प्रपोज़ करने गया था, डर के मारे गीता का श्लोक सुनाकर आ गया

Acharya Prashant

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प्रपोज़ करने गया था, डर के मारे गीता का श्लोक सुनाकर आ गया
हमारी धार्मिकता तो ये है कि बोल दिया, चुपचाप मान लो और जैसा कहा जाए, करो। समझो, समझाओ, जानो तब मानो — ये तो धर्म में चलता ही नहीं है। तो धर्म ने बिना समझाए आपको बोल दिया है कि ये छी!छी! चीज़ है, छिच्छी! और ये होने मत देना। धर्म ने तो बोल दिया, ‘होने मत देना’, पर वो होकर रहेगी। और जब होकर रहेगी तो आप क्या हो जाओगे? शर्मसार, आप अपराध भाव से भर जाते हो। और जैसे ही अपराध भाव से भरते हो, आपको लग जाता है आप गुनहगार हो, आप लज्जित हो जाते हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। अपोजिट सेक्स (विपरीत लिंगी) से जब अट्रैक्शन, बातचीत करने का बिंदु आता है तो हम शेमफुल (शर्मिंदगी) क्यों फील (महसूस) करते हैं? इतना कि जब रियल (वास्तव) में मैंने किसी से बात की तो अपनी एक्चुअल फीलिंग (वास्तविक भावना) बताने की जगह आपकी वीडियोज़ या गीता की बातें कन्फेस कर दीं। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: नहीं! अच्छा ही है! एक्चुअल फीलिंग क्या था, वो बताकर कचरा ही डाल देते दूसरे के ऊपर। वो एक्चुअल फीलिंग क्या होती है, वो तो ऐसे ही बस! खैर जो भी है!

शेमफुल क्यों फील करते हैं? उसमें ज़्यादा बड़ा हाथ ये जो रिलीजियस मोरैलिटी (धार्मिक नैतिकता) है, सोशल मोरैलिटी (सामाजिक नैतिकता), उसका है। धर्म का नहीं, धर्म के ठेकेदारों का है।

देखो, किसी मज़बूत इंसान को अगर काबू में लाना हो न, उसे ये अहसास करा दो कि वो गुनाहगार है। उसके भीतर की सारी ताकत मर जाती है, वो खुद-ब-खुद आपके सामने झुक जाता है।

सेक्स को लेकर के गिल्ट (ग्लानि) इंसान के भीतर डालनी बहुत ज़रूरी है अगर बहुत बड़ी जनसंख्या को अपने अँगूठे के नीचे रखना है, क्योंकि वो ऐसी चीज़ है जो आपके काबू में आ सकती नहीं। इस पर अभी आगे चर्चा करेंगे कि आनी चाहिए कि नहीं, वो समझने की कोशिश करेंगे। पर वो ऐसी चीज़ है जिसको (काबू नहीं कर सकते) वो ऐसी सी बात है कि साँस; और अगर वो काबू में आ भी सकती है तो उसका रास्ता बोध से होकर गुज़रता है। उसकी (बोध की) तो हम बात करते ही नहीं न?

हम बोध की नहीं बात करते, हम दमन, रिप्रेशन की बात करते हैं। तो जिन्होंने आपसे कहा कि सेक्स घटिया चीज़ है, उन्होंने आपको ‘सेक्स क्या चीज़ है’ ये तो कभी बताया नहीं। उन्होंने आपको यही नहीं बताया, ‘आप कौन हो, मैं कौन हूँ, हू एम आइ , कोहम्’, इस प्रश्न को ही उन्होंने कभी लिया नहीं। तो ये सेक्स क्या है जो इतना मुझे उत्तेजित और बाधित करता है, इस पर तो कोई चर्चा कभी हुई नहीं — विशेषकर हमारे देश में इस मुद्दे पर चर्चा तो कभी होती नहीं न। चर्चा तो कभी हुई नहीं; बिना चर्चा के, बिना किसी समझ के आपको क्या बोल दिया गया? गंदा!

‘चीज़ गंदी है और इसको दबा दो, और जो ये करेगा वो गिलटी (दोषी) है।’ और जब आपको बताया नहीं गया कि वो चीज़ क्या है, तो वो दबने वाली तो है नहीं, किसी से नहीं दबने वाली। जो दिन में बहुत दबाते हैं, उनको रात में स्वप्नदोष हो जाता है। ये दबने वाली चीज़ नहीं है। और जब नहीं दबेगी तो आपको बोल दिया गया कि जो ये सब करता है वो पापी है, ‘जाकर के रौरव नरक में सड़ेगा।’

एक के बाद एक ये बाबाओं की पीढ़ियाँ आती गई हैं जिन्होंने आपको बोला है कि वीर्य रक्षा ही तो सबकुछ है, ‘वीर्य बचाओ, वीर्य बढ़ाओ! और वीर्य की एक बूँद ज्ञान के अथाह समुंदर पर भारी पड़ती है। और इतना खाओगे, और ये करोगे तब जाकर वीर्य की एक बूँद बनती है।’ और पता नहीं ये ही सब…।

और आपके मन में ब्रह्मचर्य — और ब्रह्मचर्य भी सचमुच क्या होता है ये कोई बताने वाला नहीं, क्योंकि बोध का तो हमसे कोई लेना ही देना नहीं न, अंडरस्टैंडिंग, कि समझाओ! इसका तो हमारी धार्मिकता में कोई स्थान ही नहीं है। हमारी धार्मिकता तो ये है कि बोल दिया, चुपचाप मान लो और जैसा कहा जाए, करो।

समझो, समझाओ, जानो तब मानो — ये तो धर्म में चलता ही नहीं है। तो धर्म ने बिना समझाए आपको बोल दिया है कि ये छी!छी! चीज़ है, छिच्छी! और ये होने मत देना। धर्म ने तो बोल दिया, ‘होने मत देना’, पर वो होकर रहेगी। और जब होकर रहेगी तो आप क्या हो जाओगे? शर्मसार, आप अपराध भाव से भर जाते हो। और जैसे ही अपराध भाव से भरते हो, आपको लग जाता है आप गुनहगार हो, आप लज्जित हो जाते हो।

आप धर्म के ठेकेदार के सामने जाकर झुक जाते हो। आप बोलते हो कि गलती हो गई ये कुछ, मैं आया हूँ अपना अपराध स्वीकार करने, *’आइ वांट टू कनफेस फादर*’ (मैं अपराध कबूल करना चाहता हूँ, फादर।)’ और जैसे ही आप बोलते हो, ‘मैं अपना अपराध स्वीकार करने आया हूँ’, आप छोटे हो गए, वो बड़ा हो गया। वो यही तो चाहता था।

वो आपसे ऐसा काम करवाना चाह रहा है जो आप कर नहीं सकते। और जब आप वो काम कर नहीं सकते तो कह देता है, ‘तुम गुनहगार हो, तुम गलत आदमी हो, आओ, प्रायश्चित करो। बेटा प्रायश्चित करो!’ और प्रायश्चित का मतलब होता है कि तुम कुछ दोगे, अब वो कुछ ले लेगा।

प्रायश्चित यही तो है और क्या — ‘तुमने कुछ गलती करी है न, चलो, अब सेवादान करो, सेवादान। तुम बहुत कामी आदमी हो, चलो, अपने गुनाह साफ़ करने के लिए आकर के यहाँ पर ऐसा काम करो, कुछ भी। और कुछ न करो, कुछ और हमें नहीं दे सकते तो कम-से-कम हमें इज़्ज़त दो क्योंकि तुम गुनहगार हो।’

तो इसलिए धर्म ने सेक्स का शताब्दियों से बड़ा ज़बरदस्त इस्तेमाल करा है। और धर्म और सेक्स का छत्तीस का आँकड़ा चलता रहा है; धर्म बोलता है, ‘सेक्स को दबाओ।’ दबाओ, बिना ये बताए कि तुम कौन हो, प्रकृति क्या है, लिंग क्या है, जेंडर क्या चीज़ होती है, प्रजनन क्या है, ये सब नहीं बताया। कोई समझाने वाला नहीं, बस सीधे बोल दिया, ‘देखो, ये गंदी-गंदी बातें, छिच्छी! उधर नीचे मत देखो, छिच्छी! ऐसे नहीं!’

और छिच्छी! तुम कुछ बोल दो, ‘छिच्छी!’ उससे कुछ होगा नहीं। पागलपन इस हद तक गया है कि सचमुच लोगों ने अपने लिंग कटवाए। बोले, ‘यही तो सारे उत्पाद की जड़ है, इसी से वीर्य नाश होता है। हमारा ब्रह्मचर्य इसी से खराब हुआ जा रहा है, चलो।’

हमें पढ़ने को मिलता है कि सुंदर महिलाओं ने जाकर के गर्म लोहे की सलाखें अपने चेहरे पर गुदवा दीं! बोलीं कि अगर हम सुंदर रहेंगे तो फिर हमें मुक्ति नहीं मिलेगी। महिलाएँ जाकर के अपने स्तन कटवा आईं, बोलीं, ‘यही तो है, हमें मुक्ति में नहीं रख (से) रोक रहा है हमको।’ ये सब हुआ है।

‘अरे! सेक्स ही सबसे गंदी चीज़ है।’

‘अरे, गंदी हो सकती है, पर समझा तो दो क्या चीज़ है?’

जिस चीज़ को ठीक करना हो, पहले उसे जानना पड़ता है। ये (माइक को हाथ पर उठाकर बताते हुए) खराब हो जाए, अब इसमें से आवाज़ नहीं आ रही है। किसी भी तरह की इसमें खराबी आ गई तो सबसे पहले क्या करना पड़ेगा? मुझे पता होना चाहिए ये क्या है, तभी तो इसे सुधारूँगा न। जिस चीज़ को मैं जानता नहीं, क्या मैं उसे सुधार सकता हूँ? आपका पंखा खराब हो गया, आप जानते ही नहीं इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म (विद्युत्चुम्बकत्व) क्या होता है, आप सुधार लोगे उसको?

सेक्स क्या है, ये तो समझा नहीं, क्योंकि वो समझने के लिए आध्यात्मिक होना पड़ेगा। और हमारे धर्म का अध्यात्म से कोई रिश्ता नहीं है। हमारा धर्म बस रीति-रिवाज़ों का एक सिलसिला भर है। लेकिन सब जितने होते हैं पंडे-पुरोहित, मुल्ला-मौलवी, फादर, ये, वो — सेक्स इनके बहुत काम आता है, क्योंकि जैसे ही कोई सेक्स के मामले में गुनहगार हो जाता है, वो तुरंत इनकी शरण में जाता है, ’ओह! आइ एम अ सिनर।’ मैं पापी हूँ, मुझे बचाओ।

‘क्या कर दिया?’

‘वो….!’

अब तुम एक सिनर हो गए तो तुम्हारे सिन (पाप) धोने की फिर वो कीमत भी तो लेगा न। मिल गई उसको कीमत जो वो चाहता था। और सिनर सबको होना पड़ेगा, क्योंकि जिसको भी बोध नहीं है, वो तो सेक्स के मामले में पशु जैसा ही रहेगा, तो सिनर तो रहोगे। और फिर वहाँ जाओ और वो तुमको पकड़ लेंगे और लूटेंगे।

और उन्होंने एक बड़ी मनोवैज्ञानिक युक्ति अपनाई — इतना वर्जित कर दिया सेक्स को कि जो आदमी सेक्स न भी सोच रहा हो, वो भी दिन-रात सेक्स ही सेक्स सोचे। नहीं तो एक बात बताओ, दुनिया में कौनसा आपको जानवर दिखता है जो हर समय सिर्फ़ सेक्स करता हो या सोचता हो? एक प्रजाति है बस ऐसी जो ऊपर से लेकर नीचे तक सेक्सुअल (कामुक) है।

क्या नाम है उस प्रजाति का?

होमो-सेपियंस (मानव जाति)।

कुत्ते को लेकर के कहते हैं कि कुत्ते का जब मौसम आता है हीट (गर्म) का, सिर्फ़ तब वो सेक्सुअली एक्टिव (यौन रूप से सक्रिय) होता है।

कामी कुत्ता तीस दिन, अंतर रहे उदास। कामी नर कुत्ता सदा, छः ऋतु बारह मास।।

~कबीर साहब

उदास माने इनडिफरेंट , उदासीन। चार दिन बस वो सेक्सुअली एक्टिव होता है साल में, बाकी (दिन उदासीन)…। लेकिन इंसान अकेला है जो छः ऋतु बारह मास, बारहों महीने वो सेक्सुअली एक्टिव रहता है। ये काम प्रकृति ने तो नहीं किया होगा, क्योंकि हमें किसी भी जीव में ये देखने को नहीं मिलता कि वो चौबीस घंटे, हफ़्ते के सातों दिन, महीने के तीस दिन, साल के तीन-सौ-पैंसठ दिन सिर्फ़ सेक्स में लगा हुआ है। ये हमें नहीं देखने को मिलता; इंसान लेकिन ऐसा ही है — ये किसने किया? ये रिप्रेशन ने किया।

जिस चीज़ को वर्जित कर दोगे, वो तुम्हारे ऊपर बुरी तरह छा जाएगी। जिस चीज़ को वर्जित कर दोगे, वो ऐसी छाएगी, ऐसी छाएगी कि पगला जाओगे।

मैं कुछ अपने ऑब्जर्वेशंस (अवलोकन) बता रहा हूँ — उससे और इधर-उधर के आप निष्कर्ष मत निकालिएगा, बस जिस संदर्भ में उदाहरण दे रहा हूँ, उससे समझिएगा। मैं जब पहली बार डिस्को-थीक गया — कॉलेज की बात है, डीटीसी (दिल्ली परिवहन निगम) की बसों पर हम चला करते थे। और वहाँ आप दो-तीन बार बस पर चलिए तो आपको देखने को मिल जाएगा अगर आँखें आपकी खुली हैं कि कोई किसी लड़की को धक्का दे रहा है, कोई थोड़ा ज़्यादा दुस्साहसी है तो वो उसकी कमर में चिहुटी काट रहा है, कोई उसके नितंब पर हाथ फेर रहा है। ये सब देखने को मिल जाएगा आपको।

दो ही चार — अब पता नहीं होता है कि नहीं होता, मैं बीस से पच्चीस साल पहले की बात कर रहा हूँ, अठ्ठाईस साल पहले की। तो ये सब देखने को मिल जाता था। लड़कियाँ बहुत भरी बस देखती थीं तो चढ़ती ही नहीं थीं, इंतज़ार कर लेती थीं कि थोड़ा खाली मिलेगा तो चलेंगे, नहीं तो चढ़ेंगे नहीं। वो पता है कि कोई-न-कोई बैठ गई है, वो ऊपर से झाँक रहा है। ये सब लगातार होता रहता था।

मैं भी बस पर पहले कभी चला नहीं था; आइआइटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) आया तो पहली बार ये नौबत आई कि बस पर चलो। छः-सौ-बीस चलती थी, हौजखास से आइआइटी तक आती थी। अब पता नहीं क्या है वो सब! तो ये सब देखा कि ये चल रहा है।

तो फिर उन्हीं दिनों में बात आगे बढ़ी, डिस्को-थीक गया। मेरे साथ भी लड़की थी, पहली बार गया था। और वो जिस वेशभूषा में मुझसे आमतौर पर मिलती थी, जिस दिन हमें जाना था रात में, उस दिन वो सज-भजकर आई थी। अच्छी बात! अब मैंने बस में ये देखा था कि वो पूरा ऊपर से लेकर नीचे तक सलवार में भी रहती है तो भी उसको छेड़ते रहते हैं, चिकोटी काटेंगे, कुछ करेंगे। और वो आ गई थी शार्ट स्कर्ट में, और ऊपर से भी खुला था। मैंने कहा, ये… खैर! मैंने कहा, ‘परेशान करेंगे तुमको।’

डिस्को-थीक गए। वहाँ देख रहे हैं, वहाँ ये जैसी आई थी, वहाँ सारी लड़कियाँ ऐसी थीं और कोई किसीको न ताका-झाँकी कर रहा, न कुछ कर रहा है, सब मगन हैं! किसी को फ़र्क नहीं पड़ रहा! फिर मेरे दिमाग में कौंधा, मैंने कहा, ‘अंतर ये है कि बस में वो करना वर्जित है इसलिए कर रहे हैं।’

और वो लोग समाज के जिस तबके से आते हैं, उस तबके में ये सब वर्जित है कि लड़कियों से बात करना, लड़कियों से सीधे-सादे स्वस्थ, सहज संबंध रखना, ये सब वर्जित है। तो इसलिए इनको जहाँ भी लड़की मिलती है, ये उसको चिकोटी काटना शुरू कर देते हैं, हाथ फेरना शुरू कर देते हैं।

अब यहाँ डिस्को-थीक में ये हैं, ये इन्होंने कपड़े भी कम पहन रखे हैं तब भी इन्हें कोई नहीं छेड़ रहा, क्योंकि यहाँ वर्जना नहीं है। ये भी हो सकता है कि कोई आए और उसको ये बोल सकता है कि आ जाओ, फ्लोर (नाचने का स्थान) पर। ठीक है, दस मिनट नाचेगा, वो अपना (चला जाएगा।) और ये भी था वहाँ डिस्को-थीक में कि वहाँ पर बहुत लोगों ने वहाँ विस्की है, जिन है, वोडका है, ले भी रखी थी, उसके बाद भी कोई छेड़ा-छाड़ी नहीं कर रहा था।

आप जितना किसी बच्चे के, जवान आदमी के दिमाग में ये डाल दोगे न — ‘वीर्य-वीर्य-वीर्य, ब्रह्मचर्य’, वो उतना ज़्यादा हिंसक पशु बन जाएगा।

समझ में आ रही है बात ये?

आप चले जाइए विदेशों में, वहाँ बीचेस (समुद्र तटों) पर चले जाइए। वहाँ आपको क्या किसीको कोई छेड़ता दिखाई दे रहा है? और वहाँ तो नर-नारी, सब एकदम कम कपड़ों में हैं, कोई किसीको छेड़ रहा है क्या? छेड़ रहा है?

न्यूड (नग्न) बीचेस भी होते हैं, वहाँ लोग पड़े हुए हैं बिना कपड़ों के। ये नहीं कि उनको कोई फेटिश (कामोत्तेजक) है; भाई, वहाँ धूप कम आती है। तो जब आती है तो वो धूप सोखना चाहते हैं, इसलिए वहाँ पड़े हुए हैं। उनको कोई ये नहीं है कि वो किसी बीमारी का शिकार हैं, इसलिए नंगे हैं। और वो हर समय कपड़े डाले रहते हैं, तो उनको जब मौका मिलता है तो कपड़े उतारना चाहते हैं। उसमें एक सहज आनंद है, हर समय कपड़े थोड़ी डाटे रहोगे! तो वहाँ पड़े, कौन किसी को छेड़ने आ रहा है।

विदेशों की छोड़ दीजिए, आप गोवा भी चले जाइए। तो वहाँ अगर आपको घूरा-घूरी करते दिख जाएँगे, तो वही लोग दिखेंगे जो बीच (समुद्र तट) पर भी फॉर्मल्स (औपचारिक) पहनकर घूम रहे हैं — हमारे उत्तर भारतीय। वो कुर्ता-पजामा डालकर बीच पर — मुझे कुर्ते-पजामे से कोई समस्या नहीं, मैंने खूब पहना है, अभी भी पहनता हूँ। मैं जो समझाना चाह रहा हूँ, वो समझिए।

ये होते हैं जो बिकनी वाली लड़कियों को खूब घूर रहे होते हैं, क्योंकि ये जिस समाज से आए हैं, वहाँ वर्जनाएँ बहुत हैं। तो ये घूरा-घूरी करेंगे। कोई बड़ी बात नहीं कि आगे छेड़ाछाड़ी भी करें। वही छेड़ाछाड़ी बलात्कार बन जाए, क्या पता!

हम विचार कर रहे हैं कि ऐसा क्यों है कि मनुष्य ही इतना कामी है। प्रकृति में कोई जीव इतना कामी नहीं है जितना मनुष्य है। इसलिए क्योंकि कोई जीव उतनी वर्जनाओं में नहीं जीता जितना मनुष्य जीता है।

हमने देह को, आदमी की देह को कुछ ऐसा रहस्यमयी जादू बना दिया है कि जैसे उसमें पता नहीं क्या हो। तभी तो सब कुँवारे मरे रहते हैं कि शादी करवा दो, शादी करवा दो — विशेषकर वो जिनको शादी से पहले कोई लड़की कभी दिखी नहीं होती है। वो सबसे ज़्यादा आतुर रहते हैं, ‘शादी करवा दो!’ उनको लगता है न जाने उसके कपड़ो के नीचे कौन-सा जादू का पिटारा है।

और फिर जब कपड़े उतरते हैं तो पता चल जाता है, कुछ नहीं है, हाड़ है, माँस है, हड्डी है। चार दिन में आकर्षण उतर जाता है, फिर सिर धुनते हैं। कहते हैं, ‘इसके लिए पगला रहे थे हम। यहाँ तो कुछ था ही नहीं।’

जिस चीज़ को इतना ढाका-ढाकी में कर दोगे, वो चीज़ आकर्षक तो बन ही जाएगी न? कि नहीं बनेगी?

आप एक प्रथा चला दो कि कान ढककर रखने होते हैं, और फिर देखो कि इअर पोर्न (इअर पॉर्न: कानों का अश्लील प्रदर्शन) चलने लगती है कि नहीं। उसमें सिर्फ़ लड़कियों के कान दिखाए जा रहे होंगे और लड़के बिलकुल पागल हो रहे होंगे, ‘क्या कान हैं! क्या इअर ड्रम हैं! कॉकलिया! कॉकलिया!’ (श्रोतागण हँसते हुए।)

नहीं तो सही बात तो ये है कि माँस तो माँस है, उसमें क्या विशेष है! माँस है भाई, माँस है, चर्बी है, खाल है, कोई क्यों पगलाएगा! पर इतना ढाका-ढाकी करोगे तो पगलाएगा।

मैं नहीं कह रहा कि सब नंगे होकर घूमें, क्योंकि कोई-न-कोई हुनरमंद ये क्लिप निकालेगा और जा करके कहेगा कि ये देखो, ये आचार्य बनकर के हमारा पूरा धर्म, सभ्यता, देश, राष्ट्र, सभ्यता, संस्कृति, सब दूषित कर रहा है। ऐसे ही तो निकालते हैं! कुछ उसमें एडिट (संपादन करना) करेगा, कुछ और डालेगा, कुछ करेगा। कहेगा, ‘ये देखो, ये तो खुद ही जाकर इधर-उधर नाचा करता है, तभी बता रहा है कि वहाँ पर मैं गया था तो मैंने वहाँ देखा कि लड़कियाँ नाच रही थीं।’ अब वो इधर-की-उधर जोड़-जाड़कर एक बढ़िया बनाकर प्रस्तुत कर देगा, लो खाओ।

तो मैं जितना बोल रहा हूँ, मैं उतना ही बोल रहा हूँ, उसके आगे अनुमान और निष्कर्ष मत करो। और जो कहना चाह रहा हूँ, वो समझने का प्रयास करो, कल्पना के घोड़े मत दौड़ाओ।

क्या रखा है! वो सामने खड़ी है, क्या रखा है? क्यों परेशान हो रहे हो इतना कि क्या बोलने गए थे ऐसा जो बोला नहीं गया तो गीता बोलकर आ गए? (सभी श्रोतागण हँसते हुए)

क्या विशेष है?

सेक्स इसी भावना के आधार पर पलता है कि उधर कुछ विशेष है।

‘कुछ विशेष नहीं है मेरी जान! कुछ नहीं है।’

पर वही है न, संयम धारण करे-करे बारह साल के हुए नहीं कि लड़के को, लड़की को अलग कर दिया। तो ये भाव आ ही जाता है कि उधर ज़रूर कुछ विशेष होगा। लड़के ढूँढने हों, छोटे शहरों में, कस्बों में, तो ऑल गर्ल्स स्कूल (कन्या शाला) के सामने चले जाना। वहाँ जैसे बर्रैया मंडरा रही हों, वैसे ढूँढ रहे। वो अपनी क्लास में नहीं मिलेंगे, वो अपने स्कूल में नहीं मिलेंगे। वो अटेंडेस (उपस्थिति) कहाँ जाकर लगाता है? वो गर्ल्स स्कूल में अटेंडेंस लगाकर आता है।

तुमने क्यों बनाया ये ऑल बॉयज , ऑल गर्ल्स स्कूल? तुक क्या है? तर्क क्या है?

प्रश्नकर्ता: डिस्ट्रेक्शन (व्याकुलता)।

आचार्य प्रशांत: डिस्ट्रेक्शन पैदा करने के लिए?

प्रश्नकर्ता: होती है। (सभी श्रोतागण हँसते हुए)

आचार्य प्रशांत: दो जीव हैं, आपस में उनको हँसने खेलने दो, बात करने दो, और सही शिक्षा दो जिसमें उन्हें समझ में आए कि चेतना का कितना महत्व है, देह का कितना महत्व है। उनको आज़ादी दो कि वो एक-दूसरे से ऊँचे मुद्दों पर बात कर सकें। और वो ऊँचे मुद्दों पर बात कर सकें इसके लिए उन्हें शिक्षा दो; दमन मत करो, शिक्षित करो।

लड़का-लड़की अगर साथ बैठकर गणित का सवाल हल कर रहे हों, कोई समस्या है? जीवन के प्रश्नों पर विचार कर रहे हों, कोई समस्या है? सेक्स पर भी अगर वो विचार कर रहे हैं, कोई समस्या है? कोई विचार नहीं कर रहे, सीधे-सहज हँस-बोल रहे हैं, तो भी कोई समस्या है? तो क्यों पगलाए जा रहे हो कि हाय-हाय! लड़की। और ढके दे रहे हो उसको, खुद भी ढके जा रहे हो!

मैं फिर — मैं नग्नता का समर्थक नहीं भाई, मुझे कुछ नहीं मिलना! पता नहीं क्या निकालने वाले हैं!

ये स्थिति अच्छी है क्या — आप इतने बड़े हो गए हो, इतने साल के हो गए हो, और अभी भी आप जाते हो, एक मनुष्य ही है, आपकी प्रजाति, आपकी स्पीशीज का एक मनुष्य ही है। उसका जेंडर (लिंग) फीमेल (महिला) है। और आप उसके सामने खड़े हो जाते हो, आपकी ज़बान काँप रही है, क्योंकि आपको लग रहा है (कि) आप जो बोलने जा रहे हो, वो पाप है, वो अवैध है, वो अधर्म है। तो आपने धर्म कर दिया, गीता बोल आए!

ऐसे में गीता बोलना गीता का भी अपमान है। जहाँ उससे बात करने जा रहे हो कि हाँ भई, शाम को कॉफी पिएँ, वहाँ उसको बोल रहे हो, “यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।”(सभी श्रोतागण हँसते हुए।) ये अपमान है गीता का, और ये भी खूब हुआ है।

हऊवा मत बनाओ, समझाओ।

प्रकृति चाहती है देह आगे बढ़ती रहे। और इसलिए वो आपमें एक इच्छा पैदा करती है एक विपरीत देह की ओर जाने से जहाँ समागम करके आप संतान पैदा करोगे। ये प्रकृति की इच्छा है — डीएनए आगे भागता रहे, भागता रहे, भागता रहे, बस ये बात है। और वो हो इसके लिए आपके ब्रेन (मस्तिष्क) को कंडीशन (अवस्थित) किया गया है कि आप दूसरे की ओर आकर्षित हो जाओ। इतनी सी बात है, और कुछ नहीं है, यही है।

आप लड़की की ओर आकर्षित हो रहे हो, इसलिए नहीं कि उसमें आपका कुछ हित है, इसलिए क्योंकि प्रकृति चाहती है कि आपका डीएनए आगे भग जाए। बस ये है, और कुछ नहीं। और ये बात अगर तरह-तरह के उदाहरणों से और बार-बार बच्चों को, जवानों को समझा दी जाएगी तो फिर वो सेक्स को लेकर क्यों पागलपन करेंगे?

और पूरी मानवता ने इस पागलपन का बड़ा दुष्परिणाम झेला है। सेक्स जब बहुत बड़ी बात हो जाती है न, तो तुम चाहते हो कि वो लगातार मिलता रहे। वो लगातार मिलता रहे, तो इसके लिए तुम दूसरे को बंधक बनाते हो। ज़्यादातर जो लोग जोड़ेबाज़ी करते हैं, उसमें उद्देश्य बस ये होता है कि एक अनइंटरप्टेड एश्योर्ड सप्लाई ऑफ़ सेक्स (बिना बाधित, आश्वाशित यौन की आपूर्ति) मिलती रहे।

अब मुक्ति मिलेगी? अब प्रगति होगी? अब चेतना ऊपर बढ़ेगी?

वो एक इंसान है। और आप जो हो न, आप उसकी देह में होते तो आप भी वही सबकुछ कर रहे होते जो वो कर रहा है। ये बस ऐसी सी बात है कि आपको कपड़े दूसरे दे दिए गए हैं, उसको कपड़े दूसरे दे दिए गए हैं, दोनों इंसान हो। और उसके कपड़े आप पहन लो तो आपका, मैं कह रहा हूँ, व्यवहार बिलकुल वैसा ही होगा जैसा उसका होता है। उसमें आपसे मूलभूत रूप से कुछ भी अलग नहीं है।

खुद के प्रति बहुत आकर्षित हो जाते हो क्या? खुद को डेट पर ले जाओ! आइने के सामने बैठकर के ऐसे चियर्स (प्रोत्साहित करना) करो, कॉफ़ी पिओ, जो भी कर रहे हो। जब खुद के प्रति नहीं तुम दीवाने हो जाते, तो सामने वाली लड़की में क्या रखा है कि पगलाए जा रहे हो? वो तुम ही हो दूसरे कपड़ों में, ये देह लिबास है। उसकी चेतना बिल्कुल तुम्हारी ही चेतना जैसी है।

और कपड़ों के भीतर भी जो है न, वो बहुत आकर्षक नहीं होता। कपड़ों के भीतर जो है वो बहुत आकर्षक होता तो सारी लड़कियाँ अपने ही आकर्षण में पागल हो गई होतीं न। तुम जो कपड़ों के पीछे देखने के लिए पगलाए रहते हो, वो तो रोज़ देखती हैं! उसी का अंग-प्रत्यंग है, वो तो रोज़ देख रही है। अगर उसमें सचमुच कुछ विशेष होता तो वो अपनी ही दीवानी हो गई होती। (श्रोतागण हँसते हुए)

वैसे ही तुम जो चीज़ें लेकर घूम रहे हो, तुमको पता है न वो किस गत की हैं? जब किसी को गाली देनी होती है तो उनका नाम लेते हो। ठीक? लेकिन महिलाएँ पागल रहती हैं, उनको लगता है पता नहीं क्या है! वो एक गाली है! किसी पुरुष से जाकर पूछो, वो कहेगा, ‘ये! तुम इसके पीछे दीवानी हो रही हो? ये दो कौड़ी की घटिया चीज़! छू भी दो तो हाथ साफ़ करना पड़ता है।’

यही है न? करते हो न हाथ साफ़? (श्रोतागण हँसते हुए)

और सोचो! जिस चीज़ को छूकर तुम हाथ साफ़ करते हो, कोई उसके पीछे एकदम ऐसा हो रहा है (आचार्य जी नाचने का इशारा करते हुए)… ‘एक बार मिल जाए बस!’ (श्रोतागण हँसते हुए)।

आदमी को पागल बनाए रखने का बहुत बढ़िया तरीका है ये — सेक्स। उसे इसी के नशे में डाले रहो, वो ज़िंदगी में कोई ऊँचा काम करेगा ही नहीं। आदमी को सेक्स के नशे में डाले रहो, क्यों वो कोई ऊँचा काम करेगा? उसको तो मिल गया न मकसद, ‘ये रहा मेरा ताजमहल!’ तुम उसकी कुतुब मीनार हो, वो तुम्हारा ताजमहल है। अब काहे के लिए ज़िंदगी में कुछ और करना है?

और जो बेहोश हो गया, उसको आसानी से लूटा जा सकता है — बाज़ार तुमको लूटेगी, सत्ता तुमको लूटेगी, ये नकली धर्म वाले तुमको लूटेंगे, नेता लोग तुमको लूटेंगे, पूरी दुनिया तुमको लूटेगी सेक्स का नशा तुमको खिलाकर।

देखते नहीं हो तुम्हें लूटने के लिए कुछ भी करना पड़ता है, तुम्हें सेक्स दिखा दिया जाता है? कोई घटिया सा नया टीन का डब्बा आ गया होगा कि नया मॉडल (नमूना) है हमारी कार का; जाना ऑटो-एक्सपो (वाहन प्रदर्शनी) में, उसके बगल में एक अर्धनग्न सुंदरी खड़ी कर दी जाती है — काहे की सुंदरी, पर जो भी है!

उसका क्या मतलब है वहाँ पर? लॉन्जरी (अंतर वस्त्र) बिक रही है? ये जो पहनकर खड़ी है, क्या ये उसकी बिक्री की जगह है? ये क्या है? ऑटो-एक्सपो। तो यहाँ ये देवी जी क्या कर रही हैं?

सेक्स दिखा-दिखाकर तुम्हें कुछ भी बेच दिया जाता है। नशा, व्यर्थ का नशा! जिसमें कुछ मिलना भी नहीं है।

आप तो कलप रहे हो मिला नहीं, जिन्हें मिला है — ऐसे भी होंगे यहाँ पर सूरमा — उनसे पूछना, ‘उन्हें क्या मिला है?’ उन्हें कुछ मिल गया होता तो यहाँ बैठे होते! लेकिन ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है। ज़िंदगी की बर्बादी का एक बड़ा आकर्षक, जादुई, तिलिस्मी, चार्मिंग (आकर्षित) तरीका मिल जाता है, जस्ट चार्म्ड (बस मंत्रमुग्ध)! क्या हुआ? पूरा जीवन एक चार्म (आकर्षण) में, एक स्पेल (अवधि) में बिता दिया, एक खूबसूरत धोखा!

कर लो शायरी, खूबसूरत धोखा! ज़िंदगी एक ही है, कर लो बर्बाद!

सेक्स न अच्छा है, न बुरा है, सेक्स सिर्फ़ सेक्स है बाबा! इतनी बड़ी वो चीज़ नहीं है जितना बड़ा हम उसको बना देते हैं। पर जो सेक्स न करे, हम कितना सम्मान दे देते हैं उसको — ‘ये आ रहे हैं, इन्होंने अठारह-सौ-साल से सेक्स नहीं किया!’ (व्यंग करते हुए।)

उसकी यही क्वालिफिकेशन (योग्यता) है कि उसने कभी सेक्स नहीं किया! तो ये तो वही बात है कि किसी ने कभी पादा नहीं, ये भी क्वालिफिकेशन है! (सभी श्रोतागण हँसते हुए।)

नहीं? क्यों नहीं है?

‘कि ये वाले बाबा जी हैं, जानते हो इनको? निर्पाद बाबा!’

(सभी श्रोतागण बहुत ज़ोर से हँसते हुए)

इतनी बड़ी बात बना दिया सेक्स को कि जो सेक्स न करे वो सम्माननीय हो गया। और इतनी बड़ी बात बना दिया है सेक्स को कि जो खूब सेक्स करे, उससे ईर्ष्या हो जाती है कि भाई, ही इज़ गेटिंग लॉट ऑफ़ इट (यह बहुत ज़्यादा पा रहा है)।’

जिसने नहीं किया, उसने भी कोई बड़ी बात नहीं कर दी। और जिसने खूब कर लिया, उसको भी कुछ बड़ी चीज़ मिल नहीं गई, क्योंकि सेक्स अपनेआप में ही एक बहुत छोटी प्राकृतिक चीज़ है। उसको उसका सम्यक स्थान दो — न वो बड़ी है, न महत्वपूर्ण है, न उसको बहुत करना है, न उसको वर्जित करना है। वर्जित करके भी कुछ नहीं पाओगे और बहुत करके भी कुछ नहीं पाओगे।

अब क्या इरादा है? (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)

जो भी करना, गीता मत लाना इसमें बीच में! वो लड़की बाद में है, इंसान पहले है। इंसान को इंसान की तरह देखना सीखो, इंसान से इंसान की तरह बात करो।

ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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