पुरुष का पुरुष देह के प्रति आकर्षण || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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पुरुष का पुरुष देह के प्रति आकर्षण || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: नमस्कारम आचार्य जी, पन्द्रह साल की उम्र है, पुरुषों के प्रति काफ़ी आकर्षित रहता हूँ। मुझे पता है कि समलैंगिकता एक विकार है। इस विकार का कैसे विगलन हो? कृपया इस पर मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: समलैंगिकता विकार है, ऐसा तुम्हीं कह रहे हो। इस विकार का समाधान, मैं ये नहीं बताऊँगा कि तुम विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होना शुरू कर दो। वो कोई बड़ी तरक़्क़ी नहीं हो जानी है कि पहले पुरुष पुरुष की ओर आकर्षित होता था, अब पुरुष स्त्री के पीछे भागने लगा है। देखो, इसने ज़िन्दगी में कितनी तरक़्क़ी कर ली। ये कोई तरक़्क़ी नहीं हो गयी।

हाँ, सामाजिक तौर पर अगर तुम ऐसा कोई परिवर्तन ले आ लोगे अपने अन्दर, तो ज़्यादा स्वीकृत हो जाओगे। लोग ज़रूर ऐसा कहना शुरू कर देंगे कि भई, पहले ग़लत काम कर रहा था, लड़कों के, आदमियों के पीछे भागता था, अब सही काम कर रहा है, अब लड़कियों के, औरतों के पीछे भागता है।

पर सच की नज़र से, अध्यात्म की दृष्टि से, ये कोई तरक़्क़ी हुई ही नहीं। कोई वास्तविक परिवर्तन हुआ ही नहीं। अभी भी पगलाए हुए हो और औरतों के पीछे भागोगे तो भी पगलाए हुए ही रहोगे।

तुम किसी के भी शरीर के पीछे भागना बन्द ही क्यों नहीं कर देते? समाज बहुत भेद करता है इस चीज़ में, वो भी कुछ समाज, सारे समाज नहीं भेद करेंगे। कुछ जगहों पर, कुछ देशों में, कुछ समाजों में समलैंगिकता इत्यादि को मान्यता प्राप्त है। वहाँ पर समलैंगिक लोग शादी-वादी भी कर लेते हैं। कोई रोकने-टोकने नहीं आता। हाँ, कुछ समाजों में समलैंगिकता को नीची नज़र से देखा जाता है, वगैहरा-वगैहरा, अप्राकृतिक माना जाता है, इत्यादि।

तो समाजों की दृष्टि में ये एक सुधार की बात होती है, तरक़्क़ी की बात होती है कि लड़का पहले होमोसेक्सुअल (समलैंगिक) था अब हेट्रोसेक्सुअल (विषमलैंगिक) हो गया। अध्यात्म कहता है, सेक्सुअल (लैंगिक) तो रह ही गया न? कौन सा बड़ा तीर मार लिया? पहले समलैंगिक था, अब विषमलैंगिक हो गया। लिंग तो इसके भेजे में घुसा ही हुआ है न, वो तो बाहर निकला ही नहीं। तो कौनसी बड़ी तरक़्क़ी हो गयी?

तुम असली तरक़्क़ी करो न। तुम ये शरीर का चक्कर ही छोड़ो, इसमें तुम्हें मिल ही क्या जाना है? गे-लेस्बियन मैरिजेज़ (समलैंगिक-समलैंगिक विवाह) भी होती हैं तुम्हें क्या लग रहा है, वो बिलकुल सुख के सागर में गोते मारते रहते हैं। उनके भी लफड़े-पचड़े रहते हैं।

दो महिलाओं ने आपस में विवाह कर लिया, अब आपस में लड़ रहीं हैं, एक-दूसरे के बाल नोच रहीं हैं। वहाँ भी तो वही चल रहा है जो और किसी घर में चलता है। गूगल करना ये सब भी होता है।

गे मैरिज हुई, वहाँ पर पार्टनर (साथी) ने दूसरे की हत्या ही कर दी। हुई लड़ाई, वैसे तो शादी कर लिए थे लेकिन जब लड़ाई हुई, दोनों का मर्द जाग उठा, लगे एक-दूसरे को पीटने, एक मर गया।

तो चाहे आदमी-औरत शादी करें, कि आदमी-आदमी शादी करे, मार-पिटाई तो मची ही रहती है। तुम कल को कुत्ते-बिल्ली से शादी कर लो, तुम्हें वहाँ भी आनन्द नहीं मिल जाना। कहोगे कुत्ते ने काट लिया, बिल्ली ने पंजा मार दिया मुँह पर।

और जैसे-जैसे मानव अधिकार का क्षेत्र और विस्तृत होता जा रहा है कल को हम हर तरह की हरकतें करने लग जाएँगे। ठीक है करो! अपनी ज़िन्दगी है, जैसे जीना चाहो जियो, कोई काहे को रोक-टोक करे भाई। तुम्हे गदही से शादी करनी है, कर लो। लेकिन दुलत्ती वहाँ भी खाओगे। फिर कहोगे बीवी लात मारती थी, अब गदही दुलत्ती मारती है, बदला क्या? वास्तव में बदला क्या, बताओ न?

इंसान कुछ भी करता है, इसलिए करता है न कि जीवन सुलझे। इसलिए तो नहीं करता कि जीवन में दुख और बढ़े। तुम तरह-तरह के प्रयोग करके देख लो नये-नये, इनसे जीवन क्या वास्तव में सुलझ रहा है? तुम कल को खम्बे से शादी कर लो, उसके बाद खम्बे पर चढ़कर बैठ जाओ। समाधी लग जाएगी? खम्भानी महाराज! राइडिंग द पिलर (खम्बे पर चढ़े हुए)। शादी ऐसी करने से समाधी मिल जानी है? कर लो, ये जितने प्रयोग करने हैं, सब करके देख लो।

तुम ख़ुद से शादी करलो, कहो कि हम अपना काम अब ख़ुद ही चलाते हैं। आई मी, माइसेल्फ। तुम भाँति-भाँति के इस तरह के नुस्खे आज़मा के देख लो। आज़माने में कोई बुराई नहीं है, अगर आज़मा-आज़मा के तुम्हें समझ में आ जाए कि इससे कुछ हासिल नहीं होना है।

आदमी को औरत से कुछ हासिल नहीं होना है, औरत को आदमी से कुछ हासिल नहीं होना है, औरत को औरत से कुछ हासिल नहीं होना है, आदमी को आदमी से कुछ हासिल नहीं होना है, आदमी को जानवर से कुछ हासिल नहीं होना है, आदमी को पदार्थ से कुछ हासिल नहीं होना है, आदमी को जगत से कुछ हासिल नहीं होना है, आदमी को संसार से कुछ हासिल नहीं होना है। तुम्हारी ये उम्मीदें ही व्यर्थ है।

आजकल चलता है, एमजीटीओडब्लू जानते हो? मैन गोइंग देअर ओन वे (पुरुष अपने तरीके से जा रहे हैं)। ये एक नया गुब्बारा छोड़ा गया है। ये कहते हैं हमें किसी से कोई लेना-देना नहीं। ये स्त्रियाँ पिशाचिनी होती हैं, इनके चक्कर में फँसना माने जान गँवाना। गो एमजीटूओडब्लू। तुम ये भी करके देख लो अगर इससे शान्ति मिलती हो, नहीं मिलेगी भाई।

जहाँ मिलनी है, वहाँ जाओ और अब जो मैं बोलूँगा वो बात इतनी घिसी-पिटी लगेगी, इतने पुराने ढर्रे की, ओल्ड फैशन्ड (पुराने ढर्रे की), क्लीशेड , तो तुम कहोगे, लेओ, सबकुछ बोलकर ये बोला।

मैं कहूँगा, ‘बेटा, जीवन में सुरुचिपूर्ण कलाएँ लेकर आओ, बोध साहित्य पढ़ो, यात्राएँ करो, दुनिया में जिन कामों की आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है उनमें जान लगाकर सहभागिता करो। उसके बाद इन सब बातों से दिमाग़ ही उठ जाएगा। कि आदमी का पीछा करें, कि औरत का पीछा करें?’

गड्ढें हैं ये सब, इसी गड्ढे में गिरो। एक गड्ढे पे लिखा है पुरुष, एक गड्ढे में लिखा है स्त्री। काहे को कहीं जाकर? एक कुआँ है, पु कुआँ, एक कुआँ है, स्त्री कुआँ। मौत नहीं होगी? किसी भी कुँए में कूदोगे मौत तो होनी ही है।

बात आ रही है समझ में?

मैं संगति से मना नहीं कर रहा, मैं देह-केंद्रित संगति से मना कर रहा हूँ, अन्तर समझ लीजियेगा, कृपा करके। न जाने कैसे-कैसे अर्थ निकाल रहें हों। आदमी औरत के साथ रहे, आदमी बच्चे के साथ रहे, आदमी पशु के साथ रहे, आदमी आदमी के साथ रहे, सब ठीक है।

लेकिन देह अगर देह का आसरा माँग रही है, तो निराश होना पड़ेगा। आपको जिसकी संगति करनी है करिए, आपको पूरी छूट है, कौन रोक सकता है? लेकिन दूसरे को शरीर की तरह ही देख रहे हो, दूसरे को एक जन्नांग की तरह ही देख रहे हो, इतनी ही हस्ती है दूसरे की तुम्हारे लिए?

मित्रता रखो न, सुन्दर बात है मित्रता। लेकिन मित्रता का मतलब ये है क्या कि दूसरे को शारीरिक तौर पर बिलकुल खोदे पड़े हो, खोदे पड़े हो। दूसरे की पूरी हस्ती में बस गड्ढे तलाश रहे हो। इधर, उधर, ऊपर नहीं तो नीचे, आगे नहीं तो पीछे।

कोई भी व्यक्ति कितनी दैवीयता रखता है अपने भीतर, जानते हो? समझने वालों ने कहा है कि हर व्यक्ति के भीतर वही स्वयं प्रकाशित आत्मा है, हर व्यक्ति की सामर्थ्य अनन्त है, हर व्यक्ति के भीतर भगवत्ता विराजती है। दूसरा न जाने कितना कुछ दे सकता है तुमको, लेकिन तुमने दूसरे में क्या तलाशा, सिर्फ़ देह।

और देह में भी कुछ छिद्र मात्र। कि जैसे कोई घर हो, जिसमें हीरा भी मौजूद हो और वहाँ जाकर तुम कचड़ा चाटते फिरो बस। एक घर है, वहाँ हीरा भी रखा हुआ है, पर तुम्हारी नज़र कचड़ा चाटने पर है। वही चाटे जा रहे हैं, चाटे जा रहे हैं, उमर भर चाट रहे हैं।

अब समाज कहता है कि देखो, अगर तुम स्त्रैण कचड़ा चाटोगे तो ठीक है। स्त्री वाला कचड़ा चाट लेना, पुरुष वाला कचड़ा मत चाटना। कचड़ा तो कचड़ा है, काहे चाट रहे हो। हीरे से कोई समस्या है? आत्मा से कोई परहेज़ है? सच से कोई आपत्ति है? शान्ति से शत्रुता है? बोध अखरता है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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