है। उस सवाल का होना अच्छा है। हाँ, उस सवाल के होने से थोड़ी खिसियाहट रहती है, असुविधा रहती है; क्योंकि तुम कभी भी अपनेआप को यह प्रमाण-पत्र नहीं दे सकते कि जो भी तुम कर रहे हो वह अच्छा कर रहे हो। सिर के ऊपर एक तलवार-सी लटकती रहती है कि क्या पता जो कर रहा हूँ उसमें अहंकार, अज्ञान, शामिल हो? तो व्यक्ति को अच्छा नहीं लगता। हम चाहते हैं कि हम बस किसी तरह स्वप्रमाणित सच्चे आदमी हो जाएँ। हम किसी तरह स्वघोषित बढ़ियां, धार्मिक, नैतिक व्यक्ति हो जाएँ।

जिज्ञासा आपको ये सुविधा लेने नहीं देती। जिज्ञासा कहती है कि कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, जाँच अभी जारी है। अहं को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि मन आलसी होता है और मन डरपोक होता है; वह निष्कर्षों में जीना चाहता है, है न! लेकिन अगर आगे बढ़ना है और झूठ से बचे रहना है, तो यह बहुत अच्छा तरीका है कि जो भी कुछ कर रहे हो, उसको जाँचते–परखते चलो, ठीक है। फिर धीरे-धीरे कभी आनी होगी, तो स्थिति आएगी, जब यह आवश्यकता ही न्यून हो जाएगी कि कदम–कदम पर जाँचा जाए। आवश्यकता, वो कम हो सकती है, शून्य कभी नहीं होती। क्योंकि माया का खतरा हर जीव पर निरंतर है, आखिरी सांस तक, ठीक है। तो यह जो आपने बताया मुझको, यह वास्तव में शुभ संकेत है।

अगर अपने कर्मों को लेकर के, अपनी नियत को लेकर के, बार-बार सवाल उठते हैं, तो इसमें कुछ बुराई नहीं है, ठीक है। होता क्या है न, कि हम अपने आसपास के लोगों को देखते हैं और हम पाते हैं कि वो तो बिलकुल आश्वस्त हैं, उनका आत्मविश्वास असीम! उनको पूरा भरोसा होता है कि वो जो कुछ कर रहे हैं वो ठीक है। पूरे भरोसे के साथ वो बता देते हैं कि फलानी चीज़ सही है, फलानी चीज़ गलत है। और जो बेचारा सच्चा, ईमानदार आदमी होता है, जो नया–नया अध्यात्म की ओर मुड़ा होता है या अध्यात्म ही छोड़िये, जिसको सच्ची ज़िन्दगी जीनी होती है, उसके भीतर सदा एक संशय बना रहता है। वह कभी भी अपनेआप को प्रमाण-पत्र दे ही नहीं पाता है कि ‘सब ठीक है, सब बढ़िया है, मुझसे सही, मुझसे बेहतर कोई नहीं।’

तो वह व्यक्ति आपको हमेशा, जो थोड़ा-सा विचार कर सकता है, जिसमें जिज्ञासा है, जिसमें आत्म–निरीक्षण की काबिलीयत और नीयत है; वह व्यक्ति आपको हमेशा थोड़ा संशय में नज़र आएगा। वह कभी नहीं कहेगा कि अंत आ गया है। सोचने–जानने वालों के लिए कोई बात अंतिम नहीं होती है, वो लगातार खोज में रहते हैं। उनकी आंखें लगातार खुली रहती हैं, वो नहीं कहते, मंज़िल मिल गई!

जैन धर्म का अनेकांतवाद क्या है, आप उसको पढ़ियेगा। जो हमारे आलसी निष्कर्ष होते हैं, अहंकार जो जल्दी से निर्णय लेकर के नींद में चला जाना चाहता है, उसी के विरुद्ध जो बात है वह अनेकांतवाद है। आदत डालिए, अभ्यास करिए अनिर्णय में जीने की। अनिर्णय में जीने की शुरू में असुविधा होगी। मन छटपटाएगा, मन कहेगा— ‘मैं ऐसे दुविधा में नहीं जी सकता, मुझे सुविधा चाहिए।’

सुविधा छोड़िए, दुविधा में जीना शुरू करिए। उस दुविधा से बहुत दूर तक जायेंगे। बात समझ रहे हैं?

कोई पूछे कि बताओ क्या कर रहे हो? क्या शत प्रतिशत निश्चित हो कि ठीक है? गर्व के साथ बोलना सीखिए कि शत प्रतिशत निश्चित तो अभी मुझे कुछ भी नहीं है। मैं अभी ऐसा हूँ ही नहीं कि कोई भी चीज़ शत प्रतिशत हो जाए मेरे लिए।

कोई पूछने लगे— यह जो अभी बात कही उस पर पक्का भरोसा है? ईमानदारी के साथ दिल पर हाथ रखकर कहिए— पक्का भरोसा तो अभी मुझे किसी चीज़ का नहीं है। हाँ, इस समय पर यह बात मुझे थोड़ा जच रही है, ठीक लग रही है, तो मैं कह दे रहा हूँ; लेकिन मैं बिलकुल तैयार हूँ यह मानने के लिए कि यह जो मेरी बात है, यह गलत हो सकती है या मेरी इस बात से बेहतर बात भी कोई हो सकती है।

ये सच्चाई के प्रेमी के लक्षण होते हैं। वह लगातार खुला होता है। उसमें ग्राह्यता होती है सच के लिए, माने आगे बढ़ने के लिए। और झूठे और आलसी आदमी की निशानी यह होती है कि उसको सब कुछ पता है। उसको उसकी स्थिति, उसके तर्क, उसके मत से भिन्न कुछ बताओ, तो वह विरोध करने लग जाता है, बहस और लड़ाई पर उतर आता है, वह सीखना नहीं चाहता, वह सोना चाहता है।

समझ रहे हो बात को?

यह चीज़ बहुत देर तक और दूर तक चलनी हैं, तो इसके साथ सामंजस्य करना सीख लो। कौनसी चीज़— कि पता नहीं होगा साफ़–साफ़, अनिश्चय होगा। पुरानी आदत है, सर्टिनिटी, निश्चितता तलाशने की। उस पुरानी आदत को छोड़ दो।

देखो, यह एक विचित्र-सी चीज़ है कि जो जानते हैं, उनको पता होता है कि अभी बहुत सारी बातें हैं जो जानी नहीं गई हैं, अभी अनिश्चित है। और जिन्हें कुछ नहीं पता होता, अज्ञानी, आलसी, उनको लगता है उन्हें सब कुछ पता है और उन्हें आखिरी बात पकड़ में आ गई है।

ज्ञान की गहराई तुम्हें बता देती है कि ज्ञान की सीमा कितनी है? और अज्ञान अपने में ही फूल कर कुप्पा होता रहता है। उसको लगता है ‘मैं तो बड़ा भारी हूँ, सब जानता हूँ, मैं ही ज्ञानी हूँ।’ ठीक है! तो डरो नहीं, यह सब बढ़िया है, शुभ है।

प्रश्नकर्ता: एक छोटी-सी और दुविधा रहती है जैसे मैं शरीर को लेके थोड़ा-सा वो रहता हूँ, फिजिकल एक्टिविटी (शारीरिक गतिविधि) को लेके। मतलब दौड़ना पसंद है, बैडमिंटन खेलना पसंद है। तो अब मैं जब करता हूँ, तो अब मेरे को लगता है कि मैं समय बर्बाद कर रहा हूँ; या जब दौड़ता हूँ, तो लगता है कि नहीं यार मैं दोड़ रहा हूँ तो इस टाइम पर मेरे को पौधे लगा लेना चाहिए या मैं बैडमिंटन खेल रहा हूँ शाम को, तो लगता है कि नहीं आचार्य जी के वीडियो सुन लेना चाहिए। तो करे बिना मन भी नहीं मानता है तो वहाँ विवेक कि सुने कि, और अच्छा भी लगता है फिजिकल एक्टिविटी करना भी। और समय भी कम है, मतलब नाइन टू फाइव जॉब (सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक की नौकरी) है। मॉर्निंग–इवनिंग में ही समय है। तो अपना कार्य भी करना है, अच्छी चीज़ों को ग्रहण भी करना है। तो यहाँ पर भी वो सामंजस्य नहीं बैठ पाता कि किसको कितना समय दें इन चीज़ों को?

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे आचार्य जी क्या हर समय पौधे ही लगा रहे होते हैं! या किताबें ही लिख रहे होते हैं या तुम लोगों से बात ही कर रहे होते हैं? हो सकता है जब तुम वीडियो देख रहे हो, तब मैं बैडमिंटन खेल रहा हूँ। और तुमको बैडमिंटन खेलने में ग्लानि हो रही है कि अरे! ये क्या गलत काम कर दिया मैंने।’

खेल लो बैडमिंटन भाई, कुछ नहीं बिगड़ जाएगा; दौड़ लो। कितना खेल लोगे? दिन में दो घंटे खेल लोगे उससे ज़्यादा तो नहीं खेलोगे! खेल लो, कुछ नहीं हो जाता उससे। अच्छी चीज़ है! मैं परेशान रहता हूँ कि मुझे खेलने को नहीं मिलता। तुम परेशान हो कि खेलने को मिल रहा है पर खेलने में ग्लानि आती है, अपराध-भाव आता है। ऐसी ही है माया! जिसको मिला हुआ है उसको समस्या यह है कि क्यों मिला हुआ है? जिसको नहीं मिल रहा वह सोच रहा है कि बस किसी तरह मिल जाए।

अब यह सब महोत्सव वगैरह इनके लिए ऋषिकेश आया हुआ हूँ। पिछले दो-चार महीने से काफ़ी सारा समय यहीं बीता है, बल्कि और पहले से, पिछले पाँच–छः महीने से। तो मेरा अपना खेलने-कूदने का सारा कार्यक्रम अस्त-व्यस्त हो गया है। मुझे वह चीज़ परेशान करती है। तुम्हारी बात सुन रहा हूँ, तो मुझे लालच-सा आ रहा है कि अभी अगर मिल जाए कोर्ट और रैकेट, तो क्या मजा आए।

अगर कुछ और करोगे नहीं, वीडियो सुनने के अलावा, तो पता कैसे चलेगा कि जो सुना उसकी कीमत क्या है? पता कैसे चलेगा कि जो सुना, वह जीवन में कितना उतरा? या यह चीज़ बस सुनने की है! ऐसा लड्डू है जो बस कान में डाला जाता है। ये ज़िन्दगी में उतारने की चीज़ें हैं न; कि नहीं है?

प्रश्नकर्ता: जी, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: खाना हमेशा चूल्हे पर ही चढ़ा रहेगा, कढ़ाई में ही बना रहेगा या कभी मुँह में भी जाएगा? या जब मुँह में डालोगे, तो अपराधी हो जाओगे कि देखो, अभी पका तो रहा नहीं! हमेशा पकाते ही रहोगे? कभी पकाना बंद भी करना पड़ेगा न खाने के लिए, कि नहीं?

प्रश्नकर्ता: जी, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: तो फिर! यह जो अति–उत्साह है, यह बहुत ज़ल्दी निरुत्साह में बदल जाता है। अति–उत्साह यही होता है कि अभी-अभी मुझे पता चला है, मैं अब क्रांतिकारी हो गया हूँ। आचार्य जी ने कोई ज़बरदस्त सीख दे दी है जीवन के बारे में; सब कर दूँगा।

मैं छोटा था तो एक विज्ञापन आता था, लक्ष्मण सिलवेनिया का। वह बोलता था— पूरे घर को बदल डालूँगा; बल्ब होते थे वो। वह जाता था, उसको नया बल्ब मिलता था, वह बल्ब बहुत बढ़ियां था। तो बोलता था “पूरे घर को बदल डालूँगा।” लेने गया था एक बल्ब और बोल रहा है, पूरे घर को बदले दूंगा।

वैसे ही जो नये-नवेले उत्साही युवा लोग आते हैं अध्यात्म में, उनका होता है कि अभी पता चल गया है कि अध्यात्म क्या चीज़ होती है? नई-नई सीख मिली है; ‘पूरे जीवन में उतार डालूँगा, माया को कहीं का नहीं छोडूंगा’ और जब तुम यह सब सोच रहे होते हो, बोल रहे होते हो, माया पीछे खड़ी होकर जोर-जोर से हँस रही होती है।

ये जो अति–उत्साह है, ये भी माया की ही चाल है। बहुत ज़्यादा सुनोगे आचार्य जी को, तो उनसे नफ़रत हो जाएगी। जो सुनो, उसको समझो, जीवन में उतारो। फिर सुनो, समझो, जीवन में उतारो। हर समय सुनते ही रहोगे, सुनते ही रहोगे, तो पगला जाओगे!

अब बैडमिंटन को बुरा नहीं बोलोगे कभी भी! (आचार्य जी हँसते हुए)

प्रश्नकर्ता: जी, आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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