प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रेम और मोह में क्या फर्क होता है?
आचार्य प्रशांत: प्रेम ऐसा है कि जैसे कोई चार दीवारों में कैद है और कैद उसे अखरने लगी है, बाहर की हवा प्यारी लगने लगी है, और बाँसुरी पर दी हुई तान हवा पर बहती हुई, उसकी दीवारों के बीच ही उसको आकर्षित करने लगी है। तो अब उसे दीवारें सुहाएँगी नहीं। दीवारों के भीतर बहुत कुछ ऐसा है जो सुख दे सकता है, साज-सज्जा है, सुविधा का सामान है; काफी कुछ है जो रुके रहने के लिए लालायित करता है। लेकिन प्रेम का मतलब ही है कि अब रुकेंगे नहीं।
पुरानी, अति पुरानी, प्राचीन दीवारें, ये चाहे सुख देती हों और चाहे रुके रहने के पक्ष में धमकाती हों, इनमें रुकेंगे नहीं। बाहर की ताज़गी, बाहर का संगीत अब आमंत्रित कर रहा है, बाहर जाना है; ये प्रेम है। बाहर से आमंत्रण आता हो तो दीवारों के भीतर जो कुछ है वो और ज़ोर से लपटता है, वो पकड़ेगा। दीवारों के भीतर सामान है, वस्तुएँ हैं, व्यक्ति हैं, विचार हैं, वो सब और ज़ोर से रोकेंगे। पर रुकना नहीं है, बाहर जाना है।
मोह क्या है?
दीवारों की चुम्मी ले रहें हैं। बाहर से बुलावा आया हुआ है, लेकिन दीवारों के भीतर जो सामान रखा है उसी को छाती से चिपकाए हुए हैं। दीवारों पर पुरानी तस्वीरें हैं, पुरानी यादें हैं, उन्हीं से दिल लगाए हुए हैं। चाहे ताज़ी हवा हो, कि मधुर संगीत, कुछ असर ही नहीं डाल रहा; भीतर ही बँध गए हैं। बाहर से कोई लाख बुलावा भेजे, बाहर जाना ही नहीं है। वही पुराने ढर्रों को ज़ोर से पकड़ लिया है। तो बस यही ‘ज़रा सी’ असामनता है प्रेम और मोह में। 'बिलकुल ज़रा सी, बारीक, महीन।'
ताज्जुब मुझे तब होता है जब लोग पूछते हैं, “प्रेम और मोह में फर्क क्या है?” मैं पूछना चाहता हूँ, “आपको प्रेम और मोह में समानता क्या दिख गई?” ये दोनों तो एक दूसरे के विपरीत भी नहीं हैं। कोई चीज़ दूसरे के विपरीत हो, तो भी उससे पूँछ से तो बंधी होती है न?
कि जैसे दो जानवर एक दूसरे के विपरीत भाग रहें हों, तो भी उनमें पूँछ का नाता तो होता ही है। क्या नाता? कि दोनों की पूँछें, एक-दूसरे की ही दिशा में हैं। ठीक? मुँह विपरीत दिशा में है; पूँछ, पूँछ की तरफ है। इधर वाले की पूँछ, उधर वाले की तरफ है। तो जब आप से किसी का वैपरीत्य होता है, तो भी आपका कुछ तो नाता होता है न? भाई, दुश्मनों से अपना नाता होता है कि नहीं होता है? बड़ा गहरा नाता होता है।
प्रेम और मोह में तो आपसी दुश्मनी का भी नाता नहीं है; वो एक दूसरे के विपरीत भी नहीं हैं, वो अलग-अलग दुनिया के हैं। उनमें संबंध क्या देख लिया? उनमें ये तो संबंध है ही नहीं कि प्रेम और मोह एक जैसे हैं। मैं कह रहा हूँ उनमें ये संबंध भी नहीं है कि वो एक दूसरे से विपरीत हैं; एक जैसे तो नहीं हैं, एक-दूसरे के विपरीत भी नहीं हैं।
कहाँ प्रेम कहाँ मोह, इनमें नाता कहाँ है? जहाँ प्रेम है वहाँ मोह हो नहीं सकता, और जहाँ मोह है वहाँ से जान बचा कर भागिए, वहाँ प्रेम की कोई जगह नहीं है।
मोह का मतलब ही है उससे जुड़ जाना जिससे जुड़ कर के प्रेम को दूर रखा जा सकता हो।
जब आपको प्रेम से बचना होता है, तो आप यूँ ही किसी मैली-कुचैली चीज़ से नाता जोड़ लेते हैं। जिस जगह पर प्रेम को बैठना चाहिए उस जगह पर किसी और को बैठा देते हैं; इसका नाम मोह है। तो मोह होता ही इसलिए है ताकि प्रेम के झंझट में फँसना न पड़े। मोह में सुविधा है, मोह में सम्मान भी है। प्रेम तो बड़ा विध्वंसात्मक होता है, 'डाइनामाइट'; वो सब तोड़-ताड़ देता है। पुराने ढर्रें, पुरानी दीवारें, पुरानी सुविधाएँ, आपका आतंरिक सब ढाँचा, और बाहरी ढाँचों से आपको जो सामाजिक सम्मान मिलता है, वो सब तोड़ देता है प्रेम।
मोह है पुरानी व्यवस्था को ही बनाए रखने की, पुरानी व्यवस्था की ही कोशिश। और प्रेम है क्रांति; पुरानी व्यवस्था के विरुद्ध। बताओ दोनों साथ चल सकते हैं? वास्तव में प्रेम पुरानी व्यवस्था के विरोध में भी की गई क्रांति नहीं है; वो इतनी ऊँची चीज़ है कि आप उसमें पुरानी व्यवस्था का विरोध नहीं करते, पुरानी व्यवस्था को भूल जाते हो। आप पुरानी चीज़ों को इतनी भी अहमियत, इतनी भी औकात, इतनी भी तवज्जो नहीं देते कि उनका विरोध भी करो। आप कहते हो “भूल गए।”
पूछे “कहाँ चले गए थे?” तो बोले “वहाँ।”
“और इधर पीछे का सब?” तो बोले “याद नहीं रहा।”
नहीं, ये नहीं कि छोड़ दिया, त्याग दिया कि बुरा लगता है तो उठा कर फेंक दिया।
“क्या हुआ पुराने सब का?”
“याद नहीं रहा।”
ये प्रेम है।
हमारे ‘पुराने’ अहंकार के लिए प्रेम बड़े अपमान की बात होती है।
कोई आपसे लड़ ले, और जान-बूझ कर आपको आपके जन्मदिन के दिन बधाई इत्यादि न दे, तो भी आप मुस्कुराते हो। आप कहते हो “रोज़ भले मुझे याद करता हो या न करता हो, आज इसने मुझे चौबीसों घंटे के एक-एक मिनट याद किया है। एक-एक मिनट इसने अपने आप को दृढ़तापूर्वक रोका है मुझे बधाई देने से। इसे प्रतिपल याद रहा कि आज जन्मदिन है मेरा, और ये अपने आप को रोकता गया है।”
आपको बुरा नहीं लगेगा। आप कहोगे “ठीक है बच्चू।” लेकिन अगर कोई भूल ही जाए, वास्तव में भूल जाए, फिर क्या करते हो? बड़ी बेइज़्ज़ती सी लगती है न? प्रेम वो बेइज़्ज़ती है, जिसमें आप सब पुराना मैला-कुचैला भूल ही जाते हो।
“क्या किया?”
“भूल गए।”
अब समझिए कि क्यों फिर प्रेमियों को डर नहीं लगता। डर लगने के लिए कुछ याद तो होना चाहिए। आपके पीछे बाघ खड़ा हो और आप भूल जाएँ कि खड़ा है। अब डर कैसा? प्रेमियों में साहस नहीं होता, उनमें भुलक्कड़पना होता है, याददाश्त की कमी होती है। उनके ज़हन पर कोई और छा गया होता है, पुरानी यादें अब बचेंगी कहाँ? कहाँ बैठेंगी? तो पुरानी बातें सब क्या हो जाती हैं? दफा, भूल गए। मोह पुराने की खुराक पर ही पलता है, वो पुराने को भूल ही नहीं सकता। चेप!
समानता कहाँ दिख गई? असमानता भी कहाँ दिख गई?
ये तो तभी होता है जब या तो तुम बड़े मनमोहक हो, या कोई तुम पर मोहित है। मोह कहाँ कहता है कि मेरा नाम मोह है? वो तो अपना नाम भी प्रेम ही बताता है; बड़ी हीन भावना है उसमें। जो अपना नाम भी खुल कर बयान न कर पाए; बड़ा कमज़ोर होगा। जा कर किसी से बोलो 'आई मोह यू' (मैं तुमसे मोह करता हूँ)। बात बनेगी ही नहीं। तो फिर झूठ बोलते हो, धोखा देते हो। क्या बोलते हो? 'आई लव यू' (मैं तुमसे प्रेम करता हूँ)। हिम्मत कहाँ होती है इन सब की खुल कर के सामने आने की?
जाओ बोलो किसी से 'आई लस्ट यू' (मुझे तुम्हारी वासना है) जो असली बात है। वो मारेगा, वो मारेगा इसलिए नहीं कि उसको बुरा लगा है, वो मारेगा इसलिए कि तुमने सच क्यों बोल दिया। क्योंकि अब तुमने बोल दिया है तो वही बात हमें भी तो बतानी पड़ेगी 'आई टू' (मैं भी)। ऐसा नहीं कि उसको तुम्हारी लस्ट (वासना) बुरी लग रही है, उसको तुम्हारी ईमानदारी बुरी लग रही है।
लस्ट तो प्यारी चीज़ है उनके लिए क्योंकि वो रिश्ता ही आपसी लस्ट का है। लस्ट माने साझते हो न? ‘कामुकता’। वो रिश्ता ही आपसी लस्ट का ही है। जिसको जा कर के बोलोगे कि देखो तुम्हें देख कर उत्तेजित हो जाते हैं, और कोई बात है नहीं, उसको असुविधा हो जाएगी। अब उसको भी ईमानदारी से बताना पड़ेगा कि भाई खेल इधर भी वही है; इसलिए मार पड़ेगी।
प्रेम सुविधाजनक है, आलू की तरह, कहीं भी डाल दो। 'आई लव द वे यू वॉक बेबी' (मुझे तुम्हारी चाल से प्रेम है) — अरे क्या मतलब? सैंडल से प्यार हो गया है? काहे से प्यार हो गया है? हर चीज़ में आलू की तरह प्रेम मिला देते हो? 'ऐंड ही जस्ट प्लेड अ लवली पुल शॉट।' (और उसने बहुत प्यारा पुल्ल शॉट मारा) यहाँ भी लव आ गया? उसने लकड़ी का एक औज़ार घुमाया है, चमड़े की एक गेंद पर मारने के लिए, इसमें तुम्हें प्रेम कहाँ दिख गया? 'आई ऐम लविंग ईट।' (मुझे उसपर प्रेम आ रहा है)
प्रेम बेचारे की तो यही बदकिस्मती है, जहाँ चाहते हो वहीं उसको घुसेड़ देते हो। मोह के साथ भी घुसेड़ दिया है उसको। हमारी भाषा में, मोह और प्रेम, पड़ोसी शब्द हो गए हैं। जैसे अगल-बगल की ही तो बात है। ये अगल-बगल की बात नहीं है, ये अलग-अलग ग्रहों की बात है; इनका कोई रिश्ता नहीं है आपस में। जहाँ एक है वहाँ दूसरा नहीं हो सकता।
हमारे विचार, हमारा ये जो पूरा सामाजिक माहौल है और हमारी जो पूरी संस्कृति है, वो अध्यात्म पर आधारित नहीं है। अगर हमारी संस्कृति अध्यात्म पर आधारित होती तो कभी किसी लड़के के माँ-बाप उसका नामकरण ‘मोहित’ नहीं कर सकते थे; ये गाली है, ये नाम नहीं है। तुम किसी को बोल दो ‘मोहित’ ये तुमने गाली दे दी उसको। और माँ-बाप उसका नाम रख रहें हैं ‘मोहित’।
अगर हमारी संस्कृति अध्यात्म पर आधारित होती, बोध पर आधारित होती, समझदारी पर आधारित होती तो किसी लड़की का नामकरण उसके माँ-बाप ‘कामिनी’ नहीं कर सकते थे, ‘तृष्णा’ नहीं कर सकते थे, ‘ऐषणा’ नहीं कर सकते थे, ‘माया’ नहीं कर सकते थे, ‘ममता’ नहीं कर सकते थे। पर ये सब नाम चलते हैं न? इन सब नामों का प्रचलन ही बताता है कि हम ज़िन्दगी के बारे में कुछ नहीं जानते, हमें प्रेम और मोह एक जैसे लगते हैं। अभी एक लड़की का नाम सुना ‘रसना’, शास्त्रों की मानोगे तो रसना बड़ा दुर्गुण है, वही फँसा कर रखता है आदमी को दुनिया में।
आज आप भगवद्गीता से भी कुछ प्रश्न पूछेंगे; कृष्ण बार-बार बोलते हैं कि ममता के मारे हुए हो अर्जुन और कोई बात नहीं, ममता से बचो, और निर्मम होना गुणों में सर्वोपरि है। पर हमारे यहाँ तो ‘ममता’ बड़ा ही प्रचलित नाम है। ‘समता’ नाम कम सुनने को मिलेगा, ‘ममता’ ज़्यादा। ‘समता’ फिर भी सुन्दर नाम है, कबीर साहब गाते हैं, ‘ममता गई भई उर समता।’ कि ममता विदा हो गई है, अब ह्रदय में समता विराजती है। पर ‘समता’ नाम उतना प्रचलित नहीं है, ‘ममता’ प्रचलित है।
नामकरण बताता है, हम लोग किस तरीके के हैं। मैं प्रेम और मोह के मुद्दे का ही विस्तार कर रहा हूँ। संस्कृति हमारी ऐसी है कि अभी कुछ समय पहले तक लड़कों के ऐसे भी नाम रख दिए जाते थे: ‘थानेदार सिंह,’ ‘मैनेजर चौबे’। उनके लिए यही बड़ी बात थी कि लड़का थानेदार बन जाए, तो उन्होंने नाम ही क्या रख दिया? ‘थानेदार सिंह’। ये यही बता रहा है न कि जिन्होनें नामकरण किया वो पद, प्रतिष्ठा, और ताकत के कितने प्यासे थे, कि बच्चा पैदा हुआ है, उसका नाम क्या रख दिया? ‘थानेदार सिंह’।
लड़की पैदा हुई है और उसका नाम रख दिया ‘रबड़ी’, ‘मलाई’। ये क्या बता रहा है? कि दूध से बड़ी आसक्ति है, और मीठे से। तो घर में बच्ची आई है; उसका नाम इस तरीके से रखा जा रहा है: ‘खीर’, ‘जलेबी’, ‘रबड़ी’, ‘मलाई’।
वैसे ही जो ये तमाम घातक शब्द हमारे ज़हन में घुसे हुए हैं, हमारे संस्कृति में प्रचलित हैं, उनमें से एक ये है, ‘मोह’। अगर आध्यात्मिक लोग होते हम, तो ‘मोह’ शब्द से ही किनारा कर चुके होते। पर हम तो बड़ी मिठास के साथ बोलते हैं; घर में कोई होंगी बूढ़ी नानी-दादी, वो कहेंगी, 'बड़ा मोह है हमें छोटू से।' ये गाली है, मत दो। छोटू से इतना मोह कर रही हो अम्मा तो उसकी जान ले लोगी तुम। पर इनको मूल्य देते हैं; जब मूल्य देते हैं तो फिर जो हमसे कह दे कि हमें मोह है तुमसे, हम उसके सामने झुक भी जाते हैं।
हम कहते हैं, 'ये तो हमें बहुत बड़ी चीज़ दे रहा है न? बड़ी मूल्य की चीज़ दे रहा है न।' क्या दे रहा है ये हमको? मोह दे रहा है। मोह दे रहा है तो बदले में हमें भी तो कुछ देना चाहिए, तो फिर हम उसे कभी सम्मान देंगे, कभी कुछ और मूल्य देंगे, कभी उसके अहंकार को समर्थन देंगे। पर किसी न किसी तरीके से हम बदले में देंगे ज़रूर कुछ।
भाई, तुमने हमें मोह दिया है, और मोह बड़ी कीमती चीज़ है, तो कुछ तो हम भी दें। ये ऐसी सी बात है जैसे कोई आपको ज़हर दे और आप पूछें, 'कहिए कितने का चेक काट दूँ आपके लिए? आपने इतनी कीमती चीज़ दी है, कुछ तो मुझे भी देना चाहिए न? लाख दूँ? चार लाख दूँ? कितना दूँ आपको?'
पागल! उसने तुम्हें ज़हर दिया है।
जो आपको मोह दे वो आपको ज़हर दे रहा है, और बदले में आप उसकी प्रतिष्ठा कर रहें है? अपने सर पर चढ़ा रहें हैं उसे आप?