सच के सामने झुको, सच होने का दावा मत करो || आचार्य प्रशांत, निर्वाण षटकम् पर (2020)

Acharya Prashant

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सच के सामने झुको, सच होने का दावा मत करो || आचार्य प्रशांत, निर्वाण षटकम् पर (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। 'निर्वाण षटकम्' की एक पंक्ति है —

'न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्।'

तो इसमें जो मोक्ष के विषय में कहा गया है कि मैं मोक्ष भी नहीं हूँ, तो क्या शिव को मोक्ष भी नहीं चाहिए?

आचार्य प्रशांत: हाँ, मोक्ष उसे चाहिए होता है न, जो बंधन में हो; परम अवस्था में बंधन ही नहीं है, तो मोक्ष किसके लिए? और वो परम अवस्था की बात है, तुम मत फैल जाना कि मुझे तो मोक्ष भी नहीं चाहिए।

वो ‘निर्वाण षटकम्’ है, आचार्य शंकर का काम है वो, तुम ये मत सोच लेना कि तुम्हारे लिए ही बोल दिया गया है। और इससे पहले कि तुम ये बोलो कि तुम्हारे लिए मोक्ष भी नहीं है; बाकी बातें जो उसमें लिखी हुई हैं, वो याद रखना। क्या उसमें जो बाकी बातें लिखी हुई हैं, वो तुम पर लागू होने लगी हैं?

सबसे पहले वो क्या बोलना शुरू करते हैं? 'क्या-क्या नहीं हो तुम।' 'निर्वाण षटकम्' में सबसे पहले किन बातों को नकारा जाता है? सबसे पहले तो कहा जाता है कि, 'तुम देह नहीं हो।' तो जब ये बिलकुल निश्चित हो जाए कि देह से कोई रिश्ता नहीं रहा हमारा, तब तुम्हें ये कहने का अधिकार मिलेगा कि अब हमें मोक्ष भी नहीं चाहिए।

ये न हो कि ऊपर-ऊपर जितनी बातें लिखी हैं निर्वाण षटकम् में, उनको तो अनदेखा कर गए, 'नहीं, हटाओ! हटाओ! हटाओ!' और एक चीज़ पकड़ ली कि, 'साहब! मोक्ष की क्या ज़रूरत है? देखा! बता गए न शंकराचार्य कि न अर्थ चाहिए, न काम चाहिए, न मोक्ष चाहिए, किसी की कोई ज़रूरत ही नहीं है।'

और अहंकार को इन सब चीज़ों में बहुत मज़ा आता है। 'मुझे मोक्ष की क्या ज़रूरत है, मैं तो सनातन, अनंत, मुक्त आत्मा मात्र हूँ।' और भूल गए कि सुबह-सुबह दही-जलेबी चबा रहे थे, और दो रुपए के लिए हलवाई से भिड़ गए थे बिलकुल। आत्मा दही पीती है? पर ये सब याद ही नहीं रहता, जब अपने-आपको आत्मा घोषित कर देते हो, या मुक्त घोषित कर देते हो, तब याद ही नहीं रहता।

बड़ा अच्छा लगता है न! तत्त्वमसि! श्वेतकेतु। तब लगता है, श्वेतकेतु हम ही तो हैं। नाम है संजय कुमार; बोले, ये देखो! श्वेतकेतु, एसके , हमारे लिए ही बोला गया था।

भाई! श्वेतकेतु के लिए बोला जा सकता है तत्त्वमसि, तुम नहीं हो वो। तुम्हारे लिए तो है 'शठ त्वं असि!' ‘शठ’ माने जानते हो क्या होता है? दुष्ट। तुम दुष्ट हो और ज़्यादा बोलोगे तो, 'शठ त्वं असि चुप!'

'ओम् नमः शिवाय’ तक ठीक है; ‘नमः शिवाय’ जब कहते हो, तो शिवत्व के सामने झुक रहे हो। लेकिन जब शिवोहम् बोल देते हो तो गड़बड़ हो जाती है।

‘नमः शिवाय’ कहा करो, ठीक है! ‘शिवोहम्’ बोलते समय दस बार सावधान हो जाया करो। पूछा करो अपने-आपसे, 'हक़ है मुझे शिवोहम् बोलने का?'

जब तक नमः शिवाय में ईमानदारी नहीं आ गई, तब तक शिवोहम् मत बोल देना। नमन करो, वमन मत करने लग जाओ।

जब पढ़ रहे हो किसी को, चाहे आचार्य शंकर को, चाहे आचार्य कृष्णमूर्ति को, एक ओर तो उनको पढ़ा करो एक आँख से—दो आँखें हैं न, इसीलिए हैं—एक आँख से पढ़ा करो उनको और दूसरी आँख अपनी ज़िंदगी को देखती रहे। नहीं तो जो पढ़ लेते हो, भीतर ग़लतफ़हमी पैदा हो जाती है कि, 'यही तो हम हैं, हम ही ने तो लिखा है, यू आर इनफिनाइट कॉन्शियसनेस (तुम अनंत चेतना हो)।'

अब घूम रहे हैं, कोई पूछ रहा है, कौन हो तुम? तो कह रहे हैं, 'आई सी ' (मैं दृष्टा हूँ)। कृष्णमूर्ति वाले इस तरह की बातें बहुत बोलते हैं, 'आई सी, आई सी, आई एम लिसनिंग।' एक आँख महापुरुषों को देखे और दूसरी स्वयं को देखे। अपनी हक़ीक़त से नज़र जल्दी से छिटकने मत दिया करो।

स्कूल में थे तब चलता था, 'हाथी पालो, घोड़े पालो, ग़लतफ़हमी मत पालो।' और ग्रंथों को पढ़ करके, अपने बारे में ग़लतफ़हमी बहुत जल्दी पैदा हो जाती है। 'शिवोहम्! चिल! अपना तो हो गया भाई, शिवोहम्!'

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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