धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।।३.३८।।
जिस प्रकार आग धुएँ से ढँकी रहती है, दर्पण धूल से ढँका रहता है और उदरस्थ गर्भ जरायु से ढँका रहता है (माँ के गर्भ में जो बच्चा होता है वो झिल्ली और उसके भीतर पानी से ढँका रहता है), उसी तरह 'काम' से विवेक और ज्ञान ढँका रहता है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३८)
आचार्य प्रशांत: आग इतनी प्रबल होती है, लेकिन जितनी प्रबल आग होती है उतना ही प्रबल धुआँ; और धुआँ आग को बिलकुल ढँक लेता है, कोई रोशनी बाहर नहीं जाने देता। इसी तरह से, ज्ञान आपके भीतर ही है, ‘तेरा साईं तुझमें है’, लेकिन उसको आपकी इच्छाओं ने ढँक रखा है, 'काम' ने उसको ढँक रखा है; है, पर आच्छादित है, *वील्ड*।
वेदान्त कभी नहीं बताता आपको कि सत्य आपसे बाहर कहीं है और उसको पाना है; अटेनमेंट की भाषा नहीं है यहाँ, प्राप्ति की भाषा नहीं है। और अगर कोई वेदान्त से सम्बंधित हो और प्राप्ति की भाषा बोल रहा हो, तो उसने अभी वेदान्त को समझा नहीं। वेदान्त रिअलाइज़ेशन (बोध) की बात करता है। गॉड अटेनमेंट (ईश्वर-प्राप्ति) नहीं, ट्रुथ रिअलाइज़ेशन (सत्य का बोध)।
कुछ पाना नहीं है। आग को पाना नहीं है, धुआँ हटाना है। जो है वो भीतर है, पहले ही है, “तेरा साईं तुझमें है”, बाहर से लाकर के भीतर नहीं बैठाना है, वो पहले ही है; बस ढँका हुआ है, अज्ञान की परतों के नीचे, कामना के धुएँ के नीचे वो ढँका हुआ है। डिस्-कवर करना है, कवर को हटाना है, अनावृत करना है। अटेनमेंट और डिस्कवरी में अंतर होता है या नहीं? अनावरण करना है, प्राप्त नहीं। तो पूरी प्रक्रिया फिर हटाने की है, उधेड़ने की है, नकारने की है। जो ठीक नहीं है उसको हटाओ – ये है प्रक्रिया। कुछ कहीं से लेकर के आने की ज़रूरत नहीं है; जो तुम्हारे पास पहले ही है उसमें बहुत कुछ ग़लत है, उसको हटाओ। हटा दोगे तो जो चाहिए वो पाओगे कि तुम्हारे पास पहले से ही है, बस हटाते चलो!
समझ में आ रही है बात?
हटाना है, नकारना है। नकारने के रास्ते में अविवेक बाधा आता है, क्योंकि पता ही नहीं होता कि क्या हटाएँ, और फिर मोह बाधा आता है; पता चल भी गया कि क्या हटाएँ, तो उससे मोह है।
‘आग धुएँ से ढँकी रहती है, दर्पण धूल से ढँका रहता है।‘ नया दर्पण थोड़े ही लाना है, न नया चेहरा लाना है, कि अरे! चेहरा बड़ा गन्दा दिख रहा है। धूल हटानी है; न दर्पण बदलना है, न चेहरा बदलना है। और जो पैदा हो सकता है वो गर्भ से ढँका हुआ है। मतलब समझ रहे हो न? हम सब अभी पैदा नहीं हुए, ढँके हुए हैं, गर्भ में ही मृत्यु हो जानी है। मानव जीवन का दूसरा नाम है गर्भपात; पैदा नहीं हुए, पहले ही मर गए, अस्सी साल तक गर्भ में रहे और मर गए। सबका फ़ीटिसाइड ही हो रही है, पैदा कोई होता ही नहीं; अनजिया जीवन।
इसी तरह, 'काम के द्वारा यह विवेक-रूप ज्ञान ढँका रहता है।‘ ज्ञान को विवेक-रूप क्यों कहा? क्योंकि ज्ञान का काम है काटना, छाँटना, भेद करना, सही और ग़लत को, सार और असार को अलग-अलग देख पाना – ये ज्ञान की परिभाषा है। ज्ञान क्या? जो नित्य और अनित्य में भेद कर सके, वही ज्ञान है, उसी को विवेक कहते हैं फिर। ज्ञान का मतलब ये नहीं है कि चीज़ों को जान लिया। ज्ञान का मतलब है – चीज़ों को चीज़ जान लिया। वस्तु-मात्र है, वस्तु है तो बदलेगी, वस्तु है तो नित्य नहीं हो सकती। वस्तु के भीतर कितने अणु हैं, परमाणु हैं – ये जानना ज्ञान नहीं होता। वस्तु वस्तु ही है, और उससे आगे नहीं जा सकती वो – ये जानना ज्ञान है। इसीलिए कहा है, 'विवेक-रूप ज्ञान'।
आ रही है बात समझ में?
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।।३.३९।।
हे कुंतीपुत्र! ज्ञानी व्यक्ति की चिरशत्रु, कभी न तृप्त होने वाली कामरूपी अग्नि से मनुष्य का ज्ञान ढँका रहता है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३९)
आचार्य प्रशांत: आत्मा को बोधरूप भी कहते हैं, आत्मा का ही दूसरा नाम बोध है, उसी बोध को कृष्ण यहाँ ज्ञान कह रहे हैं। वो है व्यक्ति के पास, पर ढँका रहता है क्योंकि तरह-तरह की इच्छाएँ हैं – कुछ प्रकट इच्छाएँ हैं, कुछ गुप्त इच्छाएँ हैं। जो कुछ भी जानने लायक है, वो आपको पहले से ही पता है, 'काम' ने सब भुला रखा है; भूले बैठे हो जबरन, क्योंकि कामनाएँ हैं। कामनाएँ कुछ और ही याद दिला देतीं हैं।
मुझसे जब भी कोई बोलता है कि मैं कोई फ़लानी चीज़ थी, भूल गया। मैं कहता हूँ, भूल नहीं गए, कुछ और याद कर लिया तुमने। जब कुछ और याद कर लेते हो तो असली चीज़ पीछे छूट जाती है, उसको तुम कहते हो कि भूल गया। भूले थोड़े ही हो, बस पीछे छूट गई है। जो कुछ भी नाहक है, अनावश्यक है, उसको हटाओ; जो आवश्यक है वो पाओगे कि अपनेआप प्रकट हो रहा है।
ये जितनी बातें हैं, आपको क्या लगता है ऋषिओं को कैसे पता चलतीं थीं? अब उन्होंने तो कहीं पढ़ी नहीं, उन्हें कैसे पता चलीं? प्रक्रिया क्या है जानने की? उन्हें कैसे पता चला कि ज्ञान को 'काम' ढँके रहता है, उन्हें कैसे पता? जीवन से जो कुछ भी अनावश्यक है वो हटाओ, ज्ञान अपनेआप प्रकट होता है; तुम जानने लग जाते हो, बातें कौंधने लग जातीं हैं। आपको ही ताज्जुब होगा, आप कहेंगे, 'ये बात तो मैंने कहीं पढ़ी भी नहीं, तो मुझे कैसे पता चली?' वो बस पता चलने लग जाती है, अपनेआप। लेकिन ज़िन्दगी में कचरा भरकर रखोगे तो कुछ नहीं पता चलेगा, कचरा ही पता चलेगा बस। और कचरा इतना गंधाता है, इतना गंधाता है कि मन पर छा जाता है।
जो चीज़ जितनी गड़बड़ होती है वो ध्यान उतना खींचती है न? फूलों की ख़ुशबू बहुत तेज़ नहीं होती, कचरे की दुर्गन्ध बहुत ताक़तवर होती है। यहाँ गोवा में आप निकलते हो, दोनों तरफ़ हरियाली है, उसमें फूल भी खिले रहते हैं, आप पास जाकर सूँघोगे तो उसमें से कई फूल सुगंधित होते हैं। पर आप ऐसे गुज़र रहे हो, फूलों की ख़ुशबू आयी कभी? और उतनी दूर, वहाँ पर कोई मछली बेच रहा होगा, और उसकी बदबू आनी शुरू हो जाती है।
जिसके जीवन में कचरा है उसे कुछ और याद नहीं रह जाएगा, उसे कचरा ही याद रह जाएगा। कचरा बड़ी दुर्गन्ध मारता है, वो पूरा छा जाता है; आपके जीवन पर छा जाएगा, कुछ और आपको याद ही नहीं रखने देगा। लगातार आपके मन में क्या घूमती रहतीं हैं? समस्याएँ ही तो घूमतीं हैं। तो देख लीजिए, जीवन में जो कचरा है वो पूरे तरीके से मन में बहुमत में रहता है, उसी का बल है। ये उदाहरण बहुत दूर तक जाता है। चाहे अजन्मे होने की बात हो, चाहे आग के ढँके होने की बात हो, दर्पण की बात हो – एक-एक प्रतीक अति सशक्त है; आप उस पर मनन करेंगे, एक-के-बाद-एक परतें खुलेंगी।
लोग पूछते हैं, 'जो भी कचरा है जीवन में वो हटा तो दें आचार्य जी, लेकिन फिर उसके बाद क्या होगा? पुराना जो सड़ा-गला है, वो कम-से-कम है तो! उसको भी हटा दिया तो फिर क्या बचेगा? सूनापन नहीं आ जाएगा?' ये वैसा ही प्रश्न है कि अगर धुआँ हटा दिया तो क्या बचेगा। फिर क्या बचेगा? आग। ये ऐसा ही प्रश्न है कि शिशु कहे कि अगर गर्भ हटा दिया तो फिर क्या बचेगा। क्या बचेगा? जीवन।
पर धुएँ को लगता है कि बस उसी की सत्ता है, उसी का अस्तित्व है तो धुआँ हटना नहीं चाहिए; धुएँ को ये पता ही नहीं कि उसने आग को छुपा रखा है। आप भी इसी तरह अपना कूड़ा-कचरा हटाने को राज़ी नहीं होते, आपको लगता है कि यही तो है ज़िन्दगी में, इसको हटा दिया तो सूनापन आ जाएगा। सूनापन नहीं आ जाएगा, जो असली चीज़ है फिर वो प्रकट हो जाएगी, आप भरोसा तो रखिए!
खेल खाली करने का है, खाली करो! इवैक्यूएट !