प्रश्नकर्ता: साक्षी भाव के लिए ध्यान की आवश्यकता है?
आचार्य प्रशांत: साक्षी भाव और ध्यान एक ही बात है। ध्यान साक्षित्व का माध्यम नहीं है। थोड़ा समझेंगे, ध्याता हम सब सदा हैं, ऐसा नहीं कि जब आप कुछ विशिष्ट पलों में ध्यान लगाने बैठते हो तभी आप ध्यानी होते हो। जहाँ ध्येय है, वहाँ ध्यान है। क्या आपके पास कोई ध्येय नहीं है कभी भी? जीवन में कोई पल ऐसा आता है क्या जब बिलकुल ही लक्ष्य मुक्त, ध्येय मुक्त हो पाते हो? नहीं न। तो ध्यानी तो सब हो, बस ध्यान किसी छोटी सी चीज़ का कर रहे हो।
और सूत्र यह है कि जिसका तुम ध्यान करते हो, वैसे तुम हो जाते हो।
जिसका ध्यान करोगे, वैसे हो जाओगे। तो तीन तरह के ध्यानी होते हैं: एक वो जो निकृष्ट विषयों का ध्यान करते हैं, एक वो जो उत्कृष्ट विषयों का ध्यान करते हैं और तीसरे ध्यानी वो होते हैं जो निर्विशेष का ध्यान करते हैं। जो विषय ही नहीं है उसका ध्यान करते हैं, वह ब्रह्मलीन हो जाते हैं।
समझ रहे हो बात को?
तुम किसी मुद्रा में, किसी आसन में, किसी जगह बैठ जाओ, पर अगर तुम ध्यान उसी वस्तु का, व्यक्ति का, विचार का कर रहे हो जो तुम्हारे मन को सुहाता है, तो तुम अपने मन से आगे नहीं निकल पाओगे, बिलकुल आगे नहीं निकल पाओगे। वहीं पर जाकर के अटक जाओगे बार-बार।
इसलिए फिर ध्यान की सर्वोत्तम, उचित और वास्तव में एकमात्र विधि क्या हुई? कि तुम ध्यान का कोई लक्ष्य ही मत रखो। अब ध्यान का कोई लक्ष्य न रखो, इसमें तो फिर ध्याता बहुत घबराता है। कहता है, 'लक्ष्य नहीं है तो ध्यान किसका करें?'
उपाय है, सुनो। जब कहा जाता है कि किसी वस्तु का ध्यान न करो, तो इसको तुम दो तरीकों से ले सकते हो: एक तो यह है कि किसी वस्तु का ध्यान न करो, और दूसरा यह कि हर वस्तु का ध्यान करो। जो कुछ भी तुम्हारे इंद्रिय क्षेत्र में आता हो, तुम बिना पूर्वाग्रह के उसका ध्यान कर लो। अब तुम पसंद-नापसंद नहीं रख सकते।
जब तुम किसी एक वस्तु विशेष का ध्यान करते हो तो तुम क्या करते हो? तुम विभाजन करते हो। तुम कहते हो, ‘यह चीज़ पसंद है, मात्र इसी का ध्यान करूँगा।‘ एक चीज़ का ध्यान करते हो तो बाक़ी चीज़ों की उपेक्षा कर देते हो, ऐसे ही होता है न?
तो निर्विशिष्ट का ध्यान करना है यदि, तो हर चीज़ को तुम्हें अपने लिए निर्विशेष मानना होगा। निर्विशेष मानने का क्या अर्थ हुआ? ‘इसका मेरे लिए कोई विशेष मूल्य नहीं है।‘
जैसे ही तुमने कह दिया कि किसी चीज़ का मेरे लिए कोई विशेष मूल्य नहीं है और मैं हर चीज़ को निरपेक्ष भाव से, समभाव से देख रहा हूँ, तो तुम्हारी हालत को कहते हैं साक्षित्व। अब तुम साक्षी हो गए क्योंकि अब तुम्हें लेना-देना नहीं है। सब कुछ तुम्हारे लिए क्या हो गया? निर्विशेष है सब, कुछ विशेष नहीं है। कुछ विशेष होता तो तुम उसी पर जाकर के बैठ जाते — 'ये विशेष है, इस पर अटक जाओ।'
बात समझ में आ रही है?
तो तीन कोटि के जो ध्यान हैं, उनमें जो वास्तविक ध्यान है उसी का नाम है साक्षित्व। दोहराइएगा। निम्नतम कोटि क्या है ध्यान की?
जब तुम भलीभाँति जानते हो कि कौनसी चीज़ है जो तुम्हारे अहंकार को पुख़्ता करेगी, तुम्हारे जीवन को और सीमित कर देगी और बंधन में डाल देगी, फिर भी तुम उसकी ओर भागते हो। तुम उसी का चिंतन कर रहे हो। यह सबसे निकृष्ट कोटि का ध्यान है।
उत्कृष्ट कोटि का ध्यान क्या है? कि अपनी बुद्धि की पूरी क्षमता का उपयोग करते हुए तुमने कोई ऐसा विषय चुना जो तुम्हें लगता है — तुम्हारी सामर्थ्य के मुताबिक़ — तुम्हें लगता है कि तुम्हें मन की सीमा के बाहर ले जा सकता है और तुम उस पर ध्यान करने लग गए। उदाहरण के लिए, ग्रंथ या गुरु के वचन पर ध्यान करना। अभी भी विषय तो है न? क्या है विषय? गुरुवचन, और गुरु वचन विषय तो है ही। विषय है, पर तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार सच्चे हो, ईमानदार हो, तुम्हें लग रहा है कि अगर इस विषय पर ध्यान किया तो हम मन के कोलाहल से, मन के बंधनों से कदाचित् बाहर जा पाएँ। यह दूसरी कोटि का ध्यान है।
और तीसरी कोटि का ध्यान कहलाता है साक्षित्व। जब तुम कहते हो कि कुछ भी अब हमें ख़ास नहीं लगता। कोई विषय ऐसा नहीं है जिससे अनुरक्त अनुभव करें। हमें किसी पर ध्यान नहीं करना। जब तुम्हें किसी पर ध्यान नहीं करना तो सब कुछ क्या हो गया तुम्हारे लिए? बराबर। जब तुम्हें किसी पर ध्यान नहीं करना, कोई ध्येय नहीं रहा तुम्हारा। कुछ ऐसा नहीं लगता कि ये ख़ास है, साहब इससे फ़ायदा हो जाएगा। तो अब सब कुछ क्या हो गया तुम्हारे लिए? एक सम। अब तुम साक्षी हो गए। अब इस पूरे खेल-तमाशे के तुम दृष्टा मात्र हो, तुम्हें वहाँ कोई सहभागिता नहीं चाहिए। तुम्हारी कोई दरकार नहीं कि मैं भी खेलूँ और मैं भी ज़रा दो-चार पदक ले आऊँ।
जो सब खेल रहे हैं उनसे तुम्हें कोई द्वेष भी नहीं। बात नाज़ुक है, समझना। जो खेल रहे हैं उनसे तुम्हें कोई द्वेष भी नहीं; हाथ तो खेल रहा है, चाहे तुम्हारा हाथ हो, चाहे उसका हाथ हो। वह पक्षी तो खेल रहा है। वो सब लिप्त हैं। जो लिप्त हैं वो लिप्त हैं; हमें उनसे कोई गिला-शिकवा नहीं। हमें नहीं लगता कि हमें लिप्त होना है।
खाल को बड़ा मज़ा आ रहा है; समंदर का पानी शीतल है, बढ़िया बयार है और ऊपर सूरज है। न सर्दी है, न गर्मी है, लुभावना मौसम है। सबको बड़ा आनंद आ रहा है। अच्छी बात है, भाई। जिन्हें मज़ा आ रहा है वे मज़े लें, हमारा तो एक ही मज़ा है – सब मज़े लेने वालों को बैठकर के देखना।
वह देखो, कुंदन (संस्था के एक सदस्य की ओर इशारा करते हुए) मज़े ले रहा है, यह आरती (संस्था की एक अन्य सदस्या) मज़े ले रही है, यह कैमरा भी मज़े ले रहा है, यह पेड़ मज़े ले रहा है, वह राघव मज़े ले रहा है, अरे और तो और यह प्रशांत (ख़ुद की ओर इशारा करते हुए) भी मज़े ले रहा है। ले भाई, सब मज़े ले! प्रशांत मज़े ले रहा है, हम भी मज़े ले रहे हैं। हमारा मज़ा किस में है? देखना कि प्रशांत कितना अक्लवान है और कितना बुद्धू भी। वह अक्ल दिखाता है, हम मज़े लेते हैं। वह मूर्खता दिखाता है, हम मज़े लेते हैं; जैसे कि हमारा स्वभाव ही हो अविरल मज़े में स्थापित रहना। ये साक्षित्व है और यही वास्तविक ध्यान है।
पर यदि आप इस ध्यान को उपलब्ध न हो पा रहे हों, इस उच्चतम कोटि के ध्यान को आप उपलब्ध न हो पा रहे हों, तो फिर आपके लिए क्या उपाय है? कि आप जो द्वितीय कोटि का ध्यान है अभी उसकी चेष्टा करें। द्वितीय कोटि के ध्यान में किसको अपना विषय या ध्येय बनाना है?
श्रोतागण: गुरुवचन को।
आचार्य: हाँ।
प्र२: साक्षित्व के लिए मैं ट्राई (कोशिश) करता हूँ, देखता हूँ मैं ख़ुद को। मेरे मन में विचार आ रहे हैं, मैं उसको देखने की कोशिश करता हूँ।
आचार्य: उसको देखने की कोशिश एक और विचार है। वो सब बातें पढ़ी-पढ़ाई हैं, उनमें कोई मूल्य नहीं है। आते-जाते विचारों को देखना, इत्यादि उस तरीक़े से संभव नहीं है जिस तरीक़े से ज़्यादातर लोग उसकी बात करते हैं। देखने वाला ख़ुद एक मानसिक विषय है। मन का एक टुकड़ा मन के दूसरे टुकड़े को देखे इसको साक्षित्व नहीं कहते। जब आप कहते हैं कि मैं अपने विचारों को देख रहा हूँ, तो हो यह रहा है कि आप उन विचारों के बारे में एक अन्य विचार बना रहे हैं; आप देख इत्यादि नहीं रहे हैं। वह साक्षित्व नहीं है।
लेकिन बहुत सारी किताबों में इसी तरह की बात कही गई है। बहुत सारे गुरुओं ने भी ऐसा ही कहा है कि अपने विचारों को देखो। उसको आप जिस तरीक़े से लेते हैं वह वैसा बिलकुल भी नहीं है।
विचारों को देखने का अर्थ यह नहीं है कि आप विचार को देख रहे हो; विचारों को देखने का यह अर्थ है कि विचार अब आपके लिए कोई अर्थ नहीं रखता। जब आप कहते हो कि विचार मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता, तब आप विचार के दृष्टा हो गए।
अर्थ माने लाभ। अन्यथा यह सम्भव नहीं है। बड़ी उपमाएँ दी जाती हैं कि जैसे आकाश में बादल तैर रहे हैं, बादल आया, बादल चला गया, ठीक इसी तरीक़े से तुम अपने आते-जाते विचारों को देखो। ये सब भ्रामक बातें हैं।
प्र३: आचार्य जी, ये जो हम अध्यात्म में जाते हैं, मेडिटेशन (ध्यान) करते हैं या सीखते हैं, तो इसमें क्या आदमी गंभीर हो जाता है? गंभीर होना चाहिए या नहीं होना चाहिए?
आचार्य: देखो, गंभीर से अगर अर्थ है निष्ठावान, तो निश्चित रूप से निष्ठावान होना चाहिए। और अगर गंभीर से अर्थ है मायूस, परेशान, तो गंभीर नहीं होना चाहिए। गंभीर से अर्थ क्या है? अधिकांशतः जब तुम कहते हो गंभीर, तो उससे अर्थ होता है उदास। अगर गंभीर से तुम्हारा अर्थ है आस्थायुक्त, तो मैं कहूँगा बिलकुल गंभीर होना चाहिए। भीतर बड़ी घनी गंभीरता रहे और वह गंभीरता सिर्फ़ जो एकमात्र ध्येय है उसके प्रति हो सकती है। बाक़ियों के प्रति तो खिलवाड़ का ही रुख़ रह सकता है। कैसे गंभीर हो सकते हो?
भीतर जो वास्तव में एकनिष्ठ हो गया — गंभीरता का सम्यक अर्थ है एकनिष्ठा, एक के प्रति निष्ठ हो जाना — भीतर जो वास्तव में एकनिष्ठ हो गया, वह बाहर-बाहर बड़ा हॅंसोड़ हो जाएगा, बड़ा खिलंदड़ हो जाएगा। उसके लिए मुश्किल होगा बाहर गंभीरता प्रदर्शित करना।
बाहर गंभीरता नहीं प्रदर्शित कर पाएगा क्योंकि वह भीतर अब गंभीर हो गया है, भीतर अब वह एकनिष्ठ हो गया है। और जो भीतर अभी एकनिष्ठ नहीं हुआ, भीतर जो अभी वफ़ादार नहीं हुआ, उसको सज़ा यह मिलेगी कि उसे बाहर गंभीर रहना पड़ेगा, और उसकी गंभीरता का अर्थ होगा उदासी।
अंतर समझना, जो भीतर गंभीर हो गया उसकी गंभीरता का अर्थ होता है सत्यनिष्ठा, सिन्सेरटी (सच्चाई, ईमानदारी)। वही वास्तविक अर्थ है। जो भीतर से गंभीर हो गया, उसकी गंभीरता होती है सत्यनिष्ठा। वह सत्य के प्रति समर्पित है। जो भीतर सत्य को समर्पित हो गया वह बाहर क्या हो जाता है? खिलंदड़, खिलाड़ी, बहुरूपिया; कुछ भी बोल सकते हो तुम उसको। इधर-उधर मस्त घूमता-फिरता है; तुम कह सकते हो साँड़। दुनिया को देखता है तो कुछ चुटकुला मारता है। कभी यह करता है, कभी वह करता है, हँसाता है, नाचता है, गाता है; कह सकते हो भांड। भीतर भक्त, बाहर भांड। यह सत्यनिष्ठ व्यक्ति की स्थिति है। बाहर-बाहर उसको देखोगे, लगेगा यह तो थाली का बैंगन है, बिन पेंदे का लोटा है; यह तो किसी का नहीं है। बिलकुल वह बाहर-बाहर किसी का नहीं है क्योंकि भीतर वह? (उँगली से एक का इशारा करते हैं)
श्रोतागण: एक का है।
प्र४: समाज के लिए उसकी कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती है?
आचार्य: बाहर वह किसी भी एक के प्रति बेशर्त समर्पित नहीं होगा। वह कहेगा, ‘मैं तुम्हारे साथ हूँ अगर तुम सत्य के साथ हो।‘ शर्त लगी हुई है – ‘मैं तुम्हारे साथ हूँ अगर सच्चाई का तकाज़ा है कि तुम्हारे साथ रहूँ।‘ शर्त लगी हुई है, 'अगर', अगर बोला न। ‘तू मुझे बहुत प्यारी है अगर तुझे सच्चाई प्यारी है।‘
तो बाहर उसका जो कुछ होगा वह कंडीशनल (सशर्त) होगा। उसमें क्या लगी होगी? शर्त लगी होगी। और भीतर क्या है? बेशर्त है कुछ। भीतर तो अब दिल दे दिया तो दे दिया; अब वापसी का कोई रास्ता नहीं। अब सवाल, शंका कुछ नहीं। बाहर हमारे सारे सवाल रहेंगे क्योंकि यह संसार है। यहाँ तो हम सिर्फ़ उसके होंगे जो 'उसका' है। तो हम सवाल करेंगे और बार-बार करेंगे; क्या तू 'उसका' है? तू 'उसका' है तो मैं तेरा हूँ। बाहर सवाल करेंगे और भीतर जिज्ञासाहीन, कौतूहलहीन, परम विश्रांति। सारे शक, शंका, सवाल समाधान बन चुके हैं।
समझ में आ रही है बात?
और इसके विपरीत जो भीतर ही बॅंटा होता है, जो भीतर से ही बेवफ़ा होता है, जो अभी सत्य को समर्पित नहीं हुआ होता, उसको बाहर बड़ी गंभीरता दिखानी पड़ती है। देखते हो न, बड़े घूम रहे होते हैं गंभीर लोग, ये वास्तव में चोर हैं। क्या हैं?
श्रोतागण: चोर हैं।
आचार्य: इन्होंने आंतरिक चोरी करी है इसीलिए बाहर से इनको बड़ी शालीनता और गंभीरता दिखानी पड़ती है। जहाँ तुम पाना कि बाहर यही चल रहा है लगातार; समभाव। अरे! समभाव यहाँ होता है (अपने हृदय की ओर इशारा करते हुए), मुँह पर थोड़ी होगा समभाव। चेहरे में जानते हो कितनी माँसपेशियाँ होती हैं? पचास तरह की तो तुम्हारी मुस्कान हो सकती है, इतनी माँसपेशियाँ होती हैं, इतना बारीक हिसाब है चेहरे का। संरचना तुम्हारी ऐसी है कि यहाँ सब कुछ हो सकता है, यहाँ अनंत भाव हो सकते हैं। चेहरे में समभाव क्यों ला रहे हो? चेहरे में तो अनंत भाव होने चाहिए। समभाव कहाँ होना चाहिए? यहाँ, छाती में। चेहरे पर तो अनंत भाव होने चाहिए, पर जो भीतर से बेवफ़ा है वह चेहरे पर क्या लाता है?
श्रोतागण: एक भाव।
आचार्य: वह कहता है चेहरे पर तो एक भाव रहेगा, वत्स। अब इनका चेहरा बदल ही नहीं रहा है। कोई आया, उसको लगा मूर्ति रखी है पत्थर की। और उनका ध्येय भी यही रहता है कि जैसी देवताओं की मूर्तियाँ हैं, हम भी रूप वैसा रख लें तो हमें भी देवता ही माना जाए। बुद्ध नहीं हो सकते तो कम-से-कम बुद्ध की पाषाण मूर्ति जैसे हो जाएँ। तो फिर वो बुद्ध जैसा आचरण करते हैं, फिर वो बुद्ध जैसा रुख़ रखते हैं, शक्ल बनाते हैं।
समझ में आ रही है बात?
जिसको भीतर मिल गया वह बाहर से ऐसे ही कौवे जैसा हो जाता है। काँव-काँव, इधर से उधर, एक पेड़ से दूसरा पेड़, क्या लेना-देना! भक्त की दशा कौवे जैसी। मैं तो इतना भी नहीं कह रहा, कबीर तो कह गए कौवा नहीं हंस। हंस भी काहे को कहना? कौवा! काहे भेदभाव करते हो। रंग भेद है सीधा-सीधा।
और जो भीतर से भी खोट रखता है, वह बाहर से क्या करता है? गंभीर आचरण। 'देखो, हम बड़े प्रतिष्ठित और सम्माननीय व्यक्ति हैं, हमारे गंभीर चेहरे को देखो; हमारे साथ कोई जुर्रत मत करना।' देखे हैं न ऐसे लोग? उन्हें पता है अच्छे से कि मुँह खोल दिए, हँस दिए तो कलई भी खुल जाएगी। मुँह खुला, साथ में क्या खुली? पोल। तो मुँह न खोल, नहीं खुलेगी पोल! तो बड़े गंभीर-गंभीर घूमेंगे। और जो उन्हीं जैसे मूढ़ होते हैं, वह कहते हैं, 'बड़े मौनी हैं। हँसी तो इन्हें छू नहीं जाती, चेहरे पर कोई भावना ही नहीं आती।'
ऐसे में और कुछ नहीं होगा, चेहरे पर लकवा मार जाएगा। अब इतनी सारी माँसपेशियाँ हैं, उनका तुम इस्तेमाल नहीं कर रहे तो क्या होंगी? वो ख़त्म हो जाएँगी। अब तुम मुस्कुराने की कोशिश भी करोगे तो दो लोग लगेंगे, इधर से, इधर से मुँह खीचेंगे। आँखें रो नहीं पाएँगी, नथूने फड़क नहीं पाएँगे, होंठ और गाल मुस्कुरा नहीं पाएँगे। ऐसे जीना चाहते हो?
ऐसे नहीं जीना तो एक ही उपाय है। यहाँ (अपने हृदय की ओर इशारा करते हुए) पर बिक जाओ, इसको बेच दो अपनेआप को पूरे तरीक़े से। हम दिल दे चुके सनम। और जो दिल दे देता है उसकी ख़ासियत यही होती है, उसका लक्षण ही यही होता है कि अब वह पूरी दुनिया का हो जाता है क्योंकि भीतर से एक का हो गया है। कौवे की तरह किसी भी पेड़ पर बैठ सकता है, क्योंकि भीतर अब वह एक ही पेड़ पर बैठेगा। भीतर एक पेड़ पर बैठा है और बाहर-बाहर अब वह कहीं से भी, कुछ भी करेगा; गंदगी में चोंच डाल देगा, उसे कोई आपत्ति नहीं। वो विष्ठा में भी जाएगा और मुँह डाल देगा। असली सफ़ाई तो जहाँ मिलनी थी वहाँ मिल गई। अब बाहर जो है, सब ठीक है। तुम उसको दही पूड़ी खिलाओ, अच्छी बात है, कौवा खा लेगा। मालपुआ बना है, भाई! कौवा मालपुआ खा रहा है। और तुम्हें बड़ा ताज्जुब हुआ, कौवा मालपुआ खाया और वहाँ जाकर के गू में मुँह डाल दिया; यह तो अजीब बात है। यही ब्राह्मी स्थिति है, कौवे की स्थिति; मालपुआ खाओ, फिर गू में चोंच डालो।
क्या ज़रूरत है किसी जीजस को मूढ़ों से बात करने की? यहाँ गोवा में एक चर्च है, जो यहाँ का सबसे प्रसिद्ध चर्च है, कल वहाँ गया था। देखा जीजस की एक मूर्ति स्थापित है वहाँ जिसमें लहू ही लहू है उनकी देह पर। मैंने कहा ख़ूब तुमने भी विष्ठा का लेप करा अपने ऊपर! क्या ज़रूरत है किसी संत को, किसी अवतार को, किसी पैगंबर को मूढ़ों से बात करने की और उलझने की?
समझ रहे हो न मैं कौवे का उदाहरण क्यों दे रहा हूँ? जैसे कौआ जा करके गंदगी में चोंच डालता है, ठीक उसी तरीक़े से संत भी, ज्ञानी भी, पैगंबर भी मूढ़ों के साथ ही तो उलझता है; वरना उसे क्या करना है? जीजस को उनके पिता का वरदहस्त प्राप्त था। जाते अपना कहीं ऐश करते, कुछ भी, घूमते-फिरते, पूरी दुनिया है। उन्हें क्या पड़ी थी कि अहंकारियों से, बुद्धुओं से, दुष्टों से जाकर बात करते फिरे, उन्हें नाराज़ करते फिरे।
अपने लिए सौ झंझट और अड़चन खड़ी की। वह इसीलिए क्योंकि उनके लिए सब बराबर है। भीतर सब ठीक हो गया न। भीतर सब ठीक हो गया न, अब बाहर जो मिले सब चलेगा। गाजर, मूली, क्रॉस, सूली सब बराबर हैं। मालपुआ दिया तो बढ़िया, और मालपुआ नहीं मिला तो? तो उधर नाली है तो, कुछ वहाँ मिल जाएगा। हमें मालपुए से ऐतराज़ नहीं। जीजस को भी अगर भक्त मिल जाते, जो कि मिले थे। उनके चंद, मुट्ठी भर शिष्य रहते थे उनके साथ। बढ़िया, उनके साथ भी मग्न हैं जीजस। और जब मूढ़ों से पाला पड़ रहा है तो वहाँ भी मग्न हैं। मालपुआ भी ठीक है, और गंदगी भी ठीक है। सब कुछ ठीक है, क्योंकि यहाँ (अपने हृदय की ओर इशारा करते हुए) कुछ ठीक है।
प्र५: परमात्मा…
आचार्य: नहीं, ऐसे नहीं मिलता। रुक जाइए, रुक जाइए। आपके प्रश्न कीमती नहीं हैं, सुनना कीमती है। आपके प्रश्न आपके जितने ही हैं। मैं आपके प्रश्नों का उत्तर वैसे भी नहीं देता हूँ। इस वक़्त मैं जो बोल रहा हूँ, मुझे याद भी नहीं है कि पीछे प्रश्न क्या था। हम इतने ही समझदार होते कि सही प्रश्न पूछ सकते तो उसी समझ का उपयोग करके हम तर न गए होते। पर हमें अपने प्रश्नों पर भी बड़ा भरोसा है। जैसे अपने पर भरोसा है वैसे ही अपने सवालों पर भी बड़ा भरोसा है, कि मेरे सवाल मेरे लिए मुक्ति का मार्ग खोलेंगे। वह तो बीच-बीच में मैं बोलता हूँ 'सवाल पूछिए' इसलिए कि आपको लगे कि आपका भी कुछ है। नहीं तो फिर कहेंगे कि यह तो बकते ही जाते हैं, बकते ही जाते हैं, बकते ही जाते हैं, अनवरत! (सभी श्रोतागण हँसते हैं)।
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