प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐसा कैसे हो कि मेरा प्रेमी परमतत्व को समर्पित हो जाए?
आचार्य प्रशांत: पहले खुद तो समर्पित हो जाओ किसी परम लक्ष्य को। अब ये भी प्रश्न तुमने ये नहीं पूछा कि मैं अपने जीवन में परमतत्व को कैसे समर्पित हो जाऊँ? अपनी और परमात्मा की बात नहीं करी, अभी भी बात अपनी और अपने दैहिक प्रेमी की कर रहे हो। अभी भी तुम्हारे विचारों के केंद्र में परमतत्व नहीं है, पार्थिव प्रेमी है। जब तुम परमतत्व को इतनी समर्पित हो जाओगी कि पार्थिव प्रेमी बहुत छोटी चीज़ लगने लगे, तब समझ लेना कि तुमने अपने पार्थिव प्रेमी को भी परमतत्व की ओर मोड़ दिया।
भई आमतौर पर तुम्हारे जो साथी होते हैं, जो जोड़ीदार होते हैं, जो पति या पत्नी होते हैं, वो नास्तिक ही तो होते हैं न सीधे-सीधे। उनका किसी बियोंडनेस् (परेता) में, किसी अलौकिक तत्व में यकीन होता ही नहीं है या होता है? सीधे कहें तो नास्तिक हैं। उनके लिए सत्य क्या है?
वही जो तुमने कहा - ‘खाओ-पियो, मौज मनाओ।’ अब उनको तुम कैसे यकीन दिलाओगे कि कुछ ऐसा है, जो अलौकिक है, जो इंद्रियातीत है। वो यकीन ही उन्हें तब आएगा जब वो तुमको इतना समर्पित देखें किसी परम लक्ष्य को, कि पाएँ कि तुम्हारी चेतना में उनका स्थान बिल्कुल न्यून हो गया है। इसके अलावा कोई विधि चलती नहीं। तब उन्हें मजबूर होकर के ये पूछना पड़ेगा कि ऐसा क्या मिल गया मेरे साथी को जो वो मुझसे इतना आगे निकल गया?
इस सवाल के अलावा कोई तरीका नहीं है साथी को हकीकत दिखाने का। क्योंकि तुम्हारे साथी को पूरा विश्वास है कि जैसे उसने तुमको जीता है, वैसे ही वो तुमको जीते ही रहेगा। उसने कैसे जीता है तुमको? तुम कह रही हो - ‘उम्र बढ़ने के साथ प्रेम बढ़ना चाहिए, अगर उम्र बढ़ने के साथ, जैसा तुमने कहा कि सौंदर्य बढ़ना चाहिए, यही तुमने कहा। अगर उम्र बढ़ने के साथ आम आदमी को लगता होता कि सौंदर्य बढ़ता है तो सब जवान पुरुष साठ–सत्तर साल की औरतें खोजते। क्योंकि तुम्हारे अनुसार तो जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, वैसे-वैसे सौंदर्य बढ़ रहा है, तो नब्बे साल, एक-सौ-दस वालियों की बड़ी माँग होती।
भई, बीस साल की लड़की की अपेक्षा पाँच गुना सौंदर्य होता सौ साल की वृद्धा में। पर बीस साल की लड़की भली-भाँति जानती है कि उसने अपना आशिक कैसे जीता था। उसको पता है कि पराभौतिक कुछ होता नहीं। उसको पता है कि ये जो मैंने प्रेमी जीता है, ये अदाएँ दिखाकर और जिस्म दिखाकर जीता है।
कोई पराभौतिक गुण मैंने नहीं दिखा दिया था। मैंने उसको ये नहीं दिखा दिया था कि मेरे हृदय में परमात्मा बसता है। मैंने तो उसको ये दिखा दिया था कि देखो, ये मेरे नैन-नक्श देखो, ये मेरा आकर्षक शरीर देखो। इन्हीं सब वजहों से तो वो पूरी तरह नास्तिक है न।
उसको जो जीवन में जो ऊँचे-से-ऊँचे मिला है, वो न भक्ति के कारण मिला है, न ज्ञान के कारण मिला है, वो उसे जिस्म के कारण मिला है। तो उसके मन में ये धारणा और पक्की हो गई है कि जो कुछ भी ऊँचे-से-ऊँचा है, वो पार्थिव ही है, भौतिक ही है, जिस्मानी ही है।
तो उसको पता है कि रुपए-पैसे, ज्ञान, पद-प्रतिष्ठा और शारीरिक रूप-रंग से ही उसने अपने साथी को जीता है और उसे ये भी पता है कि उसके साथी ने भी इन्हीं चीज़ों को मूल्य दिया है। किन चीज़ों को?
यही सब दुनियाभर की भौतिक चीज़ें। इनको भी पता है कि यही भौतिक चीज़ें हैं, उनको भी पता है यही भौतिक चीज़ें हैं, तभी तो दोनों का रिश्ता है। क्योंकि इनको जो भौतिक चीज़ चाहिए वो उनसे मिलती है, उनको जो भौतिक चीज़ चाहिए वो इनसे मिलती है। तो इसीलिए नास्तिकता के प्रति तुम्हारे साथी में पूरा-पूरा विश्वास रहेगा।
समझो, क्योंकि उसने तुम्हें भी पाया है, आस्तिकता से नहीं भौतिकता से ही। तुमने अपनी पत्नी को इसलिए चुना है कि उसकी समाधि बड़ी गहरी है? इसलिए चुना था? और तुम्हारी पत्नी ने तुमको इसलिए थोड़े ही चुना है कि तुम्हारा बुद्धत्व बड़ा प्रगाढ़ है। इसलिए चुना है क्या?
तुम दोनों का जो रिश्ता है वही भौतिक है। और उसको अच्छी तरह पता है, तुम उस पर लट्टू हो और तुमको अच्छी तरह पता है, वो तुम पर मरती है। ले-देकर दोनों को पता है कि तुम भी और दूसरा इंसान भी, मरते भौतिक चीज़ों पर ही हैं। यही नास्तिकता है, दोनों घोर नास्तिक हो।
नास्तिक को नास्तिकता से बाहर निकालने का एक ही तरीका है - उसे झटका दो। तुमको ले करके उसको बड़ा विश्वास है कि मेरे जिस्म पर ही तो लट्टू हुआ था। झटका तब लगेगा जब पता चलेगा कि तुम अपना जिस्म रखे हुए हो, दर्शाए भी जा रहे हो, तुम्हारा साथी किसी और चीज़ पर मर मिटा। और जिस चीज़ पर अब वो मर मिटा है वो किसी दूसरे का जिस्म नहीं है, वो रुपया-पैसा नहीं है, वो शोहरत नहीं है, वो कुछ ऐसा है जो इस दुनिया का ही नहीं है।
अब तुम्हारी नास्तिकता को लगता है बड़ा झटका। अगर तुमने ये भी देखा होता कि जो पहले मेरे जिस्म पर मरता था, अब किसी और के जिस्म पर मरता है, तो भी तुम्हें बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। तुम कहते, ‘इंसान तो ये वही है, इसे शरीर ही चाहिए या इसे रुपया-पैसा ही चाहिए। बस पहले इसे एक शरीर पसंद था अब इसे दूसरा शरीर पसंद है।’
झटका तब लगता है नास्तिकता को जब उसे दिखाई देता है कि कोई आ गया जीवन में जो वास्तव में भौतिक वस्तुओं से ज़्यादा मुक्ति को महत्व दे रहा है, सत्य को महत्व दे रहा है। ये झटका नास्तिक को आस्तिक बना देता है। प्रेम है अगर तो ये झटका देना ज़रूरी है।
‘झटका’ समझ रहे हो न? तुम्हारा साथी आत्मविश्वास से भरपूर इंतज़ार कर रहा है कि तुम तो आओगे उसी के पास और उसके पास आने की जगह तुम चल दिए उसके पास (परमतत्व की ओर)। अब उसको ये प्रश्न पूछना पड़ेगा कि ऐसी कौन-सी आकर्षक वस्तु है जिसकी खातिर मेरा प्रेमी मुझे छोड़ गया? ऐसी कौन-सी वस्तु है जो उसके लिए मुझसे भी ज़्यादा आकर्षक थी? अब उसे मानना पड़ेगा कि कुछ तो है जो भौतिक वस्तुओं से ज़्यादा आकर्षक है, यही आस्तिकता है।
उसकी जगह तुम कोशिश करोगे कि नहीं उसका हाथ पकड़े-पकड़े तुम उसको कहो कि देखो, हमारा जो साधारण, शारीरिक प्रेम था, हम इसको अब दैवीय प्रेम में परिवर्तित करेंगे। तो कहेगा, ‘इसका क्या मतलब है?’ शारीरिक प्रेम को दैवीय प्रेम में परिवर्तित करेंगे, एक नास्तिक आदमी इस बात का क्या अर्थ निकलेगा?
बड़ा ही विकृत अर्थ निकलेगा। वो कहेगा, ‘अच्छा! शारीरिक प्रेम था, तो कोई शारीरिक तरीके से हम प्रेम संबंध बनाया करते थे। अब दैवीय प्रेम है तो अब देवताओं और अप्सराओं की तरह पोज़ (मुद्रा) बनाया करेंगे।’ नास्तिक आदमी के लिए दैवीय प्रेम का भी यही मतलब होगा। तुम उससे कहते रह जाना कि हम अपने प्रेम को अब एक रूहानी आयाम दे रहे हैं। वो कहेगा, ‘अच्छा! रूहानी टुनाइट (आज की रात)।’ और नहीं कुछ समझ में आएगा उसको।
हमारी नास्तिकता बहुत प्रगाढ़ है। हम इस आयाम के अलावा किसी और आयाम में यकीन रखते ही नहीं। हम चीज़ों, रुपया-पैसा, अहंकार, सम्मान, स्वाभिमान, इनके अलावा कुछ नहीं जानते, प्रेम हम जानते ही नहीं। नास्तिकता और प्रेम साथ–साथ नहीं चलते, ये बात सुनने में बहुत अजीब है लेकिन अधिकांश लोग जो कहें कि हम बीस साल से प्रेम कर रहे हैं, उन्हें प्रेम का रंच मात्र भी कुछ पता नहीं होता।
प्रेम तो जीवन में उतरता ही तब है, जब उसका (परमतत्व) आगमन होता है, अगर वो नहीं आया जीवन में तो तुम किस प्रेम की बात कर रहे हो? तुम्हारा सिर अभी अगर झुका ही नहीं उस पारलौकिक सत्ता के सामने, तुम्हारा सिर अकड़ा ही हुआ है, तो तुम किस प्रेम की बात कर रहे हो?
तुमने प्रेम जाना ही नहीं है, झूठ बोल रहे हो अपने आप से भी कि तुम्हें प्रेम है, प्रेम है। होगा तुम्हारा बीस साल, पचास साल का रिश्ता, कोई प्रेम नहीं है। प्रेम अध्यात्म की अनुपस्थिति में हो ही नहीं सकता। जिसको अध्यात्म से समस्या है, उसको प्रेम से समस्या है।