प्रेम विवाह बेहतर है या आयोजित?

Acharya Prashant

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प्रेम विवाह बेहतर है या आयोजित?
जो प्रेम का वास्तविक अर्थ नहीं समझते, वो विवाह चाहे घरवालों के कहने पर करे या फिर अपनी मर्ज़ी से करे, उसने ले-देकर चुनी तो माया ही है। हम प्रेम समझने को तैयार नहीं होते, प्रेम-विवाह करने को बड़े उतावले रहते हैं। ये जो पूरी विवाह की व्यवस्था को रच रहा है, वो कौन है? वो भीतर बैठा मन है। उस मन को हम समझते हैं क्या? उसको नहीं समझा तो उसके द्वारा रची गई व्यवस्था पर भरोसा कैसे कर लिया? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: दो लोग हैं, एक-दूसरे के लिए सहृदयता रखते हैं, ज़ाहिर है कि ये अच्छी बात है। लेकिन जब किसी का भला चाहते हो तो ये ज़िम्मेदारी आ जाती है न, कि पता भी हो कि भलाई, किस चिड़िया का नाम है, नहीं तो चाहने भर से थोड़े ही होगा।

बाहर गाड़ी खड़ी है मेरी, कुछ आवाज़ कर रही है, पता नहीं मैं वापस शहर तक ठीक-ठाक पहुँचूँगा या नहीं। आपमें से कितने लोग चाहते हैं कि मैं ठीक-ठाक पहुँच जाऊँ वापस?

सब चाहते हैं, चाहने से क्या होगा? उसके इंजन का, उसकी प्रक्रिया-प्रणालियों का कुछ पता भी तो होना चाहिए न? या जाओगे और उसको फूसफुसाओगे कि "देखो-देखो, ये हमारे बड़े प्यारे मित्र हैं, इनको सकुशल पहुँचा देना," तो वो पहुँचा देगी? चाहने से कुछ हो जाएगा क्या?

तो ये बात सब चाहने वालों को समझनी चाहिए न। चाहने भर से कुछ नहीं हो जाता। मन की जटिलताओं का, मन के खेलों का ज्ञान भी होना चाहिए। तभी दूसरे का भला कर पाओगे। नहीं तो बड़े अफ़सोस की बात हो जाती है कि लोग चाहते तो एक दूसरे का हित हैं लेकिन अनजाने में अहित कर डालते हैं। अपना ही हित नहीं कर पाते हैं लोग, दूसरे का हित कैसे करेंगे।

शुरुआत करी थी सवाल, ये कहकर कि कुदरती क्या है – लव-मैरेज , अरेंज-मैरेज ये सब। देखो, ये जो आयोजित विवाह होता है, ये आम तौर पर घरवालों की माया से निकलता है, और जिसको प्रेम-विवाह कहते हो, वो पुरुष और स्त्री की आपसी माया से निकलता है। अब तुम्हें कौन-सी माया चाहिए, तुम चुन लो।

एक विवाह वो होगा जिसमें घरवाले और बाक़ी सब रिश्तेदार मिलकर के अपने हिसाब से तय करते हैं कि तुम्हें किसके साथ होना चाहिए। वहाँ उनका गणित चलता है। और एक दूसरा विवाह होता है जिसमें पुरुष-स्त्री आपस में ही तय कर लेते हैं, वहाँ उनका गणित चलता है। गणित लगाना आता किसी को नहीं है। तो अब तुम्हें किस तरीक़े से परीक्षा में फेल होना है गणित की, ये तुम चुन लो।

अरे, जब प्रेम ही नहीं पता तो प्रेम-विवाह कैसे कर डालोगे? और वैसे ही जो घरवाले हैं, उनसे पूछता हूँ कि ‘आयोजन’ शब्द का अर्थ पता है क्या। योजना माने क्या होता है? जब आप कहते हो अरेंज्ड-मैरेज , तो कौन ये व्यवस्था करता है, अरेंजमेंट करता है, जानते भी हो? उसको नहीं समझा तो उसके द्वारा रची गयी व्यवस्था पर भरोसा कैसे कर लिया?

व्यवस्थापक कौन है? ये जो पूरी विवाह कि व्यवस्था को रच रहा है वो कौन है? वो भीतर बैठा मन है। वो कह रहा है, इस तरह से लड़के की शादी करा देनी है, इस तरीक़े से लड़की की शादी करा देनी है। उसी ने तो सारी व्यवस्था रची है न? उस व्यवस्थापक को हम समझते हैं क्या?

उसको अगर हम समझ लें तो हम ये भी जान जाएँगे कि वो ये जो पूरी व्यवस्था रचता है कि इसकी शादी यहाँ होनी चाहिए, इसकी शादी इस उम्र में होनी चाहिए, इसकी ठहर के करते हैं, इसकी शादी में ऐसा लेन-देन हो जाए तो फिर वो जो व्यवस्था रचता है, वो सारी व्यवस्था भी हम जान जाएँगे कि कहाँ से आती है, क्यों आती है।

वैसे ही जब लड़का-लड़की आपस में कहते हैं कि हमें प्यार हो गया, तो हम पहले जान तो लें कि उनके लिए प्यार का अर्थ क्या है। जब हम समझ जाएँगे कि वो किस चीज़ को प्रेम बोलते है तो फिर हम ये भी समझ जाएँगे कि वो किस चीज़ को प्रेम-विवाह बोल रहे हैं।

तो ये ‘कुदरती’ शब्द बड़ा झंझट का है। तुम कुदरती हटाकर मायावी कर दो और माया तरह-तरह की होती है, जिस रंग की चुननी है चुन लो। चाहो तो माता-पिता की तरफ़ की माया चुन लो, मामा की तरफ़ की चुन लो, ताऊ की तरफ़ की चुन लो, रिश्तेदारों की तरफ़ की चुन लो, कई बार घरों में पंडित वगैरह रिश्ते लेकर आते हैं, उनकी माया चुन लो।

और ये सब नहीं करना है, इंकलाबी आदमी हो तो अपनी व्यक्तिगत माया चुन लो। पर ले-देकर के चुनते तो सभी माया ही हैं। जो प्रेम का वास्तविक अर्थ नहीं समझा, वो विवाह चाहे दूसरों के कहने पर करे और चाहे अपनी तथाकथित मर्ज़ी से करे, उसने ले-देकर चुनी तो माया ही है।

हाँ, कुछ लोगों को इसमें बड़ा संतोष रहता है कि जब माया ही चुननी है तो दूसरों की दी हुई क्यों चुनें, हम अपनी चुनेंगे। जब पिटना ही है तो कम से कम ये तो रहे कि अपनी ही चप्पल से पिटें। दूसरों का जूता काहे खाएँ?

तो इस तरह की संतुष्टि चाहिए हो तो तुम कह लो कि प्रेम-विवाह ज़्यादा ऊँचा होता है। मुझसे पूछोगे, मैं कहूँगा, पीट तो दिए ही गए। ये जो गाल लाल हो रहा है, उसकी लाली पर थोड़ी लिखा है कि चप्पल ताऊजी की थी या तुम्हारी अपनी? लाली तो लाली है, क्या उभर के आली है।

आ रही है बात समझ में कुछ?

हम प्रेम समझने को तैयार नहीं होते, प्रेम-विवाह करने को बड़े उतावले रहते हैं। मुझे बड़ा ताज्जुब होता है, एक से एक नमूने ज़िन्दगी में जिन्हें कुछ नहीं समझ में आता, कुछ नहीं जानते, चौदह साल के होंगे, सोलह साल के होंगे, तभी से एक लफ़्ज़ वो जान जाते हैं, क्या? प्यार।

और ऐसे कभी सामने पड़े, मैं कहूँ कि तुझे गणित नहीं आती, तुझे भूगोल नहीं आता, तुझे यहाँ से लेकर वहाँ तक सीधे चलना नहीं आता, तुझे किसी आदमी से दो बात करना नहीं आता, तुझे अपना गुस्सा संभालना नहीं आता, तुझे कहीं पर समय से पहुँचना नहीं आता, तुझे इंसान बनना नहीं आता, तुझे प्रेम करना कहाँ से आ गया? या प्रेम ऐसी चीज़ है जिसको करने के लिए कोई पात्रता ही नहीं चाहिए?

तो कहेंगे, "आचार्य प्रशांत, तुम नहीं समझोगे। ये दिल की बात है, दिल की। तुम जैसे पत्थरदिल आदमी को नहीं समझ में आएगी। अरे, किताबों से बाहर निकलो, बागीचों में उतरो, तितलियों के साथ खेलो फिर तुम्हें पता चलेगा इश्क़ किसको कहते हैं। तुम्हारे जैसे पाषाण हृदय लोगों के लिए इश्क़ नहीं होता। हमसे पूछो न, हम जानते हैं।"

अच्छा तुम कैसे जानते हो?

बोलें, "वो जब ज़ुल्फ़ें उड़ती हैं तो इश्क है।"

अच्छा, और?

ये बड़े से बड़ा अचंभा नहीं है दुनिया का कि हद दर्जे का नाक़ाबिल आदमी होगा जो कुछ नहीं कर सकता लेकिन प्यार ज़रूर करता है? कैसे भाई, कैसे? कैसे?

तो कहेंगे "नहीं, ऐसे थोड़ी होता है, आचार्य जी। प्यार करने के लिए कोई योग्यता-पात्रता थोड़ी ही चाहिए। कोई सर्टिफ़िकेट (प्रमाणपत्र) थोड़ी ही चाहिए।"

चाहिए भाई, चाहिए। ये ग़लत लोगों ने तुम्हारे दिमाग में ग़लत शिक्षा भर दी है कि प्यार तो कुदरती होता है, कि प्यार तो प्राकृतिक होता है, कि प्यार करना तो जानवर भी जानते हैं। ये मूर्खता की बात है जो तुम्हें सिखा दी गयी है। तुमसे बोल दिया गया है कि प्यार तो एक छोटे बच्चे से सीखो। ये पागलपन की बात है।

छोटा बच्चा मोह जानता है, छोटा बच्चा ममता जानता है, छोटा बच्चा आसक्ति जानता है, प्रेम नहीं जानता। प्रेम सीखना पड़ता है। मनुष्य अकेला प्राणी है जो प्रेम जानता है। तुम बेकार की बात कर रहे हो अगर तुम कह रहे हो कि प्रेम तो जानवर भी समझते हैं। नहीं, जानवर प्रेम नहीं समझते, जानवर सुरक्षा समझते हैं।

तुम कहोगे — नहीं, मेरे घर में मेरा टॉमी है, मुझसे बड़ा प्यार करता है। तुम उसे रोटी डालते हो, इसलिए प्यार करता है। कुत्ता है इसलिए प्यार करता है। कुत्ते पहले भेड़िए हुआ करते थे, इंसान के साथ रहने लगे, उनके जीन्स ही ऐसे हो गए हैं कि अब उन्हें इंसान के साथ ही रहना है। वो तुम्हें देखेगा तो दुम हिलाएगा क्योंकि प्रकृति ने उसे समझा दिया है कि उसकी ज़िन्दगी ही इस बात पर निर्भर करती है कि मनुष्य उसे रोटी डालेगा या नहीं डालेगा।

भेड़िया तुम्हें देख के दुम हिलाता है क्या? और पड़ोसी का कुत्ता तुम्हें देख के प्यार से तुम्हारी गोद में आ जाता है क्या? तब तो भगते हो बहुत ज़ोर से, कि बुलडॉग! और अपने वाले को कहते हो, "ये तो बहुत प्यारा है मेरा, आजा।" और वो आ भी जाता है, तुम्हारा मुँह चाटने लगता है। कहते हो, "ये देखो जानवरों को प्रेम पता है।" जानवर तुम्हारे पास इसलिए आता है क्योंकि प्रकृति उससे ऐसा करवाती है। उस चीज़ में भी सौंदर्य है, मैं मना नहीं कर रहा हूँ।

चिड़िया का एक जोड़ा साथ बैठा हुआ है, आवाज़ें कर रहा है और उसकी आवाज़ें गीत जैसी सुनाई पड़ रही हैं। उसमे सुंदरता है, निश्चित रूप से है, पर वो प्रेम नहीं है। प्रेम तो मूलतः आध्यात्मिक होता है। प्रेम करने की योग्यता तो सिर्फ़ उसकी है जो मन को समझ गया हो, जो मन की बेचैनी को जान गया हो। मन की बेचैनी का चैन के प्रति खिंचाव ही प्रेम है। इसके अलावा प्रेम की कोई परिभाषा नहीं।

"आचार्य जी, ये देखिए ग़लती कर गए न, आपने प्रेम की परिभाषा दे दी। अरे हम से पूछिए न, हम आठवीं क्लास के लौंडे हैं लेकिन हम आपको बताए देते हैं कि इश्क़ वो है जिसे लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता और ये हमें फ़िल्मों ने और शायरों ने बताया है।" तुम भी मूर्ख, तुम्हारी फ़िल्में भी मूर्ख, तुम्हारे शायर भी मूर्ख।

बेचैन हो न, चैन माँग रहे हो न? मन पर यही जो लगातार आकर्षण छाया हुआ है कि कहीं पहुँचकर शांति मिल जाए, इसको ही प्रेम कहते हैं। तो प्रेम सार्थक तब हुआ जब आप उस दिशा जाएँ जहाँ वास्तव में शांति मिलती हो। लेकिन प्रकृति और जो प्राकृतिक खिंचाव होता है जिसको आप प्राकृतिक प्रेम बोल देते हैं, उसका ऐसा कोई इरादा नहीं होता कि आपको शांति मिले।

अंतर समझना। प्राकृतिक खिंचाव का नतीजा सिर्फ़ एक हो सकता है – संतान। और आध्यात्मिक खिंचाव का नतीजा होती है शांति। इसीलिए प्राकृतिक खिंचाव सदा पुरुष का स्त्री से, स्त्री का पुरुष से होता है, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो। क्योंकि प्राकृतिक खिंचाव है ही इसीलिए कि या तो रोटी मिल जाए, या घर मिल जाए, सुरक्षा मिल जाए, या सेक्स मिल जाए, संतान पैदा हो जाए। प्राकृतिक खिंचाव इन वजहों से होता है। आध्यात्मिक खिंचाव किस लिए होता है? उसकी सिर्फ़ एक वजह होती है, शांति मिल जाए।

बात समझ में आ रही है?

तो जिसको कह देते हो न, कि अरे मैं तो कुदरती तौर पर उसकी ओर आकर्षित हूँ या कि देखो, प्रेम तो प्राकृतिक होता है, सब जीवों में होता है। वो जो प्रेम है वो प्रेम की बड़ी छोटी परिभाषा है। छोटी भी नहीं, मैं उसको ग़लत परिभाषा बोलता हूँ। उसे प्रेम कहना ही नहीं चाहिए। वो बस ऐसे ही है, कुछ नहीं।

तो प्रेम करने के लिए पात्रता चाहिए। प्रेम करने के लिए ऐसी आँखें चाहिए जो दूसरे को कम और ख़ुद को ज़्यादा देखें। तुम्हारी आँखें जाकर के दूसरे से ही चिपक गयी हैं तो ये प्रेम कि निशानी नहीं है, ये तुम्हारे पशु होने की निशानी है। पशु के पास कोई पात्रता नहीं होती, उसके पास क़ाबिलियत ही नहीं होती कि वो ख़ुद को देख सके कि मेरे भीतर चल क्या रहा है, इस खोपड़ी में चल क्या रहा है वास्तव में।

इंसान होने की विशिष्टता ये है कि तुम ख़ुद को देख सकते हो, समझ सकते हो। जब तुम ख़ुद को देखोगे, जब तुम्हें अपने भीतर की गड़बड़ का कारण समझ में आएगा। जब तुम्हें अपनी बेचैनी का सबब समझ में आएगा, तभी तो तुम खिंचोगे न समाधान की ओर और चैन की ओर। समाधान की ओर खिंचना, चैन की ओर बढ़ना, ये प्रेम है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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