प्रकृति मुक्ति में सहायक या बाधक? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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प्रकृति मुक्ति में सहायक या बाधक? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रकृति हमारे प्रति इतनी बेरहम और असंवेदनशील क्यों होती है?

आचार्य प्रशांत: ये नया है। (हँसते हुए) प्रकृति हमारे प्रति इतनी बेरहम और असंवेदनशील क्यों होती है? प्रकृति ने ऐसा क्या किया, भाई? तुम प्रकृति ही हो। तुम प्रकृति के वो विशिष्ट उत्पाद हो जिसके माध्यम से स्वयं प्रकृति निर्वाण खोज रही है। मैं बार-बार कहता हूँ न, तुम अहंकार हो, अहंकार कोई प्रकृति से हट कर होता है क्या? अहंकार भी प्रकृति का ही एक अवयव है, अहंकार भी प्रकृति का ही एक हिस्सा है, एक तत्व है। लेकिन इस तत्व को प्रकृति के पार जाना है। माने प्रकृति स्वयं अपने पार जाना चाहती है, किसके माध्यम से? अहंकार के माध्यम से।

वो अहंकार सबसे ज़्यादा प्रबल किसमें होता है? मनुष्य में। तो प्रकृति स्वयं मुक्ति खोज रही है। प्रकृति, तुम्हें क्या लगता है, व्यर्थ ही इतनी लंबी यात्रा पर है? यूँ ही पत्ते झड़ते हैं, यूँ ही फूल खिलते हैं, यूँ ही चाँद-सितारे अपनी-अपनी कक्षा में घूम रहे हैं? वहाँ भी कोई इच्छा है, भाई। प्रकृति भी कुछ चाह रही है। यूँ ही नहीं जाकर वो पुरुष के इर्द-गिर्द नाचती रहती है। जीवों की आँखों में देखो, तुम्हें वहाँ भी एक अभिलाषा, एक प्यास दिखेगी।

प्रकृति बेमतलब नहीं है। और मनुष्य जन्म को इसीलिए विशिष्ट और सर्वोपरि कहा गया है क्योंकि तुम प्रकृति की मुक्त होने की अभिलाषा के प्रतिनिधि हो। तुम हो जिसका निर्माण करा है प्रकृति ने मुक्त होने के लिए।

अब ये जो अहम् है, जो प्रकृति का ही एक तत्व है, इसके पास विकल्प होते हैं। इसके पास एक विकल्प ये है कि प्रकृति के ही जो बाकी, अन्य तत्व हैं, ये उनसे लिपटा-चिपटा बैठा रहे, या ये वो काम करे जिसके लिए इसकी पैदाइश और नियुक्ति है। ये तुम्हें तय करना है। तो प्रकृति तुम्हारे प्रति असंवेदनशील और क्रूर नहीं है, तुम प्रकृति के एक अयोग्य प्रतिनिधि ज़रूर हो सकते हो।

प्रकृति जब मनुष्य को पैदा करती है तो बड़ी उम्मीद के साथ पैदा करती है। उम्मीद ये रहती है कि ये कृष्ण निकलेगा, ये बुद्ध निकलेगा, ये कुछ करके दिखाएगा। ऐसी कोई उम्मीद प्रकृति किसी जिराफ़ या किसी खरगोश से नहीं करती। खरगोश पैदा हुआ, प्रकृति कहती है, 'नन्हा है, बच्चा है मेरा, पर खरगोश है। खरगोश की तरह जीएगा, खरगोश जैसे मर जाएगा। सुंदर है, खरगोश है।'

इंसान का बच्चा जब पैदा होता है तो प्रकृति की उससे बड़ी उम्मीदें हैं क्योंकि उसके भीतर एक ख़ास संभावना है जो किसी खरगोश में नहीं होती। तुम उस संभावना को साकार करते हो या नहीं, ये तुम पर निर्भर करता है। शायद तुम्हारा आशय ये है कि प्रकृति हमको इतना अपनी ओर खींचती क्यों है, प्रकृति हमको इतना भ्रष्ट या करप्ट क्यों करती है; इसलिए कह रहे हो कि प्रकृति हम पर इतनी बेरहम क्यों है, असंवेदनशील क्यों है।

नहीं, नहीं, नहीं। प्रकृति तुमको अपनी ओर खींचती है इसलिए नहीं कि तुम उससे लिपट जाओ। प्रकृति तुम्हें अपनी ओर खींचती है ताकि तुम उससे कुछ सीखो, भाई। प्रकृति तुमको अनुभव नहीं देगी, प्रकृति तुमको दृश्य नहीं देगी, प्रकृति तुमको जीवन के सारे नज़ारे नहीं दिखाएगी, सारी कहानियाँ नहीं बताएगी तो तुम सीखोगे कैसे और तुम मुक्त कैसे हो जाओगे? तो प्रकृति का अभिप्राय, मक़सद तो ये है, कि तुमको बुलाए और कहानियाँ दिखाए, अनुभव कराए ताकि तुम उन अनुभवों से कुछ सीखो, और सीख करके तुम आगे निकल जाओ, पार चले जाओ। पर तुम अजीब हो।

बड़ी एक खूबसूरत पिक्चर आयी थी, कई ऐसी मूवीज़ थी। होस्टल के दिनों की बात है, तो मैं देखकर के आया हॉल में और होस्टल में मैंने अपने साथ वालों को कहा पिक्चर बढ़िया है। चली नहीं वो पिक्चर पर मुझे अच्छी लगी थी; 'हुतुतु' उसका नाम था, बहुत कम लोगों ने देखी होगी। तो मैंने भेजा साथ वालों को कि जाओ देखकर आओ। थोड़ा अलग तरीके की पिक्चर थी, व्यावसायिक नहीं थी बहुत ज़्यादा; क्रांति उसका विषय था।

तो देखकर आए मेरे यार लोग, फिर मुझसे क्या बोलते हैं, "तब्बू क्या लग रही थी!" क्या बोलते हैं? "तब्बू क्या लग रही थी!" ये करते हैं हम प्रकृति के साथ।

प्रकृति हमें अपने पटल पर दृश्य क्यों दिखा रही है? प्रकृति हमको ये सारी कहानियाँ क्यों दिखा रही है? ताकि हम उससे कुछ ऊँची चीज़ सीखें, और हमें उन कहानियों में भी क्या दिखाई दे जाता है? यौन आकर्षण, तमाम तरह के निम्न कोटि के लालच और वासनाएँ।

दुनिया में जो कुछ भी है वो दुनिया से पार जाने में तुम्हारी मदद करने के लिए है। प्रकृति बेरहम नहीं है कि उसने तुमको फँसाने के लिए संसार की रचना की है। प्रकृति ने तुम्हें फँसाने के लिए नहीं, तुम्हें सिखाने के लिए संसार की रचना की है। लेकिन हम ऐसे सूरमा हैं कि जो चीज़ हमको सिखाने के लिए भी दी जाती है, हम उसमें भी फँसने के तरीके खोज लेते हैं।

जैसे आठवीं-नौंवी की क्लास (कक्षा) में बायोलॉजी की किताब और उसमें रिप्रोडक्टिव सिस्टम (प्रजनन तंत्र) वाला चैप्टर (अध्याय)। वो वहाँ किस लिए रखा गया है? तुम्हें सिखाने के लिए। और लड़कों की मौज हो जाती है और लड़कियों की आफ़त कर देते थे। अब पता नहीं करते हैं कि नहीं, आज से पच्चीस-तीस साल पहले तो यही था।

जो इसलिए है कि तुम्हारे अज्ञान पर थोड़ी रोशनी पड़े, तुम अपनी बेवकूफ़ियों से बाज़ आओ, हम उसको भी अपनी बेवकूफ़ियों को आगे बढ़ाने का साधन बना लेते हैं। इसमें प्रकृति का दोष है कि हमारा? बोलो?

दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है—बिलकुल साफ़ समझ लो, मैं मंदिर भर की बात नहीं कर रहा हूँ—दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे तुम सीख नहीं सकते। दुनिया में तुम्हें जो बुरे-से-बुरा जीवन में अनुभव हो रहा है, वो भी तुम्हारा शिक्षक हो सकता है अगर तुम्हारी नीयत हो। ऐसे ही आगे बढ़ा जाता है।

ख़ास अनुभवों की तलाश करते रहोगे कि ऐसा होगा, वैसा होगा तो कुछ नहीं होगा। जिन्हें सीखना है, जानना है, वो दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण जानते-सीखते हैं। वो तो प्यासे हैं, वो तो सोखेंगे चाहे जहाँ से मिले। जैसे कुछ पदार्थ होते हैं, वो पानी सोखने के लिए इतने तत्पर होते हैं कि उनको अगर अभी यहाँ लाकर के इस मेज़ पर भी रख दो, तो थोड़ी देर में तुम पाओगे कि वो गीले जैसे हो गए। उन्होंने कहाँ से सोख लिया पानी? उन्होंने हवा से पानी सोख लिया। ऐसी तत्परता, ऐसी प्यास होनी चाहिए सोखने की कि तुम शुष्क लगने वाली हवा से भी नमी सोख लो। जहाँ तुम्हें कुछ ना दिखाई दे रहा हो सीखने के लिए वहाँ से भी तुम सीख लो।

चल रहे हो, बस यूँ ही सामने बाज़ार का कोई नज़ारा आया और तुम कुछ सीख गए। और भीतर बिलकुल पुलक उठ गई, तुमने कहा, 'वाह! क्या बात समझ में आयी है।' ऐसा नहीं कि वो बात समझने के लिए तुम पहले से तैयार बैठे थे, बस तुम इतने खाली थे और वो खालीपन इतना आग्रही था कि सत्य ने तत्काल आकर उसको भर दिया।

प्रकृति की ओर से जितने भी तुम्हें इन्द्रियगत अनुभव आते हैं वो इसीलिए आते हैं। पर तुम इतने खाली और इतने आग्रही और इतने प्रेमी तो रहो। उसके बाद एक-एक स्पर्श, एक-एक गंध, एक-एक शब्द, एक-एक अनुभव, एक-एक स्मृति, सब तुम्हारे शिक्षक बन जाएँगे, सब कुछ तुम्हें सिखा जाएगा।

प्रकृति को दोष मत देना। तुम्हारे साथ कुछ भी उल्टा-पुलटा हो रहा हो, सबसे पहले दोष अपने ऊपर लेना। अध्यात्म में ज़िम्मेदारी बड़ी चीज़ है, ज़िम्मेदारी हटा कर नहीं आगे बढ़ते।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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