प्रश्नकर्ता : कभी मैं बहुत ज़्यादा फ़्रैन्ड्ली (मित्रवत) हो जाता हूँ किसी से एकदम। क्या यह मेरे लिए सही है?
आचार्य प्रशांत : अगर कह दिया जाए कि नहीं सही है, तो क्या करोगे? कह रहे हो बहुत जल्दी किसी से फ़्रैन्ड्ली हो जाते हो। तो अगर कह दिया जाए कि नहीं ये सही नहीं है, तो क्या करोगे?
प्र : अगर कह दिया जाए नहीं करेंगे, तो ये दोनों ही सम्भावनाओं में मिलना-जुलना तो ज़रूर पड़ेगा। ऐसे तो यह व्यक्ति अकेला ही रह जाएगा। दोस्त नहीं बनाएँगे, तो अकेले ही रहेंगे।
आचार्य : कुछ फ़र्क पड़ेगा, अगर मैं कह दूँ कि नहीं, दोस्ती करना ग़लत है, बुरा है? कोई फ़र्क पड़ेगा?
प्र : नहीं।
आचार्य : तो फिर सवाल क्यों पूछ रहे हो?
प्र : मतलब कभी-कभी ऐसा होता है न, कोई दोस्त बनाते हैं, जल्दी मित्रवत हो जाते हैं। कोई एकदम से धोखा दे देते हैं।
आचार्य : नहीं, धोखा तो तब होगा न; जब कुछ चाहिए था, जो मिला नहीं उससे! धोखे का तो सवाल ही तब पैदा होता है। नहीं तो तुम्हें कोई धोखा कैसे दे सकता है?
प्र : जैसे कोई दोस्त है; आ रहा है, फिर चला जाएगा।
आचार्य : तो इसमें धोखा क्या हुआ? कोई दोस्त है। वो आया, फिर चला गया। इसमें धोखा कहाँ हुआ? धोखे का क्या अर्थ है?
देखो, अगर यह कह दिया गया कि दोस्त मत बनाओ और तुमने दोस्त बनाना बंद कर दिया, तो इसका मतलब कि तुम बहुत सोच-सोच कर दोस्त बनाते थे। सोचते थे कि बनाना चाहिए, तो बना लेते थे। अब किसी ने तुम्हारे मन में एक नयी सोच डाल दी कि नहीं, नहीं बनाना चाहिए, तो नहीं बनाते हो।
जब भी कुछ सोच-सोच कर करोगे, तो उसमें स्वार्थ होगा और स्वार्थ से तुम जो सम्बन्ध बनाते हो, वो दोस्ती का होता ही नहीं है। अगर वाक़ई दोस्त बना रहे हो, तो वह दोस्ती बिलकुल प्रेम जैसी होती है। दोस्ती में और प्रेम में कोई अंतर नहीं होता है। उसमें फिर ये सवाल मौजूद ही नहीं होता है कि करूँ कि न करूँ। अब ऐसा है, तो है। उसमें ये विकल्प शेष ही नहीं बचता कि ठीक है कि ग़लत है, करना चाहिए भी कि नहीं करना चाहिए।
और अगर अभी वो विकल्प बचा हुआ है, तो फिर वो दोस्ती नहीं है, वो लेन-देन का रिश्ता है, व्यापार है। व्यापार में तुम ये ज़रुर ख़्याल करते हो कि धोखा न हो जाए और धोखा न हो जाए, इसके लिए तुम कई तरह की सावधानियाँ बरतते हो। एक एग्रीमेन्ट (समझौता) करके रखते हो। कानून है, व्यवस्था है, रुपये-पैसे का लेन-देन है।
वास्तविक मित्रता या प्रेम पूछने की बातें नहीं होते हैं कि करें कि न करें। अगर किसी के कहने से कर रहे हो, तो किसी और के कहने से करना बंद भी कर सकते हो। यह कौन सा प्रेम है, जो कहने से कर दिया जाता है और कहने से रोक भी दिया जाता है? ये तो कोई प्रेम नहीं हुआ। इसमें कोई दोस्ती भी नहीं है।
दोस्ती पाने के लिए नहीं की जाती। दोस्ती के पीछे कोई वजह हो नहीं सकती। अगर तुम पाओ कि तुम्हारी दोस्ती के पीछे कोई कारण मौजूद है, तो जिस दिन वो कारण हटेगा, उस दिन दोस्ती भी हट जाएगी न?
तुम किसी से इसलिए दोस्ती करते हो, क्योंकि वो तुम्हारी मदद करता है। तो, जिस दिन वो तुम्हारी मदद करना बंद कर देगा, उस दिन?
तुम किसी के प्रेम में इसलिए हो कि तुम्हें उसकी शक्ल पसंद है। जिस दिन उसकी शक्ल ख़राब हो गयी, उस दिन प्रेम भी ख़त्म हो जाएगा।
बात समझ रहे हो? कोई वजह नहीं हो सकती। अगर वजह है, तो फिर पूरी बात ही झूठी है। फिर दोस्ती क्या है?
'दोस्ती क्या है?', ये समझने के लिए हमें जानना पड़ेगा पहले कि वजहों का खेल क्या है। वजह का मतलब होता है—कुछ पाने की इच्छा, कुछ स्वार्थ, कोई लक्ष्य, क्यों तुम कुछ कर रहे हो, उसकी वजह क्या है। यह प्रश्न यही है कि तुम्हें ये करके मिल क्या जाएगा। और मिलने का प्रश्न तभी पैदा होता है, जब भीतर एक गहरी आंतरिक अपूर्णता हो, कमी का भाव हो। कोई कमी है, उस कमी को पूरा करना है। पूरा करने के माध्यम खोज रहा हूँ, ज़रिये खोज रहा हूँ, तरीक़े खोज रहा हूँ; कैसे पूरा कर लूँ।
उन तरीक़ों में एक तरीक़ा यह होता है—किसी को दोस्त बना लिया।
आदमी हज़ार तरीक़े से अपनी हीनभावना से उभरने की कोशिश करता है। अपनी आंतरिक अपूर्णता का जो एहसास होता है, उससे बचने की कोशिश करता है। दोस्त बनाना उन्हीं कोशिशों में एक कोशिश है।
आमतौर पर दोस्त ऐसे बनाए जाते हैं। ये वजह वाले दोस्त हैं। और अभी-अभी हमने देखा कि जो वजह वाले दोस्त हैं, वो वजह के साथ उठते हैं और वजह के साथ ही मिट भी जाते हैं।
एक दूसरी दोस्ती होती है। एक असली दोस्ती होती है, जो अकारण दोस्ती होती है। जिसके पीछे यह एहसास नहीं होता कि मुझमें कोई कमी है। जिसके पीछे यह अनुभूति होती है कि मैं बहुत-बहुत प्रसन्न हूँ, मैं बहुत-बहुत मस्त हूँ और पूरा हूँ। फिर तुम जिससे भी सम्बन्धित होते हो, तुम्हारा ये पूरापन बँटता है, ओवरफ्लो करता (छलकता) है।
ये असली दोस्ती है। ये पाने के लिए नहीं की जाती, यह बाँटने के लिए की जाती है।
इसमें अगर कोई वजह होती है—अगर उसे तुम वज़ह कहना ही चाहते हो—तो वजह ये होती है कि कोई मिले, ताकि मैं बाँट सकूँ, दे सकूँ। पाने की कोई आकांक्षा नहीं है। अधिक से अधिक यह कह सकते हो कि बाँटने के लिए दोस्त बनाया है, हालाँकि वो भी कोई वजह है नहीं।
और फिर वो दोस्ती किन्हीं एक-दो लोगों से नहीं होती। वो तुम्हारे आस-पास जो कुछ है, उस सब से होती है। वो समझ लो कि जैसे एक निरंतर अच्छा मूड बना हुआ है, ऐसी बात होती है। जैसे मन का एक ख़ुशनुमा माहौल। अब इस अच्छे मूड में तुम जिससे भी मिलते हो, उससे एक अच्छे तरीक़े से सम्बन्धित होते हो। है न?
तुम्हारा अगर मूड बहुत अच्छा है, तो तुम जाकर कुर्सी को भी लात थोड़ी मारोगे? तुम कुर्सी से भी एक प्रेमपूर्वक तरीक़े से सम्बद्ध रहोगे। ठीक?
तुम्हारा मूड बहुत अच्छा होगा; सड़क पर कुत्ता चला आ रहा हो, तुम उसे पत्थर नहीं मार दोगे। या मार दोगे? अब इस कुत्ते से भी जो तुम्हारा सम्बन्ध है, जो क्षणिक सम्बन्ध है, थोड़ी देर में कुत्ता चला जाएगा दो पल का सम्बन्ध है;, यह सम्बन्ध अब दोस्ती का है।
और ये सम्बन्ध दोस्ती का इसलिए नहीं है कि कुत्ता तुम्हें कुछ दे सकता है या कुत्ता बहुत प्यारा है। कुत्ता, हो सकता है बहुत साधारण कुत्ता हो और कुत्ता, हो सकता है कि तुम्हें अब जीवन भर कभी दोबारा वो दिखाई भी न दे।
लेकिन उस दो क्षण का तुम्हारा जो सम्बन्ध होगा, वो बहुत सुन्दर सम्बन्ध होगा। इसलिए नहीं कि कुत्ते से तुम्हें कुछ मिल रहा है, बल्कि इसलिए क्योंकि तुम्हारे मन का जो माहौल है, वो मस्त है, मदिर है। जैसे तुम भरे हुए हो आनंद से और उसके ही कुछ छींटे तुमने उस कुत्ते पर भी डाल दिये।
जहाँ जा रहे हो, बाँटते फिर रहे हो। सोच-सोच कर नहीं बाँट रहे हैं कि बाँटना है, बाँटना है। तुम्हारी मौजूदगी से बँट रहा है। तुम्हारी मौजूदगी काफ़ी है। जैसे 'सूरज'। सूरज सोच-सोचकर रोशनी देता है क्या कि थोड़ी सी रोशनी दूँगा कि इस खिड़की से अंदर आए, थोड़ी दूँगा उस खिड़की से अन्दर आए? उसकी मौजूदगी काफ़ी है न? वो तो मौजूद रहता है, उसके मौजूद होने से सब रौशन हो जाता है।
दोस्ती ऐसी ही बात है। दोस्ती में विचार के लिए कोई जगह नहीं। और अब मैं तुमसे कह रहा हूँ—दोस्ती में दूसरों के लिए भी कोई जगह नहीं। दोस्ती में दूसरेपन का भाव ही नहीं है। दोस्ती प्रथमतया मूल रूप से एक आंतरिक घटना है। दोस्ती का मतलब है—अपनी पूर्णता को पा लेना, अपनी बेचैनी से मुक्त रहना।
मैं खीजा हुआ नहीं हूँ। मैं चिड़चिड़ाया हुआ नहीं हूँ। मैं ऊबा और उचटा हुआ नहीं हूँ। मैं शांत हूँ। तो, मैं जिसके भी सम्पर्क में आता हूँ, क्या बाँटता हूँ?—शांति। मैं आंतरिक रूप से उल्लासपूर्ण हूँ, तो जिसके भी सम्पर्क में आता हूँ, उसे क्या दूँगा?
और अगर मैं बीमार हूँ, खिसियाया हुआ हूँ; तो, मैं जिसके भी सम्पर्क में आऊँगा, उसे मैं क्या दूँगा?—बीमारी और खिसियाहट। फिर भले ही वो मेरा तथाकथित दोस्त क्यों न हो, पर उसको भी मैं क्या दूँगा?—खिसियाहट ही तो दूँगा।
जो आदमी वास्तव में दोस्ती के क़ाबिल होता है, उसका कोई दोस्त नहीं होता। क्योंकि उसकी दोस्ती पूरे अस्तित्व से होती है। तो, उसका कोई विशेष दोस्त नहीं हो सकता। वो ये नहीं कहेगा कि ये,ये और ये मेरे दोस्त हैं।
उसकी दोस्ती वैसे होती है, जैसा मेरा तुमसे बोलना। मैं अभी तुम से बोल रहा हूँ, तो मैं किससे बोल रहा हूँ?—उससे, उससे और उससे? मैं सबसे बोल रहा हूँ। ये मित्रता है। मैं कुछ बाँट रहा हूँ, जो सबको मिल रहा है। तुम अगर कहो कि तुम्हें विशेषतया मिल रहा है—नहीं, ऐसा नहीं है।
दोस्ती निर्विशेष होती है। उसमें कोई ख़ास नहीं हो सकता कि तुम बोलो—'ये मेरा बेस्ट फ़्रैन्ड है।'। न।
सबको देने की अभीप्सा है। हाँ, कोई ले ना रहा हो, वो अलग बात है। जैसे कि सूरज की रोशनी सब जगहों में पड़ रही है, पर अगर अब कोई अँधेरी गुफा है, वो ले नहीं रही है, उसके भीतर अँधेरा बना ही रहेगा। वो अलग बात है।
बात समझ में आ रही है? हमारी दोस्ती आमतौर पर मात्र व्यापार होती है। और व्यापार में दोनों पक्षों में किसी को कुछ हासिल नहीं होता, क्योंकि तुम जितना देते हो, दूसरा पक्ष तुम्हें उतना ही वापस करेगा।
व्यापार में यही तो होता है और दोनों पक्ष लगातार इसी कोशिश में होते हैं कि हमें मिले ज़्यादा और देना कम पड़े। इसी का नाम व्यापार है।
और मैं तुम से कह रहा हूँ कि बहुत अफ़सोस की बात है कि मैंने एक दोस्ती इस व्यापारी दोस्ती से भी नीचे की देखी है। जानना चाहोगे वो कैसी होती है?
व्यापारियों की दोस्ती में तो फिर भी लेन-देन होता है कि मैं तेरे नोट्स ले लूँगा, तू मेरे नोट्स ले ले; मैं तेरी इच्छाएँ पूरी करूँगा ,तू मेरी इच्छाएँ पूरी कर। ये व्यापारी मानसिकता की दोस्ती है। ऐसी हमने देखी है कि नहीं देखी है? 'जब मेरे पास पैसे कम हो,तुझसे ले लूँ। तेरे पास कम हो, तो मुझसे ले लेना।', 'मैंने तेरी शर्ट ली, तू मेरी पैंट पहन ले!'। इसको दोस्ती मत मानना। ये लेन-देन था।
और इससे भी नीचे की एक दोस्ती होती है। वो भिखारी की दोस्ती होती है। जहाँ पर तुम कहते तो ये हो कि मैं दोस्त हूँ, पर तुम दोस्त नहीं हो, तुम सिर्फ़ भिखारी हो और तुम कटोरा लेकर के खड़े हुए हो—कुछ दे दो। हाँ, तुम ये नाटक करना चाहते हो कि तुम भी बदले में कुछ दे रहे हो, तो तुम क्या बोलते हो? तुम कहते हो—'मुझे पैसे दे दो, बदले में दुआएँ मिलेंगी।'। तुम्हारा झूठा अहंकार तुम्हें यह भी स्वीकार नहीं करने दे रहा कि तुम भीख माँग रहे हो। तो, तुम ये भ्रम पैदा करने की कोशिश करते हो कि बदले में तुम भी कुछ दे रहे हो। तुम कहते हो—'मुझे पाँच रूपया मिल रहा है और मैं बदले में क्या दे रहा हूँ?—दुआएँ दे रहा हूँ।', जबकि उन दुआओं की कोई क़ीमत नहीं।
और भूलना नहीं कि भिखारियों वाली दोस्ती में तुम्हें पाँच रुपये से ज़्यादा कुछ मिल भी नहीं सकता। जैसे ही यह पता चलता है कि माँगने वाला भिखारी है, वैसे ही यह तय हो जाता है कि अब इसे अधिक से अधिक पाँच रुपया, नहीं तो दस रुपया मिलेगा।
भिखारियों पर कोई करोड़ो नहीं लुटाता और हमने ख़ूब देखी हैं भिखारियों वाली दोस्तियाँ। और हमें ख़ूब बता दिया गया है कि "अ फ़्रैन्ड इन नीड इज़ अ फ़्रैन्ड इन्डीड।" कि दोस्त वही है, जो काम आए। और ऐसी ही पागलपन की बातें हम पकड़ के बैठे रहते हैं।
दोस्ती किसी की ज़रूरत पूरी करने का नाम नहीं है कि मेरी ज़रूरतें हैं, वो कोई आकर पूरी करे। सच तो यह है कि जिसकी अभी ज़रूरतें हैं, जिसकी अभी नीड्स (आवश्यकताएँ) बाक़ी हैं, अभी वो दोस्ती के क़ाबिल ही नहीं हुआ।
जो अभी ज़रूरतों में ही जी रहा है, उसको अभी यह पात्रता नहीं कि वो दोस्त बन सके। दोस्ती बहुत ऊँची बात है। दोस्ती की क़ाबिलियत ही सिर्फ़ उसमें हो सकती है, जो अपनी ज़रूरतों से पार पा चुका हो।
बात समझ में आ रही है? इधर-उधर के व्यर्थ के रिश्तों को दोस्ती का नाम मत देना। बस भ्रम पैदा करोगे।
दोस्ती तो ऐसी थी, जैसे कृष्ण और अर्जुन की। कृष्ण को अर्जुन से कुछ चाहिए नहीं, कुछ मिल सकता नहीं। हाँ, बाँट रहे हैं। बदले में क्या मिला? कुछ भी नहीं। बदले में उन्हें यही मिला कि अर्जुन ने वो किया, जो अर्जुन के लिए ठीक था।
अब तुम अपनेआप से पूछो कि तुम्हारी ज़िंदगी में जो ये दोस्त मौजूद हैं, क्या ये कृष्ण जैसे हैं? क्या ये तुम्हारी मदद करते हैं, वो करने में, जो तुम्हारे लिए उचित है? या ये ऐसे हैं कि जब तुम उचित कर भी रहे होते हो, तो ये भाजी मार देते हैं? कि तुम चुपचाप मौन में बैठे हो और ये आकर के उपद्रव पैदा कर देते हैं। फिर अगर दोस्त ऐसे हैं तुम्हारे पास, तो तुम्हें दुश्मनों की क्या ज़रुरत है? बताओ!
दुश्मन तो तुम्हारा क्या ही नुक़सान करेगा। तुम उससे सतर्क रहते हो, दूर रहता है। दोस्त को तो तुम बगल में बैठाये रहते हो और हम देख भी नहीं पाते कि जिनको हम दोस्त कहते हैं, असली नुक़सान हमारा वही कर रहे हैं।
ग़ौर से देखोगे अगर, तो पाओगे यही कि तुम्हारे चित्त में जो बीमारियाँ बैठी हुई हैं, वो और कहीं से नहीं, इन्हीं दोस्तों से आई हैं। क्योंकि ये दोस्त ख़ुद भिखारी हैं, ये तुम्हें क्या दे देंगे?
लेकिन बड़ी अजीब हालत रहती है; दो भिखारी एक-दूसरे से भीख माँग रहे हैं और दोनों को उम्मीद है कि दोनों एक-दूसरे से भीख माँग-माँग कर अरबपति बन जाएँगे। और एक भिखारी है, जो सवाल पूछ रहा है—'सर, किस वाले से भीख माँगा करें, किस वाले से नहीं? किसको दोस्त बनाएँ, किसको नहीं?'। अरे! जिसको भी बनाओगे, वही भिखारी है। चुन सकते हो, तो किसी ऐसे को चुनो, जो ख़ुद भिखारी न हो। वही तुम्हारी दरिद्रता को भी दूर करेगा।
जिसने ख़ुद कभी कुछ पाया नहीं, वो तुम्हें क्या देगा? वो बाँटेगा कैसे, जिसने अभी पाया ही नहीं?
जीवन की—हमारे—क्या गुणवत्ता है, क्या क्वालिटी है?—वो अगर किसी एक चीज़ से निर्धारित होती है, तो वो ये है कि हमने किससे सम्बन्ध जोड़कर रखा है। इस बात को गाँठ बाँध लो बिलकुल। तुम्हारे जीवन की गति को, दिशा को, पूर्णता को और सुन्दरता को अगर कुछ निर्धारित करेगा, तो वो ये है कि तुम किनके साथ जुड़े रहे, किन लोगों को तुमने अपनी ज़िंदगी में जगह दी, किनको तुमने अपना दोस्त बना लिया। सबकुछ इसी से बदल जाना है।
लोहा कीचड़ में पड़ा रह जाये, तो लोहा भी नहीं बचता। जंग हो जाता है, धूल। और कहते हैं कि उसी लोहे को अगर पारस की दोस्ती मिल जाए, तो भी वो लोहा नहीं बचता, सोना हो जाता है।
तुम धूल बनोगे या सोना हो जाओगे, वो सिर्फ़ इसपर निर्भर करता है कि तुमने कीचड़ से यारी कर ली है या तुम्हें पारस जैसा दोस्त मिला है। और बहुत अफ़सोस होता है मुझे, यह देखकर के कि यारियाँ तो हमारी सब कीचड़ से ही हैं। कीचड़ ही कीचड़ मौजूद है ज़िंदगी में और आदत लग जाती है हमें, फिर कीचड़ में ही लथपथ लोटने की।