प्रेम – अहम् से आगे || (2018)

Acharya Prashant

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प्रेम – अहम् से आगे || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने जैसे कहा था कि “जब कोई पैदा होता है, तो वो वृत्तियों और विकारों के साथ पैदा होता है।” तो छोटे बच्चे इतने खुश क्यों मालूम पड़ते हैं?

आचार्य प्रशांत: जिनके पास बच्चे हों, उनसे पूछो ज़रा!

ये सवाल कोई छड़ा (कुँवारा) ही पूछ सकता है, कि “बच्चे खुश क्यों मालूम होते हैं?” बेचैनी अगर देखनी हो वास्तव में, तो किसी बच्चे में देखना। तुम उसे शांत बैठा कर दिखा दो! विचलन और ऊब अगर देखनी हो तो बच्चे में देखना। क्षण-भर को उसकी आँखें रुकती नहीं। हाथ चल ही रहा है, पाँव चल ही रहे हैं। मुँह भी चल रहा है – कुछ खाने को नहीं मिला, पीने को नहीं मिला तो अपना ही अँगूठा, कई बार तो पाँव का अँगूठा। तुम्हें बच्चे में शांति कहाँ दिख गई भाई?

वो पैदा होते ही क्या कहता है, कि ‘कमल-मुद्रा’, या चिंघाड़ मार कर रोता है? रोता ही है न? बच्चा तो अगर शांत हो जाए तो माँ-बाप घबरा जाएँगे, “कुछ हो तो नहीं गया इसको?” वो तो पालने में भी पड़ा होता है तो क्या कर रहा होता है? हाथ-पाँव चला ही रहा है। छटपटाहट देखनी हो अगर – पूरे तरीके से जैविक, प्रकृति-जन्य, उसके शरीर में छटपटाहट भरी हुई है – तो बच्चे में देखो। माँ का सारा उपक्रम ही यही होता है कि बच्चे को किसी तरीके से शांत रखूँ, और शांत वो होता नहीं। उसको शांत करने का एक ही तरीका होता है – सुला दो। वो जगा नहीं कि पूरे मोहल्ले को ख़बर हो जाती है, “जग गया इनका।”

अध्यात्म है ही इसीलिए कि जैसे तुम पैदा हुए थे वैसे ही न जियो – छटपटाते, तड़पते। अभी बच्चे को यहाँ ले आओ, कभी इसको पकड़ेगा, इसको पकड़ेगा। हर इंद्रियगत पदार्थ के प्रति उसका आकर्षण है। यहाँ कुछ लाल-सुनहरा कर दो, बच्चा तुरंत क्या करता है? उसकी ओर हाथ बढ़ा देता है। जो उसको दिखा नहीं, जो उसने छुआ नहीं, तुरंत उसकी ओर वो आकर्षित हुआ। कौन-सा बच्चा तुमने देखा है जो निरपेक्ष, निस्पृह-भाव से साक्षी-मात्र हो कर देखता हो? “ठीक! ये जगत का मेला है, सब आवत-जावत है। ये माँ है, ये बाप है।”

(श्रोतागण हँसते हैं)

ऐसा कौन-सा बच्चा तुमने देखा?

बच्चा पशुवत् पैदा होता है। सारी सामाजिक-शिक्षा होती ही इसीलिए है, कि “ये जो चीज़ पैदा हुई है पशु जैसी, इसको संस्कार दे कर के इंसान बना दो।” दिक़्क़त बस ये हो जाती है कि समाज जो शिक्षा देता है वो मामले को, बीमारी को, मर्ज़ को और बिगाड़ देती है। तो कुछ तो तुम गड़बड़ पैदा हुए ही थे, और बाकी ज़माने का तोहफ़ा है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

(प्रश्न पढ़ते हुए) थोड़ा-सा लंबा-सा है पर उसका सार ये है कि “अगर किसी से सच्चा प्रेम हो, रिश्ता भले ही देह से सम्बन्धित हो पर अगर प्रेम सच्चा हो, तो क्या मृत्यु के बाद भी उनकी आध्यात्मिक या भौतिक मदद की जा सकती है?”

किसकी मृत्यु के बाद, अपनी मृत्यु के बाद या उनकी मृत्यु के बाद?

प्र२: अपनी।

आचार्य: अपनी मृत्यु के बाद।

कबीर से पूछा था एक बार किसी ने, कि “मेरा कुछ बताइए, मुझे मृत्यु के बाद स्वर्ग है कि नहीं?” तो उसकी ओर थोड़ी देर देखे, फिर बोले, “जीयत ना तरे, मरे का तरिहौं।”

यदि कुछ देय है प्रियजनों को, स्वजनों को, तो वही क्यों न दे दे जो ये सवाल पूछ रहा है? ये सवाल कौन पूछ रहा है – मरा हुआ या जीता?

प्र२: मरा हुआ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र२: मरा हुआ से मेरा मतलब प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति से था।

आचार्य: वो पर्सन (व्यक्ति) ही मरा हुआ है या जीवित है?

प्र२: वो अटैच्ड है।

आचार्य: मुर्दा अटैच्ड होता है?

प्र२: नहीं।

आचार्य: हाँ? कभी हुआ है कि मुर्दे की घड़ी उतारें और वो लगा दे एक, “मेरी घड़ी ले कर जा रहे हो”? ये सवाल कौन पूछ रहा है?

प्र: जीवित मनुष्य।

आचार्य: और अगर तुम वास्तव में किसी को कुछ देना चाहते हो, तुम गंभीर हो, देने की तुम्हारी भावना सच्ची है, तो तुम ये कहोगे कि “बीस साल बाद जब मरूँगा तब दूँगा”, या अभी दे दोगे? जवाब दो!

श्रोता: अभी।

आचार्य: तुम ये कहते हो, कि “बेटा! तेरा बड़ी-से-बड़ी यूनिवर्सिटी में दाखिला करा दिया है, पर वसीयत में लिख दिया है कि मैं जिस दिन मरूँगा उसी दिन उसके दरवाज़े खुलेंगे तेरे लिए”, ऐसा करते हो? या ये कहते हो कि “आज चल! आज तेरी उँगली पकड़ कर ले जा रहा हूँ और जिस जगह तुझे पढ़ना चाहिए वहाँ तुझे दाखिल किए देता हूँ”?

कोई प्यासा है, उसे आज पानी दोगे या ये बोलोगे, कि “ग्लेशियर पिघला रहा हूँ, पाँच ही साल लगेंगे, ले कर आता हूँ”? आज दो न! देना चाहते हो तो कल का इंतज़ार क्यों? और मेरा आशय यही नहीं है कि मृत्यु के बाद का इंतज़ार क्यों, मैं भविष्य की बात कर रहा हूँ, कल तक भी क्यों ठहरते हो? और कल तक ही ठहरना है तो जो सवाल पूछा है इसका उत्तर मैं दो साल बाद दूँगा। ख़ुद को तो जो चाहिए वो नहीं कह रहे, कि “श्रीमन! इसका उत्तर मुझे मेरे मरने के बाद दें”, उसका उत्तर तो छटपट चाहिए, अभी। और जो स्वजन हैं, यदि उन्हें कुछ देना है तो तत्काल क्यों नहीं? बोलो!

ये देख रहे हो मन के खेल? वो भविष्य पर टालता है। और भविष्य पर वो इसलिए नहीं टाल रहा कि मृत्यु है भविष्य में, वो भविष्य पर इसलिए टाल रहा है कि कल यदि अभी कुछ बचा है तो कल तक जियूँगा; कल को उद्देश्य दे कर के कल तक जीने की तैयारी कर ली तुमने। बात भले ही मृत्यु की हो रही है, पर लोभ जीवन का है। प्रश्न जिजीविषा से निकला है, विषय भले ही उसका मृत्यु है। इरादा सुंदर है, भावना प्यारी है, देना चाहते हो। दोनों हाथ दीजिए, खुले हाथ दीजिए, दिल खोल कर दीजिए – अभी! दूकानों पर लिखा रहता है न, ‘आज नकद...’, अध्यात्म में वो बात प्रेम के लिए है। अभी दो न! ये सब क्या है, कि “हम भले ही अपने बच्चों से बात नहीं करते हैं, पर उन्हें पता भी नहीं कि उनके लिए दो करोड़ की एफ.डी. करा रखी है, वो हमारे मरने के बाद टूटेगी।” तुम जीते-जी टूटे हुए हो, मरने के बाद जो टूटेगा सो टूटेगा।

और ऐसे बहुत बाप घूम रहे हैं, वो सीधे मुँह अपने बच्चों से बात करते नहीं पाए जाते, पर दो करोड़ की एफ.डी. करा रखी है लड़की के लिए। लड़की कहेगी, “भाड़ में जाए तुम्हारी एफ.डी. ! आज मुझे तुम्हारे स्नेह की ज़रूरत है तब तुम रूखे हो, खाली हो, रेत हो, और धौंस तुम्हारी ये है कि – देख, तेरे भविष्य के लिए, तेरी पढ़ाई के लिए, तेरे दहेज के लिए मैंने इतना पैसा जुगाड़ रखा है।” ये क्या व्यर्थ की बात! देना है तो आज दो न! पौधा आज सूख रहा है, और तुम टैंकर मँगवा रहे हो यूरोप से, “इंपोर्टेड पानी दूँगा तुझे।” वो कह रहा है, “भाई! चुल्लू-भर ही दे दो पर आज दे दो। नहीं चाहिए टैंकर तुम्हारा, थोड़ा अशुद्ध जल ही दे दो लेकिन आज दे दो।”

सुनो अच्छे से – पिता हो यदि, अभिभावक हो यदि, तो बच्चों को, प्रियजनों को ऐसा कर दो कि उन पर तुम्हारी मौत का असर न पड़े। ये न पूछो कि “मैं अपनी मौत के बाद उनके कैसे काम आऊँगा”, पूछो कि “ऐसा कैसे हो जाए कि मेरी मौत के बाद उन्हें मेरी ज़रूरत ही न पड़े”, उन्हें ऐसा सक्षम बना दो। पिता हो तुम, प्रेमी हो तुम, स्नेही हो तुम, और होता ये है कि जब तुम मरे तो तुम्हारे बाद पूरा कुनबा, पूरा घर चरमरा कर गिर गया, तो फिर तो तुम बहुत बड़े दुश्मन थे सबके। फिर तो तुमने अहंकार-वश ये किया था कि घर का केंद्रीय-स्तम्भ बन कर बैठ गए थे, और जब वो स्तम्भ गिरा तो पूरा घर ही गिर गया।

जिससे प्यार करते हो, उसकी ज़िंदगी में अपने-आप को ग़ैर-महत्वपूर्ण बना दो।

और हम करते उल्टा हैं, हम कहते हैं, “हम जिससे प्रेम करते हों, उसके लिए बहुत कीमती हो जाएँ तो अच्छा है।” बार-बार पूछते हो, “तुम्हें मेरी याद आती है?” और कोई जवाब दे दे, “नो, आई डोन्ट मिस यू (नहीं, मुझे तुम्हारी याद नहीं आती)” तुम कहोगे, “ल्यो! पोल खुल गई। ये तो प्यार ही नहीं करता।” आदमी अमर होने के लिए लालायित रहता है। ये देखे हैं न, मकबरे और स्मृति-स्तम्भ? ये सब राजाओं ने क्यों बनवाए थे? “हम न रहें, हमारे बाद...”

प्र: “...लोग याद करेंगे।”

आचार्य: ये अमर होने की आकांक्षा है। आदमी कहता है, “मेरा शरीर भले ही चला गया, मैं लोगों की यादों में तो ज़िंदा हूँ न?” और अकसर लोग इस बात को बड़ा पुण्य-विचार समझते हैं, “रहें न रहें हम महका करेंगे।” अरे भूत हो क्या? टर काहे नहीं रहे, पूरे मर काहे नहीं रहे? मर कर भी कह रहे हो, “रहें न रहें हम महका करेंगे, चहका करेंगे, दहका करेंगे, बहका करेंगे।” जा काहे नहीं रहे बाबा! जगह क्यों नहीं खाली करते? लेकिन ऐसा लगता है कि “ये देखो, ये हमारे नेक इरादों का सबूत है कि हम मर कर भी टँगे रहेंगे।” तुम्हारे नेक इरादों का सबूत ये होता है कि जब तुम मरो तो किसी को तुम्हारी याद न आए। जब तुम मिटो तो ऐसे मिटो कि समय की रेत पर तुम्हारे पदचिन्ह नज़र न आएँ, पूरे गायब हो जाओ, महामृत्यु हो जाए तुम्हारी, पूर्ण विलुप्ति। इसी में तुम्हारा भी भला है, इसी में संसार का भी भला है।

सोचो तो, तुम मर गए और कोई तुम्हें याद किए जा रहा है तो इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ ये है कि तुम उसे अपने ऊपर आश्रित छोड़ गए हो।

प्र: तुम अपनी ज़रूरत छोड़ गए।

आचार्य: तुम अपनी ज़रूरत पैदा कर के मर गए हो। ये तुमने पाप कर दिया न? तुम्हारा मरना तो ऐसा होना चाहिए कि तुम मिट जाओ, किसी को ख़बर भी न हो। छोटा था पेड़, तब तक तुम उसे सींचते रहे, और एक दिन ऐसा आए कि तुम हो कि नहीं हो, पेड़ की जड़ें इतनी गहरी हो गईं हैं कि अब वो फलेगा-फूलेगा, पुष्पित-पल्लवित होगा।

अब ये बात अहंकार को ज़रा चुभती है, कि “हमारे बाद हमें कोई याद नहीं करेगा?” ये तुम उसके भले के लिए पूछ रहे हो कि अपने भले के लिए पूछ रहे हो? और ये बात तुम्हें मरने के बाद क्या प्रासंगिक रहेगी? तुम तो मर गए, अब कोई तुम्हें याद भी कर रहा है तो तुम्हें क्या मज़ा आ गया? लेकिन तुम जब तक जी रहे हो तब तक इस बात को चटखारे ले कर के स्वाद लेना चाहते हो, रस लेना चाहते हो, कि “मैं मरूँगा तो देखो बेटा।” और जताते भी खूब हो, कितना न आनंद आता है, विकृत आनंद, “अगर मैं मर गया तो?” और तुम बोल दो, “अगर मैं मर गया तो”, और दो लोग दो आँसू लुढ़का दें, तब तो पूछो ही मत कि अहंकार कैसा तृप्त होता है, कि “ये देखो हमारा वैभव, ये देखो हमारी महत्ता। हमारी मृत्यु के ख़्याल-मात्र से पाँच-जने रो पड़े।”

और संतों की बात दूसरी है, वो मृत्यु को आमंत्रित करते हैं, वो कहते हैं, “कल मरते हों हम, आज मर जाएँ।” उनका मरण अलग है, वो वास्तव में मिटना चाहते हैं। और तुम चाहते हो कि “मृत्यु हो जाए, उसके बाद भी बचे रह जाएँ, मिटें न, लोगों की स्मृतियों में बचे रह जाएँ।” ये विकृत ख़्याल है, ये रुग्ण ख़्याल है, इसको हटाओ! जीवन भरा-पूरा रखो, उसके बाद मृत्योपरांत क्या होगा इसका विचार आएगा ही नहीं। जो खुल कर जी रहा है, उसे न मौत याद आती है, न मौत के बाद का समय। मौत के बाद वैसे भी, ये बताओ समय बचता है क्या? तुम्हारा समय तो उसी दिन शुरू हुआ था न जिस दिन पैदा हुए थे? उसी दिन तो घड़ी टिक, टिक; उससे पहले कोई घड़ी थी? बोलो! तो जिस दिन तुम मरोगे, उस दिन घड़ी रुक जाएगी, अब कौन-सा समय? क्या बोल रहे हो, “मृत्यु के बाद”, जैसे कि मृत्यु के बाद समय होता हो। तुम गए, समय गया, किसकी बात कर रहे हो?

खुल कर जियो! जो खुल कर जी लिया, वो पूरा मर भी गया।

आधा-अधूरा जियोगे तो आधा-अधूरा मरोगे। फिर बरगद के पेड़ पर लटकोगे पिशाच बन कर, और बच्चे पत्थर मारेंगे, “देखो वही है, अधमरा प्रेत, उसको पत्थर मारो!” तो जब मरना तो पूरे मरना, और पूरा मरने का सूत्र है – पूरा जीना। पूरा जियो, डर-डर कर नहीं, संकोच-सकुचाते हुए नहीं। आत्मा को पूरी अभिव्यक्ति दो, हृदय को खुल कर बोलने दो, जो होना ही चाहिए उसे होने दो, फिर मौत का ख़्याल आएगा नहीं। और जो ऐसे जीते हैं वो तो तरते ही हैं, उनका पूरा कुनबा तर जाता है, उनके प्रियजन बार-बार उन्हें अनुग्रह व्यक्त करते है; ऐसों की मृत्यु नहीं होती, निर्वाण होता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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