प्रश्नकर्ता: मैं पोस्ट-ग्रेजुएशन की छात्रा हूँ। मैं ग्यारह साल से प्रेम में हूँ। मेरे साथी हमेशा स्पेस देते हैं। वह भी सत्य के खोजी है। मैं उसे कभी मना नहीं करती मगर जब कभी बिना बताए शिविरों में आ जाता है तो मैं उसको बहुत तकलीफ़ देने लगती हूँ, जैसे मानो वह मेरी संपत्ति है। मेरा प्रश्न यह है कि आचार्य जी, कैसे मैं उसे पूर्ण आजादी दूँ? कैसे हर पल हर साँस को प्रेम के साथ जिऊँ? और हमने जो विवाह करने का जो निर्णय लिया है उसे भगवान शिव और माता दुर्गा, रामकृष्ण जी और माँ शारदा जी की तरह सफ़ल बनाने के लिए क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: जब वो शिविर में आए तो तुम भी आओ और क्या करो। शक्ति तो शिव की छाया होती है न, मौमिता? जहाँ शिव, वहाँ शक्ति। और जब तुम कह ही रही हो जिसके साथ हो उसके साथ अपना नाता वैसे ही रखना चाहती हो जैसा शिव और शक्ति। शिव और दुर्गा का है तो बात सीधी है।
वह कहाँ के शिविर में जाते हैं? पृष्ठभूमि क्या है?
प्र: क्या पता?
आचार्य: मैं उम्मीद करता हूँ वह जिन भी शिविरों में जाते हैं, वो सच्चे आध्यात्मिक शिविर है। चाहे वो यहाँ के शिविर हो अन्यत्र कहीं। जहाँ भी जाते हैं, वहाँ तुम भी जाओ न।
ये स्थिति क्यों बनी है कि वह जिन शिविरों में जाते हैं उन्हें अकेले जाना पड़ता है? भई, तुम्हारे साथी का रुझान अगर सच्चा है, तुम भी साथ दो न। और मामले की और थोड़ा तह तक पहुँचो, बात को और खोलो क्योंकि कोई तो वजह होगी कि तुम्हारा साथी जो अन्यथा तुम्हारे साथ कह रही हो ग्यारह साल से है, उसके साथ तुमने जीवन पर्यंत रहने का, विवाह का भी निर्णय किया है, वो तुम्हें बिना बताए शिविरों में ही निकल जाता है। तो कोई तो बात होगी। क्या बात होगी?
शक्ति, शिव से घबराती नहीं है। तुम्हारा साथी अगर वास्तव में शिवत्व की ओर बढ़े तो घबराहट कैसी? अगर मैंने सही सुना तो तुमने लिखा है कि मेरा साथी जब शिविरों में जाता है तो उदास हो जाती हूँ, उसे काफ़ी तकलीफ़ देने लगती हूँ जैसे कि वो मेरी संपत्ति हो।
अरे नहीं, शक्ति शिव को अपनी संपत्ति थोड़ा ही मानती है कि मानती है? मानती है क्या?
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य: शक्ति शिव को तकलीफ़ थोड़े ही देती है? देती है क्या?
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य: उनका आपस में नाता क्या है? एकत्व का, प्रेम का है न?
अर्धनारीश्वर शरीर को देखा है? जैसे कि बाँट ही न सकते हो, ऐसे अभिन्न। अगर वास्तव में, मौमिता, सत्य की प्रार्थी हो तो ख़ुद भी सही रास्ता चुनो, उसी रास्ते पर अपने साथी को भी उसी रास्ते पर चलने को प्रेरित करो। और अगर प्रेम है तो, प्रेरित करना पता नहीं सरल है या कठिन पर आवश्यक ज़रूर है।
और अगर साथी ने सही रास्ता चुना है तुम भी निसंकोच, बेलाद उससे कंधे से कंधा मिलाकर चलो। हाँ, एक संभावना और भी है कि साथी ने ग़लत रास्ता चुन लिया हो। अगर गलत चुन लिया हो तो प्रेम का क्या दायित्व है?
श्रोतागण: सही रास्ते पर लाओ।
आचार्य: रोशनी दिखाओ। फिर यह न कहो कि तुम शिविरों में जाते हैं तो हम तुम्हें तकलीफ़ देंगे। फिर चर्चा करो, बात करो, शास्त्रार्थ करो।
अगर तुम्हें संदेह है कि वो जिन शिविरों में जा रहा है, उन शिवरों में सत्य का अनुसंधान नहीं हो रहा है। उन शिविरों में कुछ घपला है तो फिर बात खुलनी चाहिए। बहस सीधी और साफ़ होनी चाहिए। तकलीफ़ देना, व्यंग करना, कटाक्ष करना या किसी तरीक़े से भावनात्मक उथल-पुथल मचाना, उपद्रव करना, इससे तो कोई बात ही नहीं बनेगी न।
न वो तुम्हारी संपत्ति है, न तुम उसकी संपत्ति हो। जब पति पत्नी को, पत्नी पति को संपत्ति समझे, तो दोनों समझ लो — विपत्ति।
जहाँ संपत्ति, वहाँ विपत्ति। दोनों अपनेआप को शिव की संपत्ति समझो। वो मालिक, हम उसकी कठपुतली। वो जैसा चलाएगा, हम वैसे चलेंगे। हम दोनों साथ-साथ हैं, पर एक-दूसरे पर हमारा स्वामित्व नहीं है। हम साथी है। स्वामी हमारा एक, सांझा।
तुम पति नहीं हो मेरे मित्र हो, सखा हो। मैं पत्नी नहीं हूँ तुम्हारी, मित्र हूँ, सखी। मैं न तुम्हें पति बोलूंगी, न स्वामी बोलूंगी, पति एक है, स्वामी एक है। वही जिसका तुमने नाम लिया — शिव।
पति-पत्नी हो या कोई भी दो घनिष्ठ लोग हो, जीवन के लिए एक सूत्र समझ लो — किसी को अपनी जागीर, जायदाद मत बना लेना। यहाँ कोई इतना बड़ा नहीं कि कोई दूसरे पर हक़ जमा सके।
इस्लाम में हक़ का अर्थ समझते हो? हक़ माने समझते हो? सत्य। परमात्मा का दूसरा नाम है हक़। तो हक़ बस वो है। और इसलिए हक़ बस उसका है। तुम कहाँ से अपनेआप को हक़दार कहने लगे?
मान भी लेते हो, धारणा यही रहती है कि पत्नी मेरी संपत्ति है — जैसे चाहूँ वैसे चले, उसकी मौत में साझेदार बनोगे? बनोगे?
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य: उसके चित्त में उथल-पुथल चल रही होती है, उसको तुम झेलते हो? तो यही बात उल्टी भी लागू होती है। पत्नियाँ भी कहें अगर कि हम पति पर हक़ रखते हैं तो उनसे भी।
“उड़ जाएगा हंस अकेला।“ तब तो साथ जाते नहीं। कर्मफल भी सब अपना-अपना भुगतते हैं। जन्म अकेला, कर्म अकेला, कर्मफल भी अकेला, फिर विदाई भी अकेली। तो यह मालकियत का सवाल कहाँ से आ गया? जब तुम कहते हो तुम किसी चीज़ के मालिक हो तो फिर देखभाल की ज़िम्मेदारी भी फिर तुम्हारी हो जाती है न?
कोई चीज़ अपनी देखभाल आप तो करती नहीं, उसकी देखभाल तो फिर तुम करते हो। जब किसी चीज़ को तुम इस्तेमाल करते हो, अपने इशारों पर चलाते हो, उस चीज़ को सुव्यवस्थित रखने का, उस चीज़ को क़ायम रखने की पूरी ज़िम्मेदारी भी फिर किसकी हो जाती है?
श्रोतागण: स्वयं की।
आचार्य: तो ये जो कुर्सी रखी है, तुम इसके मालिक हो सकते हो, हो सकते हो न? फिर उस कुर्सी से कोई उम्मीद मत रखना कि ये कुर्सी अपनेआप कुछ करेगी। अगर तुम इसके मालिक हो तो भले ही इसके चार पाँव हो, पर इसे चलाओगे तुम्हीं।
चार पाँव वाली कुर्सी के भी अगर तुम मालिक हो गए तो वो एक जगह पड़ी रहेगी। उसको एक जगह से दूसरी जगह चलाने की ज़िम्मेदारी अब किसकी है? तुम्हारी।
कुर्सी के चार पाँव है, ठीक है। अपनी बीवी के भी मालिक हो जाओ। तो वो एक जगह पड़ी रहेगी और ये हमेशा होता है। तुम जिसके मालिक हो गए, वो मुर्दा हो जाता है, वो एक जगह पड़ा रहता है, वो कुर्सी हो जाता है। कुर्सी चार पाँव होते हुए भी चलती है क्या? तो बीवी के तो दो ही पाँव है। वो कैसे चलेगी? एक जगह पड़ी रहेगी, वो कुछ नहीं करेगी अब। क्योंकि ग़ुलाम कुछ नहीं कर सकता।
तुमने जिसके ऊपर मालकियत का ठप्पा लगा दिया अपनी, अब उससे ये उम्मीद मत करना कि उसमें कोई मौलिकता, कुछ निजता बचेगी। तुमने तो कुछ ऐसा किया कि जैसे किसी से उसकी आत्मा छीन ली जाये। और जिसकी आत्मा छिन गई, अब वो कुछ नहीं करता। बल्कि वह तुम्हारी ज़िम्मेदारी बन जाता है। कुर्सी किसकी ज़िम्मेदारी है? कुर्सी गंदी हो गई, कौन साफ़ करेगा? कुर्सी खुद साफ़ करेगी अपनेआप को? कुर्सी गिर गई, कौन उठाएगा? तो तुम जिसके मालिक हो गये, फिर उसकी पूरी ज़िम्मेदारी उठाओ।
पत्नी कुर्सी बन जाएगी। मर जाओगे उसे रोज़ उठाते-उठाते। फिर शिक़ायत मत करना कि ये तो कुछ करती नहीं। क्यों करेगी? वैसे ही पति के अगर तुम मालिक हो गए, कुछ करेगा नहीं, तुम्हीं करना, मुर्दा हो गया वो। अब वो कुर्सी हो गया। चलो मेज़ हो गया। पति मेज़ हो गया, पत्नी कुर्सी हो गई। दोनों एक-दूसरे के मालिक हैं।
जब साथ ही रहते हो तो एक-दूसरे को आज़ादी दो। साथी तुम्हारे लिए उपयुक्त ही वही है जो तुम्हें आज़ादी दे। जो तुम्हें ग़ुलामी से हटाकर आज़ादी दे। साथी चुनना, स्वामी नहीं। पत्नी हो सकते हैं आप, पति हो सकते हैं आप।
लाभ का सौदा है भाई। साथी हो वो तुम्हारा, तो तुम्हारे काम भी आएगा। तुम्हें आगे बढ़ाने के लिए हाथ भी बढ़ाएगा, ठीक? क्योंकि वो जिंदा है। क्योंकि वो किसी का ग़ुलाम नहीं है। वो दूसरे की मदद कर सकता है। पर तुम जिसके मालिक हो गये, वो तुम्हारा बोझ बन गया। यही चाहिए, यही करना है?
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य: साथी चाहिए या कुर्सी चाहिए?
श्रोतागण: साथी।
आचार्य: अहम् को तो यही अच्छा लगता है कि कुर्सी ले आये। और अगर पत्नी है तो ज़्यादा उपयुक्त उदाहरण पलंग का है। ले आओ और जब मन करे, उसपर लोट जाओ।
शुरु-शुरु में अच्छा भी लगेगा। फिर जब चादरें मैली होकर गंधाने लगेगी न, तब उकताओगे। लोटने में तो रस आया, पर क्या अब पूरी ज़िम्मेदारी का वहन हम ही करें? और पलंग कहेगा, ‘मैं तो आपका हूँ। जो करेंगे, अब आप ही करेंगे। हम कुछ भी नहीं करेंगे, कुछ भी नहीं करेंगे।
विवाह करने जा रहे हों। युवाओं का सेक्स के प्रति बड़ा आकर्षण रहता है। मालकियत ही तुम्हें चलानी है तो एक सेक्स-डॉल ले आओ। बाज़ार में मिलती है — आदमकद गुड़िया। तुम उसके साथ सेक्स का खेल, खेल सकते हो। जो चाहोगे तुम, वो वही करेगी, बिलकुल विरोध नहीं करेगी। कैसा लगेगा? जैसे लाश बिछी हुई हो। तुम जिसके मालिक हो गये, वो लाश हो गया।
सेक्स की ही क्रिया के दौरान, पत्नी बिलकुल लाश बनकर बिछ जाये, क्या अनुभव होगा तुमको? और मालकियत का तो मतलब ही यही है — हम बस वही करेगें और उतना ही करेगें, जितना तुम हमें आज्ञा दोगे। अपनी मर्ज़ी से कुछ भी नहीं करेंगे, हम तो बिछे हुए हैं। हमारा कोई काम नहीं। जो आपकी आज्ञा, वही होगा बस सरकार। कैसा लगेगा?
श्रोतागण: बुरा।
आचार्य: साथी रहता है, थोड़ा घर्षण होता है। साथी विरोध भी करता है। पर अगर साथी सच्चा है तो वो विरोध सृजनात्मक होता है। वो विरोध वैसे ही होता है जैसे डायलिक्टिकल मटेरियलिस्म। सुना है? थीसिस होती है। उसके विरोध में एंटीथीसिस। और उससे कुछ नया ही निकल पड़ता है।
थीसिस, एंटीथीसिस हो गया, सिंथीसिस हो गया, संसलेशन हो गया। जैसे कि किसी म्यूजिकल-बैंड के पाँच सदस्य हों और वो आपस में बैठकर बहस कर रहे हैं, अपने अगले गीत के बारे में। तुम्हें क्या लगता है, तुरंत वे एक मत हो जाते हैं? बहसबाजी चलती है, ये अपनी बात बोलता है, वो अपनी बात बोलता है, ये बात कटती है, वो बात उठती है, विचारों का आदान-प्रदान होता है, कभी ये चीज़ आती है, कभी वो चीज़ आती है और अंततः कुछ सच्चा और नया खड़ा हो जाता है। ये तभी हो सकता है जब सबको आपस में बातचीत का अधिकार हो और जब सब साथी हो, कोई स्वामी न हो। अगर इन पाँच में से एक स्वामी हो गया तो अब क्या होगा?
श्रोतागण: आदेश करेगा।
आचार्य: बस कुछ बात निकलेगी नहीं। मैं अनावश्यक बहसबाज़ी का समर्थन नहीं कर रहा हूँ। मैं नहीं कह रहा हूँ कि बात-बात में कलह हो। पर संगीत भी एक तल पर विरोध से ही उपजता है।
तबला बजाते हो, तबला क्या करता है? तुम्हारे आघात का विरोध करता है न। तबले की सतह तुम्हारे हाथ का विरोध न करें तो संगीत उठेगा क्या?
श्रोतागण: नहीं उठेगा।
आचार्य: वीणा के तार, तुम्हारी उँगलियों का विरोध न करें तो संगीत उठेगा क्या? और वीणा कहने लग जाये, ‘आप तो स्वामी है। आपने तार खींचा तो तार विरोध कैसे करेगा?’ तार फिर खिंचता ही चला जाएगा। तुमने तार खींचा और तार खिंचकर के लम्बा हो गया। अब संगीत उठेगा?
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य: नहीं उठेगा न? अब मैं ये भी नहीं कह रहा हूँ कि तुम वीणा को खींच डालो, तोड़ डालो कि विरोध तो ज़रूरी है तभी संगीत उठेगा। तो गिटार पटक रहे हो, विरोध चल रहा है, अब संगीत बनेगा।
तो अर्थ का अनर्थ मत कर देना। आशा कर रहा हूँ, बात समझ रहे हो। साथी मांगो, दास नहीं, सेवक नहीं।
पुरुषवर्ग को तो ख़ासतौर पर समझा रहा हूँ। कोई स्त्री मिल जाये जो कहें, ‘आपके चरणों की दासी हूँ प्रभु’, तो उल्टे मुँह भाग लेना। स्त्रियों को कह रहा हूँ, कोई कहे ‘कंधे पर बैठा कर रखूँगा’, तो तुम भाग लेना। कहना, ‘कंधे पर बैठना नहीं है, तुम्हारे कंधे से कंधा मिलाकर चलना है।‘
किधर को चलना है? शिव की ओर चलना है। तुम भी चलो शिव की ओर, हम भी चले शिव की ओर। दोनों एक दूसरे की ओर नहीं देखेंगे, दोनों एक साथ देखेंगे — शिव की ओर। यह हुआ सच्चा रिश्ता। चाहे पति-पत्नी हो, चाहे भाई-बहन हो, चाहे भाई-भाई हो, चाहे मित्र हो, कोई भी दो लोग हो या कोई भी पाँच लोग हो, सच्चा रिश्ता यही है।
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