प्रश्नकर्ता: भगवानश्री प्रणाम, आपके सान्निध्य में रहकर ये तो दिख गया कि मिलकर भी कुछ मिलता नहीं, ये समझ गहरी हुई। लेकिन जो दौड़ दौड़ी, चालीस साल के हैं तो बीस-पच्चीस साल, तीस साल दौड़ दौड़ी है उसका एक बल है। अपने को समझाकर जब जिनके साथ दौड़े थे उनको कहते हैं कि अब रुकना है।
तो वो एक बल है उनका एक इनरशिया (जड़त्व) है। वो इनरशिया कहीं-न-कहीं मेरे को भी कमज़ोर करता है कि इस भीड़ से निकलकर कैसे हटें। उस इनरशिया को कैसे, उस अपने जो चीज़ मेरे को कमज़ोर कर रही है? जैसे आपने कहा, ‘विवेक है तो ये सीमा तो निर्धारित करनी पड़ेगी।’ तो मैं अगर अपने विवेक से जो भी आया है उसको कोशिश करता हूँ कि यहाँ तक सीमित करेंगे।
आचार्य प्रशांत: जब बाहर कई तरह की ज़िम्मेदारियाँ खड़ी कर ली हों और ज़िम्मेदारियों से पार जाने का पर्याप्त बल अभी आया न हो, तो उन ज़िम्मेदारियों को उतना ही और इसी दृष्टि से पूरा करना चाहिए कि भीतर जाने के लिए ज़रूरी है कम-से-कम इस हद तक बाहरी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना।
आप हैं, आपने अपने आस-पास ये तीन ज़िम्मेदारियाँ खड़ी कर ली हैं और ज़िम्मेदारियाँ मैं सामाजिक दृष्टि से नहीं कह रहा हूँ, मैं बिलकुल आत्मिक दृष्टि से कह रहा हूँ क्योंकि अगर आप किसी को दुनिया में लेकर के आये हैं तो ये आपने कर्म खड़ा करा है अपने लिए, और उस कर्म की निवृत्ति भी आपको ही करनी है, आप पीठ नहीं दिखा सकते। ठीक है?
आदमी ने बेहोशी में भी भले कुछ कर दिया हो, लेकिन जो करा है उसका भुगतान तो होश में आकर भी होना होता है न, कि नहीं होता? आप कहीं पी रहे थे, अब पीते-पीते बिलकुल चढ़ गयी, जब चढ़ गयी तो आप एक के बाद एक बोतलें मँगाते रहे। क्या आप ये कह सकते हो कि मैं भुगतान नहीं करूँगा क्योंकि जब मैं बोतलें मँगा रहा था तो मैं होश में नहीं था। भुगतान तो देखिए करना पड़ेगा आप होश में हों, बेहोश में हों, कर्म है तो है। ज़िम्मेदारी है।
तो ये तीन ज़िम्मेदारियाँ आपने खड़ी कर लीं, अब जीवन के इस पड़ाव पर भीतर जाने की आपमें इच्छा है। वो असली काम आप करना चाहते हैं और आप पूछ रहे हैं बाहर कहाँ सीमा खींचें? बाहर वालों को कैसे समझाएँ? बाहर वाले बन्धन बन रहे हैं ऐसी कुछ बात भावना आपकी बात में लग रही है। तो भीतर जाने के लिए भी बाहर वालों को एक सीमा तक आपको सन्तुष्ट रखना पड़ेगा, ऋण को अदा करता रहना पड़ेगा। कितना ऋण अदा करना है बाहर? उतना जितना आवश्यक है भीतर जाने के लिए।
क्योंकि बाहर आप ऋण की अदायगी नहीं करेंगे तो बाहर की आपकी ज़िम्मेदारियाँ आपको शान्तिपूर्वक भीतर नहीं जाने देंगी। बात समझो। बाहर आपने अपने ऊपर कर्ज खड़े कर लिये हैं, उनको निपटाओगे नहीं तो वो कर्ज़ आपको बाहर ही खींचकर रखेंगे वो भीतर भी नहीं जाने देंगे।
तो पहली बात तो ये कि नये कर्ज़ मत खड़े कर लेना, नये कर्ज़ नहीं खड़े करने और जो पुराने खड़े करे हैं उनको बड़े विवेक से निपटाओ। पीछा छुड़ाने की तो भावना रखो ही मत, क्योंकि हम नहीं छुड़ा सकते। समझ में आ रही है बात?
तो बाहर आपको ध्यान देना पड़ेगा लेकिन बस उतना ही ध्यान दीजिए जितना आवश्यक है भीतर जाने के लिए। नहीं समझ रहे हैं? बाहर वालों को उतना ही ध्यान दीजिए जितना आवश्यक है भीतर जाने के लिए। भाई, ऋण खड़ा कर लिया है, ठीक है? कहीं पर जाकर के कुछ पैसे हर माह जमा करने हैं, मान लो ऋण खड़ा कर लिया है आपने हर महीने पचास हज़ार रुपये का। पचास हज़ार की किस्त आपकी जाती है हर महीने, ठीक है? तो आप क्या करोगे वहाँ पचास हज़ार जमा करोगे या हर महीने अस्सी हज़ार जमा कर दोगे? पचास ही जमा करो, वो जो तीस है उसका किसलिए इस्तेमाल करो? भीतर जाने के लिए।
तो एक तो गलती ये नहीं करनी है कि पचास हज़ार भी जमा नहीं करा। अस्तित्व के कानून की नजर में आप अपराधी हो जाओगे। बैंक का पैसा नहीं जमा करते तो समाज का कानून आपको पकड़ता है न? और अगर रिश्तों की किस्त नहीं जमा करोगे तो अस्तित्व का कानून पकड़ लेगा आपको।
तो पहली बात तो ये कि किस्त जमा करो। दूसरी बात, सिर्फ़ उतना ही जमा करो जितने की किस्त है, पचास की किस्त है तो भाई अस्सी क्यों जमा करते हो? पचास ही देना है न? तो पचास दे दो, अस्सी मत दे देना। ज़बरदस्ती अपनेआप को अपराधी मत मानो। जिस हद तक ज़िम्मेदारी है उस हद तक ज़िम्मेदारी स्वीकारो, उसके आगे अपने ऊपर कोई भी नैतिक अपराध व्यर्थ मत डालो।
क्योंकि बाहर वाला जो है वो तो तुमको ये जताएगा कि तुम्हारी किस्त पचास की नहीं, एक-लाख-पचास की है। उसका तो स्वार्थ इसी में है। वो आपको बार-बार क्या अहसास कराएगा? कि पचास की नहीं है, तुम्हें तो एक-पचास करना है।
मैं उदाहरण पैसे के तौर पर दे रहा हूँ, ज़रूरी नहीं है कि बाहर आपको जो किस्त जमा करनी है उसकी अदायगी पैसे में ही होती हो, उसकी अदायगी भाँति-भाँति के तरीकों से होती है। ध्यान देना पड़ता है, भावना देनी पड़ती है, समय देना पड़ता ये सब। तो कई माध्यम हैं भुगतान के। पैसे का मैं उदाहरण इसलिए ले रहा हूँ क्योंकि वो आसानी से गिना जा सकता है बस इसलिए। समझ में आ रही है बात?
तो पचास माने पचास, पचास माने एक-पचास नहीं होता।
अब बाहर आप अगर ज़िम्मेदारियाँ खड़ी कर लोगे तो वहाँ से हो सकता है कि ऐसी माँग आये कि मुझे दो पचास-हज़ार नहीं, एक-लाख दो, डेढ़-लाख दो, दो-लाख दो। नहीं देना है। वो सब बचाना है, किसलिए? भीतर जाने के लिए, क्योंकि भीतर जाने के लिए भी बड़ी ऊर्जा लगती है, बड़ा संसाधन, बड़ा समय लगता है।
आप अपना सारा मन, अपनी सारी ऊर्जा, समय सब बाहर का ही पटाने में देते रहोगे तो भीतर कब जाओगे?
ये बात मैं दो-मुँही कर रहा हूँ ये समझ में आ रही है? मैं ये कह रहा हूँ बाहर आपने जो भी ऋण खड़े कर लिये हैं आप उनसे मुँह नहीं चुरा सकते, साथ-ही-साथ में ये भी कह रहा हूँ कि साफ़-साफ़ आपको पता हो कि ऋण बस इतना ही है, उससे ज़्यादा नहीं है। तो नये ऋण नहीं खड़े करने और वर्तमान ऋणों में भी आपको स्पष्ट पता होना चाहिए कि इतना ही है जो मुझे समाज को, परिवार को, पूरी व्यवस्था को चुकाना है। और उतना चुकाइए उतना चुकाना तो ज़रूरी है। ठीक है?
देखिए बाहर जो लोग हैं आप उनका भी भला ही तो चाहते हो न? पचास की जगह अगर उनको आप दो-लाख देते चलोगे न, उनका कोई भला नहीं होने वाला। ये अच्छे से समझ लीजिए। बात समझ में आ रही है?
न आपका भला होगा, न उनका भला होगा। आपका भला इसलिए नहीं होगा क्योंकि आपकी सारी जीवन ऊर्जा जा रही होगी वो दो लाख उनको बार-बार पहुँचाने में और उनका भला इसलिए नहीं होगा कि उनको जब दो लाख बैठे-बिठाए मज़े में मिल रहे हैं, जीवन में सुख-ही-सुख समझ में आ रहा है तो फिर समझ की और बोध की ज़रूरत क्या है? ठीक है?
तो ये थोड़ा-सा रस्सी पर चलना पड़ेगा, न तो ये कर सकते हैं कि दायित्वों को छोड़ दिया और न ही ये कर सकते हैं कि दायित्वों में ही उलझकर के दम तोड़ दिया। गृहस्थ हो जाने का तो, फिर यही कथा-कहानी है।
प्र २: प्रणाम आचार्य जी, आपने कहा था थोड़ी देर पहले कि जाने-अनजाने में हमसे अगर कोई कर्म हो जाता है चाहे हमने कोई गलत नौकरी चुन ली है या गलत सम्बन्ध में आ गये हैं लेकिन भुगतान तो करना ही पड़ेगा चाहे जाने में हो चाहे अनजाने में हो, लेकिन हमें ये भी दिख रहा है कि उसको जो किस्त देनी है पचास हज़ार रुपये महीने देनी है लेकिन उसकी माँग हो रही है कि मुझे डेढ़ लाख या दो लाख रुपये चाहिए।
और मैं कुछ दिन तक भुगतान भी कर रहा हूँ, लेकिन मुझे बहुत ही असहज महसूस हो रहा है और मेरी अन्दर की शान्ति बहुत भंग हो रही है। मैंने ये स्वीकार कर लिया है कि अब मुझे इसको इतना भुगतान नहीं करना है और मैंने उसको समझाया भी है कि भाई, तुम्हारी इतनी किस्त बनती है, मैं इतना नहीं दूँगा।
लेकिन वो और ज़्यादा अपेक्षाएँ रखने वाला है और मेरी अन्दर की शान्ति भंग कर रहा है और मुझे भी दिख रहा है कि नहीं, अब मुझे ये चीज़ स्वीकार नहीं करनी है। तो वहाँ पर मुझे क्या करना चाहिए?
आचार्य: तुम्हारे पास कोई वाज़िब जगह होनी चाहिए न, जहाँ तुम अपना बाकी एक लाख दे पाओ। वो जो तुमसे पचास हज़ार की जगह डेढ़ लाख माँग रहा है, इसलिए माँग रहा है क्योंकि उसने भाँप लिया है कि तुम्हारे पास एक लाख फ़ालतू पड़े हैं। ये एक लाख फ़ालतू क्यों पड़े हैं?
प्र २: नहीं, अगर मैं उसको ये भी कर पा रहा हूँ और मैं जहाँ पर मुझे दूसरी जगह पर वो ध्यान देनी चाहिए मैं वहाँ पर दे रहा हूँ तो वो और ज़्यादा आक्रामक और, और ज़्यादा माँग करता है।
आचार्य: फिर तुम्हें निष्ठा दिखानी होगी अपनी साफ़-साफ़। दूसरा तुम से नोच-खसोट की कोशिश सिर्फ़ तब तक कर सकता है जब तक उसे कामयाबी की आशा है। एक बार वो जान गया कि कितना भी नोच ले, खसोट ले एक लाख तो तुम उधर देकर आओगे-ही-आओगे, तो कुछ दिनों बाद वो फिर कोशिश बन्द कर देगा।
प्र २: और ये भी मेरा एक अनुभव रहा है कि जैसे ही मैंने जैसे आपने निष्ठा की बात करी है, जैसे ही मैंने वो जीवन में अपनाया है तो मुझे भी शान्ति हुई और मुझे अब उसका कोई फ़िक्र ही नहीं है, ‘तू कुछ भी कर’।
आचार्य: नहीं देखो, अध्यात्म दूसरे के प्रति हिंसक या क्रूर होने का नाम नहीं है, है न? अभी हम जिस तरीके से बात कर रहे हैं उससे ऐसा लग रहा है कि इसको पचास देना है और दूसरी कोई जगह है जहाँ एक लाख देना है, बात इतनी सी है नहीं है, बात ये है कि ये दूसरी जगह जहाँ तुम एक लाख दे रहे हो ये वो जगह है जो तुम्हें इस काबिल बनाएगी कि आगे चलकर के इस पचास हज़ार वाले की सही मदद कर पाओ। सिर्फ़ इसी की नहीं, सबकी।
तो ये कोई पूरे तरीके से व्यापारिक ही बात नहीं है, लेन-देन भर का मुद्दा नहीं है कि पचास इधर दो, सौ इधर दो। पचास और सौ की नहीं, किसी भी चीज़ को सही जगह, सम्यक् जगह रखने की बात है। धर्म ये है कि तुम्हें पचास मिले और धर्म ये है कि इन्हें सौ मिले। ‘और अगर यहाँ सौ मिल रहा है तो वो जो सौ यहाँ दिया जा रहा है वो मुझे ऐसा पोषण देगा, ऐसा बल देगा कि आगे चलकर के मैं तुझे पचास नहीं, पाँच लाख के मूल्य का कुछ दे पाऊँगा, बहुत ऊँचा। और अगर तूने डेढ़ अपने ही पास रख लिया, तो कुछ दिनों में मेरे पास देने को भी कुछ नहीं बचेगा तेरे पास लेने को भी कुछ नहीं बचेगा, तेरी भी लुटिया डूबेगी मेरी भी लुटिया डूबेगी, हम दोनों के ही परस्पर हित के लिए ज़रूरी है कि मैं तुझे सिर्फ़ उतना दूँ जितने का तू अधिकारी है। और तू अधिकारी है पचास का।’
‘तो पचास तुझे दूँगा, एक यहाँ दूँगा, ये जो एक मैं यहाँ दे रहा हूँ मैं ये बात कई बार दोहरा रहा हूँ ताकि हम समझ जाएँ, जो मैं एक यहाँ दे रहा हूँ वो तुझसे छुपाकर, काटकर या इधर तुझसे चोरी करके यहाँ नहीं दे रहा हूँ। आइदर ऑर (या तो ये, या वो) का खेल नहीं है। यहाँ दे रहा हूँ तो कुछ दिनों बाद तू पाएगा कि मैं तुझे पचास की जगह पाँच सौ देने के लायक बन गया।’
‘अभी तो मेरी काबिलियत ही कुल इतनी थी कि तुझे या तो पचास दे पाऊँ या नहीं तो कितना दे पाऊँ? एक-सौ-पचास। और तू भी अपनी संकीर्ण सोच में कह रहा था, ‘नहीं, मुझे पचास नहीं मुझे एक-सौ-पचास दो।’ जैसे तेरी बुद्धि भी एक-सौ-पचास के आगे जाती ही नहीं है। पगले, तुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं तुझे एक-सौ-पचास नहीं पाँच-सौ दूँगा लेकिन अभी पचास ले, अभी पचास ले।’
प्र २: और अगर वो ये चीज़ मानने को तैयार न हो तो क्या करें?
आचार्य: अरे वो मानने को तैयार नहीं है तुम सब मानने को तैयार हो? तुम भी कुछ करके दिखाओगे या नहीं? वो कितना ज़ोरदार ज़बरदस्त है यही गिनाये जा रहे हो। तुम भी कुछ हो या नहीं हो? तुम्हारा दम कहाँ है?
और जब किसी पर ज़बरदस्ती चढ़कर उससे ले लिया जाए तो फिर वो लेना नहीं, लूटना कहलाता है। और लुट ही रहे हो तो फिर यहाँ नहीं आओ, पुलिस स्टेशन जाओ (श्रोतागण हँसते हैं)। कुछ दम दिखाओ, कुछ दृढ़ता दिखाओ। साफ़ तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए कि एक-लाख इधर जाना-ही-जाना है।
इतना तो स्पष्ट है न सबको कि अभी हम रुपये की बात नहीं कर रहे हैं, हम किसकी बात? हम जीवन की बात कर रहे हैं, हम जीवन ऊर्जा की, समय की, सब संसाधनों की बात कर रहे हैं, जिनमें पैसा भी शामिल है पर हम सिर्फ़ पैसे की बात नहीं कर रहे हैं।
तुम्हें स्पष्ट पता हो कि ये जगह अधिकारी है एक लाख की। यही उचित है, यही सही है। उसके बाद पहली बात तो तुम झुकोगे नहीं और दूसरी बात, दूसरा तुम्हें ज़्यादा झुकाने की कोशिश भी नहीं करेगा, वो भी समझ जाएगा, ‘व्यर्थ है इससे नोच-खसोट।’ शाबाश!
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