सही-गलत, अच्छा-बुरा

Acharya Prashant

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सही-गलत, अच्छा-बुरा

आचार्य प्रशांत: गलत-सही का निर्धारण बस एक चीज़ से होता है — आप आंतरिक तौर पर हल्का अनुभव कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं। इसी से समझ लीजिए न (पानी का गिलास उठाकर)। अगर इसकी आदत है अपने में जोड़ते ही रहने की, चिपकते ही रहने की, तो हर बीतते दिन के साथ ये कैसे होता जाएगा? भारी।

तो आंतरिक तौर पर आपकी प्रगति हो रही है या नहीं हो रही है, उसका एक अच्छा मापदंड होता है आंतरिक हल्कापन।

बहुत सारी पुरानी चीज़ें, वो सताती हैं कि नहीं; आगे का डर लगता है कि नहीं लगता है; एक काम को करते वक्त सौ तरीके से दाएँ-बाएँ सोचना पड़ता है कि नहीं सोचना पड़ता है — ये सब बातें। तो उसके अलावा कोई और उसमें, उसका लिटमस टेस्ट हो नहीं सकता।

प्रश्नकर्ता: यही हो रहा है।

आचार्य प्रशांत: और भी होते हैं लक्षण। पर अनुभव से ये लक्षण सबसे स्पष्ट लगता है, पता चल जाता है।

प्रश्नकर्ता: हमारे पास विकल्प हैं और चुनाव है। जो चुनाव हमें दिन-प्रतिदिन करने पड़ते हैं तो क्या उन चुनाव, यानी जो कर्म हम करते हैं उसके स्रोत को देखना, उसकी जाँच करना कि वो कहाँ से आ रहा है, क्या वो मुक्ति की तरफ़ ले जा रहा है या नहीं ले जा रहा, उसमें काफ़ी भ्रम हो जाता है?

आचार्य प्रशांत: बहुत सारी छोटी-छोटी बातें हैं जो इशारा दे देंगी आपको। आज जिसकी तरफ़ बढ़ रहे हैं, उसमें आपको मुक्ति के कितने लक्षण दिख रहे हैं? आप जो करने जा रहे हैं उसको करने में डर का कितना योगदान है? आप समझ भी पा रहे हैं, ये क्या हो रहा है?

‘दूसरा’ आपको जिस चीज़ से प्रभावित कर रहा है वो वास्तव में क्या है? आपके भीतर कौनसा बिंदु, कौनसा बटन दबा रहा है दूसरा वाला? सच पूछिए तो थोड़ा सा अभ्यास हो जाने पर, तुरंत पता चल जाता है कि भीतर कुछ गड़बड़ हो रही है। शांति का अभ्यास; और भीतर गड़बड़ होती नहीं है कि पता चल जाता है कि अभी जो कर रहा हूँ उससे भीतर हलचल मची है — कहीं कुछ गलत कर रहा हूँ। नीयत शांत होने की होनी चाहिए।

जो चीज़ आपके भीतर हलचल मचा दे या आपकी चेतना को नीचे गिराने लग जाए, वो चीज़ आपके लिए अच्छी नहीं हो सकती। लेकिन इसका अभ्यास करना पड़ेगा धीरे-धीरे। फिर पता चलने लग जाता है, खुद ही, छोटे-मोटे कामों में ही कि कौनसा काम नहीं होना चाहिए था और हो गया। उसके बाद उसको पलट सकते हो तो पलट दो, नहीं पलट सकते तो आगे के लिए सीख ले लो।

प्रश्नकर्ता: इसमें आचार्य जी आपने एक वीडियो में ये भी बताया था कि नज़र जो है, वो बहुत कमाल की चीज़ होती है। अगर आप एक बार देख लो तो जो नकली है वो जल जाएगा। तो शायद यही वो चीज़ है?

आचार्य प्रशांत: देख लो माने नकली को नकली जान लो। कोई भी चीज़ आपको आकर्षित नहीं कर सकती अगर आपको पता है कि वो नकली है। नकली से मेरा आशय क्या है? असली से मेरा आशय क्या है? असली माने वो जो आपको सुख देता हो या कम-से-कम सुख का वादा करता हो। नकली माने वो जो वादा तो करता है पर मुकर जाएगा या तोड़ देगा वादा — उसे नकली बोलते हैं। वैसे ही जैसे कोई भी चीज़ बाज़ार की असली या नकली आप कैसे जानते हो?

कोई भी चीज़ अगर बाज़ार में मौजूद है तो उसके डब्बे पर ये तो लिखा ही होगा न कि इसमें ऐसे गुण हैं, इससे आपको ये चीज़ें मिलेंगी, इससे आपको ये फ़ायदे होंगे, इसमें ये-ये खूबियाँ हैं — ये सब तो लिखा ही होता है न? तो फिर आप नकली कैसे घोषित कर देते हो किसी भी चीज़ को बताओ?

दो पैकेट मिल रहे हैं बाज़ार में किसी भी चीज़ के। और पैकेट दोनों वादा कर रहे हैं कि आप मुझे ले लो और उससे इस-इस तरीके के आपको लाभ होंगे, लाभ माने सुख। आप कोई भी चीज़ लेते हो, दुख के लिए तो लेते नहीं। लाभ माने सुख का ही तो लाभ। तो दोनों ही कह रहे हैं ये-ये चीज़ मिलेगी। अब आप किस आधार पर कह देते हो कि उसमें से एक चीज़ नकली है और एक चीज़ असली है?

जो आपको वो दे-दे जिसका उसने वादा करा था, वो असली है। जो अभी कहे कि सुख दूँगा और बाद में दे दुख, उसको कहते हैं? (नकली)। तो जो चीज़ समय के साथ अपना चेहरा बदल दे उसको कहते हैं? (नकली)।

शास्त्र इसी को नित्यता कहते हैं। क्या? नित्यता। असली वो जो आज जैसा है कल भी वैसा ही रहेगा, बदल नहीं सकता। नकली कौन? जो आज कुछ और है और कल उसे कुछ और हो जाना है। बस यही है असली और नकली की पहचान।

प्रश्नकर्ता: वो अभ्यास से ही आएगा?

आचार्य प्रशांत: अभ्यास से आएगा या मार खाकर आता है कई बार। या तो चीज़ को खरीदने से पहले ठहर जाओ, धैर्य से जाँच लो, परख लो। ये अभ्यास करो कि जल्दी से अपनी गाँठ नहीं खोल दूँगा, जल्दी से दाम नहीं चुका दूँगा। पहले देखूँगा कि उस चीज़ में क्या मुझे आकर्षित कर रहा है, उसके बाद ही उस चीज़ को घर लाऊँगा। या तो इस चीज़ का अभ्यास कर लो, नहीं तो मार खाने का अभ्यास कर लो कि गलत चीज़ घर ले आए, अब मार पड़ रही है।

और मार कैसे पड़ती है? मार ऐसे ही नहीं पड़ती कि वो जो चीज़ थी, वो हानिकारक निकली। वो चीज़ हो सकता है कोई अपनी ओर से हानि न दे। बस आपकी जो तमन्ना थी, जिस इच्छा से उस चीज़ को आप लेकर आए थे, जो सुख आप उस चीज़ से चाहते थे, जो वादा था, वो पूरा नहीं होगा।

फिर आप चाहे उस चीज़ को ही तोड़ दो, पटक दो, उसकी भी बहुत गलती नहीं है। कई बार तो उतना कुछ पैकेट पर लिखा भी नहीं होता जितना आप पढ़ लेते हैं। अब इसमें चीज़ की क्या गलती।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने बोला कि ध्यान में रहने के बाद भीतर से मार्गदर्शन मिलता है।

आचार्य प्रशांत ध्यान में रहने के दौरान।

प्रश्नकर्ता: दौरान। तो उसको कैसे आईडेंटिफाई (पहचान करना) करेंगे?

आचार्य प्रशांत: आईडेंटिफाई नहीं करना पड़ता है। आईडेंटिफाई तो तब करना पड़ता है जब मैं कहूँ कि यहाँ इतने सारे बच्चे हैं — बताइए इसमें आपका बच्चा कौन सा है, आईडेंटिफाई करिए। जब बहुत होते हैं तब आइडेंटिफिकेशन शब्द प्रासंगिक होता है न? और एक ही बच्चा हो तो?

तो ध्यान में भीतर से जो मार्गदर्शन मिलता है, वो अकेला होता है — ठीक वैसे जैसे ध्यान का जो विषय है, ध्येय है, वो भी अकेला होता है। तो उसमें कोई विकल्प ही नहीं होता। चार-पाँच तरीके की अंदर से फिर आवाज़ें नहीं आतीं कि आपको आईडेंटिफाई करना पड़ेगा, पहचानना पड़ेगा कि असली आवाज़ कौनसी है। एक ही बचता है।

यही तो सहजता होती है। सहजता का मतलब होता है, निर्विकल्पता। सहजता का क्या मतलब है? निर्विकल्प। पाँच चुनाव थे ही नहीं कि हमें श्रम करना पड़े चुनने का। हमें तो दिखा ही बस एक — ये सहजता है।

और कंसंट्रेशन (एकाग्रता) का क्या मतलब होता है? सौ चीज़ें हैं जिसमें से हम किसी एक पर कोशिश करके केंद्रित हो रहे हैं, कंसंट्रेट कर रहे हैं। ध्यान में सौ हैं ही नहीं। एक ही है, निर्विकल्प।

प्रश्नकर्ता: इसको उदाहरण से कैसे समझेंगे?

आचार्य प्रशांत: आपने अभी पूछा, उदाहरण से ये कैसे समझेंगे। ये पूछते समय आपके पास पाँच-सात सवाल थे?

प्रश्नकर्ता: जी नहीं।

आचार्य प्रशांत: ये निर्विकल्पता है। एक ही तो सवाल था, वो पूछ लिया। अभी मैं भी आपको उत्तर दे रहा हूँ, मेरे पास क्या पाँच-सात उत्तर हैं जिसमें से एक चुनकर आपको देता हूँ? ये निर्विकल्पता है।

एकदम, सीधे ही स्पष्ट हो जाता है कि यही तो है। उसमें कोई बहस इत्यादि की गुंजाइश नहीं रहती। कोई द्वंद्व नहीं होता भीतर से कि ऐसा करूँ कि वैसा करूँ। बात रोशन है, प्रत्यक्ष है, प्रकट है।

ये आप फिर नहीं कहोगे कि मुझे अभी विचार करना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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