राम अब भाते नहीं || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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राम अब भाते नहीं || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: पिछले बीस-चालीस साल से ऐसा क्यों हो रहा है कि लोगों को राम पसंद आने बहुत कम हो गए हैं? तो आम जनमानस को ख़ासतौर पर जो नई पीढ़ी है उसे तो नहीं ही पसंद आते राम, इधर पिछले बीस-चालीस साल के कुछ प्रसिद्ध गुरुओं ने भी राम का बड़ा अनादर और विरोध किया है। राम लोगों को पसंद क्यों नहीं?

आचार्य प्रशांत: राम को थोड़ा ज़रा अभी अलग रखते हैं, कुछ मूल बातें समझते हैं इंसान के बारे में। इंसान की पूरी प्रकृति को समझिए। हमारी रचना और हमारे रुझान को समझिए। हम इस तरीक़े से निर्मित हैं कि हमें दुनिया की चीज़ें भोगने में बड़ी रुचि रहती है।

ये हाथ हैं दो, ये मन के अंदर की किसी चीज़ को तो पकड़ नहीं सकते न। आप कितना भी बोल दें — मेरे भीतर आत्मा इत्यादि है, हाथ आत्मा को तो नहीं पकड़ सकते, हाथ विचारों को भी नहीं पकड़ सकते, पर ये हाथ पकड़ने को बहुत लालायित रहते हैं। इन्हें बाहर की कोई चीज़ चाहिए पकड़ने को।

इन आँखों को लगातार बाहर की चीज़ें देखनी हैं और बाहर भी वो चीज़ें देखनी हैं जो देख करके बस मज़ा आ जाए। ये कान हैं इन्हें बाहर से कुछ सामग्री सुननी है। किसी की बातचीत सुननी है, संगीत सुनना है, कोई और आवाज़ सुननी है। कौन-सी आवाज़ सुननी है? जिसको भोग करके अनुभव बड़ा अच्छा आए। मन को भी ऐसा ही करना है।

मन को भी विचार भोगने हैं, कल्पनाएँ भोगनी हैं। मज़ा आना चाहिए बस। और आँखें, भूलिएगा नहीं भीतर को नहीं देख सकती, कान भीतर का कुछ नहीं सुन सकते। हमारी पूरी रचना ही इस तरह है कि हमें बाहर से भोगना है।

जानवर भी यही करते हैं, वो लगातार बाहर को देखते रहते हैं। खरगोश की कभी आप नाक देखिएगा। वो लगातार अपनी नाक जो है चलाता रहता है। वो लगातार सूंघ रहा है कि बाहर कुछ मिल जाए, भोग लूॅं। बंदर को देखिएगा, बंदर लगातार इधर-उधर कूद फांद कर रहा है कि कुछ मिल जाए, जल्दी से खा लूॅं। बिल्ली को देखिएगा, वो कभी इस घर में घुस रही है, कभी यहाॅं झांक रही है, कभी वहाॅं जा रही है, कुछ खाने पीने को मिल जाए, भोग लूॅं।

तो आदमी भी नया-नया बस जंगल से बाहर आया है, ताज़ा-ताज़ा इंसान बना है, जानवर बहुत पुराना है। हममें भी भोगने की पूरी वृत्ति है।

समझ में आ रही है बात?

बच्चा पैदा होता नहीं है कि वो संसार को भोगना शुरू कर देता है। और इंसान जीवन भर और कुछ नहीं करता बस भोगने के लिए जीता है, सोचता है भोगने में ही तो सुख है। भोगने में सुख मिलता नहीं लेकिन वृत्ति भोगने की ही है, यहाॅं से अध्यात्म शुरू होता है।

अध्यात्म भोगने के विरुद्ध दी जाने वाली शिक्षा है, क्योंकि भोग-भोग के तो सिर्फ़ दुख मिलता है सुख नहीं। तो अध्यात्म और कुछ नहीं है, त्याग का दूसरा नाम है। अहम् वृत्ति है भोगने की, अध्यात्म है अहम् वृत्ति को जानना, समझना और भोगना कम करना।

अध्यात्म त्याग का दूसरा नाम है। लेकिन हमारी प्रकृति को, हमारी वृत्ति को, हमारे भीतर बैठे जानवर को त्याग शब्द से ही नफ़रत है। क्योंकि उसे क्या करना है? उसे तो भोगना है। भोगना समझते हैं न! कंज़ंप्शन (भोगना), एक्सपीरियंस (अनुभव) लेना — इस चीज़ का भी एक्सपीरियंस लो, उसका भी लो, ये करो वो करो। जो भी मौका मिले मज़े मार लो। जो भी चीज़ मिले उसको मुॅंह में ठूॅंस लो। हर चीज़ पर हाथ रख दो। किसी भी चीज़ को अपने स्पर्श से अछूता मत रखो। ये है भोगना।

कोई दो लोग मिलते हैं तो पूछते भी एक-दूसरे से यही हैं, “हाॅं भाई, तूने क्या-क्या किया? तूने क्या-क्या किया? तू कहाॅं हो आया? तू क्या भोग आया? तूने कहाॅं मज़े मारे? तू क्या देख आया? कहाॅं गुलछर्रे उड़ाए?” तो हमारे लिए भोग ही जीवन है और अध्यात्म सिखाता है कि बेटा भोग-भोग के इतने दुखी तो हो गए तुम, तो त्यागना सीखो। अध्यात्म त्याग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और बाकी जितनी सब बातें होती हैं, वो आपको त्याग की दिशा में लाने के लिए हैं। ठीक है!

राम कौन हैं? राम वो हैं जिनके चरित्र का केंद्रीय बिंदु है त्याग। राम और त्याग एक दूसरे से अलग नहीं हैं। राम जीवन भर त्यागते ही गए हैं। और ऐसी-ऐसी उन्होंने चीज़ें त्याग दी हैं कि आम आदमी सोच नहीं सकता। गुणी हैं, बुद्धिमान हैं, पराक्रमी हैं, हर दृष्टि से वो सुपात्र हैं, युवराज हैं राजा बनने ही जा रहे हैं। एक दासी के षड्यंत्र पर माता भ्रष्ट बुद्धि होकर के पिता से ऊलजुलूल वरदान मांग लेती हैं और पिता भी कहते है, “हाॅं ठीक है, राम तुम जाओ वनवास 14 बरस का!” और राम त्याग देते हैं।

कोई गलती नहीं है उनकी। गलती छोड़िए, जो उनको जंगल भेज रहे हैं, उन्हें भी भली-भाॅंति पता है कि राम से ज़्यादा योग्य कोई नहीं है गद्दी पर बैठने के लिए। प्रजा रो-रो के निढाल हो गई जब राम वन की ओर चले। जिन छोटे भाई भरत को सिंहासन सौंपने की योजना बनाई गई थी, उन्होंने सिंहासन लेने से इन्कार कर दिया। वो जंगल चले गए, बोले, “भैया आप ही आइए, बैठिए, मैं नहीं लूॅंगा। उस सिंहासन पर आपका अधिकार है।”

राम त्याग रहे हैं लेकिन, राम को नहीं चाहिए। राम तो जब वन को चले थे तो उन्होंने सिंहासन ही नहीं त्यागा था, एक दृष्टि से उन्होंने पत्नी का संग भी त्याग दिया था। उन्होंने नहीं कहा था सीता को कि मेरे साथ चलो‌‌। उन्होंने तो कहा था कि अभी-अभी नई ब्याहता है, सुकुमारी है। राजकुमारी है, आज तक इसने कहाॅं कोई कष्ट झेला है! कहाॅं मैं इसको वन के कष्ट में ले जाऊँगा, कांटों पर चलाऊँगा, कहाॅं खाएगी, कहाॅं सोएगी?

सिर्फ़ पत्नी को भी नहीं उन्होंने कहा था कि थम जाओ, लक्ष्मण भी जब आए साथ कि मुझे भी चलना है तो लक्ष्मण को भी बोल रहे हैं, “ज़रूरत नहीं है; कहाॅं आ रहे हो?” तो छोटे भाई का सानिध्य भी त्याग रहे हैं। सब सुख-सुविधाएँ त्याग रहे हैं। सत्ता के साथ जो वैभव आता है, शक्ति आती है, गरिमा आती है, वो सब त्याग रहे हैं। नवविवाहिता पत्नी का सानिध्य त्यागने को तैयार थे।

लोगों से पचती ही नहीं ये बात, वो कहते हैं हम ऐसे आदमी को कैसे पूजें जो भोग नहीं रहा है। क्योंकि आज का आदर्श है भोग। आज हर आदमी को भोगना है। मैं आपको अभी एक प्रयोग करके बताए देता हूॅं, ख़ुद ही जांच लीजिएगा। आप अपने आदर्शों की एक सूची बनाइए 10 लोगों की, रोल मॉडल्स जिनको आप बोलते हैं; हमारे रोल मॉडल्स हैं, हमें ये लोग बड़े लगते हैं। 10 की बना ली?

आप देखिएगा उन 10 में से आठ, नौ या दस ज़रूर ऐसे हैं, जिन्होंने दुनिया को जमकर के भोगा है और इसीलिए वो आपके आदर्श हैं। सब भोगी होंगे पूरी सूची में, और वो सूची में है ही इसीलिए क्योंकि भोगी हैं। आपको वो अच्छे ही इसीलिए लगते हैं क्योंकि वो भोगी हैं। क्यों? क्योंकि आपको भी जी भर के भोगना है। पृथ्वी की चीरफाड़ करनी है बढ़िया तरीक़े से।

इंसान मिल जाए इंसान को भोगेंगे, जानवर मिल जाए जानवर को भोगेंगे, रुपया-पैसा भोगेंगे, सत्ता भोगेंगे। इसीलिए तो पैदा हुए। भले ही भोग-भोग के अपना ही कबाड़ा कर लें, सत्यानाश! लेकिन भोगेंगे ज़रूर।

आजकल के कौन हैं पोस्टर बॉयज़ — जो या तो राजनीति की सत्ता भोग रहे हैं, पैसे की सत्ता भोग रहे हैं, यश की सत्ता भोग रहे हैं। कोई त्यागी है क्या आपका आदर्श? जिसने छोड़ा हो, रिननसिएशन (त्याग) किया हो। किस रिननसिएट (त्यागी) को जानते हैं आप? बल्कि आप किसी को पा लेते हैं त्याग करता हुआ तो आपकी रूह कांप जाती है। आपके भीतर से घृणा उमड़ पड़ती है। क्योंकि एक का त्याग भी आपको डराने के लिए काफ़ी है क्योंकि वो आपको जता जाता है कि आप कुछ ग़लती कर रहे हैं। आपको बता जाता है कि आपमें सही काम करने की हिम्मत नहीं हुई लेकिन कोई और कर रहा है।

तो इसलिए राम अप्रचलित हो रहे हैं अब, अनपॉपुलर (अप्रसिद्ध) हो रहे हैं। क्योंकि राम प्रतिनिधि हैं त्याग के और आज का आदर्श है भोग। राम प्रतिनिधि हैं त्याग के और आज का दूषित, कलुषित, गर्हित आदर्श है भोग। इसीलिए हमें राम से बड़ी समस्या है, बहुत समस्या है। हाॅं, हम सीधे-सीधे बोल नहीं सकते इतनी ईमानदारी तो हममें है नहीं कि बता दें कि भाई हमें ये बात अच्छी नहीं लगती कि राम ने त्याग दिया।

लंका जीत ली, उसके बाद लंका भी त्याग दी और अयोध्या से ज़्यादा समृद्ध थी लंका। इतना तो कर ही सकते थे कि लंका को अपने आधिपत्य में रखते, अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर देते, किसी भाई को या किसी अधीनस्थ को लंका की गद्दी सौंप देते, और कहते कि हर माह या हर वर्ष इतना कर देना पड़ेगा, टैक्स।

ऐसा किया गया है, लगातार यही किया गया है। हमलावर सेनाएँ आती थीं, किसी जगह को जीत लेती थीं पर वहाॅं टिक नहीं सकती थीं तो वापस लौटती थीं और वापस लौटते-लौटते गद्दी पर अपने किसी बंदे को बैठा देती थीं। राम ने ऐसा भी नहीं करा।

राम ने कहा, “जो लंकेश मारा गया है, उसी का जो छोटा भाई बचा हुआ है जीवित, एक ही भाई बचा है, वो गद्दी पर बैठेगा। उसका अधिकार है, वो बैठ जाए। मैं जा रहा हूॅं, मुझे क्या लेना-देना। विभीषण ने तो कई तरह के उपहार भी देने चाहे थे, राम ने लिए भी नहीं, एक-आध छोड़कर। वो सप्रेम ले लिया, बाकी कहा, “तुम्हारी लंका, तुम संभालो। हम जाते हैं।”

उसके बाद प्रजा के एक साधारण व्यक्ति ने कुछ आपत्ति खड़ी कर दी तो उन्होंने सीता का त्याग कर दिया और सीता गर्भवती थीं उस समय। हम बिलकुल आपत्ति कर सकते हैं कि सीता का त्याग मानवीय दृष्टि से और नैतिक दृष्टि से उचित था, नहीं था, इत्यादि इत्यादि। हम ख़ूब बहस कर सकते हैं पर इतना तो हम मानेंगे न कि प्राणप्यारी पत्नी को जो चौदह साल उनके साथ वन में रही, यूॅं जंगल छोड़ आना किसी भी पुरुष के लिए आसान नहीं रहा होगा।

इससे पहले कि आप राम को दोष दें, ये भी सोच लीजिए कि उनके हृदय पर क्या बीती होगी सीता को वनगमन के लिए कहते हुए। जब लक्ष्मण तक विरोध पर उतर आए थे और लक्ष्मण फूट-फूट के रो पड़े थे, तो राम की क्या हालत हुई होगी स्वयं! वो तो पति थे, सहयात्री थे, लंबे समय के साथी थे। राम के साथ क्या हुआ होगा? और इतना ही नहीं, ये सब होने के बाद मृत्यु भी राम को प्राकृतिक नहीं मिली, शरीर भी उन्होंने त्यागा ही, समाधि ली।

हमसे झेली ही नहीं जाती है ये बात, बर्दाश्त ही नहीं होते राम। हम कहते हैं ये इंसान कैसा है? इसको एक के बाद एक उपहार मिलते जा रहे हैं जीवन से और ये सब को त्यागता जा रहा है। सीता जैसी पत्नी, अयोध्या जैसा राज्य, लंका जैसी विजय, सोने जैसा शरीर, दो फूल जैसे सुकुमार बच्चे और ये त्यागता ही जा रहा है त्यागता ही जा रहा है। हमसे नहीं बर्दाश्त होता क्योंकि हम तो 2 ग्राम सोना ना छोड़ पाएँ, राम ने सोने की लंका छोड़ दी!

अब आप समझिए कि हमारे भीतर से कितनी ज़बरदस्त पीड़ा उठती है और कितना गहन विरोध उठता है राम के लिए। हम वो लोग हैं जो 2 ग्राम सोना नहीं छोड़ सकते। आपका 2 ग्राम सोना इधर-उधर हो रहा हो आप देखिए आपके भीतर से कैसी आग उठेगी और राम पूरी सोने की लंका ही छोड़ आए।

आप कहीं काम करते हों, आपकी कोई साधारण प्रोन्नति रुक गई हो, प्रमोशन , आपकी कंपनी में आपके दफ्तर में, आप देखिए आपके भीतर कैसा विद्रोह उठता है। और आपकी छोटी सी गद्दी है, बहुत छोटी-सी गद्दी है। आपको असिस्टेंट मैनेजर (सहायक प्रबंधक) से मैनेजर (प्रबंधक) बनना था, आप नहीं बन पाए, आप जल उठते हैं। और राम को बहुत बड़ी गद्दी मिल रही थी। उन्होंने कहा, “जा, नहीं चाहिए!”

हम राम को स्वीकार कैसे करें! हम बर्दाश्त कैसे करें राम को! इसलिए आज राम से सबको आपत्ति है क्योंकि ये युग भोग का है और हमने भोग-भोग के पूरी पृथ्वी में आग लगा दी है।

जो ज़रा-सा भी पढ़े-लिखे लोग हैं, वो भली-भाॅंति जानते हैं कि अगले 100 साल भी अगर चल जाएँ इस पृथ्वी पर हमारी प्रजाति और बाकी पशु-पक्षियों की प्रजातियाॅं तो बहुत बड़ी बात है। जिस हिसाब से पृथ्वी का दोहन हो रहा है, समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है, वातावरण में तापमान बढ़ रहा है, 10-20 साल, 30 साल से अधिक आप सामान्य जीवन नहीं बिता पाएँगे।

ये युग भोग का है। हमारी पुरानी जितनी पीढ़ियाॅं थीं इतिहास में, वो सब मिलकर जो नहीं कर पाई, वो हमारी पीढ़ी ने कर दिखाया है। हमने एक घर या दो घर में नहीं, हमने एक मोहल्ले या एक शहर में नहीं, हमने पूरी पृथ्वी में ही आग लगा दी है। बताइए, हमें राम कैसे पसंद आएंगे!

समझ में आ रही है बात?

इसीलिए आज राम को गाली देना बहुत प्रचलित हो गया है, फैशन की बात हो गई है। और अगर कोई कहे मुझे राम बहुत पसंद हैं तो उसको बहुत पिछड़ा मान लिया जाता है। जो लोग 'जय श्री राम' का नारा लगाते हैं, बहुत दुख की बात है कि उनमें से भी ज़्यादातर लोग राजनीति से प्रेरित होते हैं, अध्यात्म से नहीं।

उनके लिए राम उनकी अस्मिता के प्रतीक हैं। राम उनके अहंकार का सूचक हैं। वो राम से कुछ सीख नहीं रहे, अधिकांश ऐसे लोग जो राम का नाम लेते हैं, नारा लगाते हैं इत्यादि इत्यादि। उन्होंने राम को अपनी अहंता का पर्याय बना लिया है बस। तो राम को वास्तव में मानने वाले लोग तो अब बहुत ही कम होंगे‌।

समझ में आ रही है बात कुछ?

इसीलिए समझिएगा जो आपने कहा है कि अभी प्रसिद्ध गुरु भी हुए हैं पिछले 20-40 सालों में जिन्होंने राम का बड़ा विरोध किया है, बड़ा अनादर किया है। आप उन गुरुओं की पूरी शिक्षा देखिएगा, वो किस पर आधारित है, वो शिक्षा ही भोग पर आधारित है। वो पूरी शिक्षा ही यही है — और भोगो! तुम तो भोगो! जब शिक्षा ही यही है तो राम कैसे पसंद आ सकते हैं? क्योंकि राम तो एक ललकार हैं भोग के विरुद्ध।

राम का अर्थ है बोध, राम का अर्थ है त्याग, राम का अर्थ है कर्तव्य। राम का अर्थ है जो सही है वो होगा, भले ही उसमें मुझे कितना दुख हो। मुझे कुछ मिले ना मिले, धर्म की जीत होनी चाहिए — ये राम का आदर्श है। और जो आधुनिक गुरु हैं, वो आपको भोग सिखा रहे हैं। वो ख़ुद ही दिखा रहे हैं कि देखो मैं कितना भोग रहा हूॅं। मेरे पास 100 कारें हैं, मेरे पास हेलिकॉप्टर है, मैं इतना अमेरिका घूमता हूॅं, मेरे पास ऐसी बाइक है, मैं इतने बड़े-बड़े लोगों से हाथ मिलाता हूॅं। मेरा महल देखो, मेरी साख देखो, मेरी पहुॅंच देखो, मेरे कपड़े देखो। वो ख़ुद आपके सामने कंजंप्शन का आदर्श बन कर खड़े हुए हैं।

आप उनको देखें तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ये जो गुरु है, इसने ज़िंदगी भोगी ख़ूब है। इसके कपड़े देखो, इसकी मालाएँ देखो, इसकी अंगूठियां देखो, इसके रत्न देखो, इसके हीरे-मोती देखो। और न सिर्फ़ इसने भोगा है, ये अपने भोगने की ख़ूब नुमाइश भी करता है, खुलेआम प्रदर्शन करता है। और चूँकि हम भोगवादी हैं, इसीलिए हमें गुरु भी ऐसे ही पसंद आते हैं, जो खूब भोगते हों।

अब ऐसे गुरु लोग राम का विरोध तो करेंगे ही न। राम का मज़ाक बनाएँगे ,चुटकुला कर देंगे राम को। क्योंकि अगर राम सही हैं तो ये गुरु गलत हैं और इन गुरुओं को अगर अपनेआप को सही साबित करना है तो इन्हें राम को ग़लत साबित करना होगा।

समझ में आ रही है बात?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने जैसे बताया कि राम हमको इसलिए पसंद नहीं आते हैं क्योंकि हमारे अंदर भोग करने की एक टेंडेंसी (प्रवृत्ति) है जो हम लोग बहुत सारा भोगना चाहते हैं और राम हैं त्याग के प्रतीक, पर बहुत सारे लोग राम का विरोध जाति के आधार पर भी करते हैं। जैसे कि एक कमेंट (टिप्पणी) में भी आया है कि उन्होंने शंबूक नाम के एक शूद्र का वध किया था उत्तर रामायण में, तो उत्तर रामायण को इसलिए बहुत सारे लोगों ने रिजेक्ट (अस्वीकार) ही कर दिया है तो ये मैं समझना चाहता हूॅं।

आचार्य: वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में आती है ये बात और बात बड़ी हास्यास्पद है। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में ये शंबूक वध की कहानी आती है और कहानी बड़ी हास्यास्पद है कि एक दिन एक ब्राह्मण आया रोते हुए राम के पास, बोलता है, मेरा बेटा मर गया है और मेरा बेटा ज़रूर इसलिए मरा है क्योंकि राज्य में कहीं कोई बहुत ग़लत काम हो रहा है। तो राम गए ढूॅंढ़ने कि क्या ग़लत काम हो रहा है तो उनको एक तपस्वी मिला, वो तपस्या कर रहा था, तो राम ने पूछा कि आप कौन-सी जाति के हैं तो वो बोला, “मैं शूद्र हूॅं।” तो राम ने उसकी गर्दन काट दी। ये कुल कहानी आती है।

ये पूरी कहानी किसी भी तरीक़े से राम के चरित्र से मेल खाती है क्या? आपको लगता है? शबरी के झूठे बेर खा रहे हैं राम — राम आपको जातिवादी लग रहे हैं? भील, कोली, शबर जाति की थी वो, राम जातिवादी लग रहे हैं आपको? केवट से गले मिल रहे हैं, केवट ब्राह्मण था? राम आपको जातिवादी लग रहे हैं! निषादराज भोजन लेकर आए, उन्होंने कर लिया। राम जातिवादी हैं?

वो जितने रीछ जाति के, वानर जाति के लोगों के साथ रहते थे, खाते थे, पीते थे, उठते थे, गले लगाते थे उनको; उन्हीं के साथ जिए हैं, उन्हीं की सेना बनाई, विजय पाई, वो सब ब्राह्मण और क्षत्रिय थे क्या?

वानर और रीछ कोई बंदर-भालू नहीं थे, ये जातियाॅं थीं वन में रहने वालों की। जो वानरों की उपासना करते थे। उस समय जो प्रकृति के तत्व होते थे, उन्हीं की उपासना का प्रचलन था। तो ये सब जातियाॅं थीं। राम इन सबको गले लगा रहे हैं, राम जातिवादी कहाॅं से हो गए भाई? बताओ ज़रा।

राम का जो पूरा वृत्त है, उसमें तो वो लगातार जो भी शोषित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं, जिनका भी उत्पीड़न है, अत्याचार है जिन पर, उन सबके काम आ रहे हैं। निरपराध जिस किसी को भी दुख मिला हुआ है, उसके साथ खड़े हो जाते हैं। और उन्होंने हमेशा उससे लोहा लिया है जो सत्तासीन था। बाली और सुग्रीव की बीच में राम किसके साथ खड़े हुए थे? किसके साथ? सुग्रीव के साथ। और बाली महा पराक्रमी था। महा पराक्रमी था बाली। पर खड़े वो सुग्रीव के साथ हैं।

इतने सारे राक्षसों से वो लोहा ले रहे हैं। वो राक्षस तो बहुत शक्तिशाली थे। शक्तिशालियों के तो हमेशा ख़िलाफ़ रहे हैं राम, और शक्तिहीनों के हमेशा साथ रहे हैं राम। आप जाति की बात करते हैं, जिस धोबी के कहने पर राम ने अपनी पत्नी का ही परित्याग कर दिया, वो धोबी क्षत्रिय या ब्राह्मण था क्या? बोलिए। तो क्या ये मिथ्या आरोप लग रहे हैं राम पर? बताइए मुझे।

और एक बात और बता देता हूॅं — मैंने अभी साफ़ बोला था कि राम का विरोध हम कर इसीलिए रहे हैं क्योंकि हमें भोगना है। हम बहाना भले बना लें। जो लोग जाति के आधार पर राम का विरोध करते हैं, वो तो यही कह रहे हैं न कि “हम पिछड़ी जाति के लोग हैं, हम अगड़ी जातियों का विरोध करेंगे। राम क्षत्रिय हैं, हम उनका विरोध करेंगे।” अच्छी बात है!

तो तुम्हें अगड़ी जातियों का विरोध करना है ना, तो तुम राम का विरोध करके फिर रावण के क्यों प्रशंसक बने जा रहे हो? ये बताओ। रावण रावण हूॅं मैं, दशानन रावण हूॅं मैं। पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले अपने नाम के साथ लगा रहे हैं रावण और रावण तो महा ब्राह्मण था। इसका मतलब तुम्हें ब्राह्मण या क्षत्रिय से समस्या नहीं है, तुम्हें समस्या त्याग से है।

अगर तुम्हें तथाकथित सवर्णों से ही समस्या होती तो रावण तुम्हारा आदर्श कैसे बन जाता? मुझे बताओ। रावण महापंडित है, रावण ब्राह्मण ही नहीं महा ब्राह्मण है, महाज्ञानी है। ऋषियों के वंश का है रावण तो और ऋषियों से तो तुम्हें खास घृणा है, तो रावण तुम्हारा आदर्श कैसे हो गया? वास्तव में तुम्हें न तो राम से समस्या है न तुम्हें रावण प्यारा है। तुम्हें समस्या त्याग से है और तुम्हें भोग प्यारा है।

बात यहाॅं पर निचली जाति, ऊॅंची जाति की है ही नहीं। बात ये है कि ऊॅंची जातियों को भी राम का विरोध करना है और तथाकथित नीची जातियों को भी राम का विरोध करना है। बात जाति की है ही नहीं, ज़बरदस्ती इसमें जाति को बीच में न लाया जाए।

बात बस इतनी-सी है कि बेचारे राम जिस आदर्श के प्रतीक हैं, हमें वो आदर्श आज बहुत बुरा लगता है। तो हमें कोई तो बहाना चाहिए न राम से हटने का, राम को ठुकराने का। तो कोई ये बहाना खोज लेता है कि “अरे! राम ने तो स्त्री के साथ अत्याचार किया, तो हम राम को नहीं मानते।” कोई कह देता है कि “अरे! राम ने अपनी प्रजा के साथ अत्याचार किया, उन्हें राजा बनना चाहिए था‌। इसलिए हम राम को नहीं मानते।”

कोई कह देता है, “राम मुझे ज़रा डल, बोरिंग (सुस्त, उबाऊ) से लगते हैं। मुझे तो थोड़ा-सा ज़्यादा रोचक और उत्तेजक आदर्श चाहिए। इसलिए हम राम को नहीं मानते।” और कोई कह देता है, “राम ने तो वो शंबूक वध किया था न इसलिए हम राम को नहीं मानते।” सब बहाने हैं। तुम्हें राम से दूर जाना है, एक खोजो, हज़ार बहाना है।

पर इतनी ईमानदारी दिखाओ कि साफ़ बोलो कि “साहब एक ज़िंदगी मिली है जिसमें हमें जानवर की तरह जीभ लटका के, लार बहा करके जो मिले उसको नोचना-खसोटना है, हमें इसलिए राम से समस्या है।” क्यों इधर-उधर की बातें करते हो? दुष्प्रचार करते हो?

इसमें अभी एक बात जोड़नी ज़रूरी है कि ये जो अभी आप लोगों के मन में उत्सुकता रह गई होगी कि वाल्मीकि रामायण में ये आया कहाॅं से? बहुत सारे अंश हैं जो बाद में जोड़े गए, प्रक्षिप्त हैं। राम तो जातिवादी नहीं हैं लेकिन जिस किसी ने भी वाल्मीकि रामायण में इस तरह की ऊलजुलूल कहानी जोड़ दी है, वो ज़रूर जातिवादी है। आपको विरोध करना है तो उनका करिए जिन्होंने ग्रंथों में इस तरह की बातें जोड़ दीं। राम का विरोध करके क्या मिल जाएगा आपको?

राम के साथ चलेंगे आपका ही भला होगा, आप ही कुछ सीखेंगे, आप ही जीवन थोड़ा बेहतर जी पाएँगे। राम का विरोध करना राम को थोड़े ही भारी पड़ेगा। आप राम का विरोध करेंगे तकलीफ़ आपको ही होनी है। बोला था न मैंने एक बार, 'इसमें तेरा घाटा उनका कुछ नहीं जाता।' तुम कर लो जितना विरोध करना है, उनका क्या उखाड़ लोगे। उनका विरोध करोगे तो तुम्हारा ही नुकसान होगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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