प्रेम है मात्र अपने परित्याग में || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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प्रेम है मात्र अपने परित्याग में || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

आप मिटै पिउ मिले,पिउ में रहा समाय ।

अकथ कहानी प्रेम की,कहें तो को पतियाय ।।

~ संत कबीर

वक्ता: ये उम्मीद करना भी कि समझ जाएगा,बड़ी नासमझी की बात है। सूरज इस उम्मीद में नहीं चमकता कि वो समझ लिया जाएगा। दीया इस उम्मीद में नहीं जलता कि और दीये प्रकाशित होंगे। याद रखना यहाँ कॉज़ एंड इफ़ेक्ट(कार्य-कारण) चलता नहीं है। कॉज़ एंड इफ़ेक्ट सिर्फ़ मशीनों में चलता है। क्यूँकी कॉज़ एंड इफ़ेक्ट नहीं चलता, इसीलिए समझा पाना बड़ा मुश्किल है।

तुम कैसे समझाओगे किसी को कि तुम्हें एक चिड़िया की आँख में क्या दिख गया? ऐसा नहीं है कि शब्द नहीं होगा, शब्द होगा। तुम कोई भी शब्द उठाकर कह सकते हो। तुम कह सकते हो कि देख रहा था और गहरे ध्यान में उतर गया। पर कैसे यकीन करेगा कोई? चिड़िया को देखने में और गहरे ध्यान में उतरने में कोई कॉज़-इफ़ेक्ट रिलेशनशिप (कार्य-कारण का सम्बन्ध) दिखाई ही नहीं देती। कैसे यकीन करेगा कोई कि मैं अंतर्मुखी हुआ, और इससे मेरा मेरे पड़ोसी से सम्बन्ध बेहतर हो गया? कैसे समझा पाओगे?

कोई सम्बन्ध इन दोनों बातों में, कोई तार्किक संयोजन दिखाई ही नहीं देता। तुम कह रहे हो, “मैं अंतर्मुखी हुआ” – ‘अंतर्मुखी’ मतलब अपने साथ हुआ। अपने साथ हुआ तो पड़ोसी से सम्बन्ध कैसे अच्छा हो गया? और तुम ये कहोगे तो हँसने वाले हँसेंगे,और कोई मानेगा नहीं। और वो यही कहेंगे कि तुम भ्रमित हो गए हो।

तुम अपना छुट्टी का दिन, क़रीब-क़रीब पूरा आधा ही दिन किसी प्रोडक्टिव (उत्पादक) काम में लगाओ, उससे कोई आमदनी होती हो,उससे कोई प्रमाणपत्र मिलता हो, उससे तुम्हारा स्किल एन्हांसमेंट(कौशल वृद्धि) होता हो,तो बात समझ में आती है। कैसे समझाओगे किसी को कि सुबह सात बजे घर से निकलकर तीन बजे घर वापस आते हो, तो क्या पाते हो? रुपया-पैसा तो कुछ कमाते नहीं, कोई सर्टिफिकेट(प्रमाणपत्र) भी नहीं मिलता कि सी.वी पॉइंट बनेगा, कैसे समझाओगे? कोशिश करके बताओ।

बल्कि रुपया-पैसा लगाते हो, ऑटो वाले को पैसा देते होंगे, तब यहाँ आते हो। कैसे समझाओगे कि पहले तो तुमने आराम छोड़ा, छुट्टी का दिन था कुछ न करते, आराम से सोते रहते। तुमने परिवार छोड़ा, कुछ न करते उनके साथ बैठे रहते। आज तुम्हारे लिए ख़ासतौर पर टी.वी वगैरह पर कार्यक्रम परोसे जाते हैं कि रविवार है। आज ख़ास चाट बनती है, तुम कैसे समझाओगे कि क्या करने आते हो? समझाकर दिखा दो।

ये दुनिया का सबसे व्यर्थ काम होगा – समझा पाने की चेष्टा करना। एक ही तरीका है समझा पाने का, दूसरा हुआ ही नहीं आज तक, न होगा। वो तरीका क्या है? पहले भी कई बार कह चुका हूँ, वो तरीका क्या है? ले आओ। कोई आएगा तो समझ जाएगा। और अगर कोई बार-बार पूछे पर आने से इनकार करे, तो समझाना मत, क्यूँकी वो समझा हुआ है।

दो लोग हैं जो ख़ूब समझते हैं। एक जो ख़ूब आते हैं, दूसरे जिन्होंने ठान रखी है कि आएँगे नहीं। इन दोनों में बस ज़रा-सा ही अंतर है, बाकी ये पूरे एक हैं, बिल्कुल एक हैं। कोई अंतर नहीं है इनमें। बात पर गौर करना।

वो जो मौज में मस्त ख़ुद ही चला आता है, उसमें, और जिसने कसम खा रखी है कि कभी नहीं जाऊँगा, जान दे दूँगा पर जाऊँगा नहीं, आकर दरवाज़े पर बैठ जाऊँगा पर अन्दर नहीं जाऊँगा, ये दोनों एक हैं बिल्कुल। जिसने कसम खा रखी है कि जाऊँगा नहीं, उसको इतने से धक्के की ज़रूरत है बस। अगर वो समझता न होता कि यहाँ क्या हो रहा है, तो आने से इतना डरता नहीं। उसे बखूबी पता है कि यहाँ क्या हो रहा है, वो इसीलिए कसम खाए बैठा है कि – ‘न, मुझे खतरे का भली-भाँती पता है। मैं अन्दर कैसे कदम रख सकता हूँ?’

वो नहीं आएगा। समझा लेकिन नहीं पाओगे। चाहो तो किसी को बता दो, क्योंकि बताईं सिर्फ़ तर्कपूर्ण बातें जा सकती हैं। एक आदमी से दूसरे आदमी में जो कम्यूनिकेशन(संचार) होता है न, वो दो ही तरीके का होता है। एक तो वो, जो कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं। वो उस तल पर होता है जहाँ हम पहले ही एक हैं – एक संवाद तो वो होता है। रमण महर्षि कहते थे कि दो ही तरीके हैं मुझे सुनने के – या तो मेरी आवाज़ सुनो, या मेरी ख़ामोशी सुनो।

तो एक संवाद तो वो है, और वो बहुत गहरा संवाद है, वो खामोशी का संवाद है। वहाँ कुछ कहने-सुनने को कुछ है ही नहीं। कोई अपूर्णता ही नहीं है। तुम क्या किसी को बताओगे? ऐसा क्या है जो उसे पता नहीं, और तुम बता दोगे? बताने का तो आशय ही यही है न कि – ‘तू जानता नहीं, मुझे तुझे अवगत कराना है’। कुछ है ही नहीं बताने को।

एक खामोशी है और दूसरी भी खामोशी, क्या बोलेंगे एक-दूसरे से? वो असली संवाद है। और एक दूसरा तरीका भी है संवाद करने का। वो, वो होता है जहाँ पर मन और मन की धारणाएँ; ये आपस में बात करते हैं। वहाँ पर जो दो पक्ष बात करते हैं, वो दो तर्क बात करते हैं। वहाँ तुम जो कह रहे हो, वो दूसरा सिर्फ़ इसीलिए सुन सकता है क्योंकि दोनों की शिक्षा एक ही प्रकार के तर्क में हुई है।

बातचीत या तो प्रेम में होती है, या तर्क में होती है। और कोई तीसरी बातचीत नहीं होती है। ‘तर्क’ का मतलब समझते हो? तुम कैसे समझ जाते हो जो भी कोई दूसरा तुमसे बोलता है? इस कम्यूनिकेशन(संवाद) का प्रोसेस(प्रक्रिया) क्या है, इसपर थोड़ा ध्यान दीजिये।

जब वो कहता है,“मैं आ रहा हूँ,” तो उसमें उसने मानसिक रूप से जिस प्रक्रिया की कल्पना की है, उस कल्पना से आप सहमत हैं। आपकी साझी कल्पना है वो। तो आप कहोगे, “ठीक! आपने जो बात कही उसमें जो कॉज़-इफ़ेक्ट रिलेशनशिप है, वो मेरे दिमाग में जो कॉज़-इफ़ेक्ट रिलेशनशिप है, उससे मेल खाती है।” तो यहाँ एक समझौता हुआ है।

याद रखना – समझना नहीं हुआ है, उस तल पर समझना नहीं होता है। समझना तो खामोशी के तल पर ही होता है। उस तल पर एग्रीमेंट (समझौता) होते हैं। हाँ, मैं सहमत हूँ। एक संवाद है ख़ामोशी का, वहाँ समझ होती है। एक संवाद है मन का, तर्क की वहाँ सहमती होती। सिर्फ़ क्या होता है?

सभी श्रोता: सहमति।

वक्ता: बातचीत करता हूँ तो दो तरह के छात्र होते हैं, जो प्रसन्न नज़र आते हैं। एक जो कहेंगे, “मुझे समझ आ गया।” एक दूसरे तरह के होते हैं जो इनसे भी ज़्यादा प्रसन्न होते हैं। वो कहते हैं, “सर, हम, आप जो कह रहे हैं उससे पूरी तरह सहमत हैं।” इन्होंने कुछ समझा नहीं। इनको बस इतना ही लगा है कि इनको लगता है कि मेरा तर्क इनके तर्क से मेल खाता है। वहाँ बस इतना ही हुआ है। समझ रहे हो?

अब प्रेम में तुम कुछ ऐसा करने जा रहे हो जो इन दोनों की सीमाओं को तोड़ता है। खामोशी की खामोशी से बात हो जाएगी, और कोई दिक्क़त नहीं आएगी। और तर्क की तर्क से बात हो जाएगी, कोई दिक्क़त नहीं आएगी। ये दोनों ही संवाद बहुत मज़े में हो जाने हैं।

खामोशी, खामोशी से बात करे, चलेगा और मशीन, मशीन से बात करे, वहाँ भी कोई दिक्क़त नहीं आएगी। इसका सॉफ्टवेयर, उसके सॉफ्टवेयर से कम्पैटिबल(संगतपूर्ण) है, तो कोई दिक्क़त नहीं आनी है।

अब प्रेम में तुम कुछ असंभव किया करते हो। वहाँ तुम खामोशी की आवाज़ तर्क को सुनाना चाहते हो। अब कैसे सुनाओगे? कबीर इसीलिए बार-बार कहते हैं,“गूँगे की सैन”। गूँगा अपनी कहानी सुनाना चाहता है, कैसे सुनाएगा? तर्क समझ ही नहीं पाएगा। तर्क क्या समझ सकता है? तर्क, ‘तर्क’ समझ सकता है, और यहाँ जो हो रहा है वो अतार्किक होगा, वो, कार्य-कारण के पार है। अतार्किक पूरे तरीके से।

तुम्हारा सब छिना जा रहा है, और तुम देने को उतावले हो रहे हो – ये तो अतार्किक बात है। कैसे समझाओगे? अपने पागलपन को व्यक्त करने के लिए क्या तर्क दोगे? कैसे बताओगे कि पागलपन क्यों है? उसमे कोई ‘क्यों’ नहीं है, बस है। और क्योंकि उसमें कोई ‘क्यों’ नहीं है, इसलिए तो वो पागलपन जैसा लग रहा है, अन्यथा पागलपन वो है ही नहीं।

दुनिया ‘पागल’ किसे कहती है? जो अतार्किक काम करता हो। संत तो फिर महापागल है, वो पूर्णतया अतार्किक काम करता है। तुम गलती यही कर रहे हो। तुम अतार्किक बातों को, एक तार्किक मन को समझाने की कोशिश कर रहे हो।तुम हारोगे, मुँह की खाओगे। नहीं समझाई जा सकती।

हाँ, एक समय ऐसा आता है जब सिर्फ़ तुम्हारे होने से, तुम्हारे कर्म से नहीं, याद रखना, तुम्हारे होने से बात अपने आप फैलती है। एक्शन नहीं प्रेसेंस (कर्म नहीं उपस्थिति)। तुम्हारी प्रेसेंस काफ़ी होती है। तुम्हारी ‘प्रेसेंस’ से मेरा मतलब ये नहीं है कि तुम्हारे शरीर की प्रेसेंस। तम्हारे करने से नहीं होता, तुम्हारे होने से होता है। और वो भी बड़े अतार्किक तरीकों से होता है, तुम्हें समझ ही नहीं आएगा कि ये हो कैसे गया।

वो सिर्फ़ सामने वाले को ही आश्चर्य नहीं देगा, तुम्हें भी झटका दे देगा। ये कैसे हो गया? अरे! तुम्हारे ही माध्यम से हुआ है, पर तुम्हारी अनुमति लेकर नहीं हुआ है, इसीलिए तुम्हें पता नहीं है। हुआ तुमसे ही है। अजीब, अद्भुत घटनाएँ घटती हैं – इन्हीं को तो ‘जादू’ कहते हैं।

सुना होगा तुमने तमाम तरीके के चमत्कार, जादू और इस तरीके की बातें? कि वो किसी के घर में गए, वहाँ पर कोई विक्षिप्त था, और वो एक कमरे में बंद रहता था। वो कुछ नहीं बस गए उनके घर में, एक घंटा रुके, खाना-पीना खाया, वो जो आदमी विक्षिप्त था, एक कमरे में बंद था, उसको देखा भी नहीं, उससे बात भी नहीं की। उनको बताया भी नहीं कि इस कमरे में एक विक्षिप्त आदमी कैद करके रखा हुआ है, खाना-पीना खा के चले गए और वो आदमी ठीक हो गया।

हैं कहानियाँ, और घटी हैं घटनाएँ। इसमें कैसे लाओगे कोई तार्किक सम्बन्ध? न उन्होंने देखा, न उन्होंने छुआ, न उन्होंने बात की, न उन्हें पता ही था,तो कैसे ठीक हो गया? हो जाता है। तो ये तो अस्तित्व का जादू है, इसको देखो और पी जाओ। ये दिखा नहीं पाओगे। अब समझ आ रहा है – “*ब्यूटी लाइज़ इन द आइज़ ऑफ़ द बिहोल्डर*”? दिखाई नहीं जा सकती।

इसका ये नहीं मतलब है कि आपको जो पसंद है वो आपको सुन्दर लगता है। उस बात का अर्थ बिल्कुल दूसरा है। “ब्यूटी लाइज़ इन द आइज़ ऑफ़ द बिहोल्डर,” उसका ये अर्थ है कि सुन्दरता बाहरी नहीं है। ब्यूटी कहाँ है? आतंरिक है, आँख में है। ऑब्जेक्ट(विषय) में नहीं है ब्यूटी।है ही नहीं, कहाँ है?

इसका ये नहीं अर्थ है कि अपनी-अपनी प्रेमिका सबको सुन्दर लगती है कि – *“ब्यूटी लाइज़ इन द आइज़ ऑफ़ ड बिहोल्डर”*। उल्टा-पुल्टा अर्थ मत कर लेना। प्रेमियों ने हमेशा बड़ी अतार्किक बातें ही की हैं। ‘लैला-मजनू’, ‘लैला-मजनू’ जो करते हो, लैला बड़ी साधारण नैन-नक्श की थी, जैसी अधिकाँश औरतें होती हैं।

अब मजनू पागल है, “लैला-लैला” कर रहा है, अड़ा हुआ है। तो बादशाह को भी दया आई।उसने कहा, “तू क्या बावला हुआ जाता है, इधर-उधर सिर पटकता है ‘लैला-लैला’?”और बोलता है,” मैं तेरा जुगाड़ किए देता हूँ।” हुक्म देता है कि सल्तनत की जो सबसे ख़ूबसूरत लड़कियाँ है, उन्हें ज़रा ले आओ।

तो पंद्रह-बीस लड़कियाँ लाईं गईं।एक से एक चुनिन्दा नैन-नक्श, रंग जो साधारणतया ख़ूबसूरती के पैमाने माने जाते हैं। राजा ने मजनू से कहा,“देख, इसमें से जो पसंद आए ले ले।लैला-लैला क्या चिल्लाता है अब? गई तो गई।” मजनू ने सबको देखा, बोलता है,“नहीं,(देख सबको रहा है, ध्यान से देख रहा है बिल्कुल) ये भी ठीक नहीं है।”

बादशाह ने कहा,“क्या, दिक्क़त क्या आ रही है? क्या ठीक नहीं है?” बोलता है,“ये लैला नहीं है। बाकी सब ठीक है इनमें, पर ये लैला नहीं हैं।” अब ये तुम कैसे समझाओगे बादशाह को? कोई ये तर्क वाली बात है कि ये लैला नहीं है। और ‘ये लैला’ मतलब क्या, तुम्हें क्या लग रहा है? वो लैला की शक्ल ताक़ रहा था, लैला का शरीर ढूँढ़ रहा था कि लैला जैसी दिखे? तुम्हें क्या लगता है कि लैला जैसी हूबहू कोई आ जाती, बिल्कुल लैला जैसी दिखने वाली, तो मजनू स्वीकार लेता उसको?

नहीं! ‘लैला नहीं है’- इसका अर्थ ये नहीं है कि लैला जैसी दिखती नहीं है। वहाँ पर बात आध्यात्मिक होती है।लैला मजनू के लिए अब व्यक्ति नहीं है, और बादशाह व्यक्ति परोस रहा था। उसने पंद्रह व्यक्तियों को खड़ा कर दिया था कि इनमें से चुन लो। इतना ही कह रहा है मजनू कि – ‘वो व्यक्ति है ही नहीं।तू पंद्रह क्या, पंद्रह सौ खड़े कर ले’।

तर्क कर सकता है बादशाह? जब वो इसी भाषा में बात करे, तो तर्क कर सकता है बादशाह, क्या? कि जब वो व्यक्ति है ही नहीं, तो तू कोई भी व्यक्ति चुन ले। तर्कों का जवाब, तर्कों से दिया जा सकता है।

‘*प्रेम’ का अर्थ ही है उससे सम्बद्ध हो जाना जो अकारण है।*

प्रेम हमेशा अतार्किक होगा। तुम्हें भी बुरा लगेगा, तुम अपनेआप को गाली दोगे कि मैं ये बेवकूफ़ी क्यों कर रहा हूँ? क्योंकि हमारे लिए होशियारी का अर्थ ही क्या है? तर्क, लॉजिक। ख़ुद तुम्हें बात ऐसी लगेगी कि स्वीकार नहीं हो रही है, इसीलिए प्रेम में दुविधा भी ख़ूब होती है।

वो भेजा था न? “करूँ क्या? पिया से मिलने जाऊँ तो गली में कीचड़ है। कपड़े गीले होंगे, कीचड़ लगेगा।और न मिलने जाऊँ, तो पिया रूठेगा।” दुविधा होती है, क्योंकि तर्क हमारे मन में भी गहरा बैठा है, और हम अपने ही मन को नहीं समझा पाते कि हम ये बेवकूफ़ी क्यों कर रहे हैं।

जिन्हें भी प्रेम का स्वाद मिलता है, उन्हें ये बड़ी दिक्क़त आती है। वो अपने आप को भी नहीं समझा पाते कि वो ये पागलपन क्यों कर रहे हैं। दूर रहते हैं, तो ख़ुद ही कसम खाते हैं कि – ‘नहीं-नहीं अब ये पागलपन नहीं करूँगा’। फ़िर पास आते हैं तो अपनी ही कसम तोड़ देते हैं।

यही था न, कि – “मिलो न तुम तो हम घबराएँ, मिलो तो आँख चुराएँ, हमें क्या हो गया है”? “तुम्हीं को दिल का हाल बताएँ, तुम्हीं से राज़ छुपाएँ, हमें क्या हो गया है?” जब सामने आता है, तो सारे राज़ खुल जाते हैं।जब चला जाता है तो तर्क फ़िर हावी हो जाता है। फ़िर अपने आप से ही कहते हो, “ये क्या पागलपन कर दिया? क्यों सारी बात बयान कर दी? क्यों कर दिया ऐसा? आगे से नहीं करेंगे।”

लेकिन तर्क साथ लेकर मरोगे? करोगे क्या उसका? वो सांत्वना दे देता है, सांत्वना दे देता है कि – बचे रहोगे।

याद रखना कार्य-कारण हमेशा समय में चलते हैं। तर्क, कार्य-कारण है। तर्क पर चलकर हमेशा तुम्हें ये लगता है कि समय स्थापित रहेगा, बचे रह जाओगे, मरोगे नहीं। डर से निकलते हैं सारे तर्क।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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