प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, रामकृष्ण परमहंस जी का एक कहावत है कि “जतो मत, ततो पथ।” ये कहावत प्रसिद्ध क्यों है और इसका अर्थ क्या है?
आचार्य प्रशांत: ये बहुत कमाल की बात बोली थी रामकृष्ण जी ने। हर आदमी ये बात बोल नहीं सकता। और इतनी आसानी से इसका मतलब भी समझ में आएगा नहीं। लेकिन बहुत गहरी बात है। बहुत अद्भुत बात है। जो इस बात को समझ गया, वो समझ लो कि स्वयं को समझ गया, वेदान्त को समझ गया, दुनिया को समझ गया, मन को समझ गया और फिर तर भी गया; मुक्त हो गया।
तो उन्होंने क्या बोला है कि “जतो मत, ततो पथ।” हिंदी में कहेंगे “यत मत, तत पथ।” उन्होंने बंगाली में बोला है। तो इसका अर्थ है कि — मत माने तुम्हारा विचार, ओपिनियन और पथ माने रास्ता। रास्ता माने मुक्ति का रास्ता, तुम्हारा जो आध्यात्मिक रास्ता है उस रास्ते की बात कर रहे हैं। तो ऊपर-ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने बोला है कि भई! जैसा तुम्हारा विचार है, जैसा तुम्हारा मत है, उसी के अनुसार रास्ता तुम्हारे लिए ठीक है।
तो इसके अर्थ करे गये हैं। और जितना मैं देख पा रहा हूँ, तो मैं तो यही निवेदन करता हूँ कि — ऐसे लोग हैं जिनको ये बात बहुत प्यारी लगी है, और वो इसके बड़े समर्थन में हैं। कहते हैं, ‘हाँ, बिलकुल सही बात है, कि यतो मत, ततो पथ।’ और ऐसे भी लोग हैं जिनको ये बात बिलकुल बर्दाश्त नहीं हुई है और वो कहते हैं, ‘एकदम ही ग़लत बात है।’ और मैं कह रहा हूँ कि जो इस बात का समर्थन कर रहे हैं, शायद वो भी पूरी तरह समझते नहीं हैं इस बात का अभिप्राय। अर्थ ही नहीं समझते पर समर्थन कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है अच्छी बात है। और जो लोग इस बात का विरोध कर रहे हैं, वो तो और बिलकुल नहीं समझते कि बोला क्या गया है।
देखो, दुनिया में होता यही रहा है। ये मज़ेदार बात है, कि हम जिन चीज़ों का समर्थन करते हैं, हम उनको भी ठीक से जानते हैं नहीं। जाने बिना हम उनके पक्ष में आ जाते हैं। हम उन चीज़ों को पसन्द करने लगते हैं, हम उन चीज़ों का समर्थन करने लगते हैं। और जिन चीज़ों का हम विरोध करते हैं, हम उन चीज़ों को भी नहीं जानते हैं। लेकिन हमें बड़ी जल्दी रहती है समर्थन कर देने की या विरोध कर देने की। समझने की हमको कोई उत्सुकता नहीं रहती, जल्दी तो क्या ही रहेगी, हम समझना चाहते ही नहीं हैं। हाँ, जल्दी से हम पसन्द या नापसन्द कर देना चाहते हैं। ‘हाँ’ या ‘ना’ बोल देना चाहते हैं।
वो तुम्हें याद है न, एक बार मैंने बोला था तो आप लोगों ने उसका पोस्टर भी बना लिया था कि “समटाइम्स यू एग्री एंड समटाइम्स यू डिसएग्री बट डू यू एवर अंडरस्टैण्ड?” (कभी आप सहमत होते हैं और कभी आप असहमत होते हैं लेकिन क्या आप कभी समझते हैं?)
तो रामकृष्ण थे, एक बड़ी ऊँचाई के व्यक्ति थे। उन्होंने जो बात बोली है वो उसी ऊँचाई से बोली है। और वो बात भी उतनी ही ऊँची होगी। लेकिन उस बात को समझा नहीं गया। हमें लगा कि कुछ हमारे ही तल की बात होगी। हमने उसी अनुसार अर्थ कर लिया।
तो एक तरह के लोग निकल पड़े हैं जो कहते हैं, ‘वाह-वाह! क्या बात बोली है!’ और दूसरी तरफ़ के लोग निकल पड़े हैं जो कहते हैं, ‘अरे-अरे-अरे! क्या बात बोल दी!’ और जो हिन्दू हैं, हिन्दू लोगों में ही ये दो वर्ग पाये जाते हैं। एक जो उनकी इस बात का, रामकृष्ण परमहंस की इस बात का बड़ा समर्थन करते हैं, प्रशंसा करते हैं और दूसरे वो जो उनकी इस बात से लेकर बड़ा नाराज़ रहते हैं और इसकी निन्दा करते हैं।
मतलब क्या है इस बात का? जब रामकृष्ण बोलें, तो इस बात का अर्थ क्या होगा? वो क्या कह रहे हैं? देखो, मन मत के बिना नहीं चल सकता। तो मन माने मत। अगर मत न हो, माने विचार न हों, ओपिनियन न हो, मानसिक गतिविधि न हो, पसन्द-नापसन्द न हो, भावना न हो, तो मन है ही नहीं। मन में अगर गतिविधि नहीं है, तो मन कहाँ है? अगर मन स्थिर हो गया, तो मन मर जाता है। इसी तरीक़े से मन अगर अपनी सामग्री से खाली हो गया, तो भी मन मर जाता है। स्थिर मन, मन ही नहीं रह जाता। स्थिर मन जो है, वो फिर एक तरह की शून्यता हो जाती है या उसको पूर्णता बोल सकते हो। जो बोलना चाहो।
इसी तरीक़े से खाली मन कुछ नहीं होता। मन में हमेशा सामग्री भरी ही रहती है। क्या सामग्री? यही — भावना, विचार, कुछ पसन्द है, कुछ नहीं पसन्द है, आग्रह, दुराग्रह, पूर्वाग्रह। ये सब मन में चलता रहता है। संकल्प-विकल्प। ये मन में चलता रहता है। आपने देखा होगा, आपका मन कभी खाली नहीं रहता। यहाँ तक कि आप सो जाओ, तो मन में सपने आ जाते हैं। खाली नहीं होता मन।
तो मुक्ति क्या होती है? अब रामकृष्ण परमहंस तो आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। और अध्यात्म का जो लक्ष्य होता है, वो तो मुक्ति ही होता है। मुक्ति का मतलब क्या होता है? मुक्ति का मतलब होता है कि मन में जो व्यर्थ की गतिविधि चलती रहती है, बन्द हो जाए और मन में जो कचरा भरा हुआ है, वो साफ़ हो जाए। इसी को मुक्ति बोलते हैं। आप मुक्ति की और ज़्यादा बड़ी-बड़ी मोटी शास्त्रीय परिभाषा भी दे सकते हो। लेकिन आप अब इसको रिकॉर्ड कर रहे हो, ये सब लोगों तक जाएगा। ज़रूरी नहीं है कि सबकी कोई आध्यात्मिक पृष्ठभूमि हो या सबने फ़िलोसॉफ़ी (दर्शनशास्त्र) ही पढ़ी हो।
तो मैं बिलकुल एकदम सरल करके आपसे कह रहा हूँ कि मुक्ति का कोई ये सब नहीं अर्थ होता कि कोई आपकी जीवात्मा निकल जाएगी और वो जाकर के कहीं किसी लोक में बैठ जाएगी, ऐसा कुछ हो जाएगा। ऐसा कुछ नहीं होता। सबसे पहले ये पूछना होता है कि बन्धन में कौन है। जो बन्धन में है, वही तो मुक्त होगा न। तो मन बन्धन में होता है।
मुक्ति का अर्थ हम समझना चाहते हैं। मन बन्धन में होता है। तो मुक्त भी कौन होगा? मन ही होगा। मन का बन्धन क्या होता है? मन की जो लगातार हरकत है, गतिविधि है, वही मन का बन्धन होती है। और नहीं मन का कुछ बन्धन होता। मन जो लगातार चलता रहता है, भागता रहता है, बिना बात के भागता रहता है, तो यही मन का बन्धन होता है। तो मन की मुक्ति का एक अर्थ ये हो सकता है कि मन की गतिविधि शान्त हो गयी, मन ने अब भागना बन्द कर दिया। और दूसरा, मन की मुक्ति का अर्थ हो सकता है कि मन में जो कचरा भरा रहता है, मन लगातार चीज़ों को अपने में भरे रहता है, दुनियाभर के जितने भी विषय होते हैं, मन उनसे चिपका रहता है, अपने अन्दर उनको भरे रहता है, तो मन उन सब बातों से मुक्त हो गया। उनके बारे में उसने सोचना छोड़ दिया। ये मुक्ति कहलाती है।
तो मत क्या है? मन है। क्योंकि मन बिना मत के होते ही नहीं हैं। ऐसा मन आपको मिलेगा ही नहीं कि जो मत से खाली हो। और पथ क्या है? रास्ता, तरीक़ा मुक्ति का। तो रामकृष्ण मन की मुक्ति की बात कर रहे हैं। अब मन की मुक्ति कैसे होगी, समझो।
मन की मुक्ति के लिए हम देखेंगे कि मन का बन्धन है, उसके अपने मत। मत माने विचार, जो मन मान रहा है बात को वो। मत माने मान्यता। जो कुछ भी मन मान रहा है, उसको आप मत कह सकते हैं, मान्यता। तो मन का मत ही, मन की मान्यता, मन की धारणा वगैरह जो हैं अज़म्प्शंस , बिलीफ़्स , यही सब तो मन के बन्धन हैं न। यही तो मन के बन्धन हैं। और मुक्ति कैसे होती है? तो जो समझदार लोग होते हैं, वो जानते हैं कि मुक्ति का जो तरीक़ा है, वो एक ही है। बन्धनों को ही ठीक-ठीक, साफ़-साफ़ देखना। कि भाई! मुझे किस चीज़ ने पकड़ रखा है। आपको किसी चीज़ ने बाँध रखा है, आप उससे कैसे मुक्त हो पाओगे? ऐसे थोड़े ही मुक्त हो पाओगे कि आपने बँधे-बँधे इधर-उधर दौड़ना शुरू कर दिया। उससे आप थोड़े ही मुक्त हो जाओगे।
मान लो आपको किसी रस्सी ने बाँध रखा है और आपको उस रस्सी से आज़ाद होना है। तो आप क्या करोगे? आप साफ़-साफ़ देखोगे, ‘इस रस्सी ने मुझे कहाँ पकड़ा है, कैसे पकड़ा है, गाँठ कहाँ-कहाँ पर है, रस्सी मज़बूत कितनी है, कमज़ोर कितनी है?’ ये सब चीज़ें आप देखते हो। तो माने मुक्त होने के लिए बन्धन को ही साफ़-साफ़ देखना पड़ता है। मुक्त होने के लिए बन्धन को ही साफ़-साफ़ देखना पड़ता है। इसी को ऐसे कह सकते हो कि बन्धन ही मुक्ति का तरीक़ा है। या उपाय है, विधि है, साधन है। बन्धन ही साधन है। जिस रस्सी ने आपको बाँध रखा है, जब आप उसी रस्सी का ठीक से ऑब्ज़र्वेशन करते हो, इन्वेस्टिगेशन करते हो, उसका अवलोकन और परीक्षण करते हो, तो आपको पता चल जाता है कि आज़ादी कैसे मिलेगी।
यही तरीक़ा है। और कोई तरीक़ा होता नहीं है। तो माने मत बन्धन है। और बन्धन ही तो साधन है। बन्धन ही तो साधन है। तो जो आपका मत है, उसी में से आपका पथ निकलेगा। वो जो आपका बन्धन है, वही मुक्ति का साधन बनेगा। अब इसका अर्थ करने में गड़बड़ क्या हो जाती है? अर्थ करने में, एक तरफ़ वो लोग हैं जिन्हें विचार की स्वतन्त्रता बहुत पसन्द है। तो वो कहते हैं, ‘हाँ भई, जो रामकृष्ण ने कहा है, उन्होंने तो ये कहा है कि जो जैसा सोचना चाहे, सोचे। और जो जैसा सोच रहा है, वो वैसे ही सोचते-सोचते मुक्त हो जाएगा। सोच ही पथ है।’
नहीं, उन्होंने ये नहीं बोला है। आप ग़लत अर्थ कर रहे हैं। उन्होंने ये नहीं कहा है कि आप जो सोच रहे हैं, वो सोचते रहिए और सोचते-सोचते ही आपको मुक्ति मिल जाएगी। नहीं, ऐसा बिलकुल भी नहीं कहा है। उल्टा कहा है। उन्होंने कहा, आप जो सोच रहे हैं, उसको काटने में ही आपकी मुक्ति है। क्योंकि मत ही तो बन्धन है न। और बन्धन को काटने का तरीक़ा है, बन्धन को ही ध्यान से देखना। तो जो लोग सोच रहे हैं कि रामकृष्ण बोल गये हैं कि कोई भी मत चलेगा; बहुत लोग सोचते हैं कि रामकृष्ण ने ये बोला है कि जितने मत होते हैं, सब मत ठीक हैं और सब मतों से मुक्ति मिल जाती है या जो भी अध्यात्म का, धर्म का अन्तिम ध्येय है, वो प्राप्त हो जाता है। नहीं, उन्होंने ये नहीं बोला है। तो आप कोई उल्टा-पुल्टा मत रखें एकदम व्यर्थ का और आप उससे चिपके रहें, तो अपने बन्धन से ही चिपके हुए हैं। उससे आपको मुक्ति थोड़े ही मिल जाएगी।
तो बहुत लोगों को जिनको रामकृष्ण परमहंस जी की दूसरी कोई बात नहीं भी पसन्द आती, उनको ये बात बहुत पसन्द आती है। वो अपनेआप को कभी लिबरल (उदारवादी) बोलेंगे, फ़्री थिंकर (स्वतंत्र विचारक) बोलेंगे। वो हैं नहीं लिबरल या फ़्री थिंकर। पर जो उस कोटि के लोग होते हैं, तो वो कहेंगे, ‘ये बात बढ़िया बोली कि जो मत है, वही पथ है।’
नहीं, वो ये कह रहे हैं कि मत बन्धन है। और बन्धन को काटने में बन्धन का अवलोकन ही तो साधन है। तो बन्धन ही पथ है। तो ये बात बोली गयी है। तो ये अर्थ न लगाया जाए कि आप जो भी मत ले रहे हो — मत माने ओपिनियन , लाइक्स (पसन्द), डिसलाइक्स (नापसन्द), प्रेज्यूडिसेस (पूर्वाग्रह), वही मत कहलाते हैं; थॉट , विचार — कि आप जो भी मत ले रहे हो, उसी से आप मुक्ति पथ पर चल दोगे। नहीं, ऐसा नहीं होता। तो कृपया इसका ये अर्थ न लें। तो एक तो ये हुई बात।
वैसे ही जिन लोगों ने विरोध करा है — और विरोध करने वालों की कभी कमी नहीं रहती। कुछ समझ में आए न आए, विरोध कर देना है। मुँह खोलकर कुछ भी बोल देना है।
(सामने की ओर संकेत करते हुए) देखो, कितनी प्यारी चिड़िया बैठी हुई हैं वहाँ पर इतनी सारी! कैमरे से मुझे क्या रिकॉर्ड कर रहे हो, इनको करो। कैसे सुन्दर बैठी हुई हैं कतार में सुबह-सुबह!
हाँ, तो जिन्होंने विरोध करा है उन्होंने क्या कहा है? उन्होंने कहा है, ‘अरे! ऐसे थोड़े ही होता है कि किसी भी मत पर चल कर पथ मिल जाएगा।’ कहते हैं, ‘एक ही मत पर चलकर पथ मिल सकता है। और वो कौनसे मत पर चलकर पथ मिल सकता है? जो हमारा मत है।’ ये कट्टरवादिता है। यही कट्टरवादिता है। इसी को बोलते हैं बिगोट्री (कट्टरता)। और ये जो लोग आमतौर पर कहानियों पर चलते हैं न, जो कहानियों पर चलने वाले लोग होते हैं, धर्म, पथ, मत, समुदाय जो कहानियों पर बहुत चलते हैं, वो आमतौर पर बहुत कट्टर हो जाते हैं। वो कहते हैं, ‘नहीं-नहीं-नहीं, कोई दूसरा मत तो हम सुन ही नहीं सकते। एक ही मत सही है। हमारा ही मत सही है।’
आप ये समझ लेना कि जिन लोगों के पास मान्यताएँ — मान्यता माने कहानी, अज़म्प्शन , स्टोरी। एक मैंने इमेजिनेशन (कल्पना), स्टोरी बना ली है और मैं उसी को धर्म समझ रहा हूँ। और मैं उसी पर चल रहा हूँ। और वो स्टोरी आम तौर पर यही होती है कि कहीं एक गॉड है, भगवान है या कुछ भी अल्लाह है, और उसने ऐसे-ऐसे बनाया है। और ऐसे-ऐसे करता है। और कई बार उसी को आगे बढ़ाकर ऐसे कह देते हैं कि उसकी ऐसी-ऐसी कहानियाँ हैं। उसकी ज़िन्दगी की ये कहानियाँ हैं कि उसने ये किया, उसने वो किया। ऐसे करके कहानियाँ भी बना देते हैं।
तो कहते हैं, ‘ये जो बात हमने बोली है, यही बिलकुल आख़िरी बात है। कि है कहीं पर, एक बैठा हुआ है क्रिएटर , रचयिता। उसने ऐसे-ऐसे चलाया है, वही बना रहा है, वही चला रहा है। और ये सब उसकी कहानियाँ हैं। और इन कहानियों पर जो यक़ीन कर ले, सिर्फ़ उसी को मंज़िल मिलेगी। और जो ये कहानियाँ न माने, उसको मंज़िल नहीं मिलेगी।’ तो कहते हैं, ‘विश्वास करो। जिसकी मान्यताएँ हमारी मान्यताओं से मेल खाएँगी, सिर्फ़ वही बढ़िया लोग हैं।’ अब रामकृष्ण परमहंस की मान्यताएँ मेल ही नहीं खा रहीं बहुत लोगों की मान्यताओं से, तो उनको बड़ा बुरा लग जाता है।
लेकिन भाई मान्यता तो मन का बन्धन है। मन तो कहानियों में ही जीना चाहता है। और कहानियाँ ही आपकी ज़िन्दगी का बोझ हैं। आप कहानियों पर चलकर मुक्ति कैसे पा जाओगे? लेकिन बहुत लोगों के लिए धर्म कथा-कहानी के अलावा कुछ होता ही नहीं। उनसे पूछो, धर्म माने क्या? वो कोई कहानी सुना देंगे, ये कहानी, वो कहानी। कहेंगे, इसी कहानी को मानो। बिलीफ़-बिलीफ़ (मान्यता)। कईं बार तो वो अपने ही धर्म के लोगों को नाम ही यही देते हैं, बिलीवर (मानने वाला)। कि धार्मिक आदमी वो है जो बिलीवर है। जो नहीं माने वो नॉन-बिलीवर है (न मानने वाला)। उसको मारो या वो बुरा आदमी है। जो भी बोल दो या भर्त्सना करो।
और उन्होंने रामकृष्ण की भी निन्दा कर दी। किसी की भी निन्दा कर सकते हैं। हालाँकि समझ कुछ नहीं रहे हैं पर निन्दा करने की बड़ी जल्दी है, क्योंकि डरे हुए हैं। जब आप कहानियों पर ज़िन्दगी बिताते हो, आपका धर्म ही जब कहानियों पर आश्रित होता है, तो आप बहुत डरे हुए रहते हो। क्यों डरे हुए रहते हो? क्योंकि आपको पता है कि चल तो आप कुल मिलाकर के कहानी पर रहे हो। कहानी क्या होती है? कल्पना। कहानी क्या है? मान्यता है। वो कहानी कभी भी टूट सकती है।
आप एक कहानी लेकर आये, दूसरा आदमी दूसरी कहानी लेकर आएगा। आप बोल रहे हो, ‘मेरी कहानी सही।’ वो बोल रहा है, ‘मेरी कहानी सही।’ अब कहानी और कहानी की लड़ाई में कौन जीतेगा? कोई नहीं जीतेगा। जिसका डंडा ज़्यादा बड़ा होगा वो जीत जाएगा। (आचार्य जी हँसते हुए)
तो इसीलिए धर्म को लेकर इतने युद्ध हुए हैं। धर्म और धर्म में युद्ध नहीं होते हैं। धर्म की एक मान्यता और धर्म की दूसरी मान्यता के बीच में युद्ध होते हैं। धर्म और धर्म में क्या युद्ध होगा? धर्म और धर्म में थोड़े ही कोई युद्ध हो सकता है। लेकिन कहानियाँ आपस में भिड़ जाती हैं।
क्योंकि एक कहानी बोल रही है कि भाई! जो काम हुआ वो चार-हज़ार साल पहले हुआ। दूसरी बोल रही है, चालीस-हज़ार साल पहले हुआ। एक की कहानी बोल रही है, ‘नहीं, ऐसे-ऐसे हुआ सारा काम और ऐसे-ऐसे चलायी जा रही है दुनिया।' दूसरी कहानी बोल रही है, ‘नहीं-नहीं-नहीं, ऐसे हुआ, ऐसे हुआ, ये हुआ, वो हुआ।' तो ये फिर भिड़ जाते हैं आपस में। तो इसलिए बड़ी कट्टरता बढ़ती है। बड़ी असहिष्णुता रहती है। कुछ समझ में आता नहीं। बुद्धि बिलकुल स्थूल हो जाती है, मोटी हो जाती है बुद्धि धर्म के नाम पर। और यही कारण होता है फिर कि जो समझदार लोग होते हैं, वो धर्म से ही दूर जाने लग जाते हैं। इन्हीं सब नादानियों के कारण कि धर्म के नाम पर आप क्या चला रहे हो? क़िस्से-कहानी चला रहे हो। आप समझ तो रहे नहीं हो।
और धर्म बहुत सूक्ष्म बात है। धर्म माने, अति सूक्ष्म दर्शन। फ़िलोसॉफ़ी का जो पिनेकल बोल सकते हो, शिखर, वो होता है धर्म। और जिन लोगों ने धर्म को दर्शन से काट दिया, उन्होंने धर्म का बड़ा नुक़सान किया। उन्होंने धर्म में क्या कर दिया? उन्होंने कहा, ‘धर्म माने कहानी।’ भाई! धर्म माने दर्शन होता है, फ़िलोसॉफ़ी। समझना, विचार करना, सच की खोज करना। धर्म माने मान्यता नहीं होता, धर्म माने जिज्ञासा होता है।
और पूरे विश्व भर में ऐसा हुआ है। जो सेमिटिक रिलिजन्स हैं, अब्राह्मिक , उनमें हुआ है। भारत में भी कईं पन्थ और समुदाय चलते हैं, उनमें भी हुआ है। जहाँ पर मान्यताएँ पकड़ ली गयी हैं, कहानियाँ पकड़ ली गयी हैं और उन्हीं को नाम दे दिया गया है धर्म का। मान्यता थोड़े ही धर्म होती है, जिज्ञासा धर्म होती है। जानना धर्म है, मानना धर्म नहीं होता।
धार्मिक आदमी का लक्षण होता है, मानने से इन्कार करेगा। वो बात-बात में प्रश्न पूछेगा। वो कहेगा, ‘सस्ती कहानी पर चलना ही नहीं है। मैं असलियत जानना चाहता हूँ। मेरी ज़िन्दगी का सवाल है। मुझे सच्चाई बताओ। मैं ऐसे कैसे कोई कहानी मान लूँगा? मुझे सच्चाई बताओ। तुम ऐसे परी कथा लेकर आ गये हो, बाल कहानी और कह रहे हो, मान लो यही धर्म है। ऐसे नहीं चलता।’ तो इन्हीं मान्यताओं को तोड़ने का नाम धर्म होता है। इसलिए रामकृष्ण कह रहे हैं कि जो तुम्हारी मान्यता है, उसी का परीक्षण करो। उसी का इन्वेस्टिगेशन करो। और वहीं से तुम्हारा रास्ता निकलेगा। बात समझ में आ रही है?
अब ऐसे समझो कि इधर मान लो जंगल है। बड़ा घना इधर जंगल हो। ख़ूब जंगल हो। नीचे यहाँ से अभी ढाल शुरू होती है, उधर जंगल है। तुम जंगल में फँस गये हो, तुम जंगल से बाहर कैसे आओगे, बताओ? जंगल से बाहर कैसे आओगे?
प्र: जंगल के माध्यम से ही।
आचार्य: जंगल से गुज़र के ही जंगल से बाहर आते हैं न। तो वैसे ही हम मन के जंगल में फँसे हैं। और बाहर आने के लिए उसी जंगल के बीचों-बीच गुज़रना पड़ेगा। आप उड़कर बाहर नहीं आ सकते। यही वो कह रहे हैं कि जहाँ फँसे हो, उसी जगह को ठीक से देखो, तो बाहर आओगे। बार-बार पूछो कि रास्ता बाहर को निकल रहा है कि नहीं निकल रहा है। अगर कोई कहे कि मुझे तो जंगल से बाहर जाना है न, मैं जंगल के बीच में क्यों चल रहा हूँ? मुझे तो बाहर जाना है। तो वो कभी बाहर नहीं आ पाएगा। जो जंगल के मध्य से गुज़रने को तैयार नहीं है, वो जंगल से कभी बाहर नहीं आ सकता। क्योंकि हम सब जंगल के मध्य में ही फँसे हुए हैं।
और मान लो तुम बाहर निकल रहे हो — तुम्हारे लिए एक पहेली है — तुम्हें जंगल से बाहर निकलना है। और जहाँ तुम खड़े हो, वहाँ पेड़ पर एक निशान है। और तुम कुछ ऐसी चाल चल रहे हो कि हर दो घंटे बाद तुम्हें वही पेड़ दिखाई देता है जिस पेड़ पर निशान है। इसका क्या मतलब है?
प्र: मैं आगे बढ़ ही नहीं रहा।
आचार्य: तुम आगे बढ़ ही नहीं रहे। तुम कभी बाहर नहीं आओगे। ये समस्या है सब धर्मों के साथ। वो तुम्हें जंगल से बाहर लाने की जगह, वो तुम्हें किसी एक पेड़ से बाँध देते हैं। और ये बोलकर कि यही होली ट्री (पवित्र पेड़) है। वो जो पेड़ है, समझ रहे हो क्या है? वो एक धारणा है, एक मान्यता है। उसको छोड़ोगे नहीं तो जंगल से बाहर कैसे आओगे?
सोचो न आप बाहर निकलने के लिए कह रहे हो, ‘भटक रहा हूँ, जंगल से बाहर आना है।’ घूम-फिरकर के फिर उसी पेड़ पर आ गये, वही निशान है। कह रहे हैं, ‘इस पेड़ पर तो वापस आना ही पड़ता है।’ क्यों? ‘क्योंकि भाई हमारा ये बहुत पवित्र पेड़ है, धार्मिक पेड़ है इसलिए वापस आना पड़ता है। और इस दिन तो ज़रूर यहाँ आना पड़ता है।’ तो फिर कैसे बाहर आओगे तुम?
सोचो, उस आदमी की बेचारे की हालत सोचो, जो जंगल से बाहर आना चाह रहा है लेकिन घूम-फिरकर के वो देखता है कि एक कोई पेड़ है, वही उसको बार-बार दिखाई दे रहा है। उस बेचारे की दयनीय हालत, भयानक हालत सोचो। तो धर्मों ने ये बहुत करा है।
और रामकृष्ण परमहंस थे, उनके जीवन के साथ एक बड़ी विशेष बात थी कि उन्होंने ख़ूब प्रयोग करे। मानने वाले लोगों में नहीं थे वो। उन्होंने प्रयोग करे। उन्होंने सब तरह के प्रयोग कर डाले। उन्होंने सारे प्रयोग कर डाले। वो कभी इस पन्थ का होकर के जी लेते कुछ दिन, कुछ महीने, कभी उस समुदाय के साथ चले जाते। कभी इस धर्म को वो कहते, अब मुझे इस धर्म का प्रयोग करना है। ऐसे नहीं कि सुनी-सुनायी बात। वो करके देखते थे।
और ऐसे करके उन्होंने देखा कि ये जो सब रास्ते हैं, जाते एक ही तरफ़ हैं। और उन्हीं की सीख को फिर स्वामी विवेकानंद ने आगे बढ़ाया। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ईसाई को हिन्दू बनने की ज़रूरत नहीं, हिन्दू को ईसाई बनने की ज़रूरत नहीं, लेकिन बहुत ज़रूरी है कि दोनों एक-दूसरे की स्पिरिट (भावना, आत्मा) को समझें। क्योंकि ले-देकर के किस्से-कहानियाँ अलग होंगे, धर्म का लक्ष्य तो यही होता है कि इंसान की बेहतरी हो जाए।
जब आप लक्ष्य को नहीं समझते और मान्यताओं और किस्सों में खो जाते हैं, तो फिर धर्म के नाम पर गाली-गलौज और दंगा-फ़साद होता है। और इतने बड़े-बड़े लड़ाईयाँ होती हैं और धर्मयुद्ध हैं, क्रुसेड्स हैं, ये वो, जिहाद, ये सब चलता है फिर। तो जो विवेकानंद का उदार चित्त था, वो आप समझ लीजिए कि रामकृष्ण के जीवन और शिक्षाओं से ही आ रहा था। तो रामकृष्ण ने सबकुछ करके देखा।
कहानी है। पता नहीं ये ऐतिहासिक है कि नहीं पर चूँकि बहुत पीछे के नहीं हैं रामकृष्ण, तो मुझे लगता है कि शायद ये तथ्यात्मक बात होगी कि एक अवसर पर तो उन्होंने ऐसे भी प्रयोग करके देखा कि अगर मैं स्त्री हूँ, तो मेरा मार्ग क्या होगा। ये मैं बहुत सरल करके बता रहा हूँ। ये बात विस्तृत है। इसके बारे में पढ़ना हो, तो आगे जाकर के आप किताबों में पढ़िएगा। पर मैं सिर्फ़ आपके अंदाज़े के लिए बता रहा हूँ कि उन्होंने ये तक करके देखा कि क्या मार्ग होगा फिर।
आप उन्हें ऐसे जानते हो कि वो माँ काली के परम भक्त थे। और जब उन्होंने देखा कि कोई एक जगह आ रही है जब उनकी यात्रा अटक रही है, तो उन्होंने एक दूसरे विद्वान थे उनसे जाकर पूछा। वो अद्वैत मार्ग के विद्वान थे। उनसे आकर के पूछा, 'क्या बात है? कैसे करना है?' तो उन्होंने कहा कि देखो, तुम फँसे हुए हो। और जब तक तुम अपनी माँ की छवि से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक तुम्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। ये भी बहुत रोचक कहानी है और बहुत शिक्षाप्रद कहानी है। आप इसको पढ़िएगा जाकर कि क्या हुआ था पूरी बात।
तो उनको कहा गया, ‘आँख बन्द करो, देखो और माँ को भुलाओ।’ तोतापुरी थे। ‘भुलाओ माँ को।’ रामकृष्ण बोले, ‘आँख बन्द करते ही माँ सामने आती हैं। खोले रहता हूँ तो भी वही है, बन्द करता हूँ तो भी।’ तो बोले, ‘ऐसे नहीं होगा। आँख बन्द करो। क्या दिखाई दिया?’ बोले, ‘माँ दिखाई दी।’ बोले, ‘एक काम करो। ये लो तुम काँच का टुकड़ा लो। अब जब माँ आये, तो उस काँच के टुकड़े से माँ के माथे को निशाना बना दो। माँ से मुक्त हो जाओ।’ तो रामकृष्ण ने वही प्रयोग किया।
आशय ये है कि जिनको वो सबसे प्रिय मानते थे, जिनके वो अनन्य बिलकुल अनुयायी थे, जिनके लिए ही जीते थे — माँ काली — वो उनको लेकर के भी प्रयोग करने को तैयार थे। उनको भी लेकर प्रयोग करने को तैयार थे। तो ये होता है आध्यात्मिक चित्त। वो जानने से, प्रयोग करने से, जिज्ञासा से नहीं डरता।
वैसे ही रामकृष्ण के ही जीवन की कहानी है। मेरे ख़याल से केशवचन्द्र सेन थे। तो केशवचन्द्र सेन से एक बार उनकी बहस हो गयी। उसका भी पूरा विस्तार से पढ़ना। अब ये आधे घंटे की रिकॉर्डिंग में सारी डिटेल्स (विवरण) नहीं दे सकता। तो उनकी एक बार बहस हो गयी। और बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं। तो बहस इस बात पर हुई थी कि भाई, भगवान हैं या नहीं हैं। इस बात में बहस हुई थी मोटे तौर पर। तो बहस हो गयी, सब लोग खड़े हुए हैं। और केशवचन्द्र बड़े विद्वान, वो लगे एक के बाद एक तर्क देने, एक के बाद एक तर्क देने। तो क्या ग़ज़ब के तर्क! अब रामकृष्ण सीधे आदमी। अब वो तर्क दिये जाएँ और उनको लगा केशवचन्द्र को कि ऐसा तर्क दिया, तो रामकृष्ण हार गये। रामकृष्ण जैसे ही उधर तर्क आए, वैसे ही ताली बजाएँ और हँसे और तारीफ़ करें। ‘क्या बात बोली है! बहुत बढ़िया बात बोली है। क्या बात बोली है!’
अब वो विचारक हैं। वो लिबरल थिंकर हैं। और उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा ले रखी थी। बड़ा बढ़िया काम करा उन्होंने समाज सुधार के क्षेत्र में। वो अलग मुद्दा, उसको पढ़ना। तो अब वो वहाँ पर वो तर्क दे रहे हैं, वो उनकी तारीफ़ कर रहे हैं।
(आचार्य जी सावधान करते हुए) बचा के चलो, यहाँ नीचे केचुएँ हैं। एकदम बचा के चलो। रिकॉर्डिंग वगैरह अपनी जगह है, पाँव नहीं पड़ना चाहिए।
तो लोग कहें कि ‘अरे! आज तो हार हो गयी। आज तो रामकृष्ण हार गये।’ रामकृष्ण ख़ूब बजा रहे ताली, ‘ये बहुत बढ़िया!’ बात इसी पर थी कि आस्तिकता सही कि नास्तिकता सही। तो जब सब दे दिये तर्क केशवचन्द्र ने तो रामकृष्ण बोलते हैं, ‘अरे! अगर वो न होता, तो तुम इतने अच्छे तर्क कहाँ से दे पाते? उसी ने तो तुमको ये शक्ति दी है कि तुम ये सारे तर्क दे रहे हो।’
ऐसे हैं रामकृष्ण। वो ये नहीं कर रहे हैं कि तर्क ख़ारिज कर दिये या कोई तर्क करने आया, तो उसको बुरा-भला बोल दिया, गाली-गलौज करी। ऐसे नहीं। ऊँचे लोग ये सब काम नहीं करते। वो बिना बात के बहस नहीं करते। वो तो अपने प्रतिद्वन्दियों का भी समझ लो, जैसे प्रशंसक बन जाते हैं। वहाँ भी कोई अच्छी बात लगती है, काम की बात लगती है, तो स्वीकार भी करते हैं, धन्यवाद भी देते हैं। ये हैं रामकृष्ण।
रामकृष्ण कह रहे हैं, तुम्हारी वर्तमान स्थिति से ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग निकलेगा। “जतो मत, ततो पथ।” तुम्हारी वर्तमान स्थिति से ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग निकलेगा। बात तो सही है न। तुम्हें कहीं भी जाना है, शुरू तो वहीं से करोगे न, जहाँ तुम खड़े हो। तो अपनी वर्तमान स्थिति को ही ग़ौर से पहचानो। ठीक-ठीक देखो कि जिस रस्सी ने तुम्हें बाँध रखा है, वो क्या चीज़ है। वो माया है। उसी माया को तुम्हें पहचानना है। उसको तुम पहचान गये, तो मुक्त हो जाओगे। उसको पहचान लिया, तो मुक्त हो जाओगे।
तो ये है। बड़ी सूक्ष्म बात है, बहुत प्यारी बात है। इसको जो लोग समझेंगे, उनको बड़ा आनन्द रहेगा। वो ये भी देख लेंगे कि उनको धर्म, अध्यात्म या मुक्ति के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए नयी-नयी मान्यताओं की ज़रूरत नहीं है। किसी बाहरी ज्ञान की भी बहुत ज़रूरत नहीं है। उनको ज़रूरत ये है कि वो अपने ही मन को, अपने ही अहंकार को ग़ौर से देखें और पता करें कि अन्दर मामला क्या चल रहा है।
इसको सेल्फ़ ऑब्ज़र्वेशन बोलते हैं, आत्म अवलोकन बोलते हैं। मुक्ति का ऐसे कह लो कि उच्चतम रास्ता है। आत्मज्ञान यही होता है। आत्मज्ञान, आत्मा का ज्ञान नहीं होता। आत्मज्ञान का मतलब होता है, जो तुम्हारी हरकतें हैं, विचार हैं, भावनाएँ हैं, वृत्तियाँ हैं, उनको ग़ौर से देखना, अपने दृष्टा हो जाना। यही आत्मज्ञान है। अपने दृष्टा जब हो जाओगे, तो अपने भीतर मत ही मत दिखाई देंगे, सत कहीं नहीं दिखाई देगा। मन सत से घबराता है और मत में छाँव पाता है। मन ये नहीं कहता, ‘मुझे जानना है।’ मन कहता है, ‘मुझे पहले से ही पता है, ये लो मेरा मत।’ आम आदमी के पास जाओ। उससे कोई भी बात करो, वो ये थोड़े ही कहेगा, ‘मुझे नहीं पता।’ वो कहता है, ‘मुझे पता है और मैं अपना ओपिनियन बता रहा हूँ।’ मत सबके पास होते हैं। मत माने आग्रह।
तो मत हमें कहीं तक नहीं लेकर जाते। सत के प्रति जिज्ञासा होनी चाहिए और झूठ को जानने की लगातार कोशिश होनी चाहिए। आँख बन्द करके मानना ही तमाम तरह के बन्धनों का, अन्धविश्वासों का, पाखंडों का कारण बनता है। आ रही है बात समझ में?
प्र: जी।
आचार्य: देखो, कितनी चिड़िया थीं? तीन बची हैं। सब अपने-अपने काम पर निकल गयीं। कम-से-कम आठ-दस बैठी थीं। अब तीन बची हैं। अब सूरज और आगे बढ़ता जा रहा है। और ये भी अपने काम पर आगे बढ़ती जा रही हैं। अब चलें, हम लोग भी अपने काम पर आगे बढ़ें।
प्र: जी।
आचार्य: नाश्ता करोगे?
प्र: जी।
आचार्य: चलो नाश्ता करते हैं। और फिर काम पर लग जाते हैं। थोड़ी देर में देखेंगे तो ये तीनों भी; चलो भाई! (आचार्य जी चिड़ियाओं की ओर बाय-बाय करते हैं) कुछ वहाँ बैठ गयी हैं जाकर, वो देखो। (आचार्य जी दूसरी तरफ़ इशारा करते हैं)
बात आयी है समझ में? कुछ पूछना है इसमें?
प्र: ये वैसी ही बात हो गयी, जैसे अष्टावक्र कह रहे थे कि मन की सामग्री और संसार एक ही हैं। संसार से मुक्ति मतलब मन से मुक्ति।
आचार्य: बिलकुल। देखो, आप अध्यात्म में तरक़्क़ी कर रहे हो, इसका एक प्रमाण ये होता है कि उधर से आप वक्तव्य उठाओ अष्टावक्र मुनि का और उधर से आप वक्तव्य उठाओ रामकृष्ण परमहंस का। और दोनों वक्तव्य ऐसा लगे कि बहुत भिन्न दिशाओं से आ रहे हैं, बहुत भिन्न विषय के हैं और भाषा तो भिन्न है ही। लगेगी, सन्दर्भ भी अलग-अलग हैं। और उसके बाद भी आप देख पाओ कि दोनों एक ही बात कह रहे हैं। समझ में आ रही है बात?
तो वो है न कि “एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।” सत्य एक है लेकिन विप्र, माने ज्ञानी लोग, जानकार लोग उसको अलग-अलग तरीक़े से उसकी बात करते हैं। जब ये आपको दिखने लग जाए तो समझ लो कि आपने कुछ जाना। “एकम् सत्य।” तो ये अब तुम जानकार बनते जा रहे हो कि अगर तुमको — कल रात में हमने अष्टावक्र गीता पर रिकॉर्डिंग करी थी। आज सुबह-सुबह आपने हमसे परमहंस महाराज के बारे में पूछ लिया। और अगर दोनों की बातों में आपको ऐक्य दिखाई दे रहा है, आइडेंटिटी , एक ही बात, तो समझ लो कि कुछ जान रहे ज़िन्दगी में। चलो। (आचार्य जी कैमरे की ओर प्रणाम करते हैं)