प्रेम बाँटना ही प्रेम पाना है || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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प्रेम बाँटना ही प्रेम पाना है || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: जैसे मैं मन से बीमार सा हूँ, खुश नहीं हूँ, और लोग मुझ पर प्यार बरसा रहे हैं। कुछ लोगों को लगा कि और प्यार बरसाया जाए तो ठीक हो जाएँगे, पर कुछ नहीं हुआ। तो ये प्यार और मन का सम्बन्ध क्या है?

वक्ता: देखिये, प्रेम बड़ी उल्टी क्षय है। दुनिया के ढर्रों से उसका कोई लेना-देना नहीं। दुनिया में तो ऐसा होता है कि कोई आपको कुछ दे, तो आपको मिल जाता है। प्यार के ऊपर ये नियम लागू नहीं होता। कोई आपको कुछ दे, तो आपको मिल नहीं सकता। प्यार आपको तब मिलता है, जब आप प्यार देते हैं। पैसा आपको तब मिलता है जब कोई आपको पैसा देता है, आप देंगे तो आपका पैसा घट जाएगा। आपके ह्रदय में प्यार तब बढ़ता है, जब आप प्यार देते हैं।

यदि वाकई आप सौभाग्यशाली हैं, और आपके आस-पास लोग हैं जो आपके प्रति प्रेमपूर्ण हैं, तो उनका जीवन ज़रूर उल्लासित हो रहा होगा क्यूँकी वो आप पर प्रेमवर्षा कर रहे हैं। पर उससे आपको कुछ विशेष नहीं मिल पाएगा; तब तक नहीं मिल पाएगा, जब तक आप बाँटना न शुरू करें। यहाँ लेने का हक़ उसको है, जो पहले खूब देता हो। और जो जितन आता है, उसका उतना बढ़ता जाता है। बड़ी अजीब चीज़ है। बांटते जाओ, बढ़ता जाएगा।

क्राइस्ट बोल गए कि जिनके पास खूब हैं, उनका और बढ़ेगा और जिनका कुछ नहीं है , उनको और कुछ नहीं मिलेगा; छीन और लिया जाएगा। उपनिषद् कह गए कि पूर्ण अपनेआप को पूरा भी दे दे, तो भी उसमें कोई कमी नहीं आती। पूर्ण से पूर्ण निकाल दो, पूरा ही अपनेआप को वो दे दे, तो भी उसमें कुछ कम नहीं हो जाना। कम ही नहीं हो जाना है, उसमें उत्तरोत्तर बढ़ौत्री ही होती है। दीजिये।

आप कहें, ‘’कैसे दूँ?’’ है ही नहीं कुछ। देंगे तो मिल जाएगा। यहाँ पहले नहीं मिलता। कहा था न बड़ी उल्टी क्षय है प्यार। कोई ये इंतेज़ार करे कि, ‘’पहले मुझे मिलेगा , तब बांटूंगा,’’ तो वो दिन कभी आता नहीं। आप बाँटना शुरू करो, देखो मिल जाएगा। ये भाव उठना कि, ‘’मैं दे पाऊं कुछ,’’ यही बहुत बड़ी अनुकम्पा होती है।

प्रेम क्या है? प्रेम है: मन का शांत हो जाना, स्रोत के समीप आना। मन हमेशा शान्ति की ओर आकर्षित रहता है, इसी आकर्षण को प्रेम कहते हैं। मन हमेशा खिंचा चला जाता है, किसी की तरफ़, उसी को प्रेम कहते हैं। और किसकी तरफ़ खिंचता है? शान्ति की तरफ खिंचता है। मन शान्ति ही चाहता है , हमेशा। जैसे-जैसे मन शांत होता जाता है, वैसे-वैसे आपका कुछ पकड़ के रखने का जज्बा ख़त्म होता जाता है। जो कुछ भी आपने पकड़ के रखा होता है, वो आप छोड़ने लग जाते हैं। वो आपके माध्यम से बँटना शुरू हो जाता है – ये प्रेम है। और जैसे-जैसे आप छोड़ते जाते हैं, मन और शांत होता जाता है। आपके छोड़ने की क्षमता बढ़ती जाती है। आप दिए जा रहे हो, और देने में ही आपका उल्लास है। आपका मन ही नहीं करता, कंजूस की तरह पकड़ के रखने का।

कुछ भी हो आपका रुपैया-पैसा, अपना श्रम, अपना समय, अपना होना आप कुछ भी बाँटने को उतारू हो। आप कह रहे हो कि, ‘’इतना सब कुछ है, जो मिल गया है कि इतनी छोटी बातें क्या पकड़ के रखूँ? ये ले जाओ न सब!’’ ये सब बंट रहा है आपसे और जब आपसे ये सब बंटता है, तो उससे दूसरों को अनुप्रेरणा मिल सकती है। मिल सकती है, ज़रूरी नहीं है कि मिल ही जाए।

संत आए और बाँट के चले गए, इतनों को बांटा। पर ज़रूरी नहीं है कि जिन सब को बांटा , उनके अन्दर भी दिव्यता उठे। ज़रूरी नहीं है, पर कुछ के भीतर उठती है।

श्रोता: क्या उनका कोई इलाज है , जिनके भीतर नहीं उठती?

वक्ता: प्रार्थना। यही इलाज है कि, हम ही अभागे रह गए थे क्या? बारिश हो रही है, हम ही सूखे-सूखे रह जाएँगे?’’ यही है इलाज। प्रार्थना वही नहीं है, जो रुक के, थम के, खड़े हो कर के, किसी विशेष आसन में या किसी विशेष स्थान पर की जाए।

प्रार्थना का अर्थ होता है : जो ऊँचे से ऊँचा है, वो माँगना।

ऊँचे से ऊँचा जो है, उसे माँगना। आज आप यहाँ बैठे हो, आप कितने ही सवाल कर सकते थे। आपने सवाल किया है, प्रेम के बारे में। ये सवाल प्रार्थना है। जिस किसी ने वो माँगा, जो संसार के पार का है, और प्रेम निश्चित संसार के पार का है, उसी ने प्रार्थना करी। चाहे जिस किसी ने माँगा हो, किसी ने मुक्ति माँगा, किसी ने आनंद माँगा, किसी ने प्रेम माँगा – ये प्राथना है। किसी ने संसार के भीतर का कुछ माँगा, प्रार्थना नहीं है।

आप यदि यहाँ सामने बैठे हुए हो और सवाल उठा रहे हो कि प्रेम चाहिए, तो यही तो प्रार्थना है। आपको और कुछ थोड़े ही करना है?

सवाल अगर ईमानदार है , तो प्रार्थना स्वतः स्वीकार हो जाती है।

सवाल अगर ईमानदार है तो अपनेआप आप में एक क्षमता आ जाएगी कि आप बाँट पाएँ, दे पाएँ। और देखिये न , कि जो ऊँचे से ऊँचा माँग रहा है, निश्चित रूप से वो जान गया है कि अब मूल्य किसको देना है। ऊँचे से ऊँचे को, वो अब निचले को मूल्य दे ही नहीं पाएगा। वो जान गया है कि क्या कीमती है, बाकी सब वो छोड़ता चलेगा। वो किसी को देगा भी तो ऊँची से ऊँची चीज़ ही देगा क्यूँकी बाकियों को तो वो समझ गया है कि मूल्यहीन हैं, इनको तो देकर भी क्या मिलेगा। इनका विसर्जन किया जा सकता है, या किसी के काम आती हों, तो दिया जा सकता है कि ले जाओ। पर वास्तव में देने लायक कुछ है, तो प्रेम ही है। तो वो तो प्रेम बांटेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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