सभी परम के रूप हैं || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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सभी परम के रूप हैं || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, यदि सत्य पूर्ण है तो उसी स्रोत से जब चेतना आती है तो वह अपूर्ण क्यों होती है?

आचार्य प्रशांत: चेतना अपूर्ण होती नहीं है, चेतना के पास चुनाव होता है पूर्ण या अपूर्ण होने का। वास्तव में सत्य और चेतना अलग-अलग नहीं हैं। सत्य ही जब अपूर्ण होने के अपने विकल्प का चुनाव कर लेता है तो वो साधारण चेतना कहलाता है।

सत्य तो अद्वैत है, तो माने सत्य के अलावा तो कुछ हो नहीं सकता न। सत्य पाँच-सात होते हैं क्या? अभी बात करी थी, सत्य तो एक है; तो सत्य और चेतना दो कैसे हो सकते हैं? जब सत्य के अलावा किसी दूसरी इकाई का अस्तित्व ही नहीं हो सकता तो, 'सत्य और चेतना हैं', ये वाक्य ही ग़लत हो गया न? सत्य और, जहाँ तुमने कहा 'सत्य और', तहाँ बात गड़बड़ हो गई।

सत्य क्या कहलाता है? असंग-निसंग। जिसके साथ कभी किसी को जोड़ मत देना, जिसके बगल में कभी किसी को बैठा मत देना। 'सत्य और असत्य', ऐसा भी कभी मत कह देना। सत्य मात्र है।

तो चेतना भी क्या है? चेतना सत्य ही है, वो अपूर्ण नहीं है। सत्य ही जब इस विकल्प का उपयोग कर लेता है कि वो सीमित भी हो सकता है तो वो सीमित सांसारिक चेतना बन जाता है।

सत्य को कौन भ्रम में डालेगा? सत्य ही स्वयं को भ्रम में डाल सकता है। हम सत्य ही हैं जिसने स्वयं को मूर्ख बना रखा है।

ये बात बढ़िया है, कभी-कभार खिलवाड़ में करो तो कोई बुराई नहीं। ख़ुद को ही बुद्धू बना लिया। शुरुआत ऐसे ही हुई थी। सत्य ने ख़ुद से कहा—कोई दूसरा तो है नहीं तो किसके साथ खेलना है सत्य को? ख़ुद के साथ। तो ख़ुद से कहा, "चलो आज खेलते हैं। ठीक है, आज खेलते हैं। क्या करना है? ख़ुद को बुद्धू बनाना है।" तो ख़ुद को बुद्धू बनाया बड़ा मज़ा आया। सत्य का काम था।

तो कहा, "और खेलते हैं!" तो कहा, "ठीक है, और खेलते हैं, खेल को आगे बढ़ाना है। पिछली बार मज़ा किसमें आया था? ख़ुद को बुद्धू बनाने में।" तो कहा, "इस बार ज़रा लम्बा बुद्धू बनाएँगे। इस बार दूर का और देर तक बुद्धू बनाएँगे।" तो इस बार सत्य ने क्या कहा? "ठीक है।" वो तो जो चाहता है हो जाता है, 'कुन फाया कुन'। उसकी इच्छा पर किसी का बस तो चलता नहीं, है न? इस बार सत्य ने कहा, "ठीक है, मैं बुद्धू बन जाऊँ और मैं भूल जाऊँ कि मैंने ही ख़ुद को बुद्धू बनाया है।" और वही हो गया।

शुरुआत ऐसे हुई थी कि सत्य ने कहा था कि 'मैं बुद्धु बन जाऊँ'। लेकिन ये याद रखा था कि 'ख़ुद को ही बुद्धू बनाया है मैंने', तो कुछ देर तक बुद्धु बने लेकिन ये याद था कि हम हैं कौन; अपनी पहचान नहीं भूले थे। ये याद रखा था कि हम बाहर-बाहर से बुद्धु हैं भीतर-भीतर हम सत्य हैं। लेकिन उस खेल में मज़ा बहुत आया तो खेल को आगे बढ़ा दिया। बोले 'इस बार ऐसा बुद्धु बनेंगे कि हम भूल ही जाना चाहते हैं कि हम हैं कौन।' जब सत्य ने ये खेल खेला तो उसमें से अमन (प्रश्नकर्ता का नाम) पैदा हुआ।

जो बाहर से बुद्धू है और भीतर से भूल ही गया है कि जानबूझ करके और स्वयं ही बुद्धू बना है, माने किसी भी क्षण वो इस विकल्प का भी इस्तेमाल कर सकता है कि अब बुद्धू नहीं रहना। लेकिन वो ऐसा बुद्धू बन गया है कि भूल ही गया है कि बुद्धू बनना और ना बनना अपने हाथ में है; ये बात बिलकुल अब विस्मृत हो चुकी है। अब क्या याद है? अब ये याद है कि हम तो बुद्धू ही हैं। अब ये याद हो गया है। बुद्धू हैं नहीं।

अध्यात्म का क्या काम है? अध्यात्म का काम है जैसे जामवंत गए थे हनुमान जी को याद दिलाने। क्या? कि "तुम्हारे पास कुछ शक्ति है, तुम भूल गए हो कि शक्ति है।" हनुमान जी को याद ही नहीं आ रहा।

हनुमान जी कह रहे हैं "है क्या?"

वो कह रहे, "बिलकुल है!"

बोल रहे हैं, "इतना बड़ा समुद्र मैं पार कर जाऊँगा?"

वो बोले, "बिलकुल पार कर जाओगे। बड़े-से-बड़ा समुद्र तुम ही पार कर जाओगे।"

हनुमान जी को विश्वास ही नहीं आ रहा। बोल रहे हैं, "मैं कैसे ये समुद्र पार कर जाऊँगा?"

तो अध्यात्म जामवंत है, तुम हनुमान हो। तुम क्या हो तुम भूल गए हो। तुम्हें अपनी ही असलियत याद नहीं। तुमने अपने साथ बड़ा ज़बरदस्त खेल खेला है और फिर पूछते हो कि 'किसने मेरे साथ खेल-खेला है?' तुम्हारे अलावा है कौन जो खेल खेलेगा तुम्हारे साथ? तुम ही तो हो अकेले, अद्वैत।

तो अब ये मत पूछना कभी कि निराकार से साकार कैसे उत्पन्न हो गया, या जो अभी पूछा था कि 'पूर्ण से अपूर्ण कैसे आ गया? शुद्ध से अशुद्ध कैसे आ गया? निर्गुण से सगुण कैसे आ गया?'

कैसे आ गया? अरे, मर्ज़ी थी हमारी, ऐसे आ गया। हम ही हैं, हमारा ही राज है। वो ऐसे थोड़े ही परमात्मा कहलाता है। भई, उसकी चलती है। वो अकेला है। कोई नियम-कानून उस पर लागू होते नहीं।

भाई, मर्ज़ी थी कि 'अभी कुछ याद नहीं रखना, मुझे भूलना है'; भूल गया। कौन रोकेगा उसको? ये तो दिक़्क़त नहीं थी कि कौन रोकेगा, अब ज़्यादा बड़ी दिक़्क़त ये है कि भूल गया तो वापस याद कौन दिलाएगा? क्योंकि कोई दूसरा है ही नहीं।

अब तुम अकेले ही हो, मान लो एकदम अकेले हो जंगल में, एकदम अकेले। और तुम मालिक हो, कौन रोक रहा है? तुम कहीं से एक रस्सी पा जाओ। अब जंगल में रस्सी मिल गई, तुम्हें आनंद आ गया बिलकुल। जंगल में रस्सी होती नहीं, पता नहीं कैसे तुमको मिल गई। और तुम मज़े लेने के लिए खेल-खेल में अपने-आपको पूरा चारों तरफ़ से रस्सी से बाँध लो। कोई आएगा रोकने तुमको? तुम मालिक हो कोई रोकेगा नहीं।

अब दिक़्क़त ये नहीं थी कि जब तुम रस्सी बाँध रहे थे तो किसी ने रोका नहीं, दिक़्क़त ये है कि अब रस्सी बाँध ली है तो कोई खोलने वाला नहीं है। लेकिन जब बाँध रहे थे तब तुम ये सोचोगे नहीं कि 'मुझे खोलेगा कौन?' क्योंकि तुम मालिक हो। अब जब बाँध ली है तो अब फँसे हुए हो, मालिक ही फँस गया। किसने फँसा दिया मालिक को? मालिक ने ही मालिक को फँसा दिया। जब मालिक ही मालिक को फँसा देता है तो उसका क्या नाम हो जाता है?

अब इधर से ऐसे हाथ कर लिया है (हाथ को सिर के ऊपर से पीछे ले जाते हुए), टांग मुँह के अंदर डाल ली है, न जाने कहाँ से घुसी है रस्सी, कहाँ को निकल रही है। पचासों जगह गाँठें बाँध ली हैं, कुछ रिश्ते, कुछ नाते, कुछ ये, कुछ वो। और ये सब हो जाने के बाद कह रहे हैं 'बस इतना बता दो ये किया किसने? ये किया किसने बस ये बता दो?'

और कुछ ऐसे होशियार हैं वो प्रार्थना कर रहे हैं, "हे परमात्मा! आकर के गाँठें खोल दे।" अरे! तुम ही हो, तुम्हारी गाँठ और कौन खोलने आएगा? तुम वही भर नहीं हो जो फँसा हुआ है, तुम वो भी हो जिसमें फँसने वाला फँसा हुआ है; वो रस्सी भी तुम्हीं हो। तुम किसको प्रार्थना करके बुला लोगे? कोई दूसरा है ही नहीं। तो जैसे तुम स्वेच्छा से फँसे थे वैसे ही अब स्वेच्छा से अपनी गाँठें खोलनी भी होंगी, रस्सी काटनी भी होगी। कोई आएगा नहीं मदद करने। तुम ही हो।

उसको वहाँ बैठकर हीन भावना आ गई (किसी दूसरे श्रोता की ओर इशारा करते हुए), आइडेंटिटी क्राइसिस हो गई। कह रहा है कि, "बस यही भर है तो हम कौन हैं?" कह रहा है, "अमन ही अमन है, हमारा क्या होगा फिर?" तुम भी वही हो, दोनों एक हो। दोनों एक दूसरे का सपना हो।

नहीं समझे? वो बुद्धू बना तो तुम हो, और उसको लग रहा है कि तुम हो। नहीं समझे? और उसके सपने में तुम हो। उसके सपने में जो पात्र है जिसका नाम 'राकेश' है, वो भी अपने-आपको सही समझ रहा है कि 'मैं भी हूँ'। वो बुद्धू बना माने वो अपने सपने का एक पात्र बन गया। जो असली अमन है वो सपना ले रहा है। क्या कर रहा है? सपना ले रहा है। सपना क्यों ले रहा है? मर्ज़ी है भाई की।

अभी आज क्या फैसला किया है? आज का मनोरंजन क्या है? सपना लेना है। तो आज का मनोरंजन है सपना लेना है। वो जो असली अमन है, परमपिता परमात्मा प्रथम, तो वो तो मस्त क्या ले रहा है? सपने। उसके सपने में दो पात्र हैं। एक पात्र कौन है? वो अमन जो बुद्धू बन गया। और दूसरा पात्र कौन है? ये राकेश।

राकेश की भी सच्चाई क्या है? कि वो परमपिता परमात्मा ही है। अब ये कह रहा है, 'लेकिन उसका नाम तो अमन है न।' उसका नाम राकेश भी रख सकते हो, कुछ भी रख लो, पर वो एक ही है। उसके सपने के तुम सब पात्र हो और तुम सपने में आपस में बातें कर रहे हो।

तुम्हारे सपने में दस जने आते हैं, वो आपस में बात नहीं करते क्या? तुम सपना ले रहे हो उसमें दस जने देखे तुमने, वो सब आपस में बाते नहीं कर रहे होते? वो सब आपस में संसार नहीं सजा रहे होते? ठीक उसी तरह तुम सब किसी एक के सपने के पात्र भर हो। सच्चाई तुममें से किसी में नहीं है और सपने में ये सारी कहानी चल रही है।

किसका सपना है?

तुम्हारा व्यक्तिगत सपना नहीं है, वो सपना ले रहा है। लेकिन वो तुम ही हो, इसलिए तुम अगर अपना व्यक्तिगत सपना तोड़ दो तो तुम्हारे लिए उसका सपना भी टूट गया। उसका सपना तोड़ने का तरीका क्या है? ये याद करना कि 'मैं वही हूँ'। अगर मैं वही हूँ—तुम अगर सपने से बाहर आ गए तो उसका सपना भी टूट गया। नहीं समझे?

तुम्हारे सपने में दस पात्र हैं। इसमें से एक पात्र अचानक से निर्वाण पा गया तो पूरा सपना ही टूट गया कि नहीं टूट गया? या ऐसा होगा कि दस में से नौ बचेंगे? सपना चलता रहे इसके लिए दस-के-दस चाहिए, दस-के-दस चाहिए न? अगर एक भी सपने से कूद कर बाहर आ गया तो बाकी नौ भी साबित हो जाएँगे कि झूठे हैं। भाई, एक झूठा था उसमें से, तो माने सब झूठे हैं। ये तरीका है सपना तोड़ने का।

आ रही है बात समझ में?

प्र: जी।

आचार्य: किसको?

प्र२: आचार्य जी, ये जो आप सपने की बात बोल रहे हो तो इसी सपने में एक चीज़ होती है जिसको बोलते हैं 'गहरी नींद'। तो वहाँ पर तो कोई पात्र नहीं रहता, कुछ नहीं रहता। और जैसा हमें ये दिख रहा है संसार पूरा, ये तो हर दिन का अनुभव है। मान लो अभी तीन घण्टे बाद फिर से एक वो स्थिति आएगी जब जो अभी लग रहा है वो कुछ नहीं रहेगा। तो वो स्थिति फिर क्या होती है? उस वक़्त भी आपका पूरा संसार चला गया।

आचार्य: बेटा, तुम अपने सपने की बात कर रहे हो न। तुम्हारे सपने में ये होता है और सुषुप्ति हो जाती है गहरी नींद। तुम तो अपने सपने के सामने मजबूर हो। तुम्हें तो ये पता ही नहीं है कि तुम्हारे सपने में क्या आएगा, तुम्हें ये भी नहीं पता कि सुषुप्ति लगेगी या नहीं लगेगी या कब लगेगी।

हम जिस अर्थ में सपने की बात कर रहे थे, वहाँ पर सपना स्वेच्छा से था। तुम तो मजबूर हो। अभी हम किसके सपने की बात कर रहे थे? हम परम के सपने की बात कर रहे थे। वहाँ पर किसी मजबूरी में थोड़े ही सपना लिया जा रहा है। उसको कौन मजबूर करेगा? तो उसने सपना लिया है कि 'अभी मैं सपना लूँगा, सपने में ये सब होंगे', तो वो चल रहा है। वो दूसरी तरह का सपना है। वो ऐसा सपना नहीं है कि जिसमें फिर मन की छुपी हुई वृत्तियाँ प्रकट होती हैं। तुम अपने सपने की बात मत करो। उदाहरण दूसरी दिशा में है।

प्र३: आचार्य जी, जैसे आपने अभी-अभी बताया कि अगर दस लोग हैं सपने में और उसमें से अगर एक आदमी का भी सपना टूट जाता है तो जो नौ अन्य लोग हैं उनका भी सपना खंडित हो जाता है। तो मुझे बस एक छोटी सी कंफ्यूज़न ही थी कि क्या इसका मतलब ये है कि वो जो नौ लोग हैं, वो जो दसवाँ आदमी है जो अभी-अभी उठा है...

आचार्य: ये नहीं मतलब है जैसे ले रहे हो। मतलब ये है कि इस सपने में जितने पात्र हैं उन सब पात्रों की वास्तविकता क्या है? वो सब क्या हैं?

प्र३: झूठ हैं, सपना है।

आचार्य: वो सब परम् हैं। मूलतः वो सब वही हैं जो सपने ले रहा है। जो सपना ले रहा है, उसके सपने के सारे पात्र वास्तव में उसी का रूप हैं। और वो सारे पात्र एक-दूसरे को तभी तक वास्तविक मान रहे हैं जब तक वो सपने में हैं, सपने के भीतर हैं। उदाहरण के लिए, अमन राकेश को वास्तविक मान रहा है या अमन स्वयं को वास्तविक मान रहा है, सिर्फ़ तभी तक न जब तक अमन स्वयं को आत्मा नहीं जान रहा है। तो अमन जब तक सपने का पात्र बना बैठा है इसके लिए सपने के बाकी पात्र भी क्या हैं?

प्र३: असली।

आचार्य: हाँ। तो अगर एक ये पात्र सपने का सपने से बाहर चला जाए, तो इसके लिए जो बाकी सारे पात्र थे वो भी तत्काल ख़त्म हो जाते हैं, ये आशय था। और सपने से बाहर जाने का यही मतलब है कि सपने के भीतर हो तो जीव हो और सपने से बाहर हो तो आत्मा हो, सत्य हो। जितने भी लोग जीव-भाव या देह-भाव में जीते हैं वो वास्तव में सपने के ही भीतर हैं। वो सपने के ही एक पात्र हैं, किरदार हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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