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सच को सम्मान दो, झूठ अपनेआप पीछे हटेगा || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

Acharya Prashant

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सच को सम्मान दो, झूठ अपनेआप पीछे हटेगा || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव। न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, छठा अध्याय, दूसरा श्लोक।

जिसको संन्यास कहते हैं उसको तू योग जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी व्यक्ति योगी नहीं होता।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मैं संकल्पों के त्याग का तात्पर्य समझना चाहता हूँ, माने संकल्प कब त्यागने चाहिए? और त्यागने के बाद उन विषयों, वस्तुओं, व्यक्तियों, स्व-कामना वगैरह के प्रति कैसा सम्बन्ध रखना चाहिए? उपेक्षा, अपेक्षा, इत्यादि क्या?

आचार्य प्रशांत: बहुत सतही तल पर पूछ रहे हो प्रशांत (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए )। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, “जिसको संन्यास कहते हैं उसको तू योग जान, क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी व्यक्ति योगी नहीं होता।” बात की गहराई में थोड़ा जाओ।

संन्यास का अर्थ हम आम तौर पर समझते हैं छोड़ना और योग में आशय निहित होता है जुड़ना। अब अर्जुन लगा हुआ है कि मैं छोड़ूँगा। इसीलिए अर्जुन कई बार कर्मयोग की अपेक्षा कर्म संन्यास पर ज़ोर देता है कृष्ण के सामने और कृष्ण उसको समझा रहे हैं कि जिसको संन्यास कहा भी जाता है, वास्तव में, सच्चाई में वो योग है। क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी व्यक्ति योगी नहीं होता।

संकल्प माने छोड़ना, छोड़ना उतनी बड़ी बात नहीं है जितनी बड़ी बात है जुड़ना। छोड़ा जाता भी है तो इसलिए क्योंकि कुछ उच्चतर बुला रहा होता है। देखो तुम यह भी अगर कह दो कि कुछ ऊँचा हमें बुला नहीं रहा, हम बस निचले से परेशान हैं इसलिए उसको छोड़ रहे हैं, तो भी समझो कि क्या कह रहे हो। निचले से परेशान हो माने, कैसे परेशान हो सकते हो निचले से अगर ऊँचे का कोई पूर्ववर्ती गहरा, छुपा हुआ अनुभव तुम्हें है नहीं? बताओ, बोलो।

एक व्यक्ति है जो जन्म से ही नंगे पैर चला है, ठीक। और एक व्यक्ति है जो जूता इत्यादि पहनकर चलने का अभ्यस्त था वो अब नंगे पैर चल रहा है। इन दोनों में परेशान कौन होगा? जो पहले जूते पहन कर चलता था और अब उसको कंकड़, वगैरह पर नंगे पैर चलना पड़ रहा है। वही परेशान होगा न? परेशानी क्या इशारा करती है हमेशा कि तुम्हें अपनी वर्तमान स्थिति के अलावा भी किसी और स्थिति का किसी तरीक़े से कुछ गहरा ज्ञान है। न होता वह ज्ञान तो तुम परेशान नहीं हो सकते थे।

आप कह सकते हैं, 'साहब जो हमेशा नंगे पाँव चला हो वह भी तो परेशान हो सकता है नंगे पाँव चलने से'। वो इसलिए परेशान होगा क्योंकि वो हमेशा चल नहीं रहा होता, कभी वो लेटा भी होता है। जब वो लेटा होता है तो उसके पाँव में कंकड़ चुभ रहे होते हैं क्या? तब नहीं चुभ रहे होते हैं न। तब नहीं चुभ रहे होते, जब वो नंगे पाँव चलने लगता है चुभने लगते हैं तो वो तुलनात्मक रूप से जान जाता है कि कुछ गड़बड़ हो रही है मेरे साथ। ये जो तुलनात्मक रूप से गड़बड़ हो रही है, यही उसकी मानसिक परेशानी बन जाती है, है न? बात समझ रहे?

हर परेशानी यही बताती है कि कुछ और है जिसको आप जानते हैं पहले से ही जानते हैं, एप्रायॉरी (निगमनात्मक) है, अन्यथा आप परेशान हो ही नहीं सकते थे। जो दुनिया से परेशान है उसकी परेशानी ही इस बात का सबूत है कि वो दुनिया से आगे किसी और का ज्ञान, किसी तरह का छुपा हुआ अनुभव रखता है, नहीं तो परेशान कैसे होता?

लोग कई बार पूछते हैं सत्य का प्रमाण क्या है। बहुत सीधा-सादा प्रमाण है, क्या? दुख। दुख। दुनिया में बहुत झूठ फैला हुआ है वो तुम्हें दुख देता है, अगर सच न होता तो तुम्हे झूठ बुरा क्यों लगता? हो सकता है कि सच से तुम्हारी कोई प्रत्यक्ष मुलाक़ात न हुई हो, बिलकुल हो सकता है लेकिन फिर भी झूठ तो तुम्हें बुरा लगता ही है न। झूठ का बुरा लगना, किसी भी प्रकार का दुख झेलना सत्य की ओर आनंद की प्रामाणिकता है।

अगर आनंद न होता तो तुम्हें दुख क्यों बुरा लगता? बताओ। तुम दुख को दुख का नाम क्यों देते हो? कोई है जो दुख चाहता हो? तुम दुख को अस्वीकार क्यों करते हो? क्योंकि तुम आनंद को जानते हो, भले तुमने कभी कोई ध्यान इत्यादि न किया हो, भले तुम किसी समाधि इत्यादि से न गुज़रे हो। भले ही तुम्हारा सत्य में, अध्यात्म में, समाधि में, आनंद में कोई यक़ीन न हो, लेकिन दुख तो बुरा लगता है न? हम पूछते ही नहीं अपनेआप से दुख बुरा क्यों लगता है? दुख है ही क्यों? क्योंकि आनंद है। इसी का नाम माया है। दुख है ही क्यों? क्योंकि आनंद है। इसी तरह से माया है ही क्यों? क्योंकि सत्य है, क्योंकि कृष्ण हैं।

अर्जुन को समझा रहे हैं, मूल वजह ये नहीं है तुम्हारे दुख की कि तुम कहीं फँसे हुए हो, मूल वजह ये है कि तुम्हें वो नहीं मिल रहा जिसको तुम जानते ही हो कि तुम्हें मिलना चाहिए। दुख की बात छोड़ो तुम आनंद की बात करो, आनंद मिल गया, दुख बचेगा कहाँ और अगर आनंद जानते नहीं तुम तो कोई कितना भी ज़ोर लगा लें, तुम ख़ुद ही दुख नहीं छोड़ोगे। जो आनंद नहीं जानता, तुम उसके साथ लगकर कितनी भी मेहनत कर लो, कितने भी उसे क़िस्से सुना लो, वह दुख छोड़ेगा ही नहीं, कि छोड़ेगा?

जिसके पास एक रूखी रोटी है उसको तुम कितने भी क़िस्से सुना लो बड़े-बड़े व्यंजनों के, वो अपनी रूखी रोटी छोड़ देगा? उसके पास कुल क्या है? अब रूखी रोटी छुड़वानी है तो तुम उसे ये बताओगे क्या कि रूखी रोटी बेकार होती है? तुम उसे दुख का विरोध करना माने उसकी रूखी रोटी का विरोध करना सिखाओगे या चुपचाप उसके सामने लाकर के थोड़ा बढ़िया दाल-चावल रख दो, या ताज़ी रोटी रख दो गर्म, वह रूखी रोटी छोड़ देगा न।

यही कृष्ण यहाँ समझा रहे हैं, जिसको संन्यास कहते हैं अर्जुन उसको योग जान, योग की ओर ध्यान दे। पा, छोड़ना अपनेआप हो जाएगा। पा, छोड़ना अपनेआप हो जाएगा। वास्तव में पाना-छोड़ना एक साथ चलता है, एकदम एकसाथ। बस छोड़ना पाने से ज़रा सा पीछे, ज़रा-सा पीछे। कई बार ऐसा प्रतीत भी होता है कि छोड़ा पहले, पाया बाद में, वो घटना बाहरी होती है, अंदर पहले ही पा लिया होता है, तभी बाहर छोड़ने की ताक़त आयी होती है। समझ में आ रही है बात?

एक और इसमें साधक के लिए महत्वपूर्ण चीज़ है, अगर आप यह जानते ही नहीं है कि पाने लायक़ क्या है तो भाई आप ये कैसे जानेंगे कि छोड़ने लायक़ क्या है? आप ग़लत ही चीज़ छोड़ देंगे, जैसे अर्जुन युद्ध छोड़ने को तैयार है। चूँकि अर्जुन अभी यह नहीं जानता कि पाने लायक़ क्या है इसलिए उसे यह भी नहीं पता कि छोड़ने लायक़ क्या है।

संन्यास के साथ यह बड़ी भारी समस्या है। जब आपको अभी वह नहीं मिला है जो पाने लायक़ है तो आपको कैसे पता कि छोड़ने लायक़ क्या है? तो आप इधर-उधर की व्यर्थ चीज़ें छोड़ने लग जाते हो। कोई कहता है मैं पैसा छोड़ रहा हूँ, अब छोड़ता पता नहीं कितना है। कोई कहता है मैं पत्नी छोड़ रहा हूँ कि घर छोड़ रहा हूँ, ये छोड़ रहा हूँ, वो छोड़ रहा हूँ। तुम्हें कैसे पता कि यह चीज़ें छोड़ने लायक़ हैं? बताओ कैसे पता?

हाँ, जब त्याग योग के फलस्वरूप आता है तो त्याग सम्यक होता है। तब वही छूटता है जो छूटना चाहिए, नहीं तो तुम कुछ भी अंड-बंड छोड़ सकते हो। किसी ने अपनी टोपी छोड़ दी, इससे यही होगा कि ठंड लग जाएगी, शान्ति नहीं मिलेगी। कोई कुछ छोड़ रहा है, कोई कुछ छोड़ रहा है, कोई लंबी-लंबी छोड़ रहा है! इससे क्या होगा? क्या छोड़ना है पहले ये सीखो तो। उसको सीखने का एक ही तरीक़ा है, क्या? ये सीखो क्या पाना है।

सम्यक संन्यास, सम्यक योग से ही आएगा। नहीं तो तुम सन्यासी बनोगे बिना योग के तो सब ऐसी चीज़ें छोड़ दोगे जिन्हें छोड़ने से कोई लाभ ही नहीं होने वाला। इसलिए आप पाते हैं कि बहुत सारे जो संन्यासी घूम रहे हैं उनके चेहरे पर बारह बजे होते हैं। उन्होंने छोड़ तो दिया बिना पाये, तो उन्होंने जो छोड़ा वो ऐसा छोड़ा कि उसे छोड़ने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी।

डॉक्टर पाये बिना तुम किसी तरह का कुछ खाना-पीना छोड़ दो तो क्या होगा? और ख़राब करोगे न हालत। तुम्हें कैसे पता कि तुम्हें दाल छोड़नी चाहिए या चावल छोड़ना चाहिए, बताओ। तुम्हें अभी डॉक्टर तो मिला नहीं। तो छोड़ना भी किस के बाद आएगा? पाने के बाद। पाने के बाद छोड़ोगे तो सही छोड़ोगे, पाने से पहले तुमने ख़ुद ही छोड़ मारा तो पता नहीं क्या छोड़ दोगे। बात आ रही है समझ में?

दुनिया इसलिए थोड़े ही है कि ये छोड़ते फिरो और वो छोड़ते फिरो। जीवन इसलिए थोड़े ही मिला है। प्रकृति में पैदा हुए हो, क्या-क्या छोड़ोगे भाई। चारों तरफ़ क्या फैली हुई है? प्रकृति। बड़ी मूर्खता की बात है यह सोचना कि यहाँ पर इसका परित्याग कर देंगे, उसका परित्याग कर देंगे तो बच जाएँगे या फ़लाने तरह के काम नहीं करेंगे, ढिकाने तरह के काम नहीं करेंगे।

एक बात अच्छे से समझ लेना, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो किसी-न-किसी मौक़े पर, किसी-न-किसी जगह या समय पर करने योग्य न हो। कुछ भी ऐसा नहीं है जिसको तुम कह सको कि इसको तो हमने छोड़ दिया। वास्तव में जीवन और त्याग एक साथ चलते नहीं हैं, हाँ जीवन और प्राप्ति एक साथ चलते हैं। जब प्राप्ति की दिशा बढ़ते हो तो यह जान लेते हो कि प्राप्ति के रास्ते में क्या-क्या बाधाएँ हैं, उन बाधाओं को तुम छोड़ते चलते हो।

छोड़ना सिर्फ़ उसको है जो प्राप्ति की राह में बाधा हो और आम तौर पर प्राप्ति की राह में कोई वस्तु नहीं बाधा होती, उस वस्तु से तुम्हारा मूर्खतापूर्ण रिश्ता बाधा होता है। रिश्ता सुधार लो तो कोई वस्तु नहीं छोड़नी पड़ेगी। जिसे रिश्ता सुधारना आता है उसे कुछ नहीं छोड़ना पड़ेगा। छोड़ना पड़ रहा है वही इस बात का सबूत है कि अनाड़ी हो, रिश्ता चला नहीं पाये तो क्या कर रहे हो? छोड़ा-छोड़ी का खेल खेल रहे हो।

यही कृष्ण कह रहे हैं, जिसको संन्यास कहते हैं बाबा अर्जुन उसको तू योग जान। योग माने मिलना, जुड़ना, संन्यास माने छोड़ना। तो यह छोड़ा-छोड़ी का खेल हटा कि मैं युद्ध छोड़ के भाग जाऊँगा, रथ से उतरकर भाग जाऊँगा, मैंने नहीं लड़ना, यह हटा। तू मुझसे जुड़, मुझसे जुड़।

योग माने अर्जुन का कृष्ण से जुड़ना और संन्यास माने अर्जुन का मैदान छोड़कर भागना जिस मैदान पर दुर्योधन तो है ही, कृष्ण भी हैं, तो यह कौनसा संन्यास हो गया भैया? ज़्यादातर संन्यास ऐसे ही होते हैं। तुम वो मैदान छोड़कर भाग गये दुर्योधन की आफ़त से जिस मैदान पर कृष्ण भी मौजूद थे। कृष्ण कह रहे हैं छोड़ा-छोड़ी हटाओ, मुझ से जुड़ो उसी का नाम योग है। अर्जुन का एक ही योग है, कृष्ण से मिल जाना।

तूने मैदान छोड़ा अर्जुन तो तू दुर्योधन से तो दूर हो ही जाएगा, मुझसे भी तो दूर हो जाएगा, संन्यास हटा। ये सबक़ सब लोगों के लिए है दुनिया के। जब भी तुम कुछ छोड़ते हो तो उसमें निहित दुर्योधन को तो छोड़ते हो लेकिन साथ-ही-साथ उसमें निहित कृष्ण को भी तो छोड़ दिया तुमने। तुमने कहा फ़लाने व्यक्ति से मुझे बड़ी समस्या है, मैं उसको छोड़ रहा हूँ, उसमें जो शैतान बैठा है उसको तुमने छोड़ दिया, पर जिसको छोड़ रहे हो उसमें भगवत्ता की भी संभावना थी वो संभावना भी छोड़ आये तुम। ये कहाँ की समझदारी थी? समझ में आ रही है बात? तो जुड़ो, कृष्ण से जुड़ो। कृष्ण से जुड़ गये तो दुर्योधन से फिर क्या रिश्ता रखना है जान जाओगे। आ रही है बात समझ में?

फिर पूछा है, संकल्पों के त्याग का क्या मतलब है? ये सारे संकल्प ऐसे ही होते हैं। जिस केन्द्र से उठेंगे वैसे ही तो होंगे न। छोटे अहम् के केन्द्र से उठते हैं तो सब संकल्प ऐसे ही होते हैं। छोटी चीज़ पकड़नी है और छोटी चीज़ छोड़नी है। योग का मतलब ये नहीं होता, मैंने कहा पाना माने गये और मोज़े ख़रीद लाये। कि आचार्य जी ने कहा था योग माने जुड़ जाना, इनसे तो पूरा ही जुड़ जाता हूँ, एकदम चढ़ा लेता हूँ अपने ऊपर।

योग माने ऐसा पाना, ऐसा पाना जैसे कि ख़ुद को गँवाना। योग माने ऐसा नहीं कि पाँव पर मोज़ा चढ़ा लिया, योग माने कुछ ऐसा पाया कि जिसको पाया वही बचा। तुम कह दो कि या तो गायब हो गये या जिससे योग हुआ वही हो गये। एक सत्ता बची उसकी जिसकी बचने लायक़ है। तुम्हारी सत्ता या तो कह दो विलुप्त हो गयी या कह दो कि उसकी परम सत्ता से, जिससे योग हुआ है एक हो गये। तुम भी अब वो हो। दोनों में से जो तरीक़ा सुहाता हो उसको पकड़ लो।

अर्जुन का अभी क्या संकल्प है? तो उन संकल्पों के त्याग की बात कर रहे हैं कृष्ण। कह रहे हैं, संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई योगी नहीं होता। कौनसे संकल्प छोड़ने हैं? जो तुम्हें उस एक के अलावा बाक़ी सब जगह जाने को प्रेरित करते हैं, उनको छोड़ो न। ग़ौर से देखो कि यहाँ पर संकल्पों का सम्बन्ध संन्यास से बैठाया गया है, योग से नहीं। योग संकल्प से नहीं होगा, संकल्प तो हमारे हमें छोड़ा-छोड़ी की तरफ़ ही ले जाते हैं। बात समझ में आ रही है? यहाँ पर कहा गया है संन्यास नहीं योग। और फिर कहा गया है, संकल्पों का त्याग करो अगर योग चाहिए माने इन संकल्पों का सम्बन्ध किस से बिठाया है? संन्यास से। और संन्यास क्या? वो जो अर्जुन की अपनी ख़्वाहिश है यानी कि अहम् वृत्ति। हमारी तरह का संन्यास, हमारी अपनी निजी इच्छाएँ वगैरह। आ रही है बात समझ में?

अपनी इच्छाओं को बहुत ग़ौर से देखना होता है। जिसने काम कर लिया, उसकी आधी से ज़्यादा साधना हो गयी। अपनी इच्छाओं पर नज़र रखिए। किधर को ले जा रही हैं? कहाँ से उठ रही हैं? हज़ार में से एक दफ़े ही होता है कि हमारी इच्छा हमें कृष्ण की ओर ले जा रही हो। नौ-सौ-निन्यानवे दफ़े इच्छा का काम ही है आपको दाएँ-बाएँ कहीं विमुख करना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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