प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। पहले मैं आपको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ कि मैं आपको लगभग छह महीने से मैं सुन रहा हूँ और मुझे बहुत फ़ायदा हुआ है।
मैं आगे बढ़ते हुए पूछना चाहता हूँ कि हमें हमेशा कुछ-न-कुछ चुनाव करना होता है कि ये करें या तो ये करें। हमें बहुत बार पता नहीं होता है कि क्या सही है, क्या ग़लत है। कभी-कभी ग़लत भी सही समझ कर चुनाव कर लेते हैं, कभी सही चुनाव करते हैं। लेकिन हम कैसे पता करें कि हाँ ये चीज़ सही है, मतलब जो हम चुनाव कर रहे हैं वो हमारे लिए सही है?
तो इसमें बहुत उलझन रहती है। मतलब जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊँचा-से-ऊँचा स्थान प्राप्त करने के लिए कैसे सही चुनाव करें?
आचार्य: आप बहुत प्यासे हैं — आप बहुत प्यासे हैं और आपके सामने दो दुकानें हैं। एक दुकान है जहाँ पर साधारण, सादा पानी हज़ार रुपए प्रति ग्लास के हिसाब से मिल रहा है, लूट रहे हैं बिलकुल। साधारण सादा पानी हज़ार रुपए प्रति ग्लास के हिसाब से मिल रहा है, और दूसरी दुकान है जहाँ हीरे-मोती मुफ़्त मिल रहे हैं।
आप बहुत प्यासे हैं। और एक दुकान है जहाँ हीरे-मोती भी, बिलकुल असली, खरे हीरे-मोती भी मुफ़्त मिल रहे हैं। और एक दुकान है जहाँ पर कुछ नहीं, बिलकुल साधारण पानी आपको मिल रहा है और वो कह रहा है, ‘हज़ार रूपए का, और थोड़ा ठंडा वाला चाहिए तो पाँच हज़ार का, और उसमे थोड़ा सा शर्बत बनाकर चाहिए तो दस हज़ार का।‘ खुली लूट है।
बताओ किधर को जाओगे?
प्र: पानी वाली दुकान पर जाऊँगा।
आचार्य: लुटने का शौक है? क्यों जाओगे?
प्र: अगर प्यास लगे तो पानी वाली दुकान पर तो जाना पड़ेगा। सोने के दुकान जाने का तो कोई फ़ायदा नहीं है।
आचार्य: चलो, अब मैं स्थिति में से बस एक चीज़ हटा देता हूँ, ठीक है? तुम्हारा जो इधर गले का (गले की तरफ़ संकेत करते हुए) नर्वस सिस्टम है — इधर का जो स्नायु तंत्र है वो हो गया किसी वजह से ख़राब। तुमको पता ही नहीं तुम्हें प्यास लगी है। हालाँकि तुम्हारे शरीर से कई और तरह के सन्देश आ रहे हैं जो बता रहे हैं कि पानी की कमी है।
जब पानी की कमी होती है न शरीर में तो बस प्यास ही नहीं लगती, और भी जो अंग होते हैं उनका भी काम-काज ख़राब होने लगता है। तो वो सब बता रहे है कि भई, पानी की कमी है लेकिन पता नहीं चल रहा सीधे-सीधे कि प्यास लगी है।
और आदमी हो लालची, लालची भी हो और कंजूस भी हो और अपना कुछ पता नहीं है कि प्यास लगी है। अब बताओ दोनों में से किस दुकान में जाओगे? स्थिति वही पुरानी है — एक तरफ़ पानी महँगे दाम मिल रहा है और दूसरी तरफ़ हीरे मोती मुफ्त मिल रहे हैं। बस स्थिति में एक चीज़ बदल गयी है, अब तुमको ये पता नहीं कि तुम प्यासे हो। अब बताओ कौनसी दुकान चुनोगे?
प्र: वो जहाँ फ्री में सामान मिल रहा है, जहाँ फ्री में हीरे मोती मिल रहे हैं।
आचार्य: तो ये बात है, सारे निर्णय ग़लत हो जाते हैं जब ये नहीं पता होता की निर्णेता कौन है। जब अपनी हालत नहीं पता तो बहुत आसान होता है हीरे-मोती की चकाचौंध में आ जाना। और ये बात देखो कितनी ज़्यादा तार्किक, लॉजिकल लगती है कि यार फ्री में डायमन्ड्स मिल रहे हैं तो मैं क्यों नहीं ही लूँगा।
और नकली डायमंड्स नहीं हैं, लोग ऐसे ही तो बोलते हैं न, लॉजिक यही तो चलता है, बोलते हैं फ्री में असली डायमन्ड्स मिल रहे हैं तो मैंने ले लिए या सस्ते मिल रहे हैं, जो भी है। और कोई पागल ही होगा जो जाएगा वहाँ जो पानी दे रहा है, और उसके पास पानी के अलावा कुछ है नहीं, वो भी इतना महँगा पानी दे रहा है। मैं क्यों जाऊँगा?
और ये बात कितनी ज़्यादा सही, तार्किक नहीं है? सिर्फ़ किस तत्व के अभाव में? उसे बोलते हैं आत्मज्ञान।
जब आप ख़ुद को नहीं जानते तो आपका हर फ़ैसला ग़लत होता है, और ऊपर-ऊपर से यही लगता है कि फ़ैसला बिलकुल सही कर रहे हैं।
क्योंकि कौन कहेगा कि मुफ्त के हीरे-मोती उठाना बेवकूफ़ी का काम है? बिलकुल सही लग रहा है न काम ऊपर-ऊपर से?
तो ये इस काम में बस एक सवाल ही पूछा गया है कि हीरे-मोती किसके लिए (फॉर हूम)। यही वेदान्त का केन्द्रीय प्रश्न होता है — फॉर हूम? प्यासा क्या करेगा हीरे-मोती का, प्यासा क्या करेगा हीरे मोती का?
हमें ये नहीं पता न हमको किसकी प्यास है। हमें हीरे-मोतियों की नहीं प्यास है, हमें जिस पानी की प्यास है हमें उसकी तरफ़ जाना चाहिए। और उस पानी की तरफ़ तो प्यास का ज्ञान है, वो ही भेजता है न?
तो ख़ुद को जानना है, ख़ुद को जानना माने ये थोड़े ही जानना है कि भीतर एक आत्मा बैठी है, वो छोटी सी होती है, अंगूठे बराबर होती है, उसमें से नीले रंग की आभा विस्तीर्ण होती है। ये सब थोड़े ही है आत्मज्ञान।
आत्मज्ञान का यही मतलब है जानना कि हालत क्या है अपनी।
प्यास लगी है, और प्यास लगी है तो हीरे-मोती मुफ्त मिल रहे तो क्या करूँगा? वहाँ जाकर मर थोड़ी जाऊँगा। दुनिया की किसी भी चीज़ का मूल्य मेरे संदर्भ में है न, (विद रिस्पेक्ट टू मी) हीरा अपनेआप में कोई मूल्य नहीं रखता, कोई रखता है मूल्य?
हीरे का मूल्य तो मेरे सन्दर्भ में है न? मैं जो हूँ, अगर मेरे लिए मूल्यवान है हीरा तो मूल्य है। हीरा अगर मेरे लिए नहीं मूल्यवान है तो क्या मूल्य हीरे का? कुछ नहीं। और प्यासे के लिए हीरे का क्या मूल्य है? प्यासे के लिए तो पानी का मूल्य है। दुनिया के लिए होगा हीरे का मूल्य, प्यासे के लिए तो पानी का ही मूल्य है न?
हमें नहीं पता होता हम प्यासे हैं, क्यों? क्योंकि हम ख़ुद को देखते नहीं, क्यों? क्योंकि हम लालची भी तो हैं, और कंजूस भी तो हैं। तो बताने वालों ने कहा था कि आत्मज्ञान के लिए कुछ शर्तें होती हैं, उन शर्तों में ये दो चीज़ें भी होती हैं — भाई, लालच थोड़ा कम करो, भाई दिल थोड़ा बड़ा रखो।
जिसको लालच बहुत होगा उसको खूब प्यास लग रही होगी, वो हीरे-मोती देखेगा, वो अपनी प्यास भूल करके हीरे-मोती पर टूट पड़ेगा। उसको जो ही चीज़ महँगी दिखेगी वही चीज़ उठा लेगा, बिना ये पूछे कि उस चीज़ का मेरे लिए क्या महत्व है। दुनिया कहती होगी कि फ़लानी चीज़ बहुत ज़रूरी है, मैं उसका क्या करूँगा?
मैं पढ़ाई कर रहा हूँ, मैं पढ़ाई कर रहा हूँ और मैं इंसान वो हूँ जिसको मिट्टी से जुड़े काम बेहतर लगते हैं। मैं यहाँ कुछ खड़ा करना चाहता हूँ भारत में। दुनिया की दृष्टि में ये बेहतर है कि अमेरिका चले जाओ, वहाँ पर आगे कुछ करो, पढ़ाई करो, फिर करियर बनाओ, ये करो। वो चीज़ अपनेआप में बहुत अच्छी होगी, दुनिया को वो बात हीरे-मोती जैसी लगती होगी, पर मैं कौन हूँ? मैं तो प्यासा हूँ। तो वो सब मेरे किस काम का।
मैं ये नहीं कह रहा कि वो चीज़ ख़राब है, मैं कह रहा हूँ वो चीज़ मेरे लिए अनुपयोगी है। अपनेआप में उस चीज़ की कुछ होगी महत्ता, दूसरों के लिए होगी उस चीज़ की कुछ महत्ता मेरे लिए वो चीज़ कोई महत्व नहीं रखती। तो पहले तो ये पता चले कि हमारी प्यास क्या है।
उसके लिए अपने कर्मों को देखना पड़ता है, अपने विचारों को देखना पड़ता है। किधर को जा रहे हो, क्या चाह रहे हो, उस पर ज़रा नज़र रखनी होती है। और ये जो नज़र रखी जाती है, किसी पुलिस वाले की तरह नहीं रखी जाती, किसी वैज्ञानिक की तरह रखी जाती है। पुलिस वाला नज़र रखता है खोट निकालने के लिए, धर-पकड़ने के लिए, इल्ज़ाम लगाने के लिए, और वैज्ञानिक नज़र रखता है जानने के लिए; आप स्वयं को जानना चाहते हो इसलिए अपनेआप पर एक सजग दृष्टि रखते हो सदा।
उससे अपनी प्यास का पता चलता है कि मैं चाह क्या रहा हूँ। ‘जो चेतना है भीतर मेरी, ये क्या बुदबुदाती रहती है? सपनों में जितने चरित्र आते हैं उन सबके पीछे से कौन है जो कुछ समझाना चाह रहा है? भीतर कहीं कुछ अनसुलझा बैठा हुआ है!’ और सबके भीतर जो अनसुलझा बैठा हुआ है वो मूल में एक होने के बावजूद अपने रूप में, अपने आकार में, अपने व्यक्तित्व में अलग-अलग है।
तो जीवन का उद्देश्य है भीतर की उस गाँठ को खोलना, प्यास को मिटाना। और तुम्हारी प्यास मेरी प्यास से कम-से-कम नाम, रूप, आकार में तो अलग है ही मूलत:। तो एक ही प्यास है — मुक्ति की प्यास। लेकिन उस मुक्ति तक जाने के सबके रास्ते सबको स्वयं ही तलाशने पड़ते हैं। दूसरों की नकल करके आप कहीं नहीं पहुँच सकते। दूसरों की नकल करके तो वही होगा कि पानी की दुकान में कोई नहीं खड़ा होगा और हीरे-मोतियों के आगे कतार लम्बी होगी।
जो भी जीवन में निर्णय लेना हो उस निर्णय के लिए भीतर से जो भी तर्क, लॉजिक उठ रहा हो, अपनेआप से पूछना उस लॉजिक में मेरी माँग शामिल है या नहीं है। या बस यही शामिल है कि कौनसी चीज़ दुनिया में कितनी महँगी कहलाती है?
दुनिया में कौनसी चीज़ कितनी महँगी है, उससे कहीं बहुत ज़्यादा महत्व इस बात का है कि तुम्हें क्या चाहिए। तुम्हें क्या चाहिए — तुम महँगी दवाई लेना चाहते हो या उपयोगी दवाई लेना चाहते हो? उपयोगी, है न? क्या किसी दवाई को तुम सिर्फ़ इसलिए ठुकरा दोगे कि वो सस्ती है?
हवा तो फ्री मिल रही है तो फिर तो बिना किसी क़ीमत की होगी! दुनिया ने तो हवा पर कोई अभी मूल्य रखा ही नहीं है। धीरे-धीरे रख रहे हैं, हवा साफ़ करने के यन्त्र आने लगे हैं महँगे। जिन जगहों पर साफ़ हुआ है वहाँ पर होटल महँगे होने लगे हैं, ज़मीन महँगी होने लगी है।
लेकिन कोई चीज़ तुम्हारे लिए सिर्फ़ इसलिए मूल्यवान नहीं हो जाती कि दुनिया उसको क़ीमती समझती है, और जो चीज़ तुम्हारे लिए बहुत क़ीमती हो, बल्कि अनिवार्य हो, बहुत सम्भावना है कि दुनिया उसको बिलकुल भी महत्व न देती हो। लेकिन दुनिया किसी चीज़ को महत्व नहीं देती इसलिए वो तुम्हारे ठुकराने की थोड़े ही हो गयी; तुम तो स्वीकार करो न।
एक पुरानी बहुत साधारण सी कहानी चलती है कि एक गाँव में महिला हुआ करती थी और वो इतनी लालची थी कि अपने पति से बोले कि मुझे भारी-भारी गहने दिलवाओ, भारी-भारी गहने दिलवाओ। और जितना वो उसको बोले भारी गहने दिलवाओ, उतना वो उसका पति का प्रेम जो है, खोती चली जाए। और पति उसको भारी गहने ले आता था, तो ये जो कानो में लटकाने वाले बूंदे होते हैं, पति को बोले और भारी लाओ और भारी लाओ। उसका भार वो बढ़ाती गयी, बढ़ाती गयी; अन्ततः उनका भार इतना हो गया कि उन्होंने उसके कान ही फाड़ दिये। इतने भारी हो गये कि कान ही फाड़ दिये।
लेकिन वो इसी बात में खुश थी कि देखो मुझे इतनी महँगी चीज़ मिल गयी। अब वो दो तरफ़ से गयी — एक तरफ़ तो वो जो तुझे महँगी चीज़ मिली वो तेरे किसी काम की नहीं है, उसने तेरे कान फाड़ दिये, और दूसरा पति का प्रेम भी तूने गँवा दिया।
तो यही मत देखो कि जो चीज़ आप माँग रहे हो वो दुनिया की नज़र में महँगी है या नहीं है; ये देखो आपको उसकी कोई ज़रूरत है क्या। दुनिया को लगती होगी वो चीज़ बड़ी प्यारी, बड़ी मूल्यवान, आपको उसकी कोई ज़रूरत है क्या? और ऐसा तो नहीं है कि इन व्यर्थ की चीज़ों को माँगने में आप बहुत केन्द्रीय चीज़ गँवाए दे रहे हो?
‘सबकी इतने की जॉब लग रही है, मेरी भी लगनी चाहिए।‘ ‘डिपार्टमेंट में पाँच लोगों ने गर्लफ्रेंड बना ली तो मेरी भी तो होनी चाहिए न!’ तुम अपनेआप से पूछो तुम्हें उस चीज़ की ज़रूरत भी है? ठीक है। कैंपस में इस तरह की हवा रहती है और संस्कृति भी ऐसी है कि जोड़ों में जो घूम रहे हैं, दुनिया उनको देखती रहती है, ‘वाह!’
पर तुम अपनेआप से पूछो, क्या सचमुच चाहिए? चाहिए तो अच्छी बात है, जाओ तुम भी बनाओ जोड़ा। लेकिन सिर्फ़ इसलिए नहीं कि कुछ लोगों की है तो मेरी भी होनी चाहिए। तुम अलग हो, तुम स्वतन्त्र हो। तुम्हारी माँग अलग है, तुम्हारी अपनी एक यात्रा है, तुम उसका ख़याल करो।
प्र: मैं इसमें एक प्रश्न और जोड़ना चाहता हूँ, आचार्य जी, अगर आज्ञा हो तो। जैसे आपने जो बोला कि ठीक है, हमें ख़ुद से पूछना है कि जो हमारे लिए सही है उसका चुनाव करना है। लेकिन कभी जैसे आधे घंटे के लिए हम ख़ुद को समझा लेते हैं कि हाँ ये हमारे लिए सही है, ये हम कर सकते हैं।
फिर हमें रहना तो एक समाज में है, फिर हम समाज में जाते हैं, लोगों को देखते हैं, फिर दिमाग में वही बातें आती है कि हाँ, ये लोग ऐसा कर रहे हैं तो हमें भी करना चाहिए। हमने भले ख़ुद को अकेले में समझाया है लेकिन फिर वो समाज में जब लोगों को देखते हैं, चीज़ों को देखते हैं तो लगता है कि हाँ, हमें भी करना चाहिए। तो फिर इन चीज़ों से कैसे बचा जाए?
आचार्य: सारी बीमारियाँ ज़्यादा फ़ुर्सत की वजह से होती हैं। जब ज़्यादा फ़ुर्सत होती है न तो आदमी की नज़रें बहकने लगती हैं। फिर इधर-उधर देखने लगता है कि दूसरे लोग क्या कर रहे हैं। आपके पास या तो आपका प्रेम हो, और अगर अभी प्रेम नहीं है तो प्रयोग हो। प्रेम का मतलब है वो मिल गया जिसका साथ देना है, जिस काम में डूबे रहना है। और प्रयोग का मतलब अभी मिला नहीं है पर खोज घनी है और मिला नहीं है इसीलिए खोज बहुत-बहुत घनी है; तेज़ी से खोज रहे हैं, अभी मिला नहीं है। दोनों ही स्थितियों में आपके पास फ़ुर्सत कैसे होगी इधर-उधर जाकर के कहीं दूसरों को देखने की, और दिल जलाने की और कहने की कि अरे वो इधर जा रहा है वो उतना कमा रहा है, मेरा तो अभी हुआ नहीं — ये सब सोचने की फ़ुर्सत कहाँ से आ गयी?
देखो, सारी दिक्क़त वहाँ से शुरू हो जाती है जहाँ से आपको बहुत पूर्व निर्धारित लक्ष्य दे दिये जाते हैं। ये हमारी शिक्षा और हमारी जो पूरी परवरिश है ये उसकी खोट है। आपको सदा वो काम करने को कहा जाता है जिसका अनुमोदन दूसरों से हो, जिसमें दूसरे आपकी तारीफ़ करें।
नतीजा ये निकलता है कि आप जब बड़े होते हो तब तक आपने अपना भीतरी फैकल्टी , भीतरी अपनी ताकत लगभग गँवा दी होती है। कोई आपसे पूछे कि आपको क्या करना चाहिए तो आपके पास भीतर देख करके जवाब देने का कोई विकल्प ही नहीं बचता। जब तक आप थोड़े बड़े होते हो, आपके पास बस एक रास्ता बचता है कि देखो कि सब लोग क्या कर रहे हैं और आप उनको देख के बोल दो ‘हाँ, ये मुझे भी करना है। दुनिया जिस चीज़ को सही समझती है मुझे भी वो चाहिए, दुनिया जिस चीज़ को क़ीमती समझती है मुझे भी वो कमानी है। दुनिया जिस राह चल रही है मुझे भी उसी के पीछे पीछे चल देना है।’
और इसकी शुरुआत हो जाती है जब आप दो-तीन साल के होते हैं। छोटे होते हो तभी इसे कैसे पता चलता है? कि देखा जाता है आपने पढ़ाई अच्छे से करी है, देखा जाता है आपने बाक़ियों को पीछे छोड़ा कि नहीं छोड़ा।
खेल भी हमारे सारे ऐसे ही हैं। बच्चे खेलते हैं, उन खेलों में भी यही होता है अच्छा खिलाड़ी वही है जो बाक़ियों से बेहतर खेल कर रहा है। या कि कुछ दो-चार क्षेत्र होते हैं, उनमें कर लो कि हाँ भई, आप नाटक अच्छा कर लेते हो, ये वक्ता अच्छा है। और जो भी क्षेत्र लिया जाता है उसमें पहली बात तो आपकी क्षमता का, आपके स्थान का निर्धारण दूसरों से तुलना करके किया जाता है।
और दूसरी बात, जो क्षेत्र होते हैं वो भी पहले से ही निर्मित क्षेत्र होते हैं, निर्धारित क्षेत्र होते हैं। आप उन क्षेत्रों के अलावा कुछ और करने लग जाएँ तो कोई प्रोत्साहन नहीं मिलने वाला आपको। तो जब तक वो बच्चा दस-बारह साल का होता है या पन्द्रह-बीस साल का होता है, तब तक उसमें कोई क़ाबिलियत बचती ही नहीं है।
उससे किसी भी स्थिति में पूछा जाए क्या सही है, तो वो अतीत की ओर मुड़कर देखेगा कहेगा, ‘दूसरे लोग जब इस स्थिति में थे तो उन्होंने क्या करा, वही सही होगा।’ या वो इधर-उधर ऐसे नज़रें घुमाएगा, देखेगा, ‘अच्छा, अभी दूसरे लोग क्या कर रहे हैं। जो कर रहे होंगे वही सही होगा।‘ निजता, मौलिकता, ऑथेंटिसिटी, इंडिविजुआलिटी — ये सब एकदम ख़त्म हो चुके होते हैं।
फिर उसको जगाना पड़ता है बड़ी मुश्किल से। नहीं तो अगर मुझे अपना हिसाब-किताब पता है, ऐसा कैसे होगा कि मैं यूँही दूसरे लोगों की कतारों में जाकर पीछे खड़ा होना शुरू करूँ? मैं करूँगा ही नहीं।
एक कतार लगी हुई है फ़लानी चीज़ कमाने की, एक कतार लगी हुई है कहीं पहुँच जाने की, एक कतार लगी हुई है ये दिखाने की, वो दिखाने की, कुछ करने की। मैं इन कतारों में कैसे लग सकता हूँ?
पहले, अब तो सब ऑनलाइन हो गया है, पहले रेलवे रिजर्वेशन सेंटर (रेल आरक्षण केन्द्र) होते थे तो आप अभी अपनी ट्रेन से उतरे हो रेलवे स्टेशन पर, रिजर्वेशन सेंटर है। और आप कौन हो? अभी-अभी स्टेशन पर उतरे अपनी ट्रेन से। वहाँ से आपको कहाँ जाना है? आप जब ट्रेन से उतरते हो तो ट्रेन से उतर के आप कहाँ जाते हो? आपको अपने घर जाना है। आप बस अभी अपने कोच से उतरकर प्लेटफार्म से बाहर की ओर आ रहे थे और सामने पड़ा, क्या? रिजर्वेशन काउंटर। वहाँ कतारें लगी हुई हैं तो आप ऐसा कहते थे क्या कि अरे ये यहाँ पन्द्रह कतारे हैं, और एक-एक कतार में पचास-पचास लोग खड़े हैं, ज़रूर कोई बहुत महत्वपूर्ण काम हो रहा होगा, चलो मैं भी यहाँ खड़ा हो जाता हूँ’?
ऐसा करते थे क्या? क्यों नहीं करते थे? पचास-पचास लोग खड़े हैं, इतनी कतारें और बड़े अनुशासन से खड़े हैं, कोई डिग नहीं रहा। बल्कि कोई बीच में आगे लग जाए तो मारा-मारी हो जाए। आप क्यों नहीं जाकर खड़े हो जाते थे? क्यों नहीं खड़े हो जाते थे?
प्र: क्योंकि घर जाना है, हमें पहले से पता है कि...
आचार्य: हाँ, घर जाना है, क्योंकि घर जाना है, है न? कितना कॉमेडी जैसा लगेगा न हम इसको एक नाटक में दिखाएँ लोगों को अभिनीत करके कि एक आदमी है जो पाँच सौ किलोमीटर की जर्नी करके आया है, उसे घर जाना है। और घर जाने के लिए बाहर ही निकल रहा था रेलवे स्टेशन से कि सामने देखा कि वहाँ रिजर्वेशन काउंटर पर कतारें लगी हैं। तो बोलता है ‘अरे यहाँ ज़रूर कुछ बहुत ज़रूरी काम चल रहा है, मैं भी जाकर कतार में लग जाता हूँ’, तो सब लोग हँसेंगे और मज़ाक बनाएँगे कि कितना बेवकूफ़ आदमी है।
लेकिन हम सब यही तो कर रहे हैं, ज़िन्दगीभर घर जाने की जगह कतारों में खड़े हो रहे हैं और आप कतार में खड़े होकर क्या करोगे? जल्दी बताओ क्या करोगे?
प्र: इंतज़ार करेंगे।
आचार्य: इंतज़ार करोगे, इंतज़ार करोगे तो टिकट मिल जाएगा, टिकट मिल जाएगा तो ट्रेन में बैठ जाओगे, ट्रेन में बैठ जाओगे तो ट्रेन फिर कहीं उतार देगी। जब ट्रेन कहीं उतार देगी तो वहाँ भी उतर करके किसी घर को जाने की जगह आप फिर से किसी ट्रेन में बैठोगे, कतार में लग जाओगे।
तो सब भूल ही गये न कि घर जाना है। घर से एक प्यार होना चाहिए, घर का इंतज़ार होना चाहिए। वही चीज़ इंसान को इंसान बनाती है।
एक पशु को सिर्फ़ खाने का और सोने का और सेक्स का इंतज़ार होता है, उसे कोई और इंतज़ार नहीं होता। इंसान अकेला है जिसे घर का इंतज़ार होता है। मैं कौनसे घर की बात कर रहा हूँ? ऊपर उठने का या फिर ये जो घर जिसमें माँ-बाप रहते हैं? उस घर का नहीं।
अपनेआप को ऊपर उठाने का मतलब वही आत्मा से परमात्मा वाला। इंसान अकेला है जिसे घर जाना होता है और घर के रास्ते में क्या दिख जाती है? बाज़ारें, कतारें, हीरे-मोती, पचास और चीज़ और घर से कोई मोहब्बत है नहीं; घर पर जिससे मिलना है उसकी कोई प्रतीक्षा है नहीं। तो एक के बाद एक कतारों में लगे रहते हो, टिकट कटाते रहते हैं कटा-कट, कटा-कट, पहुँचते कहीं नहीं।
एक सुलझे हुए आदमी की एक पहचान बताता हूँ — बहुत सारी चीज़ें होंगी जिनको बोल देगा ‘पर मुझे चाहिए ही नहीं।‘ वो बड़ी आकर्षक चीज़ें होंगी, हर कोई उनके पीछे भाग रहा होगा पर वो सहज ही बोल देगा, ‘मुझे तो ये लेकिन चाहिए ही नहीं।‘
मैं इनका त्याग नहीं कर रहा। ऐसा कुछ नहीं कि विरक्ति, वैराग वग़ैरह; कुछ भी नहीं है। न त्याग की कोई बात है, कुछ भी नहीं। बस ये मुझे चाहिए ही नहीं, चाहिए ही नहीं। और कितनी सहज बात है — ये मुझे चाहिए ही नहीं, नहीं चाहिए।
इंसान ही ऐसा है जिसे सबकुछ चाहिए। उसे कुछ पता ही नहीं उसे क्या चाहिए इसलिए उसे सबकुछ चाहिए। और जब आप ऐसे हो जाते हो जिसको बहुत निश्चित होता है कि होगी दुनिया के लिए, ज़माने के लिए बड़ी क़ीम,त मुझे नहीं चाहिए, तभी ऐसे भी हो जाते हो कि जो चीज़ आपको चाहिए उसके पीछे आप प्रण-प्राण से पड़ पाते हो।
फिर जो चाहिए उससे मुझे कोई नहीं डिगा सकता। फिर आपके संकल्प में एक अमर शक्ति होती है, फिर कोई नहीं काटेगा आपकी तय की हुई चीज़ को।
किसी ऐसे से मिलना जो किसी भी चीज़ को साफ़ कह ही न पाए कि मुझे चाहिए ही नहीं। वो हर चीज़ में सोचे ‘अच्छा चलो, अगर मुफ्त मिल रही है तो ले लेंगे’, तो जान लेना कि ये आदमी कुछ अभी जीवन के बारे में और अपने बारे में जानता नहीं है।
सुलझे हुए आदमी की निशानी यही है, न जाने कितनी ऐसी चीज़ होगी जो उसे मुफ्त भी मिल रही होंगी, तो बोलेगा ‘चाहिए ही नहीं। बात दाम की नहीं है, मुझे चाहिए नहीं; मुफ़्त भी मिल रही हो तो भी नहीं चाहिए।‘
प्र: बहुत-बहुत धन्यवाद, आचार्य जी। बहुत अच्छा लगा। आगे मैं इसका अनुसरण करने का प्रयास करूँगा।