सच का स्वाद ज़रूरी है झूठ छोड़ने के लिए || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सच का स्वाद ज़रूरी है झूठ छोड़ने के लिए || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: भगवान श्री, नमन। आज मास्टर चुआंग त्ज़ु को पढ़ने का मौक़ा मिला। उनकी एक कहानी का शीर्षक, ‘फ़्लाइट फ्रॉम द शैडो’ , इसमें एक आदमी है जो हूबहू मेरे मन जैसा है। वह अपनी छाया से बहुत परेशान है। इससे छुटकारा पाने के लिए वह भागता है, भागता है, भागता है और इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अगर इससे आगे बढ़ना है तो मुझे और तेज़ दौड़ना पड़ेगा। और आख़िरकार तेज़ दौड़ते-दौड़ते मर ही जाता है।

मैं भी तृप्ति के लिए दौड़ रहा हूंँ। अब तक की सीख ने समझाया कि और तेज़ दौड़ो। और अचानक एक दिन आप मिले। दौड़ना थोड़ा कम हुआ पर मन में अब भी बाहर से पाने की आशा है। ये आशा कैसे विगलित हो, इसको समझाने की अनुकम्पा करें।

आचार्य प्रशांत: झूठ में, दौड़ में सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं होता कि जैसे जी रहे हैं उसकी निस्सारता दिखने लगे, जो जीवन आज तक नहीं जिया उसका थोड़ा स्वाद भी मिलना चाहिए। फिर नये जीवन में टिकेंगे। जो व्यक्ति दौड़ रहा है अपनी ही छाया से घबराकर, उसको आप समझाओगे कि तुम अपनी छाया से घबराकर जितना तेज़ दौड़ोगे, छाया उतनी ही तेज़ी से तुम्हारे पीछे आएगी, तो हो सकता है वो बात उसके पल्ले पड़ जाए। पल्ले पड़ेगी तो उसको थोड़ा दुख ही देगी। किस बात पर? कि मैं ग़लत काम कर रहा हूंँ, छाया से घबराकर भाग रहा हूंँ, और जितना भाग रहा हूंँ उतना छाया पीछे-पीछे आ रही है, चिपकी हुई है। देखो, मैं तो बुद्धू बन गया।

आनन्द नहीं मिला अभी उसको। आनन्द तो तब मिलेगा जब वह थम जाएगा और विश्राम में आएगा। बात समझ रहे हो? नेति-नेति झूठ को काटने के लिए अच्छी चीज़ है, पर नेति-नेति भी तब तक पूरी हुई नहीं, जब तक पूरी ही तरह रुक नहीं गये। सबकुछ काट-कूट दिया जो काटने लायक़ था, अब ज़रा रुकने का भी तो स्वाद ले लो।

भाग रहे थे, वो ग़लत था — समझ गये बात, पर अब ज़रा टिकने का भी तो स्वाद ले लो। आदमी का मन देखो ऐसा है कि उसको सिर्फ़ ये बताते रहेंगे कि तुमने ये ग़लत किया, तुमने ये ग़लत किया तो बात बनेगी नहीं। जो सही है, उसे उसमें भी प्रवेश करना होता है। फिर उसको पक्का भरोसा आता है। पक्का भरोसा कभी भी आपको सिर्फ़ झूठ को काटने भर से नहीं आ जाएगा। पक्का भरोसा तो सत्य में प्रतिष्ठित होकर ही आता है। आप कहते हो, ‘ठीक है। अब ठीक है।’

पुराने जीवन में जो कुछ छोड़ने लायक़ है, आप छोड़ रहे हैं, भला कर रहे हैं। नया जीवन शुरू भी तो करिए। नहीं तो बड़ी उबकाई आएगी कि पहले जो कुछ हाथ में था वो तो छूट गया, गुरुजी बता गये कि ये सब निस्सार है, हटाओ और अब खाली हाथ झुलाये घूम रहे हैं! कुछ है ही नहीं हाथ में!

जो पुराना छोड़े उस पर दायित्व बनता है कि वो फिर नये का स्वागत भी करे, अपनेआप को नया जीवन जीने की अनुमति भी दे। और ख़तरा है — पुराने को छोड़ोगे और नयी शुरुआत नहीं करोगे तो फिसलकर के पुनः पुराने में ही वापस आओगे, क्योंकि कोई विकल्प ही नहीं है।

और अब पुराने में आना बहुत खलेगा। ये थूककर चाटने जैसी बात होगी कि जो चीज़ें छोड़ गये थे पीछे, अब उसी में लौटकर आ रहे हो। अतीत अब ताने मरेगा, कहेगा, ‘बड़े होशियार बनते थे! बाहर निकले थे ये कहकर कि अतीत तो कूड़ा-कचरा है, हम वर्तमान में जिएँगे। जी लिया वर्तमान में? कुछ मिला? अब वापस आए हो न, अब तमीज़ से रहना। दोबारा धृष्टता की तो वापस भी नहीं आने देंगे तुमको।’

छोड़ना काफ़ी नहीं है, बनाना भी ज़रूरी है। या ऐसे कहिए कि छोड़ना काफ़ी नहीं है, पाना भी ज़रूरी है और तोड़ना काफ़ी नहीं है, बनाना भी ज़रूरी है। छोड़ने से और तोड़ने से शुरुआत होती है। आपको शुरुआत नहीं चाहिए, शुरुआतों से तो आप वैसे ही परेशान हो, आपको अन्त चाहिए। अन्त छोड़ने और तोड़ने से नहीं होता, अन्त पाने और बनाने से होता है। शुरुआत भी करिए और उस शुरुआत को उसके सम्यक् अन्त तक भी ले जाइए। शुरुआत है छोड़ना, अन्त है पाना। शुरुआत है तोड़ना, अन्त है बनाना। बनाइए! अब नवनिर्माण का वक़्त है, चुनौती है।

आध्यात्मिक साधक की ये जो बीच की अवस्था होती है न, ये बड़ी दयनीय हो जाती है। जैसे किसी बच्चे से उसका पुराना झुनझुना छीन लिया हो और खेल का मैदान उसको अभी दिया ही न हो, तो वो कहता है, ‘एैएैएै! (असहाय और अपमानित होने के भाव के साथ)’। पर इस स्थिति से सबको गुज़रना पड़ता है और हिम्मत के साथ गुज़रना पड़ता है। पुराने के जाने और नये के आने के बीच में सदा रिक्तता का एक अन्तराल आएगा-ही-आएगा। उस अन्तराल में साहस रखिएगा। वो अन्तराल ख़तरनाक होता है। उस अन्तराल में बहुत लोग होते हैं जो नया मिलता न देखकर के पुनः पुराने को चुन लेते है। ये मत करिएगा। यही अन्तराल परीक्षा है। इसमें साहस रखिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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