सच के रास्ते पर सकारात्मकता का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सच के रास्ते पर सकारात्मकता का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अगले दो सवाल थोड़े जुड़े हुए हैं। आजकल की आध्यात्मिक वर्णावली में ये दो शब्द हैं जो काफ़ी प्रचलित हैं। उनसे सवाल है।

आचार्य जी, कभी-कभी परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं जहाँ सकारात्मक दृष्टिकोण रख पाना असम्भव हो जाता है। प्रश्न ये है कि सकारात्मकता क्या होती है और सत्य के रास्ते पर सकारात्मकता का क्या अर्थ है?

और दूसरा इससे मिलता-जुलता सवाल है। आचार्य जी, पिछले कुछ महीनों में मुझे प्रकृति के साथ समय बिताने का काफ़ी मौक़ा मिला है और मुझे बार-बार यह सन्देश मिला है कि जस्ट बी! (मात्र साक्षी हो!) कुछ बनने का प्रयास न करो। और मैंने पाया है कि मैं बचपन से ही कुछ बनने के लिए कार्यरत हूँ। तो इन दोनों शब्दों के अर्थ समझना चाह रही हूँ — जस्ट बी और सकारात्मक दृष्टिकोण।

आचार्य प्रशांत: सत्य की साधना में सकारात्मक दृष्टिकोण का अर्थ होता है श्रद्धा — अडिग, अजन्मा, अकारण, अ-कहा विश्वास कि जिसकी ओर जा रहे हैं, उसको न पाना नामुमकिन है। कि जिसकी ओर जा रहे हैं वो मिला ही हुआ है।

जब दुनिया में किसी लक्ष्य की ओर आप बढ़ते हैं, किसी वस्तु इत्यादि की ओर, तो सकारात्मक दृष्टिकोण का अर्थ होता है कि आप ये विचार रखें, ये आशा रखें, ये उम्मीद रखें कि आप जो पाना चाहते हैं उसको पा लेंगे।

सत्य की साधना में सकारात्मक दृष्टिकोण का अर्थ होता है कि विचार की नौबत ही न आये। ये सोचना भी न पड़े कि जो पाना है वो ज़रूर मिलेगा। ये विचार तो नहीं ही आ रहा कि जो पाना चाहते हैं वो नहीं मिलेगा, ये विचार भी नहीं आ रहा है कि जो पाना चाहते हैं वो मिल जाएगा। जब ऐसी स्थिति आ जाए तो समझिए साधक का दृष्टिकोण सकारात्मक हुआ। और सत्य की साधना में सत्य को लेकर जो विचार करने लगा, भले ही वो विचार आशा में पगा हुआ हो, वो साधक श्रद्धारहित है। उसे कुछ नहीं मिलेगा।

आम बातचीत में सकारात्मक होने का अर्थ होता है अच्छा सोचना — भला होगा, शुभ होगा, अच्छा होगा। साधक के लिए सकारात्मक होने का अर्थ होता है ‘न सोचना’। वो सोच ही नहीं रहा कि क्या होगा। जो न सोचे वो सकारात्मक हो गया। उसको अब श्रद्धा है, उसमें प्रेम है। वो ख़याल ही नहीं कर रहा आगे का। उसका भरोसा विचार और गणना और आशा से बहुत ऊँचा है। वो आशा नहीं कर रहा कि उसे विजय मिलेगी, वो जानता है कि उसे विजय मिलेगी। अब सोचना क्या है! वो ये भी नहीं जानता कि उसे विजय मिलेगी, वो जानता है कि उसे विजय मिल ही गयी है; अब सोचना क्या! बात आगे की है ही नहीं।

सच्चाई की राह चलने का फ़ायदा ही यही है — विजय तुम्हें भविष्य में नहीं मिलती, जिस क्षण तुमने सही राह पकड़ी, तुम विजयी हो गये। हाँ, बाहर-बाहर अभी यात्रा चलती रहेगी, बाहर-बाहर युद्ध चलता रहेगा; भीतर विजय है। विजय पहले है, युद्ध बाद में है। परिणाम पहले है, खेल बाद में है। ये है सकारात्मक होना।

तो अध्यात्म में जो सकारात्मक हो जाते हैं, जो श्रद्धालु हो जाते हैं, वो साधारण सकारात्मकता से बहुत आगे निकल जाते हैं। उनके लिए अब इस तरह की बातों का कोई महत्व नहीं रह जाता कि बी पॉजिटिव (सकारात्मक रहें), होप फ़ॉर द बेस्ट (श्रेष्ठ परिणाम की आशा रखें) इत्यादि-इत्यादि। वो हँसते हैं, वो कहते हैं, 'आइ डोंट होप एट ऑल' (मैं आशा ही नहीं करता)।

उम्मीद तो तब करें न जब कुछ अनिश्चय हो, कुछ संशय हो। उम्मीद क्या करनी है! फ़ैसला हो गया। फ़ैसला न हुआ होता तो हम इस राह पर चल कैसे पाते! ये राह उनके लिए है ही नहीं जो अभी अधर में लटके हैं। ये राह उन्हीं के लिए है जो फ़ैसला कर चुके हैं। जो कुछ सोचा जाना था वो कब का सोच लिया। सोच पीछे छोड़ दी। अब कुछ सोचना नहीं है। अब तो बस चल रहे हैं।

क्यों चल रहे हैं? बात अकारण, अ-कही, अतार्किक; समझा नहीं पाएँगे। अरे! समझा क्या नहीं पाएँगे, हमें ही नहीं पता। पता होना बहुत छोटी बात होती है। जो चीज़ तुमको पता है वो कल लापता भी हो सकती है। तो सच तुमको न पता हो यही बेहतर है। बस पक्का है। क्या पक्का है, वो नहीं पता। क्यों पक्का है, वो भी नहीं पता। बस पक्का है।

फिर ठीक है।

एक बड़ा मुश्किल अभियान था जिसमें मौत क़रीब-क़रीब पक्की थी, अफ़सर को सैनिक चुनना था इस अभियान के लिए। उसने पूरी यूनिट सामने खड़ी कर ली। बताया कि अभियान ऐसा-ऐसा है, कौन-कौन आतुर है? तो कुछ जांबाज़ सामने आये। बाक़ियों को उसने रवाना कर दिया।

बोला, ‘तुम्हारे मन की परीक्षा ली जाएगी पहले तो। बोलो, जीत मिलेगी कि हार?’ जितने जवान थे वो सब एक स्वर से चिल्लाये, ‘जीत’, और जहाँ वो चिल्लाये ‘जीत’, वहाँ एक ने बड़ी ज़ोर से जम्हाई ली। अफ़सर ने कहा, ‘ये जाएगा। ये उम्मीद से आगे जा चुका है। इसे अब फ़र्क ही नहीं पड़ रहा कि जीत मिलेगी कि हार। इसके लिए ये सवाल अब कोई महत्व, कोई आकर्षण, कोई उत्तेजना रखता ही नहीं है कि जीतेंगे कि हारेंगे। इसने तो बस अपनेआप को प्रस्तुत कर दिया है।‘

‘मैंने कहा कौन-कौन इस मिशन के लिए तैयार है? ये सामने आकर खड़ा हो गया है। सामने आकर खड़ा हो गया है और मैं पूछ रहा हूँ कि जीत मिलेगी कि हार, तो ये कह रहा है, ‘अहह! ये कोई पूछने की बात है! जो होगा सो होगा। हमें तो लड़ना है, जो होगा सो होगा।‘’

जो जीत के अभिलाषी हैं, जब देखेंगे कि जीत नहीं मिल रही है तो टूट जाएँगे। जिसको जीत चाहिए ही नहीं, वो लड़ता रहेगा। वो जीत गया। अब तुम उसे हरा ही नहीं पाओगे। वो सब दुश्मनों पर भारी पड़ेगा। ये है सकारात्मकता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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