दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
श्रीमद्भगवद्गीता सातवाँ अध्याय, चौदहवाँ श्लोक –
"जो ज्ञानी मुझे अनन्य भाव से भजते हैं, मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरी त्रिगुणी माया का उल्लंघन कर जाते हैं”।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी मैं मन व बुद्धि से श्रीकृष्ण का स्मरण कर इस त्रिगुणी माया से कैसे पार पाऊँ क्योंकि मेरी साधन तो अपराप्रकृति के ही हैं?
आचार्य प्रशांत: मन व बुद्धि से श्रीकृष्ण का स्मरण बाद में होगा। मन व बुद्धि पहले अकृष्णों को तो भजना छोड़ें। एक बात समझिए अच्छे से; आप अगर श्रीकृष्ण को भजते हैं तो आपके श्रीकृष्ण ठीक वैसे ही होंगे जैसा आपके जीवन की गुणवत्ता है। ये नहीं हो सकता कि आप दस मूर्खों को भजते हैं दिनभर और साथ में श्रीकृष्ण को भी भजते हैं तो ये जो ग्यारहवें हैं आपके ‘व्यक्तिगत श्रीकृष्ण’ ये सच्चे हों; ये हो नहीं पाएगा।
श्रीकृष्ण अगर सच्चे होंगे तो दस मूर्खों को टिकने नहीं देंगे। और ये बात सब श्रीकृष्ण भक्त ज़रा ध्यान से सुनें, अपने जीवन को जाँच लें, कहीं धोखा नहीं खा रहे हों।
आपकी श्रीकृष्ण भक्ति में कितनी सच्चाई है और कितना दम है ये जानने के लिए ये मत बताइए कि मुझे कि आप श्रीकृष्ण का कितना स्मरण करते हैं। आप मुझे ये बताइए, आप श्रीकृष्ण के अलावा किसका-किसका स्मरण करते हैं? और ये तो कहिएगा ही नहीं श्रीकृष्ण के अलावा किसी का स्मरण करते नहीं। अगर आप ये कह रहे हैं तो हमारी-आपकी कोई बातचीत नहीं हो सकती। आप अपने रास्ते, हम अपने रास्ते।
चित्त में कुछ-न-कुछ तो चलता ही है दिनभर। और कुछ-न-कुछ नहीं, पचास चीज़ें चलती हैं न दिनभर? चलती हैं कि नहीं चलती हैं? वो कौन सी चीज़ें हैं? श्रीकृष्ण के अलावा और कौन लोग हैं जो आपके दिमाग में घूमते रहते हैं? कौनसे विचार, कौनसे मुद्दे, कौनसी जगहें, कौनसी घटनाएँ, कौनसी आशाएँ, कौनसे चेहरे, कौनसी आवाज़ें, कौनसी आशंकाएँ, कौनसी अपेक्षाएँ?
क्या-क्या है जो आपके दिमाग में चलता रहता है श्रीकृष्ण के अलावा? वो बताइए।
ये मत बताइए कि मैं तो श्रीकृष्ण का भी स्मरण कर ही लेती हूँ। बीच-बीच में भज लेती हूँ, भजनों की सीडी लगा देती हूँ, एक माला है उसका इस्तेमाल कर लेती हूँ।
श्रीकृष्ण के नाम पर बड़े खेद की बात है, बड़े दुर्भाग्य की बात है कि बहुत सारी संस्थाएँ हैं जो ज़बरदस्त पाखंड कर रही हैं; वो बनी ही है श्रीकृष्ण के नाम पर हैं। उस तरह की संस्थाओं से आप जुड़ जाएँ तो आपको ये धोखा हो सकता है कि आप बड़े श्रीकृष्ण भक्त हैं। क्योंकि उनके द्वारा अनुमोदित जो दिनचर्या होती है उसमें ये शामिल होता है कि दो घंटे बैठकर श्रीकृष्ण को भजो, अब ये करो, अब वो करो। तो घंटे-दो घंटे बैठकर के श्रीकृष्ण को भज लेने से या बात-बात में अभिवादन इत्यादि में श्रीकृष्ण का नाम ले लेने से कई लोगों को ये भरोसा हो जाता है बल्कि गुरुर हो जाता है कि वो श्रीकृष्ण के भक्त हैं।
तो मैं ऐसों को उनकी श्रीकृष्ण भक्ति जाँचने के लिए एक प्रयोग, एक विधि, एक परीक्षण दे रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ देखिए कि श्रीकृष्ण के अलावा किस-किसको भजते हैं आप। क्योंकि अगर श्रीकृष्ण सच्चे हैं आपके तो आप सिर्फ़ उन्हीं को भज पाएँगे जिनमें कृष्णत्व होगा।
आप देखिए कि आप किन-किन को भज रहे हैं। आप देखिए कि जो मुद्दे, जो माया आपके चित्त पर सवार रहती है; उनमें कृष्णत्व कितना है? आप ये थोड़े ही कह सकते हैं कि मैं वैसे तो ‘कृष्णा-कृष्णा’ करता हूँ और फिर दुकान पर जाता हूँ, वहाँ दबाकर घपलेबाज़ी भी करता हूँ, मोल-भाव भी करता हूँ, लूटपाट करता हूँ। सब तरह के हथकंडे लगाता हूँ, साम-दाम-दंड सब लगा देता हूँ। वैसे तो मैं बड़ा श्रीकृष्ण भक्त हूँ, लेकिन घूसखोरी से पीछे नहीं हटता, कमिशनबाज़ी से पीछे नहीं हटता।
ये जो श्रीकृष्ण हैं फिर जिनको आप भज रहे हैं ये आपके अपने व्यक्तिगत श्रीकृष्ण हैं। इनका सच्चे श्रीकृष्ण से कोई नाता नहीं। क्योंकि सच्चे श्रीकृष्ण की ये पहचान आपको फिर बता रहा हूँ; ‘जहाँ सच्चे श्रीकृष्ण होंगे वहाँ सिर्फ़ सच्चे श्रीकृष्ण ही होंगे’। वो अनन्य हैं; अनन्य माने समझते हो? उनके अलावा कोई दूसरा नहीं हो सकता। जहाँ श्रीकृष्ण होंगे वहाँ फिर सिर्फ़ श्रीकृष्ण होंगे। वहाँ ऐसा नहीं होगा कि आपके पास श्रीकृष्ण के अलावा भी पाँच-सात हैं। कि “नहीं जी मैं तो श्रीकृष्ण को भजता हूँ पर साथ-ही-साथ गोलू-मोलू पड़ोस की रिंकी और पड़ोस की रिंकी की मम्मी को भी भजता हूँ थोड़ा-थोड़ा”।
ये चल रहा है तो फिर आपने यूँही मन में कोई झूठे, मनगढ़ंत, काल्पनिक श्रीकृष्ण रच लिए हैं। और काल्पनिक श्रीकृष्ण थोड़े ही काम आएँगे आपके; असली श्रीकृष्ण आपके काम आने हैं। असली श्रीकृष्ण पहला काम ये करते हैं कि जगह खाली करते हैं। वो कहते हैं “बाकी सब को हटाओ; ये अंगु-पंगु नहीं चलेंगे। मुझे भजने का मतलब है, सिर्फ़ मुझे भजना। या तो मुझे भजो या उनको भजो जो मुझे भजते हैं”। (दोहराते हुए) या तो मुझे भजो या उनको भजो जो मुझे भजते हैं। और सब नहीं चलेंगे; खाली करो, निकालो, बेदखल। बात समझ में आ रही है?
अब आप पूछ रही हैं कि “मैं मन-बुद्धि से श्रीकृष्ण का स्मरण कर इस त्रिगुणी माया के पार कैसे जाऊँ मेरे साधन तो सब भौतिक ही हैं”? तो पहले तो ‘स्मरण’ की जगह ‘विस्मरण’। पहले तो विस्मरण; विस्मरण पर ध्यान दीजिए। श्रीकृष्ण कोई वस्तु, व्यक्ति, विचार तो हैं नहीं कि आप उनका स्मरण कर डालेंगे। भौतिक तो हैं नहीं श्रीकृष्ण कि उनको आप पकड़कर के मन में बैठा लेंगे। श्रीकृष्ण को मन में रचाने-बसाने का अर्थ होता है; ‘उन सब चीज़ों को भुला देना जिनमें कृष्णत्व नहीं हैं’।
‘कृष्णत्व’ का क्या अर्थ है? ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ ही बता देती है, कृष्णत्व का क्या अर्थ है। कृष्णत्व का अर्थ होता है; ‘असीमता’, ‘अनन्तता’। जो भी चीज़ छोटी है, क्षुद्र है, जिस भी चीज़ की सीमा है, जो भी चीज़ काल के बहाव के अंदर की है उसमें कृष्णत्व नहीं हो सकता। वो श्रीकृष्ण की माया है, बस उसका श्रीकृष्ण से इतना ही रिश्ता है।
आप कहें भी कि सब कुछ परमात्मा से ही तो आ रहा है। हाँ, परमात्मा से ही आ रहा है पर परमात्मा स्वयं बोल रहे हैं कि ये मेरी? माया है। काहे फँस रहे हो उसे चक्कर में! और ये जो सामने त्रिगुणी संसार है इसी संसार में वो तत्व भी मौजूद हैं जो श्रीकृष्ण तक ले जाते हैं। भूलभुलैया है ये दुनिया पर इसी भूलभुलैया में वो रास्ता भी है जो बाहर ले जाता है।
योद्धाओं से बहके और भ्रमित लोग और रक्त पिपासु पशुओं से भरा हुआ है कुरुक्षेत्र का मैदान। पर उसी मैदान के बीचोंबीच व्यक्ति रूप में ही एक ऐसा मौजूद है जिसके पास जाओगे तो कृष्णत्व को पा जाओगे। है न? वो जिसके पास कृष्णत्व मिलता है उसका कुरुक्षेत्र में नाम ‘श्रीकृष्ण’ है। वो जिसके पास कृष्णत्व मिलता है सदा उसका नाम ‘श्रीकृष्ण’ नहीं होता।
और कुरुक्षेत्र में भी याद रखो, हज़ारों योद्धाओं के बीच वो एक अकेला ही है। एक अकेला है; बहुत आसान है उससे चूक जाना। ध्यान न दो तो बिलकुल चूक जाओगे। कहोगे, जैसे ये बाकी सब योद्धा हैं, सारथी हैं वैसे ही एक ये भी हैं; अर्जुन के रथ पर। चूक जाओगे।
ठीक उसी तरीके से हज़ारों को, लाखों को खोजोगे तो सफलता तुम्हें भी मिलेगी। कुरुक्षेत्र में हज़ारों में एक बीच में बैठा हुआ है न जो गीता ज्ञान देने में समर्थ है? वैसे ही दुनिया में भी अगर खोजोगे तो जितना खोजोगे उतना पाते चलोगे। जहाँ कहीं भी हो तुम, जिस भी समय में हो, जिस भी देश में हो, जिस भी परिस्थिति में हो; खोजो। पास नहीं तो दूर सही लेकिन मुक्ति का दरवाज़ा मिलेगा ज़रूर।
इसी त्रिगुणी माया के भीतर मुक्ति का मार्ग भी है। इससे बाहर कहीं नहीं है। इससे बाहर तुम जा ही नहीं सकते। जब तक शरीर पकड़े हुए हो, जब तक जिंदा हो, आस-पास तो यही है न दुनिया, संसार। इसी संसार में विवेकपूर्वक सही निर्णय करना होता है। इसी संसार में सही निर्णय से सही कर्म करना होता है। उसी सही कर्म के लिए श्रीकृष्ण तरीका बता गए हैं-‘निष्काम कर्म’। उसको सीख लो, उसका अभ्यास कर लो, जान लो उसको और अपनी जान बना लो उसको, फिर देखो कि अपने सब बन्धनों का उल्लंघन कर जाते हो कि नहीं?
पर इस कोशिश में मत रहना कि दुनिया के पार का कोई अद्भुत, पारलौकिक, सामर्थ्यशाली जीव आएगा और तुम्हारी मदद कर जाएगा। दुनिया के पार कुछ नहीं होता, दुनिया के पार और दुनिया है। ये इस पार और उस पार की बातें ही दुनियावी हैं। तो तुम कहो दुनिया के इस पार, तो माने- दुनिया। और उस पार, किसके उस पार? दुनिया के ही उस पार न? तो दुनिया के उस पार तो और दुनिया। दुनिया के ही तो उस पार- और दुनिया।
कोई कहीं बाहर से नहीं आने वाला, बाहर कुछ होता ही नहीं। जो कुछ है यहीं पर है। इसी कुरुक्षेत्र के धूल भरे मैदान में सब आशंकाओं और निराशाओं के बीच मिलेंगे श्रीकृष्ण; यहीं पर हैं। और यहाँ तुम्हें नहीं मिल रहे(13:37सहे), यहाँ तुम्हें नहीं दिखाई दे रहे तो कहीं नहीं मिलेंगे।
फिर तुम बैठे-बैठे जुगत लगाते रहो, उम्मीद करते रहो कि ये स्मरण करेंगे और आँख बन्द करेंगे और माला फेरेंगे और गाएँगे और नाचेंगे और फ़लाने काम करेंगे। तुम अपनेआप को धोखा दे रहे हो, मत दो। और ये भी समझ लो, इससे पहले कि नयी-नयी छवियाँ बनाओ- ‘प्रतिपल जीवन का रणक्षेत्र बदल रहा है। तो कोई आवश्यक नहीं है कि एक ही श्रीकृष्ण हैं और वो एक ही देह पकड़े-पकड़े तुम्हें तुम्हारी उँगली पकड़कर जीवन की भूलभुलैया से पार लगा देंगे। मन में वही कुरुक्षेत्र के श्रीकृष्ण और अर्जुन जैसी छवि आती होगी। कि अर्जुन के पास एक ही थे न, श्रीकृष्ण और वो बार-बार मदद करते रहे।
“कृष्णत्व एक होता है श्रीकृष्ण बदलते रहते हैं। बात समझो कृष्णत्व एक होता है श्रीकृष्ण बदलते रहते हैं। सत्य एक होता है अवतार बदलते रहते हैं। प्रकाश एक होता है सूर्य बदलते रहते हैं”। तो जीवन में भी अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग मुकामों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में बहुत सम्भव है कि तुमको अलग-अलग रूपों में श्रीकृष्ण मिलें। तुम सतर्क रहो, सजग रहो, विनीत रहो, श्रद्धालु रहो। जहाँ भी मिलें, ऐसा न हो कि तुम अन्धे होकर के उनको देख ही न पाओ, प्रेम और सम्मान न दे पाओ।