आचार्य प्रशांत: आज से चालीस साल पहले हिन्दुस्तान की सड़क पर कौन सी गाड़ियाँ चलती थी? मैं कारों की बात कर रहा हूँ।
श्रोतागण: ऐम्बेसडर।
आचार्य प्रशांत: ऐम्बेसडर और फिएट चलती थीं। मान लो पेट्रोल पर चलती थीं, माइलेज क्या देती थीं?
श्रोतागण: दस-बारह।
आचार्य प्रशांत: आठ-दस। फिएट दे देती थी दस-बारह का, ऐम्बेसडर दस का भी नहीं देती थी। आठ, ठीक?
आज की जो गाड़ियाँ आयी हैं वो उनसे दूना माइलेज देती हैं। देती हैं कि नहीं? यानी कि जितनी दूर जाने में जितना प्रदूषण ऐम्बेसडर करती थी, आज की गाड़ी उतनी ही दूर जाने में उससे कम-से-कम आधा तो करती ही है प्रदूषण, ठीक? ऐम्बेसडर जितना प्रदूषण करती थी, आज की गाड़ी उससे आधा करती है, आधे से भी कम करती होगी। तो प्रदूषण का स्तर चालीस साल पहले के मुक़ाबले आज आधा हो जाना चाहिए। आधा हुआ है क्या?
टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट (तकनीकी विकास) इतना हो गया, तुम्हारी जो नयी गाड़ी आयी है वो ऐम्बेसडर के मुकाबले आधा प्रदूषण करती है तो फिर तो चालीस साल पहले की अपेक्षा आज वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फ़ाइड , पार्टिकुलेट मैटर (कणिका तत्व), इन सबका स्तर कितना होना चाहिए? आधा होना चाहिए। आधा हो गया है क्या? क्यों टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट तो हो ही रहा है, भाई। टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट तो हो रहा है न? उससे क्या प्रदूषण बच गया या प्रदूषण और दस गुना हो गया है?
तुम ये भी तो देखो कि तब अगर एक गाड़ी थी सड़क पर, तो आज एक की जगह चालीस हैं। जिस टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट ने गाड़ी के इंजन की एफिशिएंसी (क्षमता) बढ़ाई है, उसी टेक्नोलॉजीकल डेवलपमेंट ने तुम्हारे हाथ में एक की जगह चालीस गाड़ियाँ रख दी हैं। तो कुल मिलाकर इस टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट का नतीजा क्या है? कम प्रदूषण या ज्यादा प्रदूषण?
श्रोतागण: ज़्यादा।
आचार्य प्रशांत: अगर टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट उनके हाथों में है जिनका मन अभी देहवाद, भोगवाद, लालसा और लालच से मुक्त नहीं है तो हर प्रकार का तकनीकी विकास, टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट आत्मघातक ही होगा।
लोग कह रहे हैं कि माँस छोड़ो, दूध छोड़ो, वीगनिज़्म (शाकाहार) की तरफ़ जाओ। अभी मैं खबर पढ़ रहा था कि वीगन (शाकाहारी) लोग सोया का उपभोग खूब करते हैं। नतीजा ये हुआ है कि अब पेड़ काटे जा रहे हैं सोया की खेती के लिए।
दुनिया की आबादी मान लो पूरी भी वीगन (शाकाहारी) हो जाए और लगे सोया खाने, तो भी क्या दुनिया बच जाएगी? तब तुम सोया के लिए पेड़ काटोगे। पेड़ काटोगे, खेत लगाओगे, किस चीज़ के? सोया के खेत लग रहे हैं, सोया की फ़सल उसमें लगायी जा रही है। तुम किसी भी तरह का तकनीकी विकास कर लो, जब तक तुम्हारा मन साफ़ नहीं हुआ है तब तक वो तकनीकी विकास तुमको भारी ही पड़ेगा, पलटकर तुम पर वार करेगा।
भई, पिछले तीन-सौ साल का इतिहास देख लो तो टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट तो होता ही जा रहा है न? कोयले का जो इंजन होता था स्टीम लोकोमोटिव (भाप गतिविशिष्ट), उसकी क्या एफिशिएंसी होती थी और आज का जो इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव है, उसकी क्या एफिशिएंसी होती है? कोई तुलना ही नहीं है। लेकिन कुल प्रदूषण तब ज़्यादा कर रही थी रेलवे या आज ज़्यादा कर रहीं हैं?
बोलो? आज ज़्यादा कर रही है न? क्योंकि जिस भावना के चलते तुम कोयले से उठकर के बिजली के इंजन पर आये हो, उसी भावना के चलते तुमने एक कोयले के इंजन की अपेक्षा पचास बिजली के इंजन खड़े कर दिये हैं, उसी भावना के चलते तुमने हर दिशा में अपने भोग का प्रसार कर दिया और अपनी आबादी बढ़ा ली है।
तो ये बात कि मैं पहले कॉर्पोरेट स्लेवरी (निगमित गुलामी) में था अब नहीं हूँ, इस बात में कोई दम नहीं। कॉर्पोरेट (निगमित) की स्लेवरी (गुलामी) कभी कोई करता नहीं सब अपने लालच की स्लेवरी करते हैं।
श्रम पहले भी कर रहे थे, श्रम अभी भी कर रहे हो। पहले भी श्रम समर्पित था किसी को क्योंकि उससे डरते थे, उसके लालच में थे। अभी भी श्रम समर्पित है किसी और को। तब क्या श्रम अध्यात्म के लिए कर रहे थे? तब क्या श्रम मुक्ति के लिए कर रहे थे? आज भी क्या श्रम अध्यात्म के लिए कर रहे हो और मुक्ति के लिए कर रहे हो? कहाँ जा रहे हैं तुम्हारे समय और संसाधन? न तब जा रहे थे अध्यात्म और मुक्ति की ओर, न आज जा रहे हैं।
तो ये झूठ है कि कोई भी व्यक्ति कॉर्पोरेट स्लेवरी में होता है। कोई किसी और का गुलाम नहीं होता। सब अपनी ही कामनाओं, लालच, वासनाओं और अज्ञान के गुलाम होते हैं। कोई किसी दूसरे के सर पर अपने बन्धनों का ठीकरा न फोड़े। कोई न कहे कि मैं तो कॉर्पोरेट की गुलामी में पड़ा हूँ। अपनी ही गुलामी में तब थे और अपनी ही गुलामी में आज भी हो।
अगर तुम्हारा श्रम उसको नहीं समर्पित है जिसने अर्जुन से कहा था, ‘अर्जुन जो कुछ भी कर रहा है अपने लिए मत करना। जो कुछ भी कर रहा है मुझे समर्पित कर।‘ आज भी तुम्हारे समय, तुम्हारे संसाधनों की दिशा किधर को है, बोलो?
मौखिक बातचीत से काम नहीं चलता। तथ्य बताओ और आँकड़े बताओ। जो कर रहे हो उसका परिणाम किसको समर्पित कर रहे हो? जो कर रहे हो उससे जो भी पाते हो, जो भी फल पाते हो, वो जा किसकी सेवा में रहा है?
जब मन बदलेगा, तब दुनिया को हो रही क्षति बदलेगी, तकनीकी विकास नहीं बचा लेगा, ये बहुत बड़ी भ्रान्ति है। लोग कहते हैं, ‘प्लास्टिक का उपयोग कम करो।‘ हर तरह के रिन्यूएबल रिसोर्सेस (नवीकरणीय संसाधन) की बात करते हैं। तमाम तरह के वस्तुओं के पुनर्चक्रण की बात होती है। कुछ नहीं होने वाला इससे।
टेक्नोलॉजी अधिक-से-अधिक इतना ही करती है कि मशीन की एफिशिएंसी बढ़ा देती है। एक नयी मशीन ले आ देती है जो पहले की अपेक्षा कम संसाधनों में वही काम कर देगी। टेक्नोलॉजी इतना ही तो करेगी न? पर टेक्नोलॉजी तुम्हारा मन थोड़े ही बदल देगी?
जैसे ही तुमको दिखाई देता है कि कोई काम पहले दस रूपये में होता था, अब पाँच रूपये में हो रहा है उसको करने वालों की संख्या दस गुनी हो जाती है, क्योंकि इसी को तुम प्रगति कहते हो कि ज़्यादा लोगों के हाथ में पैसा पहुँचे, ज़्यादा लोगों हाथ में संसाधन रहे। जितना ज़्यादा लोग उपभोग करेंगे, कंज़्यूम (उपभोग) करेंगे उसी को हम कहते हैं कि डेवलपमेंट (विकास) हो रहा है।
जीडीपी (सकल घरेलु उत्पाद) नापा ही कंज़ंप्शन (उपभोग) से जाता है। दो ही तरीके हैं, प्रोडक्शन (उत्पादन) से नाप लो या कंज़ंप्शन से नाप लो। दोनों का अर्थ एक ही है — ‘उपभोग।‘
असली समस्या ये नहीं है कि हम कोयला ज़्यादा जला रहे हैं। असली समस्या ये नहीं है कि हमारे पास जो मशीनें हैं वो प्रदूषण ज़्यादा करती हैं। असली समस्या ये है कि हमने भोगना है, हममें अहम् है। हम प्रेम का अर्थ भी भोग समझते हैं। हमें भी भोगना है और जिनसे हम कहते हैं कि हमारा प्रेम का नाता है, हमें उन्हें भुगवाना भी है।
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