“ कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई।
अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराई।। ”
~ संत कबीर
वक्ता: ऐसी ही एक दूसरी जगह पर कबीर कहते हैं कि –
“ चहुँ दिसे दमके दामिनी, भीगे दास कबीर ”
इसकी व्याख्या करना एक तरीके से इसका अपमान है। तो इनको पिया जा सकता है; इनपर नाँचा जा सकता है; इनको सुन करके मग्न हुआ जा सकता है, पर अब इसपर कोई बोले क्या?
“कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई” , क्या बोलें?
“अन्तर भीगी आत्मा, हरी भई बनराई” , अगर इसको समझना चाहते हैं कि क्या कह रहे हैं कबीर, तो आप भी भीग जाइये। आप भी हरे-भरे हो जाइये। आप भी वैसे ही दिखने लगेंगे जैसे बारिश के बाद पेड़-पौधे दिखते हैं, बनराई दिखती है। कैसी दिखती है बारिश के बाद बनराई?
श्रोता १ : सर, साफ़ और सुन्दर।
वक्ता: वो तभी होगा जब आप भीग लें कबीर के साथ। नहीं तो आप के चेहरों पर वही दिखाई देगा जिसकी हम कितनी बार चर्चा कर चुके हैं: वही कठोरता, वही हृदयहीनता, वही सोच, वही चालें, वही रही आएंगी। बच्चे जैसी निर्मलता नहीं आएगी। और बारिश यही तो करती है न, निर्मल कर देती है। पत्तों पर, पेड़ पर, जितनी धूल जमा है, बारिश उसको धो देती है।
“कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई,
अन्तर भीगी आत्मा, हरी भई बनराई”
कबीर का यहाँ आत्मा से जो आशय है, वो मन के आख़िरी सिरे की बात कर रहें हैं। मन को वहाँ तक छू लिया, जहाँ मन का आख़िरी छोर है। जहाँ मन ख़त्म ही हो जाता है। और प्रेम वही है जो मन को ठीक वहाँ तक स्पर्शित कर जाए जहाँ पर स्पर्श की सीमा है। जिसके आगे स्पर्श होना भी बंद हो जाता है। अन्यथा, प्रेम मात्र मानसिक रह जाएगा। अगर उसने मन की सीमाओं को जाकर छुआ नहीं, छू कर तोड़ा नहीं, छू कर गला नहीं दिया, तो प्रेम मात्र मानसिक है।
एक दूसरे मौके पर हमने कहा था कि अगर आप जानते हैं कि आपको किस कारण से प्रेम है तो प्रेम जैसा कुछ है नहीं। अगर हमें स्पष्ट है कि प्रेम किस कारण से है, तो प्रेम जैसा कुछ है ही नहीं। प्रेम वही जो आत्मा को छू जाए। आत्मा को स्पर्शित करने का अर्थ ही यही है कि ऐसी जगह जहाँ मन नहीं है । वो मन का आख़िरी छोर है । वहाँ पर कारण होते नहीं। वहाँ लाभ-हानि होती नहीं। मन की जो भी नैसर्गिक प्रक्रियाएं हैं, वो वहाँ पर होती नहीं, बिल्कुल होती नहीं।
मन जिन तिकड़मो में दिन-रात लगा रहता है। मन का जो सम्बन्ध संसार से आम-तौर पर होता है, मन ने यदि प्रेम से भी वही सम्बन्ध बना लिया, तो प्रेम कुछ और नहीं है, इसी संसार की एक वस्तु है।
और प्रेम ऐसा हो नहीं सकता। वो प्रेम नहीं है, वो आकर्षण हो सकता है, वो मोह हो सकता है, कोई सौदा हो सकता है। लाभ-हानि का उसमें कोई गणित हो सकता है, पर फ़िर वो प्रेम नहीं हो सकता। तो इसीलिए आप आम-तौर पर सुनते होंगे बहुत बार कि प्रेम आत्मा से होता है। पर सुना कितना भी होगा, पर बात समझ में नहीं आई होगी कि यह चक्कर क्या है; क्या आत्मा प्रेम में पड़ती है? सुना है न कि प्यार तो रूह से होता है, तो अब आप सोचेंगे कि रूहें प्यार करती हैं? रोमांटिक रूह! यह क्या चक्कर है? इसका अर्थ यही है कि:
मन से जो किया जाए वो सौदा तो हो सकता है, इश्क नहीं हो सकता।
श्रोता २ : सर, हम इस उदहरण से प्रेम और वासना के बीच में भी अन्तर कर सकते हैं न?
वक्ता: हाँ, और जिसको आप वासना कह रही हैं, वो आवश्यक नहीं है कि शारीरिक हो। वासना का अर्थ कामना ही है न बस; रुपया, पैसा, शौहरत, सम्बन्ध यह सब वासना में ही आते हैं। वासना को यह मत समझिएगा कि सिर्फ़ शरीर की चाहत को ही वासना कहते हैं। तो आप प्रेम और वासना को बिल्कुल अलग कर सकते हैं। पर फ़िर मन में जो कुछ भी है वो सब वासना है। मन में वासना के अलावा और कुछ होता ही नहीं। जिस अर्थ में अभी हम वासना को ले रहे हैं, वासना माने कामना। जो वास करे, वासना। जो बैठा हुआ है, कहाँ? मन में। वहीं वास करती है वो।
तो इसीलिए प्रेम भिगा सकता है, भिगा कर गला सकता है, आप पर छा सकता है, पर कभी भी आपके मन में समा नहीं सकता। वो सदा एक खुला आकाश है जिसमें मन बस एक छोटी सी इकाई है। वो मन में कैद नहीं किया जा सकता। वो मन का आकाश हो सकता है, मन का माहौल हो सकता है, वो मन का पूरा वातावरण हो सकता है, पर वो मन की कोई वस्तु नहीं हो सकता।
श्रोता ३ : सर, ऐसा कहते हैं कि जब तक आप हैं, तब तक प्रेम नहीं है, और जब तक आप समाप्त नहीं हो जाते, आप प्रेम कर ही नहीं सकते। आपको समाप्त होना पड़ेगा, और आपकी समाप्ति में ही अहंकार की समाप्ति है।
वक्ता: हाँ, लेकिन थोड़ा-सा आप उसमें सतर्क रहिएगा। अगर आपकी समाप्ति का नाम अहंकार है, तो कबीर यह क्यों कह रहें है कि ‘अन्तर भीगी आत्मा, हरी भई बनराई’। कबीर तो कह रहे हैं कि मन हरा-भरा हो जाएगा। वह यह नहीं कह रहे हैं कि मन जल जाएगा और दावानल है, कि जंगल में आग लग गई है और कुछ बचेगा नहीं आपका। वही कबीर दूसरे मौकों पर ये भी कहते हैं कि ‘शीश उतारे भुई धरे’। दोनों बातें एक साथ कैसे सच हो सकती हैं? जो आपने कहा कि तुम्हारे न होने की दशा ही प्रेम है और दूसरी ओर ये भी है कि प्रेम में तुम जैसे हरे हो जाते हो, जैसे ताज़े हो जाते हो, जैसे स्वस्थ हो जाते हो, वैसे अन्यथा कभी नहीं होते। तो यह दोनों बातें एक साथ कैसे हैं?
श्रोता २ : वो शायद अहंकार को हम ऐसे लेते हैं कि जैसे ‘तुम’ का मतलब अहंकार। जब अहंकार नहीं है तब बोला जा सकता है।
वक्ता: तो इस बात को, जो अभी वो कह रहीं थीं, उससे जोड़िएगा।
प्रेम गला देता है वो सब कुछ जो गलने योग्य ही है। प्रेम हटा देता है वो सब कुछ जो पत्ते पर पड़ी धूल सामान ही है, और प्रेम में हरा हो जाता है वो सब कुछ जो जीवंत है। पत्ता हरा हो जाएगा और धूल बह जाएगी। तो प्रेम निश्चित रूप से मृत्यु है, पर किसके लिए? धूल के लिए। और प्रेम गहरा जीवन है, किसके लिए? आप के लिए। तो आप किस दिशा से देख रहे हैं इसपर निर्भर करता है कि आप प्रेम को महामृत्यु कहेंगे या महाजीवन। आप धूल बनकर देखेंगे तो प्रेम ‘महामृत्यु’ है, और यदि आप पत्ता बनकर देखेंगे तो प्रेम ‘महाजीवन’ है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप कहाँ खड़े हैं।
लेकिन एक बात पक्की है, हम कितनी भी चर्चा कर लें, जो बात कबीर ने दो पंक्तियों में कह दी है, हम उसे छू नहीं पाएँगे। क्योंकि हम जो कुछ भी कहेंगे, बात हम कर रहे हैं प्रोज़ में, पद्य है। उसमें कुछ न कुछ तो मन के चिन्ह हैं ही। धूल है उसमें।
इसीलिए प्रेम की भाषा गीत होती है, और परम-प्रेम की भाषा, मौन होता है। व्यापार की भाषा होती है जो यह हमारी रोज़-मर्रा की भाषा है।
प्रेम की भाषा है गीत, और भक्ति की भाषा है मौन।
गीत बेतुका होता है। गीत ऐसी बातें करता है जो अनर्थक होती हैं। गीत उन क्षेत्रों में जाता है जो अकारण हैं, जो तर्कयुक्त नहीं हैं। गीत में आप बहुत कुछ ऐसा कह देते हो जो आप अ-गीत में नहीं कह पाते, और चूँकि वो गीत में कहा गया है इसीलिए वो सुन्दर लगता है। पर वही वाक्य आप निबंधरूप में कह कर देखो तो जमेगा नहीं। गीत में कह सकते हो।
गीत मन की सीमाओं को चुनौती दे रहा होता है पहले ही। मन है तर्क, और गीत आपको अनुज्ञा देता है कि थोड़े से अतार्किक भी हो जाओ, चलेगा। तुम गीत में कह सकते हो कि मैं चाँद के साथ नाँच रहा हूँ, पर अन्यथा नहीं कह सकते। और गीत में जब कहोगे तो मीठा लगेगा। तुम गीत में कह सकते हो कि रात मेरी सहेली है, पर अन्यथा नहीं कह पाओगे। गीत में कहोगे तो बड़ा सुन्दर लगेगा।
प्रेम भी गीत की तरह अतार्किक होता है, इसीलिए प्रेम की भाषा गीत है। इसीलिए प्रेमियों को गाना पड़ता है, गाने के अतिरिक्त उनके पास कोई चारा नहीं है। गाएंगे नहीं तो अपनी बात कह ही नहीं पाएँगे। इसीलिए जो भक्त होता है उसे गाना पड़ता है। अगर गाएगा नहीं तो कह नहीं पाएगा। भक्त दार्शनिक नहीं है कि इतनी मोटी किताब लिख दे। भक्त को तो गाना ही पड़ेगा। और इसीलिए परम-प्रेम की, समाधि की भाषा मौन होती है। क्योंकि वहाँ पर फ़िर गीत के शब्द भी नहीं चलेंगे, वो भी हलके पड़ जाएँगे। कहा कैसे जाए? तो वहाँ बस चुप हो सकते हो, पूरे तरीके से मौन। बात आ रही है न समझ में?
वर्तमान युग में कविता मर रही है। लोग कविता नहीं पढ़ते, और उसका सीधा सम्बन्ध इस बात से है कि हम अब मन के सबसे सतही तल पर जीते हैं। कविता धर्म की दिशा में एक कदम होती है। चूँकि धर्म का पूरे तरीके से नाश हो चुका है, इसीलिए कविता का भी नाश हो गया है। बात समझ रहे हो न? हम तर्क की दुनिया में जीने लगे हैं, इसीलिए हमें कविता पसंद नहीं आती।
श्रोता ३ : सर, धर्म से आपका मतलब मज़हब है क्या?
वक्ता: धर्म, धर्म है — जो आप हैं।
श्रोता ४ : गीत मन की अवस्था भी तो बता रहा है न।
वक्ता: मन की ऐसी अवस्था होती है जो गीत ही बता सकता है। गीत के अलावा उसको बता पाना मुश्किल हो जाएगा। गीत एक मात्र उपकरण है उस अवस्था को बता पाने का।
श्रोता ५ : सर, आपने कहा कि प्रेम की भाषा गीत है, और दूसरी तरफ़ यह कहा गया है कि मन की अवस्था को बता पाने में गीत कारगर होता है।
वक्ता: मन जो हमारा साधारण है, वो तो अगीत में ही जीता है। वो व्यापार की भाषा जानता है बस। अगर आप जा रहो हो कोई अनुबंध करने, तो आप गीत में नहीं करोगे, क्योंकि गीत व्यापार की भाषा नहीं हो सकती। पर यही मन जब अपनी (मन) सीमाओं को चुनौती देने लगता है, तो पाता है कि तर्क की भाषा अब पूरी नहीं पड़ रही। तर्क की भाषा उपयुक्त नहीं है वो कह पाने के लिए जो अब मन कहना चाहता है। अभी है मन के भीतर ही बात, पर दीवारों के करीब पहुँच रही है, सीमाओं के पास आ रही है और सीमाओं को चुनौती दे रही है, तब गीत उठता है। इसीलिए सामान्यतः कुछ लिख पाना बहुत आसान है। पर अगर आप गीत लिखने बैठो, तो आप कहोगे कि अभी ऐसा मन नहीं है कि गीत लिख पाऊँ क्योंकि गीत हर मन में लिखा नहीं जा सकता। गीत आप तभी लिख पाओगे, गीत आप तभी कह पाओगे जब गीत आपके भीतर से फूटेगा।
तो यह मन की वो अवस्था है जहाँ मन शांत हो रहा है, अपनी रोज़-मर्रा की स्थिति से दूर हो रहा है। जहाँ पर मन अपने डरों से, अपनी धारणाओं से, अपनी व्यस्तताओं से थोड़ा हट रहा है, तब गीत जन्मता है। इसीलिए प्रेम की भाषा गीत है। दीवारों को चुनौती देते-देते यदि वह दीवारों के पार ही कूद गया, तो वह कहलाता है परम-प्रेम। फ़िर वहाँ है मौन। फ़िर वहाँ गीत भी नहीं चलेगा।
वहाँ पर भी दो अवस्थाएँ होती हैं: जब आप कूदते हो तो कूदते-कूदते जो शब्द निकलता है उसको कहते हैं प्रणव – ॐ। सामान्य जो प्रोस हैं, उसका कुछ अर्थ होता है। गीत बेतुका होना शुरू हो जाता है। और ‘ॐ’ है, या सूफ़ी ‘हू’ की आवाज करते हैं बार-बार। मात्र ‘हू’ बोल रहे हैं। अब ‘हू’ का कोई अर्थ नहीं होता। शुरुआत ‘अल्लाह हू’ से करते हैं, फ़िर ‘अल्लाह’ भी गया और सिर्फ़ ‘हू’ बचता है। ‘हू’ का कोई अर्थ नहीं; ‘ॐ’ का कोई अर्थ नहीं। और फ़िर ‘हू’ और ‘ॐ’ के बाद और एक दम मौन। तो अर्थहीन ध्वनी – ‘ॐ’ या ‘हू’ — और फ़िर उसके बाद मौन। तो इस तरीके से यह मन गहरे जाता जा रहा है, आत्मा की दिशा में बढ़ता जा रहा है।
श्रोता ४ : सर, ऐसा कह सकते हैं कि चेतना बढ़ रही है। जो हमनें वो सात स्तरों की बात की थी कि जैसे-जैसे वो बढ़ना हो रहा है।
वक्ता: हाँ, बढ़ रही है और घुलती जा रही है। उसके बढ़ने का अर्थ ही है उसका घुलना; उसके बढ़ने का अर्थ यह नहीं है कि उसका विस्तार हो रहा है, वो घुलती जा रही है।
श्रोता ४ : सर, गीत में तुकबंदी क्यों होती है?
वक्ता: ज़रूरी नहीं है, बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है। एक इक्कू नाम का ज़ेन फ़क़ीर था। उसने कहा था: “या तो मुझसे सच बुलवा लो, या तुकबंदी करवा लो”। तो इसीलिए वो जो लिखता था कविताएँ वो बड़ी बेतुकी होती थीं, होती कविताएँ ही थी, पर बड़ी बेतुकी होती थीं। किसने कह दिया आपसे कि गीत तुकांत होना ही चाहिए?
श्रोता ४ : क्योंकि कहीं न कहीं उसका तुकांत होना यह बताता है कि कोशिश की गयी है उसको ऐसा बनाने में।
वक्ता: हाँ, कोशिश बिल्कुल की जाती है। पर ठीक है, इसीलिए आप यह भी बहुत पाएंगे कि उसमें तुक भी नहीं जुड़ रहा। पर तुक जुड़े न जुड़े, उसमें लय ज़रूर होगी, मधुरता ज़रूर होगी। तुक जुड़े, ये आवश्यक नहीं है। जुड़ गया, अच्छी बात, नहीं जुड़ा तो कोई बात नहीं। कोई फ़िल्मी गीत थोड़े ही है कि तुक जुड़ना ही चाहिए। धूमिल एक कवी थे, तो उन्होंने कहा था कि क्या चाहते हो कि तुक जोड़ने के लिए निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दूँ? तो तुक तो ऐसे ही जुड़ते हैं। तुक जोड़ना भी यही बताता है कि मन कुछ उसको ढांचा देना चाहता है। किसी प्रकार का कोई आकार देना चाहता है। वो भी आवश्यक नहीं है। एक स्थिति ऐसी आती है कि जब आकार रहे, इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं रहती।
श्रोता ४ : एक वाक्य है गुरु ग्रन्थ साहिब में – ‘हम कुकर तेरे द्वार, भौंक रहे बदन पसार ’। इसको सुनती हूँ तो ऐसा लगता है कि यह क्या है, और डूब जाऊं तो पता नहीं कहाँ पहुँच जाती हूँ।
वक्ता: आप उसका कोई अर्थ न करें, उसकी कोई व्याख्या न करें तो बात बिल्कुल स्पष्ट रहेगी, बिल्कुल स्पष्ट बात है। ‘हम कुकर तेरे द्वार, भौंक रहे बदन पसार ’ — बिल्कुल सीधी सी बात है। हाँ, ऐसा ही तो है पर यदि आपने इसकी व्याख्या करना शुरू किया तो आप पाएंगे कि बात उलझ गई है। आप कहोगे कि इससे भला तो यही था कि इस पर कुछ बोलते नहीं। बात बिल्कुल सीधी थी, कही गई और समझ में आ गई। तो कहीं-कहीं पर उचित यही होता है कि किसी प्रकार का कोई स्पष्टीकरण दिया ही न जाए, क्योंकि वो स्पष्टता नहीं देगा। जो पहले ही स्पष्ट है वो उसको और रोक देगा।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।