प्रश्नकर्ता: प्रेम क्या है?
आचार्य प्रशांत: एक संगीतज्ञ था। उसके पास दो लोग सीखने के लिए आए। दोनों से उसने पूछा, “कितना सीखा है? अतीत में संगीत कितना है? कितना सीख कर आए हो?”
पहले वाले ने कहा, “कुछ नहीं जानता, बिलकुल अनाड़ी हूँ, संगीत का ‘स’ भी नहीं पता।” तो उसने कहा, “ठीक है, तीन साल लगेंगे तुम्हें सिखाने में, दस-हज़ार मार्र्क्स तुमसे मैं लूँगा।” जर्मनी की बात है ये।
दूसरे से पूछा कि अपना बताओ, तो वो बोलता है, “मैंने पाँच साल तक संगीत सीखा है और ऐसे-ऐसे महान गुरु हैं, उनके सानिध्य में सीखा है। वो सब मेरे गुरु थे, इतना मुझे आता है।” तो वो संगीतज्ञ उससे बोलता है, “तुम्हें सिखाने में लगेंगे पाँच साल, और तुमसे लूँगा पचास-हज़ार।”
वो दूसरा वाला बोला, “क्या पागलों जैसी बातें कर रहे हैं? वो अनाड़ी जिसको कुछ आता नहीं उसको आप कह रहे हैं कि तीन साल में सिखा दूँगा, और उससे पैसे भी माँग रहे हैं कुल दस-हज़ार। और मैं जो पहले से ही इतना सीखा हुआ है, जिसने इतने महान गुरुओं के साथ रह कर जाना है, जो रोज़ रियाज़ करता है पुराने सीखे हुए का, मुझसे आप कह रहे हैं कि पाँच साल लगेंगे और पैसे भी मुझसे माँग रहे हैं पाँच गुने।”
तो संगीतज्ञ बोले, “तुझे सिखाने में मुझे सिर्फ़ एक ही साल लगेगा। चार साल लगेंगे वो सब भुलवाने में जो तूने पहले से सीख रखा है। सिखाने में तो कुल एक साल ही लगेगा।”
सिखाना कोई मुश्किल काम नहीं है। जो पहले से मन में भर रखा है उसे भुलवाना मुश्किल काम है। क्यों? क्योंकि वो क्या बन जाता है? आदत। तुम रोज़ उसी का रियाज़ कर रहे हो, तुमने उसी को मान रखा है कि यह बड़े ऊँचे दर्ज़े का संगीत है। तुमसे कैसे भुलवाया जाए वो सब?
प्रेम के बारे में बड़ा आसान होता मेरे लिए बोलना अगर तुम्हें उसकी कोई ख़बर ना होती, अगर तुमने मन में प्रेम के बारे में कोई धारणाएँ ना बना रखी होतीं, अगर तुम्हारे मन में कोई छवि ही ना होती कि प्रेम क्या है। पर तुम्हारे मन में तो ज़बरदस्त तरीके से छवियाँ भरी हुई हैं।
यहाँ कोई ऐसा नहीं है, एक भी ऐसा नहीं है, जो ये कहे, ”प्रेम, हमें तो पता ही नहीं, हम तो जानते ही नहीं।” यहाँ सब प्रेमगुरु बैठे हैं। सबके पास अपनी-अपनी धारणाएँ हैं, विचार हैं, मान्यताएँ हैं। हम में से हर एक के पास कुछ-न-कुछ है प्रेम के बारे में बोलने के लिए।
एक श्रोता: (अचानक से) प्रेम दूषण है।
आचार्य: ये देखो! (हँसते हुए) ये तो तुमने बड़े संक्षेप में बोल दिया एक ही वाक्य में। अभी मैं कहूँ निबन्ध लिखो प्रेम पर, तो तुम वो भी लिख दोगे, वो भी कम-से-कम दो पृष्ठ।
क्या पहले जो पुराना है वो भूलने को तैयार हो?
प्र: जी, सर!
आचार्य: और पहले ही बोल दिया, “प्रेम है भ्रष्टाचार”, तो अब मैं कैसे बोलूँ? वो बोल रहा है, “दूषण है”. तुम बोल दोगे, “उत्तेजना है।”
सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि प्रेम क्या नहीं है। जो हमारी धारणाएँ हैं, उनको तोड़ना पड़ेगा।
प्रेम स्वामित्व नहीं है, दूसरे पर मालकियत की इच्छा का नाम नहीं है प्रेम।
“कोई मेरा हो गया” - इस बात का नाम नहीं है प्रेम। चाहे वो व्यक्ति हो, चाहे वस्तु हो या जानवर ही क्यों न हो।
लगाव का नाम नहीं है प्रेम कि बहुत जुड़े हुए हैं, मोह बहुत हो गया है।
कोई भावना या अनुभूति नहीं है प्रेम।
हॉरमोनल प्रक्रिया नहीं है प्रेम कि एक ख़ास उम्र हो गई है, शरीर में कुछ रसायन निकलने लगे हैं, जिनका नाम है ‘हॉरमोंस’, इस कारण जो यौन उत्तेजना होती है, वो नहीं है प्रेम।
“शादी करके वंश आगे चलाने की ज़िम्मेदारी है मेरी”, इसका नाम नहीं है प्रेम।
“अपने घर-परिवार के लिए मैं बहुत अच्छा हूँ और बाकी पूरी दुनिया के लिए भ्रष्ट हूँ”, इसका नाम नहीं है प्रेम।
“मैं पूरे तरीके से तुम पर निर्भर हो गया हूँ, तुम मेरी ज़िंदगी हो”, इसका नाम नहीं है प्रेम। निर्भरता नहीं है प्रेम।
अब दिक्क़त ये है कि ये सब अगर नहीं है प्रेम, तो तुम्हारी तो प्रेम की पूरी व्याख्या ही ख़त्म हो गई। तुम कहोगे, “फिर तो सर बचा क्या? यही सब तो हम ‘प्रेम’ जानते थे।”
अपना बलिदान देना नहीं है प्रेम कि, “हम अपना जीवन तुम्हारे लिए क़ुर्बान कर रहे हैं।”
पेड़ों के चारों ओर कूदना भी नहीं है प्रेम। पेड़ों के ऊपर चढ़कर बंदरों की तरह बैठ जाना भी नहीं है प्रेम। रोमांचक प्रेम कथा भी नहीं है प्रेम कि वो दौड़ती हुई चली आ रही है, सूखे पत्तों पर पाँव रखती हुई, और आसमान से गुब्बारे बरस रहे हैं, और वायलिन की आवाज़ आ रही है। हल्की-सी हवा चल रही है और बाल उड़ रहे हैं, और बिलकुल सुहाना मौसम है।
(सभी श्रोतागण ज़ोर से हँसते हैं)
बात यहीं पर रोकनी होगी क्योंकि तुम्हारे लिए तो प्रेम का अर्थ इसके अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं। तो पहले तो जो उसने कहा था न कि पाँच में से चार साल तो जो तुमने सीख रखा है, उसे भुलवाने में लगेंगे। नया जानने में बस एक ही साल लगेगा। जो पुराना है, जो मन पर कब्ज़ा करके बैठा हुआ है एक आदत की तरह, उससे मुक्ति पाना मुश्किल है। अतीत से मुक्ति, परिभाषाओं से मुक्ति जो यहाँ बैठी हैं (मस्तिष्क की तरफ इशारा करते हुए), इनसे मुक्ति पाना बहुत मुश्किल है।
आगे मैं बोल सकता हूँ, बोलूँगा ही कि प्रेम है क्या, लेकिन वो तुमको बिलकुल समझ में नहीं आएगा, क्योंकि तुम्हारे मन में तुम्हारी पुरानी व्याख्याएँ, जो तुमने हिंदी फ़िल्मों से सीख ली हैं, जो तुमने घर-परिवार में आसपास होती हुई देख ली हैं, वही सब भरी हुई हैं। जब तक वो भरी रहेंगी, कुछ नया समझ में आएगा नहीं।
सच्चा प्रेम तुम्हारी ही मनोस्थिति है जिसमें ना ही कोई विवाद है, ना ही कोई हिंसा। बस एक हल्का-सा आनन्द है, और तुम बाँटना चाहते हो इस आनन्द को। ये बाँटना ही कहलाता है प्रेम।
“मुझे खुद कुछ मिला है, और जो मिला है वो इतना प्यारा है कि बाँटने को मन करता है।” ये बाँटना ही कहलाता है प्रेम। जिसको पहले अभी मिला ही नहीं है वो बाँटेगा क्या? प्रेम सर्वप्रथम तुम्हारी अपनी आन्तरिक स्थिति है, इसका किसी दूसरे व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है।
प्रेम ये नहीं है कि मुझे कोई और मिल गया, प्रेम ये है कि मैंने ख़ुद को पा लिया।
बात समझ में आ रही है? नहीं आएगी, पर फिर भी बोलना ज़रूरी है, ताकि कुछ नया ही सही, कानों पर पड़े तो।
प्रेम का अर्थ है कुछ बहुत कीमती पा लेना। यहाँ (मस्तिष्क की तरफ इशारा करते हुए), एक स्थिरता, एक शान्ति, एक आनन्द। और जब तुम इसे पा जाते हो, तो इसका स्वभाव है फैलना, इसका स्वभाव है दूसरों तक पहुँचना। ये पहुँचना ही है प्रेम। पर ये तब तक नहीं हो सकता जब तक तुमने स्वयं ना पाया हो। जब अपने पास होगा तभी तो बाँटोगे न। जब अपने ही पास नहीं है तो बँटेगा कैसे?
इस ‘अपने पास’ होने की प्रक्रिया का नाम ही ‘प्रेम’ है, उसके बाद उसका बँटना नैसर्गिक रूप से, स्वाभाविक रूप से हो जाता है।
प्रेम तुम्हारी अपनी आन्तरिक स्थिति है, प्रेम तुम्हारी अपनी मनोस्थिति है जिसमें कोई उलझन नहीं है – ना तनाव, ना तुच्छता, ना माँगना, ना इकट्ठा करना।
इकट्ठा करने की कोशिश में भी नहीं लगा है मन, भिखारी नहीं है अभी कि, “मुझे कुछ और मिल जाए, कुछ इकट्ठा कर लूँ।”
प्रेम तुम्हारी वह मनोस्थिति है जिसमें मन पूर्ण महसूस करता है, और ये पूर्णता है आनन्द। जब मन स्वयं पूर्ण है तो फिर ये उस आनन्द को सभी के साथ बाँटना चाहता है। तुम प्रेमपूर्ण हो जाते हो।
और ये प्रेम तुम्हारे चारों ओर हर वस्तु तक पहुँचता है – पेड़ों तक, तुम्हारे पालतू कुत्ते तक, और इंसानों तक – ये है प्रेम। ना कि वो व्यक्ति-केंद्रित प्रेम, जिसे तुम जानते हो। वो नहीं है प्रेम।
दिक्क़त आ गई! अब तुम कहोगे, “सर आपने जो बोल दिया, ये तो बड़ी अव्यवहारिक बात है। फ़िर तो हमें कभी ज़िंदगी में प्रेम नहीं मिलेगा!”
बिलकुल नहीं मिलेगा, जब तक तुम अपनी वो पुरानी धारणाएँ पकड़ कर बैठे हुए हो। जैसे ही उनको छोड़ोगे, तो मिल भी सकता है। बस इतना ही समझ लो कि पहले ख़ुद पाना है, फिर ही किसी और को दे पाओगे। इसलिए दूसरों की ओर देखना बंद करो कि, "मेरी ज़िंदगी में प्रेम नहीं है, कहीं और से मिल जाए", कि – “आओ और मेरे जीवन के सूनेपन को भर दो।”
दूसरों की ओर देखना बंद करो, प्रेम तुम्हारी आन्तरिक पूर्णता है।
मुझे ये आशा नहीं है कि ये बात पूरी तरीके से समा ही गई होगी, जितनी पहुँची है तुम तक उतना ही काफ़ी है।