प्रश्नकर्ता: आध्यात्मिक साधना की प्रक्रिया में कई बार घरवालों के, मित्रजनों के कई प्रश्नों का सामना करना पड़ता है। मुझे पाँच वर्ष हो गए, पर अभी तक मुझमें इतनी स्पष्टता नहीं आयी है कि मैं उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकूँ।
आचार्य जी, कृपया आप इसमें मेरी मदद करें।
आचार्य प्रशांत: स्पष्टता नहीं चाहिए, प्रेम चाहिए। जो कर रहे हो, अगर वो आपको दिल-ओ-जान से प्यारा हो, तो तकलीफ़ क्या होगी किसी को नहीं भी समझा पाए तो?
अभी आपकी समस्या ये नहीं है कि आपको स्पष्टता नहीं है। आपको बुरा तब लगता है जब कोई प्रश्न करता है, और आप कोई जवाब नहीं दे पातीं। मतलब आप महत्त्व देती हैं दूसरे व्यक्ति को, मतलब आप महत्त्व देती हैं दूसरे व्यक्ति को समझाने को।
जब आप जो कर रही हैं, पढ़ रही हैं, उससे प्रेम ही हो जाता है, तो सारा महत्त्व उस करने को, और पढ़ने को दे दिया जाता है। अब दूसरे को समझा पाए तो ठीक, नहीं समझा पाए, तो ठीक। वैसे तो बात बहुत समझाने-बुझाने की होती नहीं है।
कौन किसको समझा सकता है कि उसको प्रेम क्यों है? कैसे समझाओगे?
आप जो कर रही हैं, उसमें कहीं-न-कहीं गहराई की कमी है अभी, इसीलिए जल्दी विचलित हो जाती हैं जब कोई आकर के टोकता है, सवाल करता है, आक्षेप लगाता है। नहीं तो आप मग्न हैं, साधना में, शास्त्रों में, कोई आकर के दो-चार अच्छी-बुरी बातें कुछ जली-कटी बोल भी गया, तो आप तो मग्न हैं। आप तो आनन्द में हैं, आप तो अपने में डूबी हुई हैं। आप तो ऋषियों और संतों के साथ हैं।
और वहाँ तो बड़ी मौज है।
“कोई आया होगा, कुछ बोल गया। हाँ, कुछ बोल तो रहा था। क्या बोल रहा था?”
“बाबा, सुनो! ज़रा दोबारा बताकर जाना, क्या बोले।”
और जब तक वो दोबारा बताया, आप फिर खो गईं। जो बोलने आया था, वही झल्लाकर लौट गया।
“कुछ भी बोलते रहो, ये तो न जाने कहाँ खोई रहती है।”
आपने कल भी जो प्रश्न पूछा था, और आज भी, दोनों में साझी बात ये है कि आप पर दुनिया की बातों का असर बहुत होता है। चाहे वो पशुओं के सन्दर्भ में हो, चाहे वो ऋषियों के सन्दर्भ में हो। आप पशु के साथ होती हैं, कोई आकर टोक देता है, आप विचलित हो जाती हैं। आप ऋषि के साथ होती हैं, कोई आकर टोक देता है, आप हिल जाती हैं। जिसके भी साथ रहिए, फिर गले ही लगा लीजिए। फिर ये जो टोका-टोकी करने वाले हैं, दूर से ही लौट जाएँगे।
ये भी सही शिकार देखकर ही वार करते हैं। इन्हें जहाँ पता होता है कमज़ोरी है, ये वहीं चोट करते हैं। आपकी हस्ती देखकर ही उन्हें अगर समझ में आ जाए कि इस पर चोट करके अब लाभ होगा नहीं, तो फिर ये अपने पैतरे कहीं और आज़माएँगे, आपको ये अकेला छोड़ देंगे।
वो कहेंगे, “आलस है, साधना नहीं है”, आप कहेंगे, “हौ।”
(हँसी)
“है आलस! तो? कोई कर्ज़ उतारना है? तुमसे कुछ ले रखा है हमने? आलस है तो है। हाँ, है आलस।”
“रोज़मर्रा की ज़िंदगी के ही काम करिए आप।”
“जी, मेरी रोज़मर्रा की ज़िंदगी यही है। वही कर रही हूँ। बैठिए, चाय पिलाती हूँ।”
जब तक चाय आयी, महाशय नदारद हैं, आलस वाली चाय है न! दुल्हा-दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बारात।
“मैं, मेरी ज़िंदगी, तुम हो कौन? शुभेच्छु बनकर आओ, बात अलग है, स्वागत है तुम्हारा। प्रेमी बनकर आओ, प्रार्थी बनकर आओ, तो भी स्वागत है। पर मेरे और मेरे प्रेम के बीच बाधा बनकर आओगे, तो आलस वाली चाय पाओगे।”
तो कमी क्लैरिटी , स्पष्टता की नहीं है, कमी प्रेम की है।
प्रेम बढ़ाइये, ये दाएँ-बाएँ वाले सभी ख़ुद ही विलुप्त हो जाएँगे।