रिश्तों में तालमेल || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

9 min
112 reads
रिश्तों में तालमेल || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: जो आपने प्रेम के बारे में मैंने आपके वीडियोज़ भी देखे, थोड़ा समझने की कोशिश करी तो ये समझ में आया कि हम कई बार व्यापार बहुत सारा कर रहे होते हैं, उनको प्रेम का नाम देते हैं। लेकिन जीवन में जो सम्बन्ध हैं, जैसे कोई भी सम्बन्ध है, चाहे वो दोस्त से है, माँ से है, बाप से है, अब इनमें एक व्यावहारिक तल भी है जिसमें कुछ लेन-देन है और तो उसको कैसे साथ में लें? और इसी के साथ कई बार ये भी दिखता है कि खुद की कुछ ज़रूरतें होती हैं कि खुद पर कुछ चीज़ें खुद के लिए करनी है और कई बार दूसरे के लिए भी करनी है और इसकी दोनों एक्सट्रीम भी मैं देखता हूँ कि जैसे कुछ घरों में लोग अपने ऊपर काम नहीं करते बस दूसरे को ठीक करने की कोशिश करते रहते हैं, वो भी नर्क बन जाता है और कुछ जगह लोग सिर्फ़ अपने ही अपने में घुसे हुए हैं, वो भी नर्क बन जाता है। तो इसका लाइफ़ में बैलेंस कैसे करें कि ये मतलब ये जजमेंट कॉल (निर्णायक कॉल) कैसे लें?

आचार्य प्रशांत: ये बात हुई थी तो मैंने दो उसमें सिरे बताये थे जिनसे सावधान रहना है, ठीक है न? कि एक तो ये है कि दूसरे को बदलने की कोशिश कहीं तुम इसलिए तो नहीं कर रहे कि उससे तुम्हारी ठसक बढ़ती है, एक ये देखते चलो। और दूसरा सिरा ये जाँचते चलो कि कहीं दूसरे को न बदलने की कोशिश तो तुम इसलिए नहीं कर रहे कि तुम्हारी ठसक बची रहे? सही रास्ता इन दोनों सिरों के कहीं बीच में होता है, ये दोनों ही अतियाँ अहंकार की हैं।

पहली अति मैंने कौन सी बतायी? ये मेरा परिवार है। देखो, तुम्हें बाल लम्बे नहीं रखने चाहिए। देखिये, आपको रोज़ सुबह दौड़ लगानी चाहिए। देखिये, आप खाना बहुत ज़्यादा खाते हैं। तुम, तुम दाढ़ी बढ़ाओ, दाढ़ी बढ़ाओ। इसको वज़न बढ़ाना चाहिए ये जो बीच में बैठा है। ये सब क्या हो रहा है? मैं शुभचिन्तक हूँ सबका? मैं क्या कर रहा हूँ ये? मैं सबको क्यों बदलना चाह रहा हूँ? भाई का रौला है। क्या बोल रहे थे तुम? क्या चलते हैं? कोलोक्विअल वर्ड (बोलचाल का शब्द)। ‘लैट’। ये सब भाई की लैट है। ज़ोन ऑफ़ इन्फ़्लूएन्स (प्रभाव क्षेत्र)।

कोई गम्भीर सच्ची इच्छा थोड़े ही है दूसरे की भलाई की। मैं हो सकता है इसको बोल रहा हूँ कि तुम बहुत कमज़ोर हो, और अगर वो अपनी ताकत इतनी बढ़ा ले कि उसकी ताकत मुझसे ज़्यादा हो जाए तो मुझे बुरा भी लगने लग जाएगा। वास्तव में कहीं-न-कहीं उसकी कमज़ोरी मेरे लिए हितकर है क्योंकि जब तक वो कमज़ोर है, पहली बात तो मुझे ये सुख है कि वो मुझसे कमज़ोर है, दूसरे मुझे इसका सुख है कि देखो मैं अच्छा आदमी हूँ, मैं इसकी कमज़ोरी दूर करना चाहता हूँ, रोज़ मैं इसको बोलता हूँ कमज़ोरी हटाओ ताकत बढ़ाओ। कहीं सही में उसने ताकत बढ़ा ली, मुझसे ही ज़्यादा ताकतवर हो गया तो मेरा क्या होगा? ये सब सवाल पूछने होते हैं। क्योंकि दूसरे को सलाह देने में हमें अच्छा तो लगता ही है, नीयत क्या है? चाह क्या रहे हैं?

समझ में आ रही है?

तो एक तो अति ये हो गयी कि मुझे सबको बदलना है क्योंकि दूसरों को बदलने में हम दूसरों के ऊपर चढ़ भी तो बैठते हैं। गुरु जैसे हो जाते हैं न दूसरों के? फिर जब तुम किसी को सलाह दे रहे होते हों तो उसमें ये भाव तो निहित होता ही है कि तू नहीं जानता और मैं जानता हूँ। और इससे बड़ा सुख क्या होता है? तू नहीं जानता और मैं जानता हूँ। इस अति से बचना चाहिए। पूछना होगा कि मैं उसको बदल रहा हूँ उसके लिए या अपने लिए? मैं उसको बदल रहा हूँ उसके लिए या अपने लिए?

जैसे लोग होते हैं न, अपने साथ कोई चल रहा है, मान लो तुम्हारा जोड़ीदार है, तुम्हारा पति है, तुम्हारी पत्नी है। तो उसे बोल रहे हो, ‘देखो, वज़न कम करो। देखो, वज़न कम करो।‘ ये तुम उसका वज़न इसलिए कम करा रहे हो ताकि उसकी सेहत बढ़े या उसका वज़न इसलिए कम करा रहे हो क्योंकि उसके साथ तुम चलते हो तो तुमको शर्म आती है कि लोग कहते हैं देखो इसके साथ जो चल रहा है वो कितना मोटा है? दोनों बातें हो सकती है न? ज़्यादा सम्भावना यही है कि तुमको लाज आती है कि तुम्हारे बगल में एक ऐसे कुछ गैंडे जैसा चल रहा है तो तुम उससे कह रहे हो वज़न कम करो, वज़न कम करो। तुम्हें उसकी सेहत की इतनी थोड़े ही फ़िक्र है।

कुछ आ रही है बात समझ में?

इस अति से बचना है।

दूसरी अति कौन सी है? नहीं, ठीक है जी, जैसा चल रहा है बहुत बढ़िया है। नहीं, ठीक है वो तो। नहीं जी, वैसे तो वो बहुत ही हैं, पर ठीक है, अच्छे हैं। तुम्हें वाकई में वो ठीक लग रहे हैं? नहीं, बात ये है कि उनको बदलने के लिए तुम्हें भी श्रम करना पड़ेगा, कौन करे दूसरे के लिए श्रम। और दूसरी बात क्या है? तुम्हारी हिम्मत नहीं हो रही है उनसे बोलने की कि साहब आप ठीक नहीं हैं, आपको बदलना चाहिए। तो तुम कह रहे हो, नहीं, कोई न बदले। जो चल रहा है, चलता रहे। ज़्यादातर तो ये मामला उदासीनता का होता है, इनडिफरेन्स (उदासीनता), हू केयर्स (कौन परवाह करे), कई बार डर का होता है, मैं बोल कैसे दूँ?

तो ये जो सही काम है वो इन दो अतियों के बीच का है। मैं तुमको नहीं बता सकता कि तुम्हें दूसरे को कहना चाहिए बदलने के लिए या नहीं कहना चाहिए। मैं तुम्हें सिर्फ़ ये बता सकता हूँ कि अपने प्रति ईमानदार रहो, अपनेआप से पूछते रहो कि उसको बदलने में मेरा क्या स्वार्थ है। तुम्हारा स्वार्थ जितना कम है उतना अच्छा। बस, इतनी सी बात। ठीक?

प्र: और अगर ये सवाल पूछकर पता लगे कि मेरा स्वार्थ कम है काफ़ी।

आचार्य: हाँ, लगे रहो।

प्र: और तो कितना लगे रहें? अपने लिए भी जो समय देना है वो।

आचार्य: वो बात ही नहीं है। जितना अपनेआप से प्रेम करते हो, लगे रहो। जो स्वयं से प्रेम करेगा वो दूसरे का मूल्य भी जानेगा। फिर तुम छोड़ कैसे दोगे? इसमें कोई सीमा नहीं बतायी जा सकती। देखो, सीमा पूछ करके तो यही सिद्ध कर रहे हो कि स्वार्थ है क्योंकि सीमा तुम किसके लिए पूछ रहे हो कितना लगे रहें? तुम किसके लिए पूछ रहे हो कि कहाँ पर जाकर रुक जाएँ, अपने लिए ही न? माने किसी जगह तुम कह रहे हो कि रुकने में तुम्हारा स्वार्थ है। हाँ तो फिर स्वार्थ है न? तुम कह रहे हो स्वार्थ कम है।

प्र: नहीं, अपने लिए जो समय निकालना है और जो दूसरों को देना है उसमें समझ नहीं आ रहा।

आचार्य: ये दोनों कुछ ऐसा नहीं होता कि परस्पर विरोधी होते हैं या इनमें कोई मेल नहीं होता। मैं अभी यहाँ तुमसे बात कर रहा हूँ तुम्हें क्या लग रहा है मुझे नहीं फ़ायदा हो रहा? अब तो लोग आते हैं तो सुन भी लेते हैं। आज से आठ-दस साल पहले लोगों को ताज़्जुब हुआ करता था। तब कोई मुझे न जानता था न समझता था। मैं फिर भी बेशर्मों की तरह बोलने पहुँच जाऊँ तो लोग पूछें कि, ‘आप इतना यहाँ बोल गए दो घंटे-तीन घंटे, इन लोगों ने किसी ने आपको सुना नहीं। आप क्यों बोल रहे हैं कोई फ़ायदा तो हो नहीं रहा? ये सुनना चाह भी नहीं रहे।‘ मैं बोलता था, ‘मुझे हो रहा है फ़ायदा, किसी ने नहीं सुना, मैंने सुना न, मैंने तो सुना, मुझे हो रहा है फ़ायदा।‘

प्र: ये भी डिवाइड (विभाजन) मैंने ही बना रखा है एक आर्टिफिशियल (कृत्रिम)।

आचार्य: हाँ, तुम सोचते हो कि दो अलग-अलग तरह के काम होते हैं। एक, जिसमें दूसरे का फ़ायदा होता है और दूसरा, जिसमें अपना फ़ायदा होता है। सही काम की पहचान ये है कि उसमें सब का फ़ायदा होता है। अगर कोई काम ऐसा है जिसमें सिर्फ़ दूसरे का फ़ायदा हो रहा है वो काम गड़बड़ है। कोई काम ऐसा है जिसमें सिर्फ़ तुम्हारा फ़ायदा हो है वो काम भी गड़बड़ है। सही काम का लक्षण ही यही होगा कि उसमें सबका फ़ायदा हो रहा होगा अपनेआप। और ऐसा नहीं है कि तुमने वहाँ पर गणना करी होगी या इस तरह की कोई व्यवस्था करी होगी कि देखो इसका भी फ़ायदा हो जाये थोड़ा सा, इसका भी फ़ायदा हो जाये बराबर का, बीस प्रतिशत इसको दे दो, तीस प्रतिशत इसको। नहीं, वो ऐसा नहीं होता कि बीस प्रतिशत इसका फ़ायदा हो रहा है, तीस प्रतिशत इसका फ़ायदा हो रहा है। उसमें सबका सौ प्रतिशत फ़ायदा हो रहा है।

अभी हम बातचीत कर रहे हैं तो ऐसा हो रहा है क्या कि बीस प्रतिशत इसको मिल रहा है, बीस प्रतिशत उसको मिल रहा है और पाँच-सात प्रतिशत मुझे ही मिल रहा है? नहीं। असली चीज़ का क्या लक्षण? उसमें सबको मिलता है और सब कुछ मिलता है। पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल दो तो पूर्ण ही शेष रह जाता है। वही वाली बात होती है वहाँ पर।

प्र: तो अगर गणना ही करनी पड़ रही है इसका मतलब यह लक्षण है कि वो।

आचार्य: गणना करनी पड़ रही है इसका मतलब कुछ करना चाहते हो, कुछ नहीं करना चाहते हो। ठीक से करो तो तुम पाओगे कि तुम्हें भी फ़ायदा हो ही रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories