सब अधूरा है, सब अपने विपरीत के साथ है || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सब अधूरा है, सब अपने विपरीत के साथ है || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्रकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आज हमने कुछ बोधक कथाएँ पढ़ी, जिनमें से एक का शीर्षक था ‘ब्रह्मज्ञान का स्वरुप’, जिसमें श्री योगवासिष्ठ देव जी पुत्रों के शोक मैं विह्वल होकर रो रहे थे, तब लक्ष्मण जी के शंका करने पर श्री राम जी कहते हैं, ‘भाई, जिसे ज्ञान है उसे अज्ञान भी है, जिसे एक वस्तु ज्ञान है, उसे अनेक वस्तुओं का अज्ञान भी है, जिसे उजाले का अनुभव है, उसे अँधेरे का भी अनुभव है। आचार्य जी, क्या ब्रह्मज्ञान का अर्थ सदैव अज्ञान से ऊपर हो जाना नहीं है? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: ज्ञान जहाँ है, वहाँ अज्ञान भी रहेगा। ज्ञान हमेशा द्वैतात्मक होता है। इसलिए जब तुम कहते हो कि कोई ब्रह्मज्ञानी है या ब्रह्मज्ञ है या ब्रह्मवेत्ता है, तो ये कुछ नहीं है, ये बस शब्द-विन्यास है, वर्डप्ले है, शब्दों का खेल है; ब्रह्म का कोई ज्ञान नहीं होता। ज्ञान हमेशा किसी ज्ञानी को होता है, और ज्ञान ज्ञानी से ज़रा सी पृथक वस्तु होता है। तभी तो वो त्रैत चलता है न — ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञेय वस्तु। ‘ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय’ इसलिए चलते हैं न क्योंकि तीनों में पृथकता है? तो ज्ञान कभी पूरा नहीं हो सकता, जब तक तीन हैं तब तक पूरापन कैसा?

ब्रह्म का कोई ज्ञान वगैरह नहीं होता। बिलकुल ठीक कह रहे हैं श्री राम यहाँ पर, जहाँ ज्ञान है वहाँ अज्ञान भी होगा, अगर तुम उजाले का अनुभव कर रहे हो तो तुम अँधेरे का अनुभव भी करोगे, कुछ बातें अगर तुमको पता हैं, तो कुछ बातें नहीं भी पता होंगी — बिलकुल ठीक बात है।

इसीलिए वो लोग अतिशय सावधान रहें जिन्हें लगता है कि उन्हें ब्रह्म का ज्ञान हो गया। कथा में शायद तुमने कहा कि जिन लोगों को कुछ बातों का अनुभव है, वो कुछ बातों से अनभिज्ञ भी होंगे। तो जो लोग सोचते हैं कि उनको आध्यात्मिक अनुभव इत्यादि हो रहे हैं, वो इस बात से बिलकुल ख़बरदार रहें कि ये जो सब अध्यात्मिक अनुभव हैं, इनका ब्रह्म से कोई लेना देना नहीं। ये सब द्वैतात्मक हैं, सांसारिक हैं, मन के खेल हैं, इनका सच्चाई से कोई ताल्लुक़ नहीं।

जो सच्चा है उसका कोई अनुभव नहीं होता। जो सच्चा है वो सब अनुभवों पर रौशनी बनकर बरसता है — बात बहुत सीधी है और बहुत बार दोहराई है मैंने। सत्य प्रकाश है, उस प्रकाश में नहाकर के हर वस्तु स्पष्ट दिखती है। किसको? किसी दूसरी वस्तु को। श्रीकृष्ण से पूछोगे तो वो कहेंगे, ‘चेतना भी जड़ ही है, प्राक्रतिक ही है,’ तो फिर वस्तुगत ही है चेतना भी। सत्य वो प्रकाश है जिसमें सब वस्तुएँ एक-दूसरे से सही सम्बन्ध स्थापित कर पाती हैं। सत्य कोई वस्तु नहीं है, अनुभव बस वस्तुओं का होता है। प्रकाश का क्या अनुभव होगा तुमको? प्रकाश का अगर तुम कह रहे हो तुम्हें अनुभव हो रहा है, तो वो अनुभव भी तुम्हें प्रकाश के स्रोत का हो रहा है, प्रकाश का नहीं।

आप अगर कहते हो कि इस कमरे में रोशनी है, तो वो रोशनी आपको ऐसे ही पता चल रहा है न क्योंकि आपकों ये चीज़ें दिख रही हैं, तो आपको अनुभव प्रकाश का हो रहा है या इन चीजों का हो रहा है? किसी ने भी आजतक प्रकाश नहीं देखा, हमने प्रकाश में चीज़ें देखी हैं। प्रकाश नहीं दिखायी देगा कभी आपको, और अगर दिखायी देने के लिए कोई चीज़ न हो तो जगह अतिशय प्रकाशित होते हुए भी अँधेरी दिखेगी। सूरज की रोशनी पृथ्वी तक पहुँचती है, बीच में कोई गैस इत्यादि नहीं है, बीच में कोई वायुमंडल नहीं है, रोशनी सूरज से आ रही है, उसको पृथ्वी तक आने में आठ-नौ मिनट लग जाते हैं, आपको क्या लगता है कि ये जो बीच का खाली आकाश है, अन्तरिक्ष है, इसका क्या रंग होता है? क्या रंग होता है? काला, क्योंकि वहाँ कुछ है ही नहीं जिसे देखा जा सके। दिखायी कभी प्रकाश नहीं देता, दिखायी हमेशा वस्तु देती है। सत्य का इसीलिए कोई अनुभव नहीं हो सकता है, क्योंकि अनुभव बस वस्तुओं का हो सकता है।

फिर सत्य का फ़ायदा क्या अगर उसका अनुभव नहीं हो सकता? सत्य का फ़ायदा ये है कि भाई जब रोशनी रहती हैं, तो चीज़े साफ़-साफ़ दिखती हैं, जब रोशनी रहती है तो चीज़ें साफ़–साफ़ दिखती है, रोशनी नहीं साफ़-साफ़ दिखती। तो अध्यात्मिक अनुभवों कि तलाश में मत रहना, कि कोई कहे कि मुझे मृत्यु का दो मिनट का अनुभव हो चुका है, मैं दो मिनट के लिये मर गया था, मेरी आत्मा इधर- उधर घूम रही थी ,फिर दो-चार लोगो ने हड़काया तो वो वापस घुस गयी! एक तो ऐसे भी मिले थे, ‘मैं क्या बताऊँ! मेरा वो एक्सीडेंट हो गया था बाइक से, तो गिर गया था, मैं तो अचेतन हो गया बिलकुल, फिर मेरी आत्मा निकली फिर वो बाइक लेकर निकल पड़ी डॉक्टर बुलाने, रास्ते में पुलिस वाला उसका चालान काट रहा था, अब आत्मा के पास था नहीं लाइसेंस , तो फिर वो वापस आयी और घुस गयी मुझ में।’ खूब इस तरह कि फूहड़ बातें चलती हैं अध्यात्मिक हल्कों में, ‘ऊपर से घूमकर पेड़ से मैंने नीचे देखा, मेरा शरीर पड़ा हुआ था।’ कानो में घंटियाँ बजीं किसी के, किसी को सपने में श्रीहरी के दर्शन हो गये। बात समझ में आ रही है?

सब अनुभव एक तल के होते हैं, और कोई भी अनुभव पूरा नहीं होता। प्रकाश कितना भी हो देखने वाले तो तुम ही हो न?, मैं यहाँ रोशनी बहुत बढ़ा देता हूँ, कोई है जो इस खम्भे को पूरा देख पाये? ये खम्भा है यहाँ पर—चुनौती दे रहा हूँ, प्रकाश बोलो कितना चाहिये कर देता हूँ—कोई है जो इस खम्भे को पूरा देख पाये? क्यों नहीं देख पाओगे? खम्भा ही तो है, क्या दिक्क़त है? बोलो, जितनी रोशनी चाहिए उतनी दे देते हैं, खम्भे को पूरा देख लोगे क्या? नहीं देख सकते। इधर से देखोगे तो उधर वाला छुप जाएगा, उधर से देखोगे तो इधर वाला छुप जाएगा। ‘अन्धों का हाथी’ कहानी याद है न? हम पूरा नहीं देख सकते, पृथ्वी के ऊपर का हिस्सा देखोगे तो खम्भा जितना नीचे गढ़ा हुआ है वो छुप जायेगा। अरे! हम खम्भे को तो तीन-सौ-साठ डिग्री देख नहीं सकते, सत्य को क्या ख़ाक देखेंगे!

पर लोगों को दिख जाता है, ‘मुझे दिखा, मुझे दर्शन हुए,’ अहंकार को बड़े मज़े आते हैं ऐसे दावे करने में। ‘दर्शन किसको हुए? भाई को! डूड कौन है? भाई है!’ पहले गाँव-गवेई में खूब होता था, माता उतरती थी, अब पता नहीं क्यों नहीं होता! बड़ा आनन्द आता है, वैसे तो दो टके की हमारी हस्ती, कोई हमको पूछता नहीं, पर जब हमपर माता उतरती है तो सब आ-आकर हमारे पाँव छूते हैं, और करना कुछ नहीं है, बाल खोलकर बाल झमाने हैं, ज़लील हरकतें करनी हैं, किसी को थप्पड़ मार देना है, किसी को गाली बक देनी है, किसी को लेकर कुछ बोल दिया, किसी के कपड़े फाड़ दिये, और तुरन्त प्रचलित हो जाएगा माता उतरी है इसपर, माता उतरी है। इन सब बातों का सत्य से क्या ताल्लुक़? और ये सब घटनाएँ इसीलिए होती हैं क्योंकि वेद-वेदान्त से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं, सबसे ऊँचे शास्त्रों का हमने कभी ईमानदारी से अध्ययन किया नहीं, तो फिर हम ऐसी बातें बोलने लगते हैं — ये अनुभव, वो अनुभव, फ़लाने को ये ज्ञान है, उनको वो ज्ञान है। एक शास्त्री जी थे, बड़े नामवर, वो मुर्गा चबायें, तो पूछा गया, ‘क्या कर रहे हो ये?’ बोले, ‘ब्रह्मज्ञानी को पाप नहीं लगता,’ बोले, ‘मैं तुम्हें दस जगह लिखा दिखाऊँगा, सब ग्रन्थों में लिखा है, सब सन्तों ने बोला है कि ब्रह्मज्ञानी को पाप अब नहीं लगता।’ मालिक! ये कहाँ लिखा है कि ब्रह्मज्ञानी मुर्गा चबाता है? जहाँ कहा गया है कि ब्रह्मज्ञानी को पाप नहीं लगता, इसलिये कहा गया है क्योंकि ब्रह्मज्ञानी अब ऐसी हरकतें करेगा ही नहीं, तो पाप की क्या बात? न उसे पाप लगेगा, न पुण्य लगेगा, वो पाप–पुण्य से आगे निकल गया, इसलिए उसे पाप नहीं लगता। ये थोड़े ही कहा गया है कि वो कोई भी ज़लील हरकत करता रहेगा तो भी पाप नहीं लगेगा।

वैसे ही हम, कोई कहेगा, ‘मैंने सत्य पर प्रयोग किये,’ कोई कहेगा, ‘मेरे सत्य से साक्षात्कार।’ सत्य है कि बगल के लल्लन चाचा हैं, जब देखो साक्षात्कार कर आते हो! कि कुंडा खटखटाया और कहा साक्षात्कार करना है सत्य से!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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