वक्ता: सवाल ये है कि अगर कोई हमारे साथ दुर्व्यवहार कर रहा है और मैं उसको एक समुचित जवाब ना दूँ, तो काफ़ी संभव है कि वो मेरे साथ और भी ज्य़ादा दुर्व्यवहार करेगा, उसका हौंसला बढ़ जायेगा, और मेरे लिए वो और मुसीबत खड़ी करेगा।
चेतना का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है कि तुमको कोई एक काम करना है, ये ध्यान से समझ लेना। ये मशीन होने का लक्षण है कि अगर आगत अ है, तो उत्पाद ब होगा, ये काम मशीन करती है। मशीन में अ मात्रा में आगत डाला जाए तो उसका उत्पाद ब होगा। तो अगर तुमने ये चालू कर दिया कि जब भी कोई आकर मुझसे दुर्व्यवहार करता है तो मैं उसको पलट कर के एक झापड़ लगाता हूँ, तो तुम क्या हो? मशीन। पर फ़िर कोई आया और उसने तुम्हें कुछ सिखाया। और तुमने कहा, वो ठीक वाला व्यवहार ठीक नही था, तो अब मैं एक दूसरा काम करूँगा। जब भी कोई आता है और मुझसे दुर्व्यवहार करता है तो मैं उसे अपना दूसरा ग़ाल भी दिखा दूँगा। तो अभी भी तुम क्या हो? क्योंकि अभी भी एक आगत पर तुम एक पहचाना हुआ उत्पाद ही दे रहे हो।
समझदार होने का अर्थ है, पूरे तरीक़े से अप्रत्याशित हो जाना। तुम एक मशीन का अनुमान कर सकते हो, ठीक-ठीक अनुमान लगा सकते हो कि अब ये क्या करेगी। ये पाँच बटन हैं, ये बटन दबाओ तो ये होगा, ये बटन दबाओ तो ये होगा। एक है जिसके बारे में पक्का पता है कि इसको गाली दूँगा तो ये पलट कर गाली देगा। वो क्या है? मशीन। और दूसरा है जिसके बारे में भी पक्का पता है कि इसको गाली दूँगा तो ये मुस्कुरा देगा। तो वो भी मशीन ही है।
चेतना को किसी दायरे में बाँधा नहीं जा सकता। पहली, हिंसक मशीन है और दूसरी, मान लो गाँधीवादी मशीन है, पर हैं दोनों मशीन ही। चेतना किसी आगत-उत्पाद (इनपुट -आउटपुट) को नहीं मानती। आचरण में विश्वास ही नही है चेतना का कि अगर ऐसा हो तो ऐसा करो, ये आचरण की बात है। चेतना तो अंतस की बात है, बहुत गहरी। कुछ कहा नहीं जा सकता कि क्या होना चाहिए, किस स्थिति में क्या होना चाहिए। स्थिति आई, मान लो गाली आयी और ठीक उसी स्थिति में सब कुछ जानते हुए, एक सहज प्रतिक्रिया निकलती है, एक सहज और वो कुछ भी हो सकती है। ये भी हो सकता है कि तुम वहाँ से चल दो, ये भी हो सकता है कि तुम ध्यान ही ना दो और ये भी हो सकता है कि तुम उसका गला पकड़ लो। सब कुछ संभव है।
एक चैतन्य व्यक्ति के आचरण को नियमों में नहीं बाँधा जा सकता कि देखो ये नियम है तुम्हारे लिए। कि गाली आये तो मुस्कुरा देना या कि ये नियम है तुम्हारे लिए कि गाली आये तो वहाँ से चल ही देना। ये बात थोड़ी घबराहट पैदा करेगी। तो कोई नियम ही नही है तो करें क्या? क्योंकि हमने तो नियमों पर ही चलना सीखा है। ये बात थोड़ी-सी घबराहट पैदा करेगी कि इसका मतलब सब खुला है, सारे विकल्प उपलब्ध हैं। हाँ, सारे ही विकल्प उपलब्ध हैं। तुम सब कुछ कर सकते हो, पूर्णतया मुक्त हो, सब कुछ उपलब्ध है, अब जो उचित लगे करो। तुम बंधे हुए नहीं हो, इसी का अर्थ है मुक्ति । ‘तूने गाली दी, मेरे पास ये विकल्प भी है कि मैं तुझे गले लगा लूँ और मेरे पास ये विकल्प भी है कि दो मारूँ। सब उपलब्ध है, मैं बंधा हुआ नहीं हूँ, कोई नियम मेरे आचरण को रोक नहीं रहा, बाँध नहीं रहा, मैं समझ रहा हूँ। मैंने कुछ पहले से तय नहीं कर रखा, कोई पूर्वाग्रह नहीं है, किसी नियम का कोई भार नहीं है, कोई धारणा नहीं है मेरी कि ये व्यक्ति तो बुरा है और इसके साथ तो सदा बुरा ही करना है, कुछ ऐसा तय नहीं कर रखा। कोई ऐसा अनुशासन नहीं है मेरे मन में। सब कुछ उपलब्ध है, सारे विकल्प और अब जो उचित लगेगा, ठीक-ठीक ध्यान में, मैं ध्यान से देख रहा हूँ कि क्या हो रहा है और उस ध्यान के फल-स्वरूप मेरी एक प्रतिक्रिया निकलेगी और वही उचित होता है। उस ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी उचित नहीं है। पूरे ध्यान से देखा, पूरे-पूरे ध्यान से देखा’।
-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।