प्रेम समय और स्थान से आगे की बात है

Acharya Prashant

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प्रेम समय और स्थान से आगे की बात है

आचार्य प्रशांत: तुम अभी ये समझ ही नहीं पा रहे हो कि काल, समय, स्थान, परिस्थिति इनके लिए नहीं जी रहे हो तुम। ये सब देह के साथ भस्म हो जानी हैं, ये बड़ी चीज़ नहीं होती हैं। जो कीमती चीज़ है वो क्या है? कारण ये है कि जिस क्षेत्र से तुम आ रहे हो न, उसमें सारा ज़ोर इन्हीं बातों पर है कि क्या खाना है, क्या पीना है, कितने बजे उठना है, कितनी दूरी तक हाथ जाएगा, कितनी ऊँचाई तक पाँव जाएगा, सारा ज़ोर इन्हीं बातों पर है। भीतर का वहाँ कुछ है नहीं, तो आदत बन गई है इन्हीं बाहरी बातों पर बार-बार गौर करने की। ये बाहरी बातें कीमती तो हैं, इसमें कोई शक नहीं, पश्चिम पूरा इन्हीं बातों पर चलता है। इन्हीं बातों से बहुत सारी तरक्की भी मिली है उसको। वो (बाहरी तरक्की) जिसको चाहिए हो, उसको वो मुबारक।

वहाँ पर ट्रेन बिलकुल समय से चलती है, और मैं कहता हूँ, ‘ट्रेन समय से चलनी भी चाहिए अगर ट्रेन ही तुम्हारे जीवन का केन्द्र बिन्दु है तो।’ पहले पूछो कि यही बात मन में क्यों आ रही है। ये बात मन में इसीलिए आ रही है क्योंकि जो क्षेत्र तुमने चुना है उसमें इन्हीं बातों के लिए ही जगह है। वहाँ पर यही प्रश्न बार-बार पूछा जाएगा कि वस्त्र सूखा है या गीला है। यहाँ खेल दूसरा चल रहा है, यहाँ दिल भीग रहे हैं। और जैसे ही मैंने कहा कि ज़रा कुछ गीले प्रश्न सामने लाइएगा, तो तुम समझ ही नहीं पाये कि मैं किस गीलेपन की बात कर रहा हूँ। तुमने पूछ लिया, ‘यहाँ हम क्यों आए हैं, यहाँ तो बारिश हो रही है?’ इससे तुम्हें तुम्हारे मन की अवस्था के बारे में पता चलेगा? मैं कहाँ की बात कर रहा हूँ और तुम कहाँ से सुन रहे हो? जब मैं कह रहा हूँ, ‘कोई गीला सवाल पूछो', तो मैं तुम्हारे शर्ट के गीलेपन की बात कर रहा हूँ? तो छूटते ही सवाल पूछा कि हम आए क्यों, चार बजे सत्र शुरू होना था, साढ़े चार बजे शुरू हुआ, फिर बारिश हो गई।

कैसे याद है तुम्हें ये सबकुछ? ये सबकुछ याद भी कैसे है? क्योंकि दृष्टि को तुमने अभ्यास दे दिया है इन्हीं बातों पर टिके रहने का। 'चलिए! अब ये करिए, अब ये करिए, अब ये करिए, अब ये करिए', हो गया! गलत जीवन जीने से और गलत पेशे में रहने से ये नतीजा निकलता है, अभ्यास ही वही लग जाता है।

जाकर पूछना किसी सूफ़ी फ़कीर से, ‘तू रात भर क्यों जगता है, रात तो सोने के लिए होती है?’ जब ऋषिकेश आया था तो वहाँ एक सज्जन हैं जो कहीं विदेश से आये हैं, पश्चिम से आये हैं और उनके बारे में ये प्रसिद्ध है कि वो शाम को छः बजे या सात बजे बोलना शुरू करते हैं और ठीक एक घंटे बोलकर रुक जाते हैं। मुझे एक बात बताइए, छः-सात बजे बोलते हैं और ठीक एक घंटे में रुक जाते हैं, मैंने कहा, 'कर कैसे लेते हैं?' निश्चित रूप से पश्चिम बहुत गहरे तक घुसा हुआ है उनमें कि ट्रेन को अगर चार बजकर छः मिनट पर पहुँचना है तो वो चार बजकर छ: मिनट पर पहुँचकर रुक ही जाएगी।

जब असली वाली बारिश होती है और भक्त भीगता है तो वो तो नहीं रुकेगा। अब सात का आठ बज जाए, आठ का नौ बज जाए कि दस बज जाए या बारह बज जाए, वो तो नहीं रुकेगा। हाँ, तुम्हें तकलीफ़ हो जाएगी कि रात में साढ़े-बारह बजे भी भजन क्यों चल रहा है, बड़ी तकलीफ़ उठेगी। साढ़े-बारह, पौने-एक बज गए, भजन क्यों चल रहा है? हमारे बुजुर्गों ने तो बताया कि इतने बजे सो जाया करो, अगर शरीर बनाना है योग कर-कर के तो। बड़ी तकलीफ़ हुई न रात में? अरे, नहीं-नहीं, अनुशासन कहाँ था उसमें? तुम तो अनुशासन के खिलाड़ी हो। तो बड़ी गैर ज़िम्मेदारी की बात थी कि अब कबीर साहब हाथ में आये हैं तो धार रुक ही नहीं रही। पौने-ग्यारह शुरू हुई और पौने-एक तक चल रही है, बड़ी गलत बात हो गई। रिपोर्ट दर्ज करायी जाए पुलिस में, योग के खिलाफ़ ज़्यादती हो गई।

जहाँ से तुम आ रहे हो, वहाँ अनुशासन का मतलब होता है नियम पर चलना। जहाँ हम खड़े हैं, वहाँ अनुशासन का मतलब होता है — ‘आत्मा का शासन।’ जहाँ हम आ गए हैं वहाँ बुल्लेशाह गाते हैं, “जिस तन लगया इश्क कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।” तुम्हारे यहाँ पर सुर-ताल का पूरा खयाल रखा जाता है, वहाँ सुर, ताल ही है।

खुदा का बन्दा कोई मज़े लेने के लिए नियम नहीं तोड़ता, उसके बस की नहीं है। दुनिया के नियमों से ज़्यादा बड़ी कोई चीज़ उसको मिल गई है। और वो कोशिश करे भी कितनी तो मजबूर हो जाता है, नियम टूट जाते हैं। पता है उसको आधी रात हो गई है, दुनिया के बाशिन्दे सो रहे हैं पर अब नहीं रुक रहा उसका गीत, वो गाएगा और रात भर गाएगा। अब अनुशासन वालों को दिक्कत हो जाएगी न, गलत काम कर रहा है, अपराध कर दिया। क्या करें? नज़र कहाँ है? किसके हाथों बिके हुए हो? यही! टाँग उठाओ। दुनिया में दो लोग होते हैं जो बहुत ही ज़्यादा मैंने देखा है कि पदार्थवादी हो जाते हैं। और ये मैंने वहाँ पर गौर किया था जब मैंने देखा कि दो कोटि के लोग मुझे मिल रहे हैं जो माँसाहार की बड़ी वकालत करते हैं और खूब फैला रहे हैं वो माँसाहार। वो दो कोटि के लोग थे — एक तो डॉक्टर और एक जिम ट्रेनर। जो माँस न खाता हो उसे ये दो लोग माँस खिला देंगे ज़रूर, एक डॉक्टर और दूसरा जिम ट्रेनर।

तो दाढ़ी बढ़ा लेने से आध्यात्मिक नहीं हो जाता कोई, हो तुम भी जिम ट्रेनर ही। क्योंकि सारा ज़ोर तुम्हारा शरीर पर ही है, 'ये करो, वो करो।' और डॉक्टर का और जिम ट्रेनर का खुदा की सल्तनत से कोई वास्ता नहीं होता, उसको तो एक ही चीज़ नज़र आती है, क्या? शरीर। और इसीलिए ये दोनों लगे रहते हैं, 'चिकन सूप पीजिए।' कितने ही लोगों से मिला हूँ जो इसी बात को लेकर के परेशान हैं कि डॉक्टर जीने नहीं देता। डॉक्टर के पास जब भी पहुँचो कि बीमारी है तो कहता है, ‘अरे, ठीक है, रेड मीट नहीं खा सकते तो आप वाइट मीट खाइए पर खाये बिना कैसे चलेगा।'

मैंने जब डेयरी छोड़ी थी, दूध छोड़ा था, डॉक्टरों ने परेशान कर दिया, बोले, ‘पागल हो गए हैं! ये हो जाएगा, वो हो जाएगा, फ़लानी चीज़ हो जाएगी। विटामिन बी-ट्वेल्व (B12) नहीं मिलेगा, ये नहीं मिलेगा, डी नहीं मिलेगा, कैल्शियम नहीं मिलेगा।’ मैंने कहा, ‘तुम रुको।’

अब ऐसे ही तुम्हारी जमात है — टाँग उठाओ, शरीर बनाओ; आत्मा का तुम्हें कुछ पता नहीं। जाकर इस बारिश से पूछो, ‘तुझमें अनुशासन क्यों नहीं है? कभी भी क्यों हो जाती है?’ जाकर बादलों से पूछो, ‘तुम कभी भी, कहीं पर भी क्यों पहुँच जाते हो, नियम बाँधा करो पहले।‘ पेड़ से पूछो और पत्तों से पूछो। प्रेम नहीं पता तुमको, वहाँ दिन-रात का, समय का, स्थान का खयाल नहीं रखा जाता। थोड़ी देर पहले हम साधारण प्रेमियों की बात कर रहे थे, साधारण प्रेमी भी कब खयाल रख पाते हैं समय का और स्थान का? फिर दुनिया को बड़ी तकलीफ़ होती है। कहते हैं, ‘इनको देखो! ये ट्रेन में ही चिपट गए। इनको देखो ये बीच सड़क में खड़े होकर चूमने लग गए।’ साधारण, लौकिक, दैहिक प्रेम में भी तुम भूल जाते हो कि समय क्या है और जगह क्या है। भूल जाते हो न?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: पर तुम तो नहीं भूल पा रहे हो, तुम्हें तो वही याद है, घूम रहा है दिमाग में।

प्र: आज दिन से घूम रहा था।

आचार्य प्रशांत: तो घूमेगा ही क्योंकि यहाँ जो हो रहा है वो तुम्हारे समुदाय के बिलकुल विपरीत है। तुम जिस कौम से आ रहे हो, यहाँ जो हो रहा है वो उससे बिलकुल विपरीत काम है। अभी क्या बताया कि जब भीतर सबकुछ ठीक होता है तो बाहर अपनेआप नूर आ जाता है। ये प्रोफेशनल योगा टीचर हैं। क्या कराते हैं, क्या ये बताते हैं कि जीवन सही रखो तो शरीर अपनेआप सही हो जाएगा। इनके पास तो कोई भी आये तो उससे पूछेंगे थोड़े ही कि तुममें घृणा कितनी है, ईर्ष्या कितनी है, द्वेष कितना है, राग कितना है, मोह कितना है? वो तो सीधे कहेंगे, ‘टाँग उठाओ, हाथ बढ़ाओ। चलो, लम्बे हो जाओ। चलो, सिर के बल खड़े हो जाओ। बस अब तुम्हारा व्यक्तित्व चमक गया, अब बिलकुल ठीक हो गए तुम।' घातक है, प्राणघातक है! इसीलिए मैंने योग की इन दुकानों का इतना विरोध किया है। जो वहाँ फँस गया वो वास्तविक योग से बहुत दूर हो जाएगा, जैसे तुम हो गए हो। ये बहुत अफ़सोस की बात है कि इस मौके पर तुमको ये याद आ गया कि बारिश हो रही है, समय की पाबन्दी क्यों नहीं है।

पागल है! किसी लड़की के साथ भी जाएगा ऐसी किसी जगह पर, बारिश होने लगेगी और ऐसा कमरा मिलेगा, तो तू ये बोलेगा कि बारिश हो रही है, समय की पाबन्दी रखो। तुझे पता नहीं, कौनसा मौका किसलिए होता है। ये ऐसे ही लोगों में से है, कहेगा, ‘अनुशासन होना चाहिए था।’ ये वरदान है, ये भली बात है कि अनुशासन नहीं है, अनुशासन होता तो ये मौका कैसे मिलता! अनुशासन होता तो तुम नियम पर चलते। अनुशासन होता तो तुम्हारे साथ बस वही सबकुछ होता जिसकी तुमने योजना बनाई होती। अनुशासन का यही मतलब होता है न कि इतने बजे ये, इतने बजे ये, इतने बजे ये, इतने बजे ये, इतने बजे ये। जो योजना बना रहे हैं, वही-वही हो। तुम्हारी योजना में कभी ये मौका शामिल होता?

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: तो भला हुआ कि बुरा हुआ?

प्र: आचार्य जी, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि ऐसा क्यों किया।

आचार्य प्रशांत: जो भी कह रहा है, वो क्यों कह रहा है? ये मौका इधर-उधर का कुछ भी कहने का है ही नहीं। तुझे ये क्यों नहीं समझ में आ रहा, ये मौका किसलिए है। वो बत्ती ही नहीं जल रही न, वो बात ही नहीं समझ में आ रही। पंजाब की धरती पर खड़ा है, यहाँ मस्त-मलंग चलते हैं। मतलब समझता है मस्त-मलंग होने का?

प्र: नहीं।

आचार्य प्रशांत: कैसे समझेगा, कभी किसी से मिलो तो पता चले। पर तू उसे फिर अनुशासन सिखाएगा, तू उससे कहेगा, ‘बिलकुल एकदम इतने बजे उठाकर, जैसे ऋषिकेश में सब योगा मैट लिए भागते हैं, तू भी भागा कर और साढ़े पाँच बजे बिलकुल टाँग ऊपर उठा दिया कर।’ किसी मलंग से ये बोल कर देखो, फिर पता चलेगा।

काल-काल सब कोई कहे, काल न जाने कोय। जेति मन की कल्पना, काल कहावे सोय।।

मन उससे जुड़ ही नहीं पा रहा जो सदृश्य है, सामने है। मन कल्पनाओं में है इसीलिए काल का इतना खयाल है। “जेति मन की कल्पना, काल कहावे सोय।”

मन कल्पनाओं में है, कल्पनाएँ ज़रूरी हैं। क्यों ज़रूरी हैं? ताकि उससे बच सको जिससे बचना चाहते हो। तो इसीलिए काल का खयाल है। ये अध्यात्म है, एयरपोर्ट नहीं है कि लिखा रहेगा इतने बजे की फ्लाइट इतने बजे है। अब मैं नहीं कह रहा हूँ कि जान-बूझकर के समय तोड़ा जाए, जान-बूझकर के समय का खयाल न रखा जाए। पर जिस तल पर अभी ये शिविर है वहाँ ये चीज़ें होती हैं, होंगी, सदा से हुई हैं। और ये होती ही इसीलिए हैं क्योंकि मन कहीं और होता है, मन समय के साथ होता नहीं तो समय आगे-पीछे अपना चलता रहता है।

मन अगर समय के साथ लगा हुआ है तो मतलब ये कि मन संसार के साथ लगा हुआ है। समय संसार ही है। पर तुम्हें तो अपना बैच खत्म करके दूसरा शुरू करना है। साढ़े-पाँच से साढ़े-छः एक बैच, साढ़े-छः से दूसरा बैच आ जाएगा। साढ़े-छह पर तो तुम्हें छोड़ना ही पड़ेगा, तुम्हारा योग तो समयबद्ध है, साढ़े-छः पर खत्म ही हो जाता है क्योंकि साढ़े-छः पर दूसरे ग्राहक खड़े हुए हैं न। छः-पैंतीस हो गया तो कहेंगे, 'पैसा लौटाओ।’ तो अनुशासन मजबूरी है तुम्हारी। आत्मा से निकल रहा है अनुशासन? नहीं, यहाँ से निकल रहा है कि रिफ़ंड न देना पड़ जाए।

आत्मा से जब अनुशासन निकलता है तो ध्यान से समझना क्या होगा — तुम समय का पालन नहीं करोगे, तुम समय के पार निकल जाओगे। अन्तर साफ़-साफ़ जान लेना। कुछ लोग होते हैं जो संसार के भी नहीं होते, वो समय का पालन कर ही नहीं पाते। कुछ होते हैं जो संसार के होते हैं, वो समय का ही पालन करते हैं। और फिर वो होता है जो यहाँ हो रहा है, इसमें तुम समय के पार हो जाते हो।

अब वो अनुश्री आयी हैं, वो वहाँ कार में बैठी हैं, उनकी यहाँ आने की हिम्मत नहीं हो रही, बताओ क्यों? अभी कल गाना नहीं था, उनकी तबीयत खराब थी, गला भी खराब था। मैंने कह दिया, 'दो दोहे गा दो', पर दो दोहे, दो घंटे बन गए। अब कल से बिलकुल शारीरिक तल पर भुगत रही हैं। पर उन दो दोहों को दो घंटा बनना ही था, तुम नहीं रुक सकते, तुम नहीं कह सकते कि साहब नियम का पालन करिए। आपका अगर गला खराब है तो दो दोहे ही गाइएगा। कबीर साहब हैं, शुरू तुम करते हो, रुकेंगे कब, इसका फ़ैसला वो करते हैं। फिर तुम अपनी मर्ज़ी से नहीं रुक सकते। अब वो वहाँ बाहर बैठे-बैठे अकुला रही होंगी कि चल क्या रहा है वहाँ पर! तबीयत तो खराब है, अभी देखना थोड़ी देर में फ़ोन-वोन कर लेंगी, पता लगा लेंगी कि कहाँ हैं, चलें हम भी पहुँचें, कुछ गाया-वाया जाए। ये तो बज़्म है, यहाँ बहुत नियम-कायदे नहीं चलते। पर तुम तो बैच की ही भाषा बोलते हो।

मेरी बात से ये आशय मत कर लेना कि नियम सब तोड़ने हैं ज़बरदस्ती। दुनिया में जब तक हो, दुनिया के नियमों का पालन कर लो। ट्रेन तो तुम्हारे लिए नहीं रुकेगी, चार बजे की है तो पहुँच जाना पौने-चार, पर ये खयाल रखो कि कौनसी चीज़ किस तल की है। योग के शिक्षक बनो, फ़िटनेस ट्रेनर नहीं। ज़मीन-आसमान का अन्तर है, योग वो नहीं है जो तुम्हारे यहाँ की दुकानों में सिखाया जा रहा है, बहुत-बहुत ऊँची बात है योग। और जो योगी हो गया वो मदहोश हो गया फिर, बावरा जोगी बोलते हैं उसको।

कहीं सुना है कि जोगी है और बिलकुल नियम-कायदे में चलता है? “रमता जोगी बहता पानी।” वो तो रमण करता है इधर-उधर, जो रमण कर रहा है उसको क्या पता दुनिया के कायदों का। जो सत्ता ये करवाती है न, वो सत्ता समय और नियम का बहुत आदर नहीं करती। तो जहाँ ये हो रहा होगा, वहाँ तुम ये निश्चित जानना कि समय की सीमाएँ टूटेंगी। ये दोनों काम एक साथ चलेंगे। जहाँ ये है वहाँ समय ज़रा पीछे हो जाएगा। हटाओ न समय को, क्योंकि दोनों एक ही बात है।

जो सत्ता ये करवा रही है वही समय को फिर ज़रा पारिधिक बना देती है, गौण बना देती है कि इसका खयाल मत करो। और अगर तुम समय का बहुत खयाल करोगे तो फिर ये नहीं होगा। दोनों एक साथ चलते हैं। अकाल करवा रहा है न ये, तो फिर काल को कितनी इज़्ज़त दें? और अगर काल को बहुत इज़्ज़त देने लग गए तो फिर ये अकाल वाला काम नहीं हो पाएगा। ये सदा होगा और अध्यात्म में ये बड़ी बाधा होती है। जैसे ही कोई साधना में ज़रा आगे बढ़ता है, उसके पुराने बँधे-बँधाए अनुशासित ढर्रे टूटने लगते हैं। और जब वो ढर्रे टूटने लगते हैं तो वो खुद भी घबराता है और उसके आसपास वाले भी घबरा जाते हैं। दूसरे ही घबरा रहे होते तो छोटी बात थी; वो स्वयं भी घबरा जाता है। वो कहता है, ‘पहले तो हम हर काम बिलकुल तयशुदा तरीके से करते थे। लोग दाद देते थे हमारे नियमबद्ध अनुशासित जीवन की, अब हमें ये क्या हो गया है! कोई नियम पालन का मन नहीं करता। वो सारी बातें जिनके कारण हम प्रशंसनीय थे, प्रतिष्ठित थे, वो सारी बातें अब हम से की नहीं जाती, हो ही नहीं रही।’

और वो जब ये सब देखता है तो फिर साधना के पथ से वापस मुड़ जाता है, छोड़ देता है। कहता है कि ये तो बड़ी गड़बड़ हो रही है। पहले जीवन में कम-से-कम एक बाँध था, एक संयम था वो सब टूट रहा है। संयम, मर्यादा, नैतिकता, आचरण, यम-नियम, व्यवहार ये तो सब टूट रहे हैं। अजीब बहते पानी सी ज़िन्दगी हो रही है, जैसे कोई पत्ता हवा में उड़ने लगा हो। कुछ पता ही नहीं चल रहा अपना, बड़ा डर लगता है। और जब लोग ये देखते हैं तो पीछे हट जाते हैं। कहते हैं, ‘पहले ही हम भले थे, खान-पान का खयाल रखते थे, सेहत का खयाल रखते थे, कपड़े-लत्ते का खयाल रखते थे। मान, मर्यादा, आचरण, ज़िम्मेदारियाँ, रिश्ते, उनका खयाल रखते थे। अब दिल ही नहीं करता, वो सब खयाल रखने में ऊर्जा ही नहीं जाती, उस तरफ़ को ध्यान ही नहीं जाता। तो ऐसा लगता है जैसे जीवन का, व्यक्तित्व का अवरोध होना शुरू हो गया हो। ऐसा लगता है कि जैसे अध्यात्म पर आगे बढ़ने के कारण जीवन का पतन होना शुरू हो गया हो।

कुछ तुम्हें लगता है, कुछ अगल-बगल वाले जता देते हैं। वो कहते हैं कि इससे भले तो तुम पहले ही थे, पहले ठीक समय से दुकान में आते थे, मोल-भाव करते थे। अब आते हो दुकान में और नानक जैसी तुम्हारी हालत है, ‘तेरा, तेरा, तेरा, तेरा’, लुटाये दे रहे हो।' पहले दफ़्तर में तुम बड़े गम्भीर और समर्पित कर्मचारी थे। अब देखो हालत अपनी, सामने पड़ी है फाइल और तुम गा रहे हो, “साधो ये मुर्दों का गाँव।” पहले खाने में ज़रा नमक तेज़ हो जाए, तुम कहते थे, 'हटाइए!' अब नमक है कि नहीं है, ज़्यादा है कि कम है, कुछ खयाल ही नहीं करते। मिल गया तो खा लेते हो, नहीं मिला तो नहीं खाते हो, आगे बढ़ जाते हो। ये तो तुम्हारा ह्रास हो रहा है, ये तो तुम गिरते जा रहे हो। और तुम्हें भी ऐसा लगता है कि हम गिरते जा रहे हैं। और फिर तुम भागते हो, ‘बाप-रे-बाप, गड़बड़ हो गई!'

ताना मारा जाता है, ‘वैसे ही बन जाओगे, वो देख रहे हो नंगा फ़कीर जा रहा है, फटा चोगा देखो उसका, दस जगह से छेद है, ऐसे ही हो जाओगे तुम।’ इससे बड़ी गाली क्या हो सकती है, 'फ़कीर हो जाएँगे'! किसी को और कोई गाली दो, उसे कम बुरा लगेगा, फ़कीर बोल दो तो माफ़ ही न करे। और जो तुम्हारी पौध है, तुम्हारी जो नस्ल है, नयी पीढ़ी, वहाँ किसी को फ़कर बोल दो, चलता है, फ़कीर मत बोलना। फ़कर तो नाज़ की बात है — ‘दिस फ़कर, दैट फ़कर’, पर फ़कीर बोला, एफ़आइआर लिखूँगा।

ये अच्छे बच्चों का खेल नहीं है जो बीच से माँग काढ़ते हैं, सुबह-शाम ग्लास में बॉर्नवीटा लेकर दुद्धू पीते हैं, साफ़ निक्कर पहनकर शाम को फुटबॉल खेलते हैं, सात बजे वापस आ जाते हैं, होमवर्क करते हैं, खाना खाते हैं और ठीक नौ बजे सो जाते हैं। नहीं, ये अच्छे बच्चों का खेल नहीं है। अध्यात्म गन्दे बच्चों की बात है, छी-छी है, मानो! इसीलिए जितने लोगों को अच्छा होने की बड़ी तलब रहती है, वो अध्यात्म से दूर-ही-दूर रहें। यहाँ तो धूल में लोटना होता है, यहाँ तो अपनी ही कालिख से रू-ब-रू होना होता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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