प्रश्न: सर प्रतियोगिता से डर लगता है। ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: प्रतियोगिता का डर है क्योंकि प्रतियोगिता का अर्थ ही है – डर। केवल डरपोक लोग ही प्रतियोगिता करते हैं। उसी का मन प्रतियोगी होता है जो डरा हुआ है।
एक स्वस्थ मन कभी -भी दूसरे से तुलना नहीं करता। प्रतियोगिता का अर्थ ही है – तुलना। एक स्वस्थ मन अपने में रहता है, वो अपने आनंद के लिए काम करता है, दूसरे को पीछे करने के लिए नहीं। प्रतियोगिता का अर्थ ही है – दूसरे को पीछे छोड़ने की भावना।
एक स्वस्थ मन में ये भावना नहीं उठती, वो दूसरे से तुलना करके नहीं जीता। वो अपने आप को जानता है। वो ये कहता ही नहीं है कि – “दूसरे से आगे निकल गया तो बड़ा हो जाऊँगा और दूसरे से पीछे रह गया तो छोटा हो जाऊँगा।” इस तरह की ओछी बात उसमें आती ही नहीं। पर हमारा मन इसी बात से भरा रहता है, हमें इससे कम अंतर पड़ता है कि हमारे पास क्या है, हमें इससे ज़्यादा अतंर पड़ता है कि?
श्रोतागण: दूसरे के पास क्या है।
आचार्य प्रशांत: यह इस बात का प्रमाण है कि बेचैनी कितनी है। क्यों चित्त ऐसा है जो हमेशा प्रतियोगिता में उलझा हुआ है? क्या कुछ भी तुम अपने आनंद के लिए नहीं कर सकते? तुम क्या इसलिए पढ़ते हो कि बगल वाला भी पढ़ रहा है? या पढ़ने का एक दूसरा तरीका भी हो सकता है? कि – “मैं इसलिए पढ़ रहा हूँ क्योंकि मुझे पढ़ने में मज़ा आ रहा है।”
(मौन)
जीवन में जो कुछ भी महत्त्वपूर्ण होता है उसमें प्रतियोगिता नहीं हो सकती। तुम प्रेम में किसी से गले मिलते हो, तो तुम प्रतियोगिता करोगे? “पड़ोसी दो मिनट गले मिलता है, मैं ढाई मिनट मिलूंगा,” सोचो ना कितने फूहड़पने की बात है। जो प्रतियोगिता कर रहा है वो उसमें भी पिछड़ जाएगा, क्योंकि उसके लिए जो किया जा रहा है वो आवश्यक नहीं है, आगे निकलना आवश्यक है।
समझे बात?
अगर मेरा मन प्रतियोगी है तो मेरी दृष्टि कहाँ पर है? मेरी दृष्टि है आगे निकलने पर। मेरी दृष्टि इस पर नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूँ, मेरी दृष्टि इस पर है कि वो क्या कर रहा है, उससे आगे निकल जाऊँ। और जब मेरी दृष्टि अपने ऊपर नहीं है, दूसरे के ऊपर है, तो मैं जो कर रहा हूँ वो ख़राब होना पक्का है, उसमें कभी कोई वृद्धि नहीं होगी, उसमें कभी कोई श्रेष्ठता नहीं आएगी।
यही कारण है कि तुम जीवन भर प्रतियोगिता करते रहे हो पर उससे तुम्हें कुछ मिला भी नहीं है, और कभी कुछ मिलेगा भी नहीं।
(मौन)
कितना विपरीत नियम है इस दुनिया का।
जो प्रतियोगिता करना छोड़ देता है वो सब पा जाता है, और जो पाने की चाह में प्रतियोगिता करता रहता है वो कभी कुछ नहीं पाता।
दूसरे को छोड़ो, तुम्हें जो करना है अपने लिए करो। यह विचार ही निकाल दो कि दूसरे क्या सोच रहे हैं, कि दूसरों की तुलना में बेहतर कर रहा हूँ या ख़राब कर रहा हूँ। यह बात ही छोड़ो।
“मेरा आनन्द है इसलिए कर रहा हूँ, मेरी मौज है इसलिए हो रहा है, कोई अंतर ही नहीं पड़ रहा मुझे कि अच्छा है या बुरा है। मेरी मौज है, और मुझे किसी को जवाब नहीं देना। मेरा कोई उत्तरदायित्व नहीं है कि मैं वही सब करूँ जो दूसरे कर रहे हैं, उनसे अपनी तुलना करूँ और उनसे बेहतर होऊँ। ऐसा कोई बोझ नहीं है मेरे मन पर।”
“तुम्हें तुम्हारी राह मुबारक हो, मेरा रास्ता ही अलग है। मैं क्यों दौड़ूँ तुम्हारे रास्ते पर? मेरा रास्ता मेरे साथ, मेरी चाल मेरे साथ, मेरा जीवन मेरे साथ। हाँ, प्रेम में हम-तुम मिल सकते हैं, सो बात अलग है। प्रेम में मैं देखूँ तेरी ओर सो बात अलग है, पर प्रतियोगिता में देखूँ तो बात बिल्कुल दूसरी है।” तुम प्रेम में देख रहे हो तो वहाँ पर तुम्हारी दृष्टि ये नहीं होती कि उसको नीचे कर दो, उसको पीछे कर दो। प्रतियोगिता में तुम्हारी दृष्टि लगातार यही होती है कि उसको?
श्रोतागण: नीचे कर दो।
आचार्य प्रशांत: जहाँ प्रतियोगिता है वहाँ प्रेम नहीं है। यही कारण है कि दुनिया इतनी हिंसक है। हमारे स्कूल, कॉलेज बचपन से ही प्रतियोगिता सिखा रहे हैं, बचपन से ही बच्चे के मन में भर रहे हैं – “सबसे आगे निकलो।”
और ये हिंसा है।
तुम उससे कह रहे हो, “औरों को पीछे छोड़ दो,” वो जिसको पीछे छोड़ रहा है निश्चित रूप से उसको कष्ट दे रहा है। तुम बचपन से ही उसको सिखा रहे हो दूसरों को कष्ट देना, और फिर तुम्हें आश्चर्य होता है कि लोग लड़ क्यों रहे हैं, दंगे क्यों हो रहे हैं, एक देश दूसरे देश पर बम क्यों गिरा रहा है।
वो इसलिए गिरा रहा है क्योंकि बचपन से तुम्हें प्रशिक्षण ही यही दिया गया है, प्रतियोगिता करने का, पीछे कर देने का, और तुमने तालियाँ बजवाईं हैं जब कोई आगे निकल जाता है। जो कक्षा में सबसे आगे है, उसको तुम फूल माला देते हो, और यह नहीं सोचते कि औरों के मन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। क्या अब वो हिंसक नहीं होंगे?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, शिक्षा के क्षेत्र में तो ऐसा कुछ नहीं है कि अगर हम प्रतियोगिता करने लगे, तो हम हिंसक होंगे।
आचार्य प्रशांत: पूछो उनसे जो कभी पढ़ाई में प्रतियोगिता करके पिछड़े हैं कि उन्हें कैसा लगता है। क्या तुम्हारे मन में प्रेम उमड़ता है उनके लिए? कभी प्रतियोगिता में पिछड़कर देखो, देखो कि क्या तुम्हारे मन में प्रेम उमड़ता है उसके लिए जिसने तुम्हें पछाड़ा है?
प्रश्नकर्ता: नहीं आचार्य जी, नहीं उमड़ता। बस ये चाहते हैं कि उससे आगे निकल जाएँ।
आचार्य प्रशांत: हाँ। जिससे प्रेम होगा, उससे तुम आगे निकलने की सोचोगे?
प्रश्नकर्ता: नहीं आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: जहाँ प्रतियोगिता है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता । तुम क्या अपने प्रेमी से प्रतियोगिता करोगी?
प्रश्नकर्ता: नहीं आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: प्रतियोगिता हिंसा है, प्रतियोगिता बड़ी गहरी हिंसा है। और यह हिंसा हम अपने बच्चों को सिखा रहे हैं। फिर वही हिंसक मन सौ तरीके की गड़बड़ें खड़ी करता है, फिर राष्ट्र बनते हैं। उस राष्ट्र के जो लोग लड़ रहें हैं, वो सब कभी बच्चे थे। कुछ तो हुआ होगा जो वो लड़ाकू बन गए। एक बच्चा लड़ाका कैसे बन जाता है? क्योंकि तुमने उसको पूरी शिक्षा ही यही दी है- प्रतिस्पर्धा करने की।
तुम पैदा ही हुए थे प्रतियोगिता के साथ, प्रतियोगिता तुम्हें सिखाई गई है। जब माँ ने बोला होगा, “मेरा बच्चा सबसे सुंदर है,” तो ‘सबसे’ शब्द से क्या हो गया? तुलना हो गई। अब तुम्हारे मन में ये बात आ गई कि अच्छा और सुंदर होना काफ़ी नहीं है, ‘सबसे’ अच्छा और ‘सबसे’ सुंदर होना ज़रूरी है। और माताओं के लिए भी उनका बच्चा सुंदर होना काफ़ी नहीं है, ‘सबसे सुंदर’ होना आवश्यक है।
“बेटा सबसे आगे निकल जा,” आगे निकल जाना काफ़ी नहीं है, “सबसे आगे निकल जा।” यह ज़हर कूट-कूट कर मन में भर दिया जाता है, और वो शिक्षा में तो है ही। अब तुम करोगे तो क्या करोगे? ‘प्रतियोगिता’ का मतलब समझते हो? अगर सौ लोग एक दौड़ में दौड़ रहे हों, तो जीतेंगे कितने?
श्रोतागण: एक जीतेगा।
आचार्य प्रशांत: और बाकी निन्यानवे?
श्रोतागण: हार जाएँगे।
आचार्य प्रशांत: हार जाएँगे और कुंठित रहेंगे। और ये वही कुंठित लोग हैं जो वकालत करते रहे हैं कि प्रतियोगिता होनी चाहिए। अरे, उसी के मारे हुए हो, उसी कारण हालत ऐसी हो गई है, बार-बार दौड़ में दौड़ते हो और बार-बार पिटते हो। मैं कह रहा हूँ कि दौड़ना बंद करो, नाचना शुरू करो। बहुत हो गई दौड़। पर तुम्हें अभी और दौड़ना है, तो दौड़ो।
(व्यंग्य करते हुए) दौड़ो, दौड़ कर कहीं नहीं पहुँचोगे ये बता देता हूँ, कोई नहीं पहुँचा है आज तक। तो ये मत पूछो कि – प्रतियोगिता से क्यों डर लगता है? डर ही प्रतियोगिता है। प्रतियोगिता ही हिंसा है।
(व्यंग्य करते हुए) “आपके कहने से क्या होता है? हमारी बीस साल की शिक्षा है, वो भुला दें क्या? आ गए पता नहीं कहाँ से यह बताने कि प्रतियोगिता ना करो। अरे कैसे ना करें? वही हमारी ज़िन्दगी है, सवाल भी हमने इसीलिए पूछा कि सब सवाल पूछते हैं कहीं हम इसमें भी पिछड़ न जाएँ।”
आश्चर्य है कि अपने जीवन से सम्बंधित सवाल भी प्रतियोगितावश पूछा जा रहा है।