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सही-गलत, अच्छा-बुरा || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: गलत-सही का निर्धारण बस एक चीज़ से होता है — आप आंतरिक तौर पर हल्का अनुभव कर रहे है कि नहीं। कर रहे है — इसी से समझ लीजिए न (पानी का ग्लास उठाते हैं)। अगर इसकी आदत है अपने में जोड़ते ही रहने की, चिपकते ही रहने की तो हर बीतते दिन के साथ ही कैसे होता जाएगा? भारी।

तो आंतरिक तौर पर आपकी प्रगति हो रही है या नहीं हो रही है, उसका एक अच्छा मापदंड होता है, आंतरिक हल्कापन।

बहुत सारी पुरानी चीज़ें, वो सताती है कि नहीं; आगे का डर लगता है कि नहीं लगता है; एक काम को करते वक्त सौ तरीक़े से दायें-बायें सोचना पड़ता है कि नहीं सोचना पड़ता है — यह सब बातें है। तो उसके अलावा कोई और उसमें उसका लिटमस टेस्ट हो नहीं सकता।

प्र: यही हो रहा है।

आचार्य: और भी होते हैं लक्षण। पर अनुभव से यह लक्षण सबसे स्पष्ट लगता है पता चल जा है।

प्र: हमारे पास विकल्प है और चुनाव है। जो चुनाव हमें दिन प्रतिदिन करने पड़ते हैं तो क्या उन चुनाव, यानी कि जो कर्म हम करते हैं उसका स्रोत चेक करना, उसका सोर्स चेक करना कि वह कहाँ से आ रहा है, क्या वह मुक्ति की तरफ़ लेकर जा रहा है या नहीं लेकर जा रहा, उसमें काफ़ी कंफ्यूजन (भ्रम) हो जाती है एक टाइम पर।

आचार्य: बहुत सारी छोटी-छोटी बातें हैं जो इशारा दे देंगी आपको। आज जिसकी तरफ़ बढ़ रहे है, उसमें आपको मुक्ति के कितने लक्षण दिख रहे हैं? आप जो करने जा रहे हैं उसको करने में डर का कितना योगदान है? आप समझ भी पा रहे हैं क्या हो रहा है?

दूसरा आपको जिस चीज़ से प्रभावित कर रहा है, वो वास्तव में क्या है? आपके भीतर कौन सा बिंदु, कौन-सा बटन दबा रहा है दूसरा वाला? सच पूछिये तो थोड़ा-सा अभ्यास हो जाने पर, तुरंत पता चल जाता है कि भीतर कुछ गड़बड़ हो रही है। शांति का अभ्यास और भीतर गड़बड़ होती नहीं है कि पता चल जाता है कि अभी जो कर रहा हूँ, उससे भीतर हलचल मची है — कहीं कुछ गलत कर रहा हूँ। नीयत शांत होने की होनी चाहिए ।

जो चीज़ आपके भीतर हलचल मचा दे या आपकी चेतना को नीचे गिराने लग जाये, वह चीज़ आपके लिए अच्छी नहीं हो सकती। लेकिन इसका अभ्यास करना पड़ेगा धीरे-धीरे। फिर पता चलने लग जाता है, ख़ुद ही, छोटे-छोटे कामों में ही कि कौन-सा काम नहीं होना चाहिए था और हो गया। उसके बाद उसको पलट सकते हो तो पलट दो, नहीं पलट सकते तो आगे के लिए सीख ले लो ।

प्र: इसमें आचार्य जी आपने एक वीडियो आपने ये भी बताया था कि नज़र जो है, वह बहुत कमाल की चीज़ होती है। अगर आप एक बार देख लो तो जो नक़ली है वह जल जाएगा। तो शायद यही वो चीज़ है?

आचार्य: देख लो माने नक़ली को नक़ली जान लो। कोई भी चीज़ आपको आकर्षित नहीं कर सकती है अगर आपको पता है कि वो नक़ली है। नक़ली से मेरा आशय क्या है? असली से मेरा आशय क्या है? असली माने वो जो आपको सुख देता हो या कम-से-कम सुख का वादा करता हो। नक़ली माने वो जो वादा तो करता है पर मुकर जाएगा या तोड़ देगा वादा — उसे नक़ली बोलते हैं। वैसे ही जैसे कोई भी चीज़ बाज़ार की असली या नक़ली आप कैसे जानते हो ?

कोई भी चीज़ अगर बाज़ार में मौजूद है तो उसके डब्बे पर ये तो लिखा ही होगा न कि इसमें ऐसे गुण है, इससे आपको ये चीज़ें मिलेगी, इससे आपको ये फायदे होंगे, इसमें ये-ये खूबियां है — ये सब तो लिखा ही होता है न? तो फिर आप नक़ली कैसे घोषित कर देते हो किसी भी चीज़ को बताओ?

दो पैकेट मिल रहे हैं बाज़ार में किसी भी चीज़ के। और पैकेट दोनों वादा कर रहे हैं कि आप मुझे ले लो और उससे आपको इस-इस तरीक़े के आपको लाभ होंगे, लाभ माने सुख। आप कोई भी चीज़ लेते हो, दुख के लिए तो लेते नहीं। लाभ माने सुख का ही तो लाभ। तो दोनों ही कह रहे हैं ये-ये चीज़ मिलेगी। अब आप किस आधार पर कह देते हो कि उसमें से एक चीज़ नक़ली है और एक चीज़ असली है?

जो आपको वो दे-दे जिसका उसने वादा करा था, वो असली है। जो अभी कहे कि सुख दूँगा और बाद में दे दुख, उसको कहते हैं नक़ली। तो जो चीज़ समय के साथ अपना चेहरा बदल दे उसको कहते हैं नक़ली। शास्त्र इसी को नित्यता कहते हैं। क्या? नित्यता।

असली वह जो आज जैसा है, कल भी वैसा ही रहेगा, बदल नहीं सकता। नक़ली कौन? जो आज कुछ और है और कल उसे कुछ और हो जाना है। बस यही है असली और नक़ली की पहचान।

प्र: अभ्यास से आएगा ?

आचार्य: अभ्यास से आएगा या मार खाकर आता है कई बार। या तो चीज़ को ख़रीदने से पहले ठहर जाओ, धैर्य से जाँच लो, परख़ लो। ये अभ्यास करो कि जल्दी से अपनी गांठ नहीं खोल दूँगा, जल्दी से दाम नहीं चुका दूँगा। पहले देखूंगा कि उसे चीज़ में क्या मुझे आकर्षित कर रहा है, उसके बाद ही उसे चीज़ को घर लाऊँगा। या तो इस चीज़ का अभ्यास कर लो, नहीं तो मार खाने का अभ्यास कर लो कि गलत चीज़ घर ले आये, अब मार पड़ रही है।

और मार कैसे पड़ती है? मार ऐसे ही नहीं पड़ती कि वो जो चीज़ थी, वो हानिकारक निकली। वह चीज़ हो सकता है कोई अपनी ओर से हानि न दे। बस आपकी जो तमन्ना थी, जिस इच्छा से उस चीज़ को आप लेकर आए थे, जो सुख आप उस चीज़ से चाहते थे, जो वादा था, वह पूरा नहीं होगा ।

फिर आप चाहे उसे चीज़ को ही तोड़ दो, पटक दो, उसकी भी बहुत गलती नहीं है। कई बार तो उतना कुछ पैकेट पर लिखा भी नहीं होता जितना आप पढ़ लेते हैं। अब इसमें चीज़ की क्या गलती?

प्र: आचार्य जी आपने बोला कि ध्यान में रहने के बाद भीतर से मार्गदर्शन मिलता है।

आचार्य: ध्यान में रहने के दौरान ।

प्र: दौरान। तो उसको कैसे आईडेंटिफाई (पहचान करना) करेंगे ?

आचार्य: आईडेंटिफाई नहीं करना पड़ता है। आईडेंटिफाई तो तब करना पड़ता है जब मैं कहूँ कि यहाँ इतने सारे बच्चे हैं — बताइए इसमें आपका बच्चा कौन सा है, आईडेंटिफाई करिए। जब बहुत होते हैं तब आइडेंटिफिकेशन शब्द प्रासंगिक होता है न? और एक ही बच्चा हो तो?

ध्यान में भीतर से जो मार्गदर्शन मिलता है, वो अकेला होता है — ठीक वैसे जैसे ज्ञान का जो विषय है, ध्येय है, वह भी अकेला होता है तो उसमें कोई विकल्प ही नहीं होता। चार-पाँच तरीक़े के अंदर से फिर आवाज़ें नहीं आती कि आपको आईडेंटिफाई करना पड़ेगा, पहचानना पड़ेगा कि असली आवाज़ कौन सी है। एक ही बचता है।

यही तो सहजता होती है। सहजता का मतलब होता है, निर्विकल्पता। सहजता का क्या मतलब है? निर्विकल्प। पाँच चुनाव थे ही नहीं कि हमें श्रम करना पड़े चुनने का। हमें तो दिखा ही बस एक — यह सहजता है।

और कंसंट्रेशन (एकाग्रता) का क्या मतलब होता है? सौ चीज़े हैं जिसमें से हम किसी एक पर कोशिश करके केंद्रित हो रहे हैं, कंसंट्रेट कर रहे हैं। ध्यान में सौ है ही नहीं। एक ही है, निर्विकल्प ।

प्र: इसको उदाहरण से कैसे समझेंगे?

आचार्य: आपने अभी पूछा उदाहरण से ये कैसे समझेंगे। यह पूछते समय आपके पास पाँच-सात सवाल थे?

प्र: नहीं ।

आचार्य: यह निर्विकल्पता है। एक ही तो सवाल था, वो पूछ लिया। मैं भी आपको उत्तर दे रहा हूँ, मेरे पास क्या पाँच-सात उत्तर है जिसमें से एक चुनकर आपको देता हूँ? यह निर्विकल्पता है।

एकदम सीधे ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यही तो है। उसमें कोई बहस इत्यादि की गुंजाइश नहीं रहती। कोई द्वंद नहीं होता भीतर से कि ऐसा करूँ कि वैसा करूँ। बात रोशन है, प्रत्यक्ष है, प्रकट है।

यह आप फिर नहीं कहोगे कि मुझे अभी विचार करना है।

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