पृथ्वी नहीं खत्म हो रही, इंसान खत्म होगा

Acharya Prashant

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पृथ्वी नहीं खत्म हो रही, इंसान खत्म होगा

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं कसौली हिमाचल प्रदेश का रहने वाला हूँ, शिमला के पास में ही है बिलकुल। यहाँ पर पिछले कुछ सालों में टूरिज्म बहुत बढ़ गया है। और उससे जॉब्स तो क्रिएट हो रही हैं, परकैपिटा इन्कम भी बढ़ रही है। बल्कि रीसेंटली मैंने एक स्टडी पढ़ी थी जिसमे जो ये डिस्ट्रिक है सोलन डिस्ट्रिक, ये सेकेंड नम्बर पर आती है नॉर्थ इंडिया में, इन टर्म्स ऑफ़ परकैपिटा इन्कम, आफ्टर गुडगाँव। तो इससे एम्प्लॉयमेंट जनरेट हो रही है, इकॉनमिक बेनिफिट्स हैं। लेकिन इसके बहुत सारे डाउन-साइड्स भी क्रिएट हो रहे हैं हम लोगों के लिए, लोकल लोगों के लिए। जैसे कि बहुत से नए होटल्स बन रहे हैं। होम-स्टेज़ खुल गये हैं।

टूरिस्ट जो है वो मोस्टली पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से आता है। वो यहाँ पर आते है जैसे शराब पीने, नशे करने और शोर मचाने, पार्टीज करने। अब होटल्स वगैरह क्या कर रहे हैं इनको आकर्षित करने के लिए वो म्यूज़िक बजाते हैं। बहुत लाउड म्यूज़िक बजाते हैं जो मतलब परमिसिबल लिमिट्स हैं जो गवर्नमेंट ने सेट करी हैं उनका उनको कोई भी ध्यान नहीं है। डेस्टिनेशन वेडिंगस और ये ऑफसाइट पार्टीज, इन चीज़ों के लिए भी ये जो इलाका है ये काफ़ी मशहूर हो गया है। और इस इलाके का पर्यावरण की दृष्टि से, पोलूशन की दृष्टि से, टेम्प्रेचर वगैरह भी बहुत अच्छे रहते हैं साल भर।

हम मतलब पुलिस में कम्पलेंट्स करते हैं, कभी सीएम हेल्पलाइन्स पर कम्पलेंट करते हैं तो इन पर हम भी दबाव डालने की कोशिश करते हैं लेकिन मोस्ट फैमिलीज़ के बच्चे भी अब इनके पास एम्प्लॉयड हैं तो वो भी अब मतलब हमारे साथ जुड़ना नहीं चाहते। अगर हम इनके अगेंस्ट कुछ एक्शन करना चाहें तो हम जनसमर्थन भी इतनी आसानी से जुटा नहीं पाते हैं। तो मतलब हम जो लोकल जब सफ़र कर रहे हैं उससे लड़ने के लिए अब हम मतलब कैसे? थोड़ा मार्गदर्शन करें कैसे हम इसको….?

आचार्य प्रशांत: देखो, जो इसमें एक्टिविज़्म वाले जवाब हैं, वो जितना मैं जानता हूँ उतना ही आप भी जानते हैं। वो जवाब मैं दे सकता हूँ सब। मैं कह सकता हूँ कि लोकल मीडिया में इन मुद्दों को उठाइए। मैं ये कह सकता हूँ, ‘आपके जो जन प्रतिनिधि हैं, एमपी, एमएलए हैं, इनसे मिलने जाइए।‘ पर शायद आपने ये सबकुछ थोड़ा बहुत करके देखा ही हुआ है तो इन बातों की जो सीमा है वो आप समझते हैं।

एक ही बात में आपने सब कुछ निपटा दिया कि जो लोग ये कर रहे हैं, ध्वनि प्रदूषण; उनके यहाँ इतने सारे स्थानीय लोग ही नौकरी करते हैं कि किसी भी घर से समर्थन लेना मुश्किल बात है, उस घर का कोई-न-कोई सदस्य किसी-न-किसी तरीके से ये होटल और टूरिज़्म इंडसट्री से जुड़ा हुआ होगा। तो उस घर के बाकी लोग कैसे इस बात को समर्थन दे देंगे कि ये पॉल्यूशन रोक दो?

जिसको हम स्थानीय मुद्दा कह रहे हैं वो स्थानीय है नहीं न। ये उत्तर उबाऊ लग सकता है, कुछ लोगों को इस उत्तर में कुछ लाचारगी भी दिखाई दे सकती है पर मेरे देखे इसके अलावा कोई उत्तर है नहीं।

एक जनवरी, नहीं, इकत्तीस दिसम्बर की रात की बात है दो-हज़ार-इक्कीस। हम ऋषिकेश में थे और अंग्रेज़ी में सत्र था उपनिषद पर ही। मुंडक उपनिषद पर था शायद। इकत्तीस-दिसम्बर की रात को। और वो कोविड का समय चल रहा था। तो पहली बात तो आप बड़ी पार्टी कर नहीं सकते। दूसरी बात पहाड़ी इलाका है तो आप रात में ग्यारह बजे के बाद इतनी ज़ोर से संगीत बजा नहीं सकते। सत्र हमारे शुरू होते हैं दस, साढ़े-दस तक। हमने ग्यारह तक इन्तज़ार करा। ग्यारह बजे भी पास में बढ़िया अच्छी, कम-से-कम सौ जनों की चल रही है पार्टी। वही न्यू ईयर के नाम पर। पहली बात तो पार्टी नहीं होनी चाहिए क्योंकि कोविड रिस्ट्रिक्शन्स हैं अभी। दूसरी बात, अब ग्यारह बज चुका है, आप इतना ऊँचा म्यूजिक कैसे लगा रहे हो? जो कुछ कर सकते थे करा।

पुलिस को भी इस में सूचना दी। पर जो पार्टी कर रहे हैं वो खुद ही होटल इंडसट्री के थे। उन्होंने वहाँ पर एक गेस्ट हाउस जैसा कुछ बना रखा था और पहले से उन्होंने सबको निमन्त्रण ही भेज रखे थे कि इधर जितने लोग हैं, आ जाइये। इकत्तीस को मिडनाइट बैश होगा।

पुलिस ने भी कहा कि भाई, ये तो उत्सव की बात है, हम इसमें क्या कर सकते हैं? मेरा तो फिर उसको जो उत्तर था वो यही था कि मैंने अपना काम और सघन कर दिया। जितनी बार दिखाई देता है कि हालत बुरी है और बुरी हालत का हमारे ही काम पर आघात होता है; मेरे पास एक ही जवाब होता है कि मैं अपनी मेहनत बढ़ा देता हूँ।

क्या करा जाए वहाँ पर? और ऐसा नहीं कि वहाँ हम जानते नहीं है। वहाँ पर प्रशासन में लोगों को भी जानते हैं। स्थानीय स्तर पर भी हमें जान-पहचान है थोड़ी। लेकिन कुछ नहीं, किसी महत्व का नहीं। खासकर पहाड़ी इलाकों में पर्यटन से सम्बन्धित किसी मुद्दे पर छेड़खानी करी ही नहीं जा सकती, क्योंकि सबकी रोज़ी-रोटी पर्यटन से आती है। मैंने तो वही करा जो कर सकता हूँ, मैंने मेहनत बढ़ा दी। लोगों तक बात पहुँचे, वो बात बढ़ा दी।

अब उसका असर सिर्फ़ ऋषिकेश पर नहीं होगा, उसका असर आपके शहर पर भी होगा, जो मेहनत हमने बढ़ायी है। भले ही उसके कारण में ऋषिकेश की एक घटना हो एक दिन की, लेकिन उसका जो प्रभाव है, जो उसका हीलिंग इफेक्ट है, वो पूरे देश को बल्कि पूरी पृथ्वी तक पहुँचेगा।

हाँ, बहुत अभी कम सामर्थ्य में पहुँचेगा। और जैसे-जैसे मिशन और ताकतवर होता जाएगा वैसे-वैसे सब जगहों पर उसका असर और प्रगाढ़ होता जाएगा। नहीं तो आप अपने स्तर पर, लोकल लेवल पर आप धरना, प्रदर्शन मोर्चा आदि कर सकते हैं। मैंने देखा है कि इनसे कोई विशेष लाभ होता नहीं है। अब ऋषिकेश में ही, ऋषिकेश में ही, जैसे वहाँ पर माँसाहार निषेध है। आप होटलों में नहीं कर सकते। पर वहाँ सरेआम चलता है। बाकायदा मेन्यूकार्ड छपे हुए हैं जिसमें…..। और उनसे पूछो कि ये क्यों कर रखा है?’ क्या विदेशियों के लिए? विदेशी लोग आते हैं।‘

बोले, ‘नहीं, विदेशी जो आते हैं वो तो बल्कि शुद्ध शाकाहारी होते हैं। ये जितने दिल्ली वाले आते हैं ये आते ही बोलते हैं कि हमें बटर चिकन चाहिए। ये यहाँ आते ही इसीलिए है कि इनको बियर पीनी है और चिकन खाना है, और पार्टी करनी है। और इन्हीं से हमें पैसे मिलते हैं। ये जो पूरी सड़कें चौड़ी कराई गयी हैं, इसलिए तो कराई गयी है दिल्ली, गुड़गाँव, चंडीगढ़ वाले सब और तेज़ी के साथ इन जगहों पर आयें और चिकन ही क्यों मटन, पोर्क, बीफ सब चले।‘

तो ये तो बहुत गहरी बीमारी के लक्षण हैं। उसका सतही उपचार ये है कि मैं आपको कोई मलहम दे दूँ कि ऐसे लगा लीजिए। मलहम से कुछ काम हो सकता हो तो लगा लीजिए मलहम भी, मुझे कोई समस्या नहीं। मैं बीमारी की जड़ खत्म करना चाहता हूँ तो मैं कर रहा हूँ प्रयास। और ऐसी बहुत सारी घटनाएँ हो चुकी हैं। हर घटना बस यही बताती है कि बहुत कठिन है डगर पनघट की।

क्यों कोई कहेगा कि आप शान्ति की जगह पर बिलकुल ही रद्दी, घटिया किस्म का पॉप लगा रहे हो, ये नहीं होना चाहिए। क्यों कहेगा? उसको चाहिए ही वही है।

मैं वहाँ थोड़ा आगे जाकर के ब्रह्मपुरी की तरफ़, ऊपर जाकर के जो माया किताब है, उसकी एडिटिंग किया करता था। पूरे एक महीने वहाँ में इसीलिए था कि वहाँ बैठ जाऊँ…..। मैं शहर की भीड़-भाड़ से तो दूर आ गया, पर मैं वहाँ बैठा करता था गंगा किनारे, वहाँ एक के बाद एक वो सब निकल रहे हैं राफ्टिंग वाले। और वो राफ्टिंग में हैं और वो इतना ज़्यादा भद्दा शोर मचाते थे। आप बैठे हो, बैठे हो, अचानक यहाँ सामने से एक के बाद एक राफ्ट निकल रहे हैं और वो सब जितने भी सबसे अश्लील गाने हो सकते हैं, ये गंगा के साथ हो रहा है, ये ऋषिकेश के साथ हो रहा है। लेकिन राफ्टिंग कैसे रोक दी जाये? वहाँ लोग कहेंगे इसी राफ्टिंग से हमारी रोज़ी-रोटी चलती है। इसके लिए गंगा को बेचना पड़े, कोई बात नहीं। इसके लिए शान्ति को बेचना पड़े, कोई बात नहीं। इसके लिए हिमालय को बेचना पड़े, कोई बात नहीं।

यहाँ से जब से वो राफ्टिंग के लिए जाते हैं, उनके लिए तो राफ्टिंग का मतलब ही यही होता है जितना फूहड़ शोर मचा सको राफ्टिंग में, मचाओ। आप कर लीजिए न कल्पना वहाँ गंगा के तट पर मैं बैठा हूँ माया किताब लेकर के और माया वहाँ मेरे सामने।

“तीरथ में भई पानी”

और वैसा शोर वो शायद और कहीं मचा भी नहीं सकते। कितनी विचित्र बात है? जो शोर आप शहरों में भी नहीं मचा सकते वो शोर आपको तीर्थ में मचाने की अनुमति, लाइसेंस मिल जाता है? जितनी फूहड़ता से ये लोग गंगा में राफ्टिंग करते हुए चिल्लाते हैं इतनी फूहड़ता से तो अपनी सोसाइटी में, अपार्टमेंट में, गली-मोहल्ले, बाज़ार में भी नहीं चिल्ला सकते, पुलिस आ जाएगी। पर गंगा में इनको अनुमति मिल गयी है, एकदम ही, जिसे कहते हैं कानून से खून निकल आये, उस किस्म का शोर मचाने की।

उसमें गाली-गलौच तक शामिल है, जो शोर मचाते हैं। गाली-गलौच अपने घर में कर लो, निजी बात है, अपने दोस्त-यारों के साथ कर लो; सार्वजनिक जगह पर, वो भी धार्मिक महत्व की जगह पर क्यों कर रहे हो? ऐसों को गाली तुम्हारी क्यों सुननी पड़े जो तुम्हारी गालियों में किसी भी तरह शामिल नहीं हैं? आपको एक आदमी को गाली देनी है, उसको दे दीजिए। निजी रूप से दीजिए। आप गाली दे रहे हैं उसने गाली सुनी। आप गंगा में बैठ करके गालियों का शोर मचा रहे हो। सौ ऐसे लोग भी सुनें जिनका तुम्हारी गालियों से कोई लेना देना नहीं, क्यों?

लगभग एक तरह की अगर साइकोएनालिसिस की दृष्टि से देखा जाए तो एक तरह की सेक्सुअल एक्टिविटी होती है। कहते हैं हम, ‘गंगा माँ।‘ और वहाँ जो चल रहा है अगर उसको फ्रायड आदि देखते तो कहते हैं कि इसमें वासना दिखाई दे रही है।‘ क्योंकि जितने गाने होते है वो सब वासना वाले ही होते हैं। वो चला रहे हैं, बिलकुल मुझे गाना याद है। उसकी रिकॉर्डिंग हुई थी मैंने भेजी – ‘नीले-नीले अम्बर पर चाँद जब आये, हमको तरसाये, प्यार बरसाये।‘

ये तुमको वहाँ पर क्यों याद आ रहा है? क्योंकि जो तुम कर रहे हो, तुम्हारे देखे वो कोई फ़िल्मी दृश्य है। जिसमें कोई भीगे कपड़ों वाली युवती तुम्हारे साथ होती तो तुम्हें क्या आनन्द आता। तुम वही सब दृश्य अपनी कल्पनाओं में निर्मित कर रहे हो। नहीं, तो वहाँ पर तुम ये सब क्यों गाओगे? और ये तो फिर भी बहुत एक शिष्ट गाना मैंने बोला; जितने फूहड़ उस समय के टॉप पॉप, रैप चल रहे होंगे, सब, वो सब राफ्टिंग में ही चल रहा होता है।

क्या करें इस पर? कैसे करें? वहाँ की विधानसभा के जो तत्कालीन अध्यक्ष थे, मैंने उनको भी बोला था। मैंने कहा, ‘ये क्या है?’ उन्होंने तुरन्त हथियार डाल दिये। बोले, ‘नहीं, नहीं, इससे तो यहाँ पर। हाँ हम देखेंगे, कुछ कहेंगे; पर ये तो हमारा रिवैन्यू अर्नर है।‘

तभी हो सकता है जब चेतना में ही एक परिवर्तन आये। सब में न आए तो कम-से-कम दस-बीस प्रतिशत में आये। कि उस राफ्ट में अगर आठ बैठे हों तो कम से कम दो ऐसे हों जो बाकी छह को चुप करा दें, तो भी काम बन जाएगा। पर अभी तो आठ-के-आठ सब एक जैसे ही हैं। कोई साँपनाथ, कोई नागनाथ। आठ में से एक या दो भी ढ़ंग के हों तो वो बाकियों को चुप करा सकते हैं। तो वही कोशिश है कि कम से कम दस-बीस प्रतिशत आबादी को थोड़ा होश दिलाया जा सके। और फिर ये दस-बीस प्रतिशत आगे जाकर सामाजिक परिवर्तन लाएँगे।

पहाड़ों की निर्मलता पर हमारी वासनाएँ और ज़्यादा विस्फोटक रूप से प्रकट हो जाती हैं। जितने उद्दंड तो हम अपने आम जीवन में, आम समाज के बीच नहीं होते उससे ज़्यादा उद्दंड हम पहाड़ों पर, हिमालय पर जाकर हो जाते हैं। जो नालायकियाँ, बदतमीज़ियाँ हम अपने शहरों, गाँवों में नहीं करते; वो हम जाकर के पर्वतों पर करने लग जाते हैं। पर्वतों पर जाते ही इसीलिए हैं कि यहाँ करने को नहीं मिलेगा, वहाँ कर लेंगे। क्योंकि वहाँ पर हम कुछ पैसे देंगे तो होटल वाले हमें कुछ भी करने की आज़ादी दे देंगे। वहाँ पर हम कुछ पैसे देंगे तो लोकल्स हमें कुछ भी करने की आज़ादी दे देंगे।

योग भूमि जिसे होना चाहिए, देवभूमि जिसे कहते हैं; वो भोग भूमि ही तो बना दिया हमने। आम आदमी वहाँ क्यों जाता है? भोगने के लिए ही तो जाता है। आपके प्रान्त में ही कई ऐसे शहर हैं छोटे-छोटे और कई स्थान हैं जो कि प्रसिद्धि इसलिए हैं कि यहाँ पर आ जाओ तो यहाँ पर बिलकुल असली, खरी शुद्धता वाला नशा मिलता है।

प्र: वो भी एक बहुत गम्भीर समस्या है। बहुत से लोकल, जो बच्चे हैं वो इनफैक्ट नशे बेचते हुए पकड़े भी जा रहे हैं और बहुत से उनको जेलों में भी जाना पड़ रहा है।

आचार्य: देखिए, शहरों की बीमारी बहुत अच्छे तरीके से अब पहाड़ पहुँच चुकी है। रेडियो से शुरू हुआ, टी वी ने आगे बढ़ाया, सोशल मीडिया ने पूरा कर दिया। पहाड़ का एक-एक लड़का और एक-एक लड़की इस वक्त गुड़गाँव को और चंडीगढ़ को अपना आदर्श मानता है। उनको वही भोग चाहिए, वैसा ही लाइफ़स्टाइल, उसी तरह का जीवन स्तर; जीवन स्तर, माने भोग स्तर, जैसा वो अपनी स्क्रीन पर देखते हैं। उसमें कोई समस्या नहीं है दो-चार पेड़ चोरी से काट कर बेच दिये तो क्या हो गया? हर चीज़ को कमर्शलाइज़ करो और उसको नाम दो डेवलपमेंट, विकास। विकास माने कमर्शिलाइज़ेशन। यानी कि जो चीज़ कमर्शियलाइज़्ड नहीं हैं वो विकसित नहीं है। क्या परिभाषा है! गज़ब हो गया!

जिस चीज़ का व्यवसायिकरण नहीं हुआ है माने उसका भी विकास नहीं हुआ है। मस्त परिभाषा है! और आपको एक बात बताता हूँ, अगर आप विकास की और रुपये-पैसे की ही बात करना चाहते हैं न तो जिसको हम जीडीपी बोलते हैं न, पचास प्रतिशत वो इस पर निर्भर करता है कि प्रकृति अपने शुद्ध रूप में बचती है कि नहीं बचती है। क्योंकि हमारा पचास प्रतिशत जीडीपी डायरेक्टली या इनडायरेक्टली नेचुरल रिसोर्सेज़ पर आश्रित है।

हमारा माने भारत का ही नहीं पूरे विश्व का। तो जीडीपी-वादी जितने हैं जाकर उनको भी बता दीजिए कि ये जो तुम प्रकृति के साथ कर रहे हो इसके बाद तुम जीडीपी भी नहीं बचा पाओगे। तुम सोच रहे हो तुम प्रकृति बर्बाद करके जीडीपी बढ़ा ले जाओगे, बिलकुल उल्टी बात है। अगर जीडीपी भी बचाना चाहते हो तो प्रकृति को पहले बचाओ। ये हमें नहीं समझ में आता। हम सोचते हैं — इट इज़ दिस वर्सेज़ दैट। आइदर और। ज़ीरो वन। ऐसा नहीं है। पर ये बातें समझानी पड़ेंगी। सारी समस्या शिक्षा की है। कर रहे हैं कोशिश। पता नहीं कितनी दूर तक जाएगी पर वो सोचना हमारा काम नहीं। कर रहे हैं कोशिश।

प्र: यहाँ का जो एक्यूआई (एयर क्वालिटी इंडेक्स) है वो भी अब मतलब वो भी इतना अच्छा नहीं है मतलब जैसे कि होता है।

आचार्य: मैंने देखा। मैं अभी दो महीने पहले नैनीताल में था। डेढ़ महीने पहले चार दिन के लिए। वहाँ का एक्यूआई ऐसा नहीं है कि दिल्ली के एक्यूआई से एकदम अलग था। अभी थोड़ा बेहतर है, शायद आगे उतना भी अन्तर नहीं बचेगा

प्र: लेकिन वो हेल्दी कैटेगरी में अब नहीं है।

आचार्य: अब नहीं है। अब नहीं है। पचास से नीचे होना चाहिए, पचास से नीचे तो हिमालय पर भी नहीं मिलता। पचास से क्या सच पूछो तो दस से नीचे होना चाहिए। पर आप जाएँगे तो जितने भी पर्वतीय स्थल हैं, विशेषकर जो पर्यटन वाले; उनमें नहीं मिलता है। सौ से भी ऊपर मिल जाता है। ऋषिकेश में तो सौ से ऊपर रहता है। अक्सर रहता है।

प्र: यहाँ पर भी सौ के पास आसपास ही रहता है। और जो ये होटल्स वगैरह हैं, ये जैसे सीवेज भी होता है उसको…..

आचार्य: हाँ बाबा! सीवेज कर देते हैं। मैं, क्या-क्या आप याद दिला रहे हो मुझे! झरने ब्लॉक कर रखे हैं। जिन झरनों से पानी नदी में पहुँचता था, वो झरने ब्लॉक कर दिये हैं। वहाँ पर ये जो राफ्टिंग वाली गाड़ियाँ होती हैं बुलेरो; वो खड़ी हो रही हैं। पूरी-की-पूरी छोटी-छोटी नदियाँ सुखा दी हैं। और वो जो रिवर बेड्स हैं उनपर वेहिकल्स की पार्किंग बना दी है। कि यहाँ पर जो टूरिस्ट आएँगे, यहाँ गाड़ियाँ पार्क कर लेंगे।

एक समय पर, अभी दो साल पहले तक, मैंने लगभग मन बना लिया था कि मैं उत्तराखंड में ही कहीं, कुछ लेकर के बस जाऊँगा। मैं वहाँ जाता था मैं तो लिखता था मैं होमटाउन आ गया। मुझे लगता था मेरा घर है वो। और जो वहाँ पर मानसिकता हो गयी है उसको देख कर लगता है कि वहाँ हूँ या यहाँ हूँ; अन्तर क्या है।

और ध्यान दीजिएगा कि जैसे आप प्रदूषण की बात कर रहे हो। प्रदूषण बाहर होता है न हवा में, वैसे जो भीतर का प्रदूषण होता है, ये भी पहाड़ों पर बहुत है। अन्धविश्वास, धर्म के नाम पर हिंसा, बलि, बहुत ही व्यर्थ, तरीके की मान्यताएँ और परम्पराएँ, भूतप्रेत के हज़ार लफड़े; ये सब पहाड़ों पर ही ज़्यादा चलते हैं।

प्र: हमारे कहते है की जैसे देवता लगा देते हैं, किसी के पीछे लगा देते हैं…

आचार्य: मैं कुछ बोल दूँ, मैं समझाऊँ कितना भी कि तुम जिन बातों में पड़े हो, वो मूर्खता की हैं। तो उसमें लोगों के आते हैं कमेंट, ‘अजी! आपको कुछ पता नहीं है कभी पहाड़ों पर आइए। हम दिखाएँगे आपको।‘ जब तक जैसे पूरे विश्व में ज़रूरत है बाहरी शिक्षा की और अन्दरूनी विद्या की, उसी तरीके से पहाड़ों में भी जब तक शिक्षा और विद्या दोनों नहीं पहुँचेंगे तब तक पहाड़ों का बचना बहुत मुश्किल है। संसार, भौतिकी, फिज़िक्स, इकोलॉजी, इन्वायरमेंट ये कैसे काम करते हैं इसकी शिक्षा पहुँचनी चाहिए। और भीतर मद मोह, मात्सर्य; सब कैसे काम करते हैं अन्त:करण क्या है? अहंकार क्या है? इसकी विद्या पहुँचनी चाहिए। जब ये दोनों पहुँचेंगे, तभी पहाड़ बचेंगे। कर रहे हैं कोशिश। कभी-कभी लगता है शायद बहुत देर हो गयी है अब। पचास साल पहले शुरू करना चाहिए था। ठीक है, जितना अपने हाथ में है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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