प्रारब्ध, पशुता, और प्रकृति || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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प्रारब्ध, पशुता, और प्रकृति || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अध्यात्म में भाग्य या किस्मत मान्य है?

आचार्य प्रशांत: मान्य क्या वो तो होता ही है। उसमें मान्य की क्या बात है? अध्यात्म तथ्य को पूरा सम्मान देता है और सत्य के सामने समर्पित रहता है; तथ्य को सम्मान और सत्य को समर्पण।

तो प्रारब्ध तो होता ही है। तुम जाओगे ऋषियों के पास वो साफ़ बताएँगे कि सब कुछ उपस्थित है तुम्हारे जीवन में — आगामी, संचित, प्रारब्ध। सारे कर्मफल तुम्हें झेलने पड़ेंगे; सब हैं।

ये तथ्यों की बात है। तुम किस घर में पैदा हुए हो अब इस बात से इनकार थोड़े ही कर सकते हो। तो तथ्य है ही। इसी को तो तुम किस्मत बोलते हो न; कोई अमीर पैदा हुआ, कोई गरीब पैदा हुआ, कोई लड़का कोई लड़की, कोई यहाँ कोई वहाँ, कोई ऐसा कोई वैसा। ये तो होते ही है लेकिन सत्य इन सब तथ्यों से ऊपर होता है। तो एक तरफ़ तो इस बात को पूरी मान्यता दी जाती है कि प्रारब्ध होता है और दूसरी तरफ़ साफ़-साफ़ ये भी समझा जाता है कि प्रारब्ध कुछ भी हो कैसा भी हो उसका उल्लंघन किया जा सकता है। सत्य तक पहुँचा जा सकता है। क़िस्मत बड़ी बात है लेकिन किस्मत से भी बड़ी चीज़ कुछ और है।

प्र: आचार्य जी, मनुष्य में जन्म से पशुता रहती है वो अभी समझ में आ गया है। जो नियम है उसमें प्रतिदिन क्या चल रहा है, क्या नहीं, आसानी से दिख रहा है। उससे हम बाहर कैसे आ सकते हैं? हम मानव कैसे बन सकते हैं?

आचार्य: यही शुरुआत है। कोई पशु कभी नहीं पूछता कि वो पशुता से बाहर कैसे आ जाए। कभी देखा है बिल्ली को पूछते कि, “मैं अपने बिल्लीत्व का अतिक्रमण कैसे करूँ?”

तो वानरत्व हो, कि बिलारत्व हो, पशु अपनी पशुता से संतुष्ट है। उसे कुछ कचोटता नहीं कि, "कहाँ फँसा हुआ हूँ, क्या कर रहा हूँ!" वो खाता है, पीता है मज़े में पड़ा रहता है। उसे कभी अगर झटपटाहट होती भी है तो इसी बात की होगी कि खाना ना मिले या धूप-छाँव गड़बड़ हो जाए, या घाव हो जाए, स्वास्थ्य की कुछ गड़बड़ हो जाए या कोई पकड़कर बाँध दे। अन्यथा उसे कोई दिक्कत नहीं। आदमी अकेला है जिसको ये फाँस बींधता है कि, “मैं बंधन में क्यों हूँ? और कैसे मिलेगी मुक्ति?”

पशु की पहचान ही यही है कि उसे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं। तो नर-पशु की भी तुम पहचान ऐसे ही कर सकते हो।

नर-पशु कौन? जिसे मुक्ति की कोई अभीप्सा नहीं। जो जी रहा है और कभी रो नहीं पड़ता कि मुक्ति कैसे मिलेगी, उसी का नाम है — नर-पशु। जो हज़ार तरीके की बातें करता है, हज़ार विचार रखता है बस एक बात, एक विचार कभी नहीं करता, क्या? कि, "मुक्ति कब मिलेगी, कैसे मिलेगी?” उसी का नाम है — नर-पशु। और खेद की बात ये कि नरों में अधिकांश नर-पशु ही हैं।

आपने मुक्ति का सवाल उठा दिया न। बस पशुता से बाहर आने की शुरुआत हो गई। अब इसी सवाल को और महत्व दीजिए। इसे भीतर स्थापित हो जाने दीजिए। इसी सवाल को अपने जीवन का, अपने कर्म का केंद्र बना लीजिए। इस सवाल को इतनी ताक़त दे दीजिए कि ये आपके जीवन को संचालित करना शुरू कर दे। पशुता छूटने लगेगी, बंधन कटने लगेंगे।

प्र२: आचार्य जी, कोई कम बुद्धि का और कोई ज़्यादा बुद्धि का क्यों पैदा होता है? कोई मंद-बुद्धि होता है बचपन से, उसको समझाओ कितना भी, समझ में नहीं आता उसको।

आचार्य: वो ऐसा है। अफ़सोस की इसमें कोई बात नहीं, त्रिगुणात्मक प्रकृति है उसमें से हर तरीके की निर्मित्तियाँ होती हैं। छोटा-पौधा बड़ा-पौधा होता है, काला-आदमी सफ़ेद-आदमी होता है तो वैसे ही कुछ लोगों की बुद्धि मंद होती है, कुछ लोगों की बुद्धि तीव्र होती है। कुछ लोगों की स्मृति बड़ी विशिष्ट होती है, कुछ लोगों की स्मृति हल्की होती है। कोई शरीर से बलशाली होता है, कोई नहीं होता है। इसमें 'क्यों' की कोई बात नहीं है, ये प्राकृतिक विविधताएँ हैं।

प्र२: लेकिन शरीर काला हो, सफ़ेद हो, मोटा हो, पतला हो और काफ़ी चीज़ें हैं जो मुझे लगता है उसकी मुक्ति में बाधक नहीं बनेंगी लेकिन जिसकी बुद्धि कम होती है, मुझे ऐसा लगता है कि वो चीज़ों को समझ नहीं पाता है।

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है। अभी थोड़ी देर पहले भी किसी ने बुद्धि के विषय में शंका करी थी और मैंने कहा था कि बुद्धि ही एकमात्र रास्ता नहीं है। तीव्र बुद्धि होने के जितने लाभ हैं उतने ही खतरे भी हैं।

अंततः सब इसपर निर्भर करता है कि तुम्हें अर्थात अहं को मुक्ति की आकांक्षा कितनी है। बुद्धि पर नहीं नीयत पर निर्भर करता है। इन दोनों बातों का भेद समझना। नीयत, इरादा, इच्छा, मुमुक्षा वो आवश्यक है; बुद्धि कम-ज़्यादा हो चल जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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