प्रयत्न किसके लिए? || शिव सूत्र पर (2015)

Acharya Prashant

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प्रयत्न किसके लिए? || शिव सूत्र पर (2015)

प्रयत्न साधक:

~ शिव सूत्र

प्रश्नकर्ता: सर, प्रयत्न क्या और साधक कौन?

आचार्य प्रशांत: “प्रयत्न साधकः”

यत्न में हम सब उद्यत रहते हैं। हमारे सारे यत्न भूलने से उपजते हैं। विस्मृत कर देते हैं कि हम हैं कौन, क्या हमारा स्वभाव है और क्या हमें उपलब्ध ही है। ज्यों ये भूले कि मैं कौन और क्या मुझे मिला ही हुआ है, त्यों ही ये हसरत जगती है कि उसको हासिल करूँ जो खोया-खोया सा लगता है।

खोने और भूलने में फ़र्क़ है। तुम बिना खोए भी ये भूल सकते हो कि कुछ तुम्हारे पास है। तुम अपनेआप को खोए बिना भी अपनी पहचान बिलकुल भूल सकते हो और भूलने का तुरंत परिणाम होता है- खोजने की कोशिश। “खो गया है – खोजो। मिट गया है – हासिल करो।”

तो यत्न में हम रत रहते हैं। भूलने का परिणाम है, यत्न। भूले, और हासिल करने निकल पड़े। ये हमारा आम संसारी है, जो हासिल करने की दौड़ में लगा हुआ है।

फिर आता है साधक; साधक को कुछ याद-सा आने लगा है। साधक को कोई चीज़, जैसे बिजली-सी कौंध जाती है, हल्की-सी एक आवाज आती है, लौटने की। उसके कर्म अब उस याद करने के कारण होते हैं, भूलने के कारण नहीं।

पर वो है कौन? वो है वही जो आज तक करने में उद्यत रहा है। करने में उसकी सारी रुचि बैठ चुकी है, करना उसकी गहरी-से-गहरी आदत बन चुकी है। वो है ही वही, जो करता है। तो जब उसको कुछ याद भी आने लगता है, कुछ समझ भी आने लगता है, तो भी उसके पास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता।

वो करता ही है पर अब उसका करना वैसा ही है जैसे किसी ने पहले बेड़ियाँ पहनी हों ख़ुद ही, और अब वो उन बेड़ियों को काट रहा हो, ख़ुद ही। बेड़ियाँ बनाने में, गढ़ने में उसने ऊर्जा लगाई थी। बेड़ियाँ काटने में भी ऊर्जा लगती है।

आत्मा के तल से देखो तो तुम निश्चित रूप से कह सकते हो कि “बेड़ियाँ हैं ही क्या, मात्र भ्रम हैं। इन्हें काटने में समय क्यों लगना है? अरे, जान लो; बोध काफ़ी है इन बेड़ियाँ को काटने के लिए।”

पर किसके लिए काफ़ी है? आत्मा के लिए काफ़ी है।

और तुम कौन हो? जो भूल कर के आत्मा से दूर छिटक आए हो। तुम तो कर्ता हो, तुम्हारी तो सारी निष्ठा कर्म में है।

तुम आत्मा तो नहीं हो कि तुमने जान लिया कि तुम्हारे सारे बंधन झूठे हैं और सिर्फ़ तुम्हारे जानने-भर से सारे बंधन वाष्पीकृत हो जाएँगे। नहीं ऐसा नहीं होगा क्योंकि तुम वो हो ही नहीं, जो जानता है। तुम तो वो हो, जो भ्रमित है। तुम तो कर्ता हो, तो तुम्हें करना ही पड़ेगा। कर-कर के तुमने बेड़ियाँ पहनी हैं और तुम्हें कुछ करना ही पड़ेगा उन बेड़ियों को तोड़ने के लिए क्योंकि करने के अलावा तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं। लेकिन अब अंतर आ गया है कि पहले तुम भूल करके करते थे, अब तुम याद करके करते हो।

पहले तुम करते इसलिए थे क्योंकि तुम्हें कुछ हासिल करना था। तो तुम हासिल करने की यात्रा पर निकल पड़े थे। तुम छिटके थे अपने स्वभाव से, अपने आसन से। अब तुम करते इसलिए हो क्योंकि तुम्हें याद आ रहा है, तुम्हें पुकार आ रही है।

अब तुम्हारा यत्न, प्रयत्न कहलाता है। अब तुम संसारी नहीं, साधक हो। संसारी वो जो भूला-भूला सा करे और साधक वो, जो याद में करे। कर अभी दोनों ही रहे हैं। इसलिए साधक और सिद्ध में अंतर है।

संसारी भूल कर करता है, साधक याद करके करता है, सिद्ध अब कर्ता रहता ही नहीं। वो अब करने के पार चला जाता है।

तो इस सूत्र का तुम्हारे लिए महत्व क्या हुआ? ये कि करते तो तुम हो ही पर ज़रा सुरति के साथ करो, स्मरण लगातार बना रहे। अब जो भी कुछ करोगे उससे तुम्हारी बेड़ियाँ टूटेंगी। भूल में, नशे में, अज्ञान में, जो भी करोगे उससे अपनी ही बेड़ियाँ और मजबूत करोगे। अपने ही बंधन और कड़े करोगे।

और चेतना में, स्मृति में जो भी करोगे, उससे मुक्त होते जाओगे।

तो साधक को करना ही पड़ता है। उसके पास विकल्प ही नहीं है ना करने का। साधक की तो आदत है ना करना। तुम उससे बोलो कि ना कर, तो ये सलाह उसके किसी काम की न होगी। साधक तो कुछ है, कौन? करने वाला। तो करना तो तेरी मजबूरी है। चल मान लिया तेरी मजबूरी है, तो ऐसे कर न कि तेरा कुछ भला हो। करता तो तू रहेगा ही, तो ऐसा कर ले कि मुक्ति मिल जाए। वो हुआ साधक।

संसारी का हर कदम उसे और गहरे दलदल में ले जाता है और साधक का कदम उसे दलदल से बाहर निकालता है। चल दोनों ही रहे हैं पर दिशाएँ अलग हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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