प्रश्नकर्त्ता: आचार्य जी, मैं जब कक्षा में होता हूँ, और जब अध्यापक प्रश्न करते हैं मुझसे, उत्तर पता होने के बावजूद मैं जवाब नहीं दे पाता हूँ। कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: मैं भी हैरत में हूँ। बिलकुल करीब-करीब वही सवाल है जो पहले प्रश्नकर्ता का था कि मैं हाथ उठाना चाह रहा था पर कम्प-कम्पाहट हो रही थी, डर लग रहा था।
प्रश्नकर्त्ता: अभी भी हो रही है।
आचार्य प्रशांत: ‘अभी भी हो रही है? और जब क्लास होती है उसमें भी मैडम बुलाती हैं कि यहाँ पर (कक्षा के सभी छात्रों के सामने) आ जाओ, तो जानता भी हूँ बोल नहीं पाता।’
प्रश्नकर्त्ता: सर, वैसे मैं बहुत बोलता हूँ क्लास में।
आचार्य प्रशांत: ‘और वैसे खूब बोलता हूँ।’ ये बात मुझे भी हैरत में डाल रही है कि जो काम इतना सरल है, उसमें तुम्हें इतनी दिक्कत क्यों है। आप बताओ, वास्तव में, सरल काम है कि नहीं यहाँ आकर बात करना?
प्रश्नकर्त्ता: सर, मुझे तो नहीं लग रहा अभी।
आचार्य प्रशांत: लग रहा है न?
प्रश्नकर्त्ता: नहीं लग रहा।
आचार्य प्रशांत: अभी नहीं लग रहा?
प्रश्नकर्त्ता: नहीं, सर।
आचार्य प्रशांत: पर देखो इसको (श्रोत्राओं से कहते हुए), मुस्कुरा भी रहा है और सहजता से बोल भी रहा है। चलो, एक दूसरा प्रयोग करते हैं, ठीक है? ये जितने लोग बैठे हैं (श्रोताओं की ओर इशारा करते हए), क्या नाम है?
प्रश्नकर्त्ता: शहज़ाद।
आचार्य प्रशांत: शहज़ाद, यें जितने भी लोग यहाँ बैठे हैं, अगर मैं इन सबको यहाँ से बाहर निकाल दूँ और उसके बाद हम-तुम बात करें, तो क्या तब भी हाथ काँपेंगे?
प्रश्नकर्त्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: तो यही नालायक है न फिर (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए)? इस बात को समझना, ये हो क्या रहा है। शहज़ाद को डर नहीं लग रहा अगर सिर्फ़ मुझे और उसे बात करनी है। और शहज़ाद कह रहा है कि मेरे हाथ काँप रहे हैं।
प्रश्नकर्त्ता: अब भी काँप रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: अब भी काँप रहे हैं? ये तुम हो जो उसके हाथ कम्पा रहे हो (श्रोताओं को कहते हुए)। समझ रहे हो बात को? डर आता कहाँ से है, इस बात को समझ रहे हो?
श्रोतागण: जी।
आचार्य प्रशांत: कहाँ से आता है?
श्रोतागण: दूसरों से।
आचार्य प्रशांत: डर दूसरों से आता है, और तुम्हारे दिमाग में कब्ज़ा करके बैठ जाता है। वो (प्रश्नकर्ता) सवाल पूछने से नहीं डर रहा है, वो किससे डर रहा है? वो तुमसे (श्रोताओं से) डर रहा है कि तुम सुनकर क्या सोचोगे। तुम न रहो, वो डरेगा नहीं। और अगर मैं भी न रहूँ तो बिलकुल ही नहीं डरेगा। अकेले कमरे में खुद से बात करने में कोई डरता है?
प्रश्नकर्त्ता: नहीं, सर।
आचार्य प्रशांत: शहज़ाद को जो डर है, वो किसका है? दूसरों का, द अदर। और हर डर दूसरे का ही होता है, और कोई डर है ही नहीं दुनिया में, एक ही डर है — दूसरे का डर। एक ही डर है, किसका डर? दूसरे का डर, दूसरा क्या सोचेगा। क्योंकि हम अपने आप को जानते नहीं, और अपनी वही छवि बना लेते हैं जो दूसरे हमें देते हैं। दूसरे कह दें शहज़ाद से कि शहज़ाद बहुत बढ़िया है, तो शहजाद को लगता है, ‘मैं बहुत बढ़िया हो गया।’ और यही दूसरे, तुम लोग, अगर शहज़ाद से बोल दो कि तू तो घोंचू निकला, सवाल नहीं पूछना आता, तो शहज़ाद को लगता है कि मैं तो वाकई गिर गया, शर्म की बात हो गयी। यही कारण है कि वो डर जाता है। बात देख पा रहे हो?
डर हमेशा दूसरों का होता है, दूसरों से आता है, उसकी कोई और सत्ता नहीं है, कोई वजूद नहीं है उसका। बिलकुल मानसिक है, कहीं डर नहीं है। मैं तुमसे कहूँ, ‘अपना डर दिखाओ’, तो तुम दिखा नहीं पाओगे। कहाँ है डर? एक कल्पना है बस, एक विचार है, और डर कुछ नहीं है। सिर्फ़ एक कल्पना है और वो कल्पना दूसरों की कल्पना है, ‘दूसरे क्या कहेंगे?’ सदा तुम दूसरे से ही डरे हो। तो डर से मुक्ति भी फिर कैसे है, कैसे होगी? जब तुम दूसरों की सोचना…
श्रोतागण: बंद करेंगे।
आचार्य प्रशांत: जिसने दूसरों की गुलामी छोड़ दी, जो दूसरों पर आश्रित नहीं रहा, अब उसके जीवन में डर भी नहीं रहा। और जो जितना ज़्यादा दूसरों की सोचता है, वो उतना ही ज़्यादा डरता है। तो जिन्हें डर से मुक्ति पानी हो, वो अपनी आँखें खोलें और अपने कदमों से चलना सीखें। और यही करा है शहज़ाद ने। डर है, पर उसके बाद भी कह रहा है, ‘चुनौती दूँगा, मेरी बात है, मैं महत्वपूर्ण हूँ, मैं अपनी इज्ज़त करता हूँ, और मेरा एक सवाल है, उसको पूछूँगा। मेरा सवाल है न, तो मैं पूछूँगा।’
प्रश्नकर्त्ता: सर, पहली बार पूछा है आज।
आचार्य प्रशांत: आज पहली बार पूछा है न? बस, पहली बार हो सकता है, भले आज तक न हुआ हो। एक के साथ हुआ है तो सबके साथ हो सकता है। पहली बार हो सकता है और अभी हो सकता है। और मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि शहज़ाद ने खुद वहाँ से कहा था कि मुझे यहाँ आकर बोलना है। मैंने तो मना ही करा, उसने खुद कहा कि मुझे यहाँ आकर बोलना है। और जब ये बात होती है न भीतर कि मैं महत्वपूर्ण हूँ, मैं दूसरों से ज़्यादा महत्वपूर्ण हूँ, सबसे पहले मैं आता हूँ, सवाल मेरा है तो पूछने योग्य है, बात मेरी है तो उठाने काबिल है, उस दिन तुम डर से मुक्त हो जाते हो। आज इसने जो कर लिया है, ये इसके लिए बहुत बड़ा कदम है। आज के बाद ये वही नहीं रहेगा जो आज से पहले था। आज के बाद ये जो भीड़ का डर है, इसके लिए बहुत कम हो जाएगा। ये भीड़ बैठी है न? और इसी भीड़ के सामने डर लगता था? और बोल भी गये।
प्रश्नकर्त्ता: सर, अब नहीं लग रहा।
आचार्य प्रशांत: अब नहीं लग रहा, हाथ-पाँव का काँपना कुछ कम हुआ है?
प्रश्नकर्त्ता: जी, सर।
आचार्य प्रशांत: बिलकुल ठीक है? एकदम कम है?
प्रश्नकर्त्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: बात मज़े की तो है ही, पर बहुत गम्भीर भी है। तुम्हारे लिए इसमें बड़ी सीख है।
प्रश्नकर्त्ता: सर, जिस समय आया था तो हाथ-पैर काँप रहे थे कि पता नहीं क्या हो जाएगा।
आचार्य प्रशांत: और अभी? कुछ नहीं। ध्यान दो, ये जादू से कम नहीं है। तुमने इस वक्त जीत लिया है उन सब ताकतों को, जो तुम्हारे मन को डराये हुए थीं। ये सबसे बड़ी जीत होती है। ये सबसे बड़ी जीत होती है कि मेरे मन पर जिनका कब्ज़ा था, मैं मुक्त हो गया हूँ, मैं स्वतन्त्र हूँ। बिलकुल अकेला हूँ मैं अब, कोई हावी नहीं मुझ पर।
उसके (प्रश्नकर्ता के) लिए हुआ, तुम्हारे लिए (श्रोताओं के लिए) भी सम्भव है। पर उसके लिए तुम्हें एक बार को स्पष्टता से देखना होगा, हिम्मत को आने देना होगा और कर डालना होगा। ठीक है? स्पष्ट है?
जाओ शहज़ाद।
प्रश्नकर्त्ता: आचार्य जी, मैं लड़कियों से बात करने में बहुत घबराता हूँ, किन्तु लड़कों से बात करने में नहीं घबराता हूँ। कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: और ये जो है, बड़ी साधारण बात है आरिफ़। तुम जिससे भी अनभिज्ञ रहते हो, कटे रहते हो, दूर रहते हो, उसके ही प्रति मन में एक गाँठ बाँध लेते हो। तुम, उदाहरण के लिए ― अफ़्रीकन लोगों से नहीं मिले हो न ― एक पार्टी में जाओ, जहाँ पर तीन-चार भारतीय हों और दो-तीन अफ़्रीकन हों। तो तुम सबसे पहले किसके पास चले जाओगे? भारतीयों के पास। जिसको ही नहीं जानते, बचपन से ही जिससे दूर-दूर रहे हो, उसको ही लेकर के मन में एक गाँठ बँध जाती है, एक दूरी आ जाती है।
अब हमारा समाज कुछ ऐसा है कि इसमें लड़के-लड़कियाँ बचपन से ही बहुत दूर कर दिये जाते हैं। तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं कि अगर तुम एक लड़के हो तो तुम्हें लड़कों की अपेक्षा लड़कियों से ज़्यादा हेज़िटेशन (झिझक) होता है। ये बड़ी साधारण-सी बात है, ये होकर रहेगी। क्योंकि हमारा पूरा पालन-पोषण ऐसे तरीके से हुआ है जिसमें हम एक वर्ग से ज़्यादा मिलते हैं, और दूसरे वर्ग से कम मिलते हैं। जितना ज़्यादा तुम इस दीवार को गिराते जाओगे, उतना ज़्यादा पाओगे कि डर की, झिझक की बात ही नहीं। और ये बात तुम पर ही नहीं, लड़कियों पर भी लागू होती हैं, उनको भी झिझक रहती है। और ये मत समझना कि ये कोई जेंडर स्पेसिफ़िक (लिंग विशेष की) बात है, तुम जिस भी बात को जानोगे नहीं उसी से डरोगे।
एक उदाहरण देता हूँ, कितने लोगों के घर में पेट्स हैं, कुछ पालतू जानवर? पालतू खूँखार कुत्ते कितने लोगों के घर में हैं, जो थोड़े देखने में भयानक से लगते हों?
(श्रोतागण हाथ उठाते हैं)
जब तुम्हारा पालतू कुत्ता तुम्हारे पास आता है, तुम्हें उससे डर लगता है क्या, भले ही वो कितना बड़ा हो गया हो, कितना खूँखार दिखता हो? पर जब कोई बाहर वाला आता है जो उसको जानता नहीं, जो उससे कभी मिला ही नहीं, तो उसकी क्या हालत होती है? वो छुपता है, भागता है, कहता है, ‘उसको बाँध दो, फिर आऊँगा।’ होता है ये? और तुम क्या बोलते हो? तुम कहते हो, ‘अरे, ये कुछ करता ही नहीं।’ वो कहता है, ‘अरे, ये तो काट खाएगा।’ वैसे ही हमें ये लगता है ये लड़कियाँ काट खाएँगी, क्योंकि हम उन्हें जानते ही नहीं। और लड़कियों को लगता है कि लड़के काट खाएँगे। बात काट खाने की नहीं है, बात अनजाना होने की है।
हिन्दू को लगता है मुसलमान काट खाएगा, मुसलमान को लगता है हिन्दू काट खाएगा। तुम जानते कहाँ हो? न हिन्दू, मुसलमान को जान रहा है, न मुसलमान, हिन्दू को जान रहा है। तो दोनों यही सोच रहे हैं कि वो वाला मुझे काट खाएगा। कोई किसी को काट खाना नहीं चाहता, सब डरे हुए हैं बस। सब एक-दूसरे से डरे हुए हैं। तुम अफ़्रीकन से डरोगे, अफ़्रीकन तुमसे डरेगा। समझ में आ रही है बात? ठीक है?
तो जितना ज़्यादा तुम हेज़िटेट करोगे, ये गाँठ उतनी मोटी होती जाएगी। कोई लड़की सामने आये तो इंसान ही तो है न यार? जैसे बन्दा इंसान है, वैसे ही बन्दी इंसान है। तो इंसान की तरह उससे बात करो, कोई झिझक नहीं है, ठीक है? इंसान की तरह, न लड़का न लड़की, इंसान। ठीक है?