रिश्ते जल्दी बनाओ मत, जब बनाओ तो निभाओ || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

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रिश्ते जल्दी बनाओ मत, जब बनाओ तो निभाओ || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मैं पुणे से आयी हूँ और प्रश्न मेरे रिश्तों से सम्बन्धित है, जो मेरा रिश्ता मेरे पति के साथ है। उनको मेरी संगति पसंद है। आप कहते हैं संगति चुनिए जीवनसाथी चुनने के लिए। तो उनको मेरी संगति पसंद है, लेकिन जिस तरह की उड़ान मैं चाहती हूँ—मैं ऐनिमल रेस्क्यू (जानवरों का बचाव) कर रही हूँ और इसको और भी बड़े तल पर करना चाहती हूँ। तो उसके लिए मुझे ऐसा लगता है कि उनका साथ मुझे कहीं-न-कहीं पीछे खींचता है या फिर मैं जिस गति से जाना चाहती हूँ, जा नहीं पा रही हूँ। और पूरी तरह से उलझी रहती हूँ मैं उन्हीं के आस-पास, उन्हीं के चक्कर में।

तो मेरा आप कृपया मार्गदर्शन कीजिए कि मैं आगे इसको कैसे लेकर जाऊँ और क्या करूँ? मतलब ना छोड़ा जा रहा है (पति को), और ना ही अब छोड़ा जा रहा है (काम को)। वैसा हो गया है मेरे साथ।

आचार्य प्रशांत: इसमें तो बहुत सारे पक्ष सम्मिलित हैं। दोनों लोग सामने बैठे होते तो बात कुछ ज़्यादा स्पष्ट समझ में आती। अभी यहाँ मौजूद हैं?

प्र: जी।

आचार्य: कहाँ मौजूद हैं?

(प्रश्नकर्ता अपने पति की तरफ़ इशारा करतीं हैं)

(प्रश्नकर्ता के पति से) आप अपने-आप को रेस्क्यू नहीं करना चाहेंगे?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र२: नमस्ते, आचार्य जी। मैं पति हूँ इनका। (हँसते हैं)

(श्रोतागण हँसते हैं)

मुझे ऐनिमल रेस्क्यू से कोई प्रॉब्लम (समस्या) नहीं है और मैंने कभी इन्हें रोका नहीं है। पर जैसे इन्होंने ने बोला है, इनकी गति बहुत तेज़ है, मतलब बहुत तेज़ी से ये सब कुछ करना चाहतीं हैं। तो मैं बस वही चाहता हूँ कि गति में की हुई चीज़ ग़लत हो सकती है, थोड़ी सी प्रोब्लेमेटिक (समस्यात्मक) हो सकती है। तो मैं उन्हें वही बोलता हूँ कि थोड़ी सी गति धीमी कर लीजिए और एक-एक चीज़ें, जो-जो समस्या आती है, उनको तरीके से सुलझाएँ। जहाँ मदद चाहिए, मैं हूँ वहाँ पर।

आचार्य: ये तो ठीक ही है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

समस्या कहाँ आ रही है?

प्र: मैं ही काफ़ी उलझी रहती हूँ ये सोचने में कि इनके साथ रहूँ और ये कंटिन्यू (जारी रखूँ) करूँ, या आगे ही बढ़ जाऊँ अब?

आचार्य: तो फिर तो आप बहुत संवेदनशील मुद्दे पर बात कर रहीं हैं। पहले तो आप दोनों इस पर बहुत समय लगाएँ और बहुत शांतिपूर्वक विचार करें। मैं थोड़ी देर पहले कह रहा था न कि “ट्रेंड्ज़ कम एँड गो, द फ़ंडामेंटल्ज़ कैन नॉट बी चैलेंज्ड (रुझान आते हैं और चले जाते हैं, बुनियादी बातों को चुनौती नहीं दी जा सकती)।”

तो बात अगर सिर्फ़ गति की है, या विधि की है कि किस विधि से काम करना है, कितनी तेज़ी से करना है, तो ये सारे मुद्दे तो आपस में बात करके निपटाए जा सकते हैं। बिलकुल हो सकता है कि एक व्यक्ति जो कह रहा हो, दूसरा व्यक्ति उसमें कुछ मूल्यवर्धन कर दे। आप जो सोच रहीं हैं, हो सकता है दूसरा व्यक्ति उसमें कुछ वैल्यू एडिशन (मूल्य संवर्धन) कर दे या वो जो सोच रहे हैं, हो सकता है कि आप उसमें कोई चीज़ ठीक करके बता दें। तो यह बातचीत तो आपस में... इरादा यह होना चाहिए कि काम को आगे बढ़ाना है। काम पर नज़र होनी चाहिए।

एक-दूसरे की त्रुटियाँ निकालना चाहेंगे तो बहुत सारी निकाल लेंगे, बहुत सारी क्योंकि इंसान तो ग़लतियों का ही पुतला है। तो अगर आप ये कहेंगे कि दूसरे व्यक्ति में ग़लतियाँ हैं, तो होंगी, ज़रूर होंगी। वो कहेंगे, आप में ग़लती है तो आप में भी होंगी। लेकिन इरादा क्या है, ग़लतियाँ निकलना या अगर आप एक नेक काम, अच्छा काम कर रहीं हैं ऐनिमल रेस्क्यू का, तो उसको तेज़ी से आगे बढ़ाना? तो उस पर ज़ोर देते हुए आप लोग ज़रा थोड़ा निकट आएँ, सर-फोड़ें एक-दूसरे का। और उसमें से कुछ समाधान निकालें। छोटी समस्याओं के लिए बड़े निर्णय नहीं कर लेने चाहिए।

जवानी में कई बार एक इनकन्सिडरेट , विवेकहीन बेपरवाही आ जाती है। वो शायद अच्छी चीज़ नहीं होती। ठीक है? तो गोवा है, घूमो-फिरो, थोड़ी बातचीत करो आपस में। उसके बाद भी एकदम अगर कहीं फ़ंडामेंटल डिज़ोनेन्स (मौलिक असंगति) है, तो मुझे बताइएगा। बाक़ी मींज़ एंड मेथड्स (साधन और तरीके) को लेकर तकरार ज़िंदगी भर चलती है। आप इनसे नहीं उलझोगे तो आप अपनी कोई टीम बनाओगे, उस टीम के साथ उलझोगे। फ़ंडामेंटल्ज़ पर अग्रीमेंट (समझौता) होना चाहिए। मैं बार-बार उसी शर्त पर आता हूँ। फ़ंडामेंटल्ज़ - मूल बात। उससे क्या आशय है मेरा?

करुणा आपके लिए एक मूल्य है। मूल्य माने आपके लिए आवश्यक है, वो वैल्यू है। क्या उनके लिए भी कम्पैशन (करुणा) एक वेल्युएबल (मूल्यवान) चीज़ है? (पति से) आपके लिए है? आप कम्पैशन को महत्व देते हैं?

प्र२: देते हैं।

आचार्य: अगर देते हैं तो एक फ़ंडामेंटल अग्रीमेंट है। और उस फ़ंडामेंटल अग्रीमेंट पर फिर आगे आपको काम की इमारत खड़ी करनी चाहिए। फ़ंडामेंटल माने बुनियाद। बुनियाद अगर ठीक है तो उसपर काम को आगे बढ़ाना चाहिए।

देखिए, बड़ी लड़ाई लड़ने में जो एक सावधानी रखनी होती है वो यह है कि छोटी-छोटी मुठभेड़ों से बचा जाए। छोटी बातों की उपेक्षा करी जाए।

समझ रहे हो?

क्योंकि छोटी चीज़ों में अगर उलझ जाओ तो बड़े काम, बड़ी लड़ाई की तरफ़ जो ऊर्जा जानी चाहिए थी, वो बर्बाद हो जाती है। तो छोटे को कई बार अलग रखना पड़ता है। कि अब ठीक है, कुछ मामलों पर असहमति है, तो रही आए। कोई बात नहीं। लेकिन यह नहीं होना चाहिए कि कुछ ऐसा सोच लें, या ऐसा कदम उठा लें जिससे कि फिर बड़ा काम ही प्रभावित होना शुरू हो जाए।

आप लोग इतना लड़ लोगे अगर आपस में – मैं जानता नहीं हूँ, बिलकुल कुछ नहीं जानता हूँ। पहली बार आपकी बात सुन रहा हूँ। पर मैं एक विचार के तौर पर कह रहा हूँ – आप लोग आपस में बहुत लड़ लोगे, बहुत ही लड़ लीं। अब आपने उनसे शादी करी, कुछ सोच कर ही की होगी। कुछ सम्बन्ध होगा, उनसे आपका कुछ स्नेह होगा। आप उनसे पूरी तरह लड़ लेंगी तो पशुओं के काम में आपका मन लगेगा? तो ये तो पशुओं के साथ ज़्याद्दती कर दी न आपने। तो पशुओं के ख़ातिर इस व्यक्ति को...

(श्रोतागण हँसते हैं)

बात समझ रहीं हैं?

अब आपने कर ली भयानक वाली लड़ाई, और एक हफ़्ते तक आपने अपना रेस्क्यू का काम स्थगित कर दिया, ऐसा होता है या नहीं होता है? पहले तो हम सूरमा बनकर घर में मुठभेड़ कर लेते हैं और उसके बाद एक हफ़्ते तक बिस्तर पर पड़े हुए हैं, इधर मुँह छुपा रखा है, तकिया गीला कर रहे हैं, कैफ़े में बैठे हुए हैं, कुछ मन नहीं लग रहा, सरदर्द की गोली ले रहे हैं। ये सब चलता है कि नहीं चलता है? और उस एक हफ़्ते में फिर आपके काम का क्या होता है?

तो काम की ख़ातिर ही सही।

देखो बात सीधी है। या तो घर बसाओ मत, और अगर घर बसा लिया है तो घर को शांत रखो। ज़िंदगी को जहन्नुम सबसे ज़्यादा एक अशांत घर बनाता है। या तो इतनी ताक़त हो, इतनी स्पष्टता हो कि हम अकेले भले, ठीक है। लेकिन जिनके घर-परिवार हैं उनसे मैं बार-बार बोलता हूँ—घर को ठीक रखो, घर को शांत रखो। घर में कलह करके बाहर कोई बड़ा काम नहीं कर पाओगे। आप कितने भी करुणावान हों, आप साधु हों, महात्मा हों, आप कितने भी विवेकशील हों, लेकिन अगर घर में चिल्ल-पों मची हुई है तो आप कुछ नहीं कर सकते ज़िंदगी में।

बहुत समय रहना होता है, यार, घर में खाना है, पीना है, सोना है, वहीं पर अगल-बगल हो। और वहाँ पर अगर सरदर्द का माहौल है, तो जियोगे कैसे? जब जी नहीं सकते, तो जीवन में कोई ढंग का काम करोगे कैसे?

तो पहले तो रिश्ता बहुत सोच-समझ कर बनाओ, हल्की चीज़ नहीं होती। और जब बन जाए, तो उसको बहुत दूर तक निभाओ। ये जल्दी से तोड़ा-फोड़ी की बातें नहीं सोचना चाहिए, मज़ाक़ नहीं होता। मैं जब यह कहा भी करता हूँ न जवान लोगों से कि – देखो, ये रिश्तेबाज़ी में कम पड़ो, सोच-समझ कर पड़ो। वो मैं क्यों कहता हूँ? आप लोग शायद समझते नहीं होंगे। वो मैं इसलिए कहता हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि जब तुम्हारा रिश्ता बने, तो तुम उसको निभाओ।

निभाना बहुत ज़रूरी चीज़ है। और अगर निभाना है, तो जिससे निभा रहे हो, वो व्यक्ति किसी स्तर का होना चाहिए न? अब चीज़ उल्टी-पुलटी हो, और उसको तुम्हें निभाना पड़े, तो ज़िंदगी कैसी हो जाएगी? गड़बड़ हो जाएगी।

इसलिए कहता हूँ कि पहले कदम पर सावधानी बरतो। और जब रिश्ता बना लिया है, तो फिर अब उसमें बहुत ज़्यादा अकड़-अहंकार, या, ‘मैं तो अपने हिसाब से ही चलूँगा!’, यह सब नहीं करना चाहिए। सौहार्द बनाकर रखें, अमन-चैन क़ायम रखें। घर ख़राब हो गया, तो ज़िंदगी ख़राब हो जाएगी।

कोई ऐसा देश जिसमें गृह-युद्ध चल रहा हो, क्या वो अंतराष्ट्रीय मंचों पर बड़ा काम कर सकता है? बोलो। श्रीलंका की अभी जो हालत है, वो किसी और देश में जाकर कोई नेक काम कर सकता है क्या? क्यों नहीं कर सकता? अपनी हालत इतनी ख़राब है, बाहर क्या करोगे? तो होम-फ़्रंट (घर के मैदान) को पीसफुल (शांतिपूर्वक) रखना बहुत-बहुत ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि होम बड़ी चीज़ है, इसलिए कि अगर होम ख़राब हो गया तो बाहर कुछ नहीं कर पाओगे।

यह आपका ऐनिमल रेस्क्यू वगैरह भी बहुत दूर तक नहीं जा पाएगा अगर आपने...

समझ में आ रही है बात?

और मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ कि वो जो सांस्कृतिक बात होती है कि 'सात जनम तक साथ चलना ही है', उसको निभाना है। नहीं, मैं वो नहीं कह रहा। मैं कह रहा हूँ, अगर फ़ंडामेंटल्ज़ पर अग्रीमेंट है, तो बाकी चीजों की उपेक्षा करनी चाहिए। यह तो बहुत सीधी बात है न, या ग़लत बोल रहा हूँ? क्योंकि तौर-तरीके, व्यवहार तो दो व्यक्तियों के अलग-अलग होते-ही-होते हैं। जो मूल बातें हैं, फ़ंडामेंटल्ज़ वो देख लो कि मेल वहाँ हो रहा है कि नहीं हो रहा है। उदाहरण के लिए, ये नहीं हो सकता कि आपको पशुओं के लिए करुणा है और वो रोज़ मच्छी खाते हैं। फिर तो नहीं निभ सकता। पर ऐसा तो नहीं है? या ऐसा है?

प्र: थोड़ा-सा है।

आचार्य: अरे यार! (पति से) फिर तो आपका मुझसे ही नहीं निभेगा, इनसे क्या निभेगा। ऐसा मत करो, भाई। ऐसे नहीं करो, अगर यह कर रहे हो तो। बात आपकी पत्नी की नहीं है, बात आपके अपने जीवन की है। हमने कल इतनी बात करी थी न कि एक इंसान अगर पशुओं के लिए क्रूर है तो वो अपने प्रति ही क्रूर है। ये मत करो, अगर आप ऐसा कर रहे हो तो। बाकी आप लोग बैठिए, विचार करिए। फ़ंडामेंटल्ज़ देखो, ग़लत नहीं होने चाहिए जीवन के। आप मुझे सुनते हैं, या बस इनके साथ आए हैं?

प्र: मेरे साथ आए हैं। एक-दो बार सुना है...

आचार्य: देखिए, एक रास्ता तो मैं ये बता सकता हूँ, हो सकता है आपको सुनने में अच्छा ना लगे, पर अगले एक-दो महीने, ख़ासतौर पर इंसान और पर्यावरण, इंसान और प्रकृति के सम्बन्ध में, जो मैंने बातें कही हैं, उनको थोड़ा सुनिए। आंतरिक स्पष्टता होगी, जो भीतरी मूल बातें हैं—फ़ंडामेंटल्ज़ , वो ठीक होंगे, तो शायद आप लोगों की आपस में भी बेहतर निभेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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