हिंदू होने की असली परिभाषा

Acharya Prashant

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हिंदू होने की असली परिभाषा

आचार्य प्रशांत: वैदिक धर्म से ज़्यादा साफ़, सुंदर, अंधविश्वास से रहित, तथ्यों और सत्यता से परिपूर्ण कोई धर्म है नहीं। लेकिन उसी हिंदू-धर्म को अंधविश्वासों का, कुरीतियों का, एक गर्हित संस्कृति का गढ़ बना दिया गया है; सत्य, आत्मा और ब्रह्म की तो कोई बात ही नहीं। उसकी जगह हिंदू की पहचान क्या बन गई है? वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद। कैसे पहचानोगे कोई हिंदू चला रहा है? वह जाति की भाषा में बात करेगा। बताओ मुझे किस उपनिषद् में कहा गया है कि जातिवाद को मानो? उपनिषदों को जाति इत्यादि से मतलब क्या! मैं वेदांत की बात कर रहा हूँ और वेदांत को हल्के में मत लीजिएगा। अगर वेदों को मानते हैं आप तो मैंने कहा वेदांत वेदों का शिखर है। तो कृपा करके यह धृष्टता न करें कि उपनिषद् में नहीं लिखा तो क्या हो गया।

अगर आप हिंदू होकर यह कह रहे हैं कि उपनिषद् में नहीं लिखा तो क्या हो गया, तो यह वैसी ही बात है कि आप मुसलमान होकर यह कहें कि कुरान में नहीं लिखा तो क्या हो गया। यह हो गया कि वह आपका प्रमुख ग्रंथ है। वही आपके धर्म का केंद्रीय स्तंभ है। उसमें नहीं लिखा तो नहीं लिखा। उसमें नहीं लिखा तो आप इन सब अंड-बंड धारणाओं पर, अंधविश्वासों पर चल कैसे रहे हैं, यह बताओ मुझे? जब उपनिषद् जाति प्रथा को समर्थन नहीं देते, जब उपनिषद् नहीं कहते कि स्त्रियों को दबाकर रखा जाए या ऐसे जियो और वैसे जियो, तो तुम फिर ऐसी धारणाओं पर जीवन कैसे बिता रहे हो, बताओ? और वह भी यह कहकर कि यह तो हम करेंगे ही क्योंकि हम हिंदू हैं। हिंदू होने की यह मनगढ़ंत परिभाषा तुमने निकाल कहाँ से ली? वेदों ने तो नहीं दी है तुमको, कहाँ से निकाल ली, बताओ?

पर उपनिषदों के पास जाने से सब घबराते हैं। हिंदू भी घबराते हैं, क्योंकि वहाँ सच्चाई है। हाँ, तमाम तरह की जो अन्य किताबें हैं, हिंदू-धर्म की—बड़ा पुराना धर्म है, करीब पाँच हज़ार साल पुराना। ऋग्वेद को पाँच हज़ार साल हो रहे हैं। इतना पुराना धर्म होगा तो न जाने कितनी किताबें लिखी गई होंगी; लिखी गई होंगी कि नहीं?—तो बाकी जो इधर-उधर की पूछल्ली किताबें हैं, उनको लेकर लोग घूम रहे हैं कि फलानि संहिता, फलानि स्मृति। अरे, संहिताओं और स्मृतियों की क्या बात करते हो, मैं तुमसे सीधे-सीधे वेदांत की बात कर रहा हूँ, वेदांत की, जो आधार है हिंदू-धर्म का। उसकी बात करो।

ऋषियों ने देखा होता कि उनके बताए हुए धर्म में स्त्रियों की आज यह दुर्दशा है, तो बड़े दुखी हुए होते। बड़े दुखी हुए होते! जीईएम चलता है, 'जेंडर एंपावरमेंट मेज़र', उसमें भारत बहुत नीचे आता है। यह ऋषियों का देश है! आँसू निकल आएँगे ऋषियों के। उन्होंने तो तुम्हें बताया कि तुम शरीर हो ही नहीं, जीव होना भ्रम मात्र है। और तुमने अपने आप को शरीर से इतना अधिक संबंधित कर दिया कि स्त्री अलग, पुरुष अलग, दोनों के लिए व्यवस्थाएँ अलग, दोनों के लिए नियम अलग। दुनिया की सबसे ज़्यादा भ्रूण हत्याएँ भारत में हो रही हैं। लड़कियाँ कुपोषण की शिकार भारत में हैं। स्त्रियों को आज़ादी भारत में नहीं दी जा रही है। ज़बरदस्ती गर्भाधान स्त्रियों का कराया जा रहा है। और जब मैं भारत कह रहा हूँ तो मैं उसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश को भी जोड़ लूँगा, क्योंकि संस्कृति वहाँ भी यही है; धर्म अलग है, पर संस्कृति तो यही है। यह सारे काम धर्म नहीं करवा रहा, यह सारे काम संस्कृति करवा रही है।

वैदिक धर्म तो प्रकाश स्तंभ है, जगमग सूर्य है। उसके नीचे इतना अंधेरा कैसे भाई? अंधविश्वास कहाँ से आ गए ऐसे धर्म में, जिसमें साफ़-साफ़ कहा गया है कि मन ही भ्रम है, जहाँ साफ़-साफ़ कहा गया है कि अपने सब विश्वासों को तिरोहित करो। और हिंदुओं में इतने अंधविश्वास फैले हुए हैं! जो वेदांत तुम्हें सिखा गया कि तुम्हारे मूल विश्वास भी मिथ्या हैं, वहाँ न जाने तुमने कैसे-कैसे विश्वास बना रखे हैं और उन विश्वासों को तुम धर्म का भी नाम दे देते हो।

आज का जो फेमिनिज़्म है, नारीवाद है, वह तो अधिक-से-अधिक यही बोल पाया न कि समानता होनी चाहिए, न्याय होना चाहिए। ऋषियों ने तो इक्क्वालिटी (समानता) की भाषा में भी बात नहीं करी, उन्होंने इर्रेलेवेंस (अप्रसांगिकता) की भाषा में बात करी। उन्होंने नहीं कहा, ‘जेंडर इक्क्वालिटी’ ; उन्होंने कहा, 'जेंडर इर्रेलेवेंस '। और बड़ा अंतर है!

आज का बड़े से बड़ा फेमिनिस्ट भी उतना बड़ा फेमिनिस्ट नहीं है जितने कि कपिल, कणाद, शौनक और याज्ञवल्क्य थे। आप आज फेमिनिस्ट हैं तो यही बोलते हैं न कि स्त्रियाँ बराबर की भागीदार हैं। उन्होंने कहा, ‘कोई स्त्री है ही नहीं और न कोई पुरुष है।’ लो ख़तम! अब भेद करोगे कैसे? जेंडर इर्रेलेवेंस , लिंग अप्रासंगिक है। यह है वास्तविक हिंदू-धर्म जो कहता है कि लिंग अप्रासंगिक है। आत्मा सत्य है और लिंग अप्रासंगिक है। तुम स्त्री हो या पुरुष, फ़र्क़ क्या पड़ता है? लेना-देना क्या है?

आप कह रही हैं कि धर्मगुरुओं ने आपको बताया कि स्त्री विवाह न करें और माँ न बनें तो अपूर्ण रहती हैं। ऋषियों से आप जाकर पूछेंगी, हिंदू-धर्म के जो संस्थापक हैं, उनसे आप जाकर पूछेंगी तो वह कहेंगे कि अपनेआप को तुमने जिस दिन स्त्री मान लिया, उसी दिन तुम अपूर्ण हो गए। अब अपनेआप को स्त्री मानते हुए चाहे तुम ब्याह कर लो, चाहे बच्चा जन लो, अपूर्णता मिटने नहीं वाली। अपूर्णता स्त्री के अविवाहित रह जाने में नहीं है, अपूर्णता स्त्री के स्त्री रह जाने में है।

बात समझ में आ रही है?

पुरुष पुरुष रह गया, तो वह अपूर्ण है और स्त्री स्त्री रह गई, तो वह अपूर्ण है। अब अपूर्ण रहते हुए चाहे तुम पचास शादियाँ करो या पाँच सौ बच्चे जनो, उससे तुम्हारी अपूर्णता कम नहीं हो जाएगी। और सांस्कृतिक घपला इतना प्रबल है, संस्कृति भारत की इतनी प्रदूषित हो गई है कि स्त्री को बताया जा रहा है कि विवाह कर ले तू, तो पूर्ण हो जाएगी।

फिर अध्यात्म की ज़रूरत ही क्या है? विवाह से ही पूर्णता मिलती है, मातृत्व से ही पूर्णता मिलती है तो साधना की फिर आवश्यकता क्या है? फिर तो न ज्ञान चाहिए, न भक्ति चाहिए, गर्भ चाहिए। जिस स्त्री को मोक्ष और समाधि दिलानी हो, उसे गर्भवती कर दो। माँ बनेगी अपनेआप पूर्णता मिल जाएगी। ऋषि बेचारे बेकार ही साधना करते रहे, बेवकूफ़ ही बन गए। नदी किनारे बीस हज़ार साल, वो एक टाँग पर खड़े होकर साधना कर रहे हैं, उनको सत्य मिला नहीं, उन्हें तो पूर्णता मिली नहीं। स्त्री को कुछ नहीं करना है, संभोग करना है, गर्भ धारण करना है और नौ महीने बाद पूर्णता मिल गई।

पूर्णता तो अध्यात्म का अंतिम उद्देश्य है। बच्चा जनने से अगर पूर्णता मिलती है तो जिनके चार बच्चे हैं, उनको तो चौगुनी पूर्णता मिली होगी। पूर्णता फोर टाइम्स ओवर! यह तो मज़ेदार बात है! और शायद यही वजह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में प्रति स्त्री जितने बच्चे जने जाते हैं, उतने विश्वभर में कहीं नहीं जने जाते। यूरोप में आप जाएँगे तो पाएँगे हर स्त्री औसतन एक दशमलव दो बच्चों को जन्म दे रही है और भारत में आप आएँगे तो पाएँगे तीन दशमलव दो।

पूर्णता का देश है भाई! यहाँ तो संभोग कर-कर के पूर्णता मिलती है। गर्भ रख-रख के पूर्णता मिलती है। अब तुम क्या करोगे ईशावास्य के पास जाकर, अष्टावक्र के पास जाकर, केन और कठ के पास जाकर के? अब किस काम के हैं छांदोग्य और बृहदारण्यक? गर्भ चाहिए बस गर्भ! मिल गई पूर्णता। धिक्कार है ऐसे धर्मगुरुओं पर जो स्त्रियों से कह रहे हैं कि पुरुषों की दासी बनकर रहो और बच्चे पैदा करती रहो, इसी में तुम्हारे जीवन की सार्थकता है; और धिक्कार है ऐसे पुरुषों पर! अभी मेरा एक वीडियो पब्लिश हुआ जिसका शीर्षक है — ‘क्या स्त्रियों के लिए कमाना ज़रूरी है?‘ और उसमें मैंने ज़ोर देकर कहा है कि जब तक आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं है, तब तक तुम आत्मिक आत्मनिर्भरता की बात सोचो ही मत। उसके विरोध में आजकल के प्रचलित गुरु, सद्गुरु हैं, उनका वीडियो मेरे सामने लाया गया। उनका कहना है कि करना क्या है स्त्री को काम वगैरह कर के, रुपए पैसे की बहुत आवश्यकता हो तभी काम करें। और वह इधर-उधर के उदाहरण दे रहे हैं कि फ़लानी स्त्री है, वह काम नहीं करती है पर वह खाना बहुत अच्छा बनाती है और बड़ी संतुष्ट है।

यह सब संस्कृति के सौदागर हैं, इनका अध्यात्म से कुछ लेना-देना नहीं। इन्हीं जैसों के कारण स्त्रियों का भयंकर शोषण हुआ है और वह बड़े ज़बरदस्त बंधनों में घिरी हुई हैं, पड़ी हुई हैं। शोषण को जब धर्म की स्वीकृति मिल जाए, शोषण को जब गुरुओं की भी मान्यता मिल जाए तो अब शोषण को कौन रोकेगा, बोलो? शोषण जब तक समाज-सम्मत मात्र है, उसे रोका जा सकता है। शोषण जब तक संस्कृति-सम्मत मात्र है, तब भी उसे रोका जा सकता है। पर जब शोषण धर्म-सम्मत हो गया, गुरु-सम्मत हो गया, सत्य-सम्मत हो गया तो अब शोषण को रोकने वाला बचा कौन, बताओ मुझे? कौन रोकेगा?

इसका नतीजा यह हुआ है कि हिंदुस्तान ने औरत को घर के पिंजरे में कैद कर दिया है। न स्त्री का विकास हुआ है शारीरिक तौर पर, मानसिक तौर पर, बौद्धिक तौर पर; न उसने दुनिया देखी है, न जीवन की उसने कोई ऊँचाई पाई है, कोई सार्थकता पाई है। और हमने स्त्री के इसी कैदी रूप को महिमा-मंडित कर दिया है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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