जर्मनी में रिसर्च हुई थी, वहां के किसी जंगल में, तो वहां पर रात में आवाजें रिकॉर्ड की जा रही थीं पिछले 30-40 साल से। और वहां पर जो नतीजे सामने आ रहे हैं, वो इतने खौफनाक हैं। 70% आवाजें बंद हो गई हैं। वो फ्रीक्वेंसी ही गायब हो गई है। मतलब समझ रहे हो? और यह जंगल है, वहां कोई जाकर मार नहीं रहा। सिर्फ 30-40 साल के अंदर दो तिहाई से ज्यादा वहां जो प्रजातियां थीं, वो अब नहीं रही। गईं, क्योंकि इकोलॉजिकल सिस्टम्स बहुत सेंसिटिव होते हैं। उसमें कोई भी चीज कम-ज्यादा होगी, तो बचते नहीं हैं। क्लाइमेट का कितना जबरदस्त प्रभाव होता है, हम समझ ही नहीं पा रहे हैं।
हम भारत की बात करते हैं कि हमारी गौरवशाली सभ्यताएं थीं। आपको पता है कि हमारी जो बड़ी-बड़ी सभ्यताएं रही हैं अतीत में, वो सब की सब क्लाइमेट चेंज से ही समाप्त हुईं। और वो उस समय कोई बहुत बड़ा क्लाइमेट चेंज था भी नहीं।
इंडस वैली सिविलाइजेशन कैसे समाप्त हो गया था? कैसे हो गया था? हम कभी सोचते ही नहीं हैं। दक्षिण भारत की भी जो बड़ी-बड़ी सभ्यताएं थीं, उनके बारे में भी पढ़िए। चोल साम्राज्य का क्या हुआ था? समाप्ति कैसे आई थी? हम बात करते हैं GDP की। हम कहते हैं, 'आगे हम भविष्य बनाएंगे, उसमें समृद्धि आएगी।' क्लाइमेट ऐसी चीज है, यह पूरे के पूरे देश को तबाह कर देती है, एक आदमी नहीं बचता। एक आदमी नहीं बचता। अब रख लो अपना राष्ट्रवाद।
और ये सब जो अपने आप को राष्ट्र के नेता कहते हैं, ये क्लाइमेट की बात नहीं कर रहे। आप सिर्फ इतना गूगल कर लीजिएगा कि भारत में कौन-कौन से किंगडम्स रहे हैं, कौन से बड़े साम्राज्य रहे हैं, जो कि क्लाइमेट की भेंट चढ़ गए। आप हैरत में पड़ जाएंगे।
आप क्या सोचते हैं — कोई दुश्मन चाहिए होता है जो घोड़ों पर बैठकर राजधानी में आग लगा दे, तभी कोई राज्य समाप्त होता है? नहीं साहब, कोई आक्रांता नहीं चाहिए होता, क्लाइमेट ही पर्याप्त है सब कुछ ध्वस्त कर देने के लिए।
जिसको आज आप सहारा रेगिस्तान बोलते हैं, जानते हैं, एक समय वो क्या था? वो एक फलता-फूलता, घना, आबाद जंगल था। ये है क्लाइमेट की औक़ात। आज हम उसे ‘सहारा रेगिस्तान’ कहते हैं।
और भारत तो बहुत ही नाज़ुक स्थिति पर खड़ा है, क्योंकि हमारे यहाँ सारी खेती टेंपरेचर पर आश्रित है। नहीं समझे? सारी खेती किससे होती है? मानसून से। मानसून क्या है? जब समुद्र के ऊपर हवा का दबाव बढ़ जाता है और थल यानी ज़मीन के ऊपर कम रह जाता है, तो हवा समुद्र से ज़मीन की ओर भागती है। सीधी-सी बात है — कोई भी द्रव्य ज्यादा दबाव वाले क्षेत्र से कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर जाता है। ये जो प्रेशर डिफरेंशियल है, ये बनता कैसे है? टेंपरेचर से। जानते हैं ना? आप ये भी जानते होंगे कि लैंड और वाटर का थर्मल कोएफ़िशिएंट बिल्कुल अलग होता है। जब टेंपरेचर बढ़ेगा, तो ज्यादा तेजी से किसका बढ़ेगा — लैंड का या वाटर का? लैंड का।
पानी की स्पेसिफिक हीट तो हम जानते हैं — लिक्विड्स में बहुत हाई होती है। और मानसून तब ही आता है जब एक खास प्रेशर डिफरेंस हो।
और वो खास प्रेशर डिफरेंस तभी बनेगा जब एक खास टेंपरेचर डिफरेंस मेंटेन हो। लेकिन अगर टेंपरेचर बहुत ज्यादा बढ़ गया है, तो वो टेंपरेचर डिफरेंस मेंटेन नहीं हो पाएगा — क्योंकि समुद्र का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता है, जबकि ज़मीन का बहुत तेजी से।
हो चुकी बारिश। हम भी बनेंगे सहारा। यह हमें बात समझ में नहीं आ रही। हिमालय तो तिब्बत भी है, भाई मेरे। बर्फ का रेगिस्तान कहते हैं उसे। वहाँ तिनका भी नहीं उगता। बारिश नहीं है तो हिमालय से कुछ नहीं होगा। मानसून नहीं है तो यह कहने से कुछ नहीं होगा कि, “भाई, हमारी मिट्टी बड़ी उर्वर है और हमारे पास हिमालय है”—ना तो मिट्टी उर्वर रह जाएगी, न ही हिमालय से कुछ हो जाएगा।
तिब्बत क्या है, क्यों है? क्योंकि मानसून इधर से आते हैं—दक्षिण की ओर से। और तिब्बत का मुंह किधर है? उत्तर की ओर, चीन की ओर। मानसून वहाँ पहुंचते ही नहीं।
वेनेजुएला ने कहा है कि वहाँ आखिरी ग्लेशियर भी चला गया। हम कितने बेहोश लोग हैं। हमें समझ में नहीं आ रहा कि गंगोत्री भी तो ग्लेशियर ही है। अगर वेनेजुएला का आखिरी ग्लेशियर चला गया, तो भारत का आखिरी ग्लेशियर कब तक बचेगा? गंगा कहाँ से बहेगी? और यमुना कैसे—बोलो?
आप अभी गूगल करिएगा कि दक्षिण की जो बड़ी-बड़ी नदियाँ हैं, उनमें से कितनी मई के महीने में बह रही हैं? छोटी नदियों की बात नहीं कर रहा। दक्षिण की जो 15 सबसे बड़ी नदियाँ हैं, जरा देख लीजिए—आधी भी नहीं, सब सूखी पड़ी हैं। बहाव कम नहीं हो गया, बहाव शून्य हो गया, क्योंकि उनके पास कोई ग्लेशियर नहीं है। तो वे किस पर आश्रित रहती हैं? बारिश पर। बारिश नहीं होती; ग्लेशियर पिघल जाते हैं। कर लेना ऋषिकेश में राफ्टिंग। यह दूर की बात नहीं है। मुस्कुराओ मत। यह मैं सन्निकट भविष्य की बात कर रहा हूँ।
वेनेजुएला का ग्लेशियर चला गया, तो गंगोत्री कितने दिन तक बचेगा, बताओ?
और पहले बाढ़ आएगी, फिर सूखा। क्योंकि बर्फ पहले पिघलती है। जब पिघलती है, तो पहले भयानक बाढ़ आएगी—कई सालों तक। और फिर, अचानक जब सब बह जाएगा, तो सूखा हो जाएगा।
ठीक वैसे, जैसे फ्रिज की डिफ्रॉस्टिंग की जाती है—जो फ्रीज़र में लगी बर्फ को ग्लेशियर मानो। फिर जब आप उसका डिफ्रॉस्टिंग बटन दबाते हैं, तो सबसे पहले क्या होता है? पहले पानी-पानी फैल जाता है। ध्यान न दें तो पानी कमरे में फैल जाता है; किचन में रखा हो तो वहाँ पानी फैल जाता है। और फिर सब सूखा हो जाता है। यही भारत के साथ भी होने जा रहा है।
हमारे लिए बड़े मुद्दे क्या हैं? आईपीएल, चुनाव, और एकदम विक्षिप्त किस्म के वे नेता—जिन्हें या तो क्लाइमेट चेंज का पता नहीं है या उनके खोपड़े में नहीं घुस रहा कि राष्ट्र के सामने अभी सबसे बड़ी आपदा यही है। जैसे मरना काफी नहीं था, अब ताज़ा खबर यह है कि हम पागल होकर मरेंगे। बधाई हो।
कर लीजिए कल्पना—55–60 डिग्री तापमान में आप कपड़े फाड़ कर सड़क पर पहले दो-चार घंटे ऐं करते रहोगे, और फिर ऐसे धीरे-धीरे गिर जाओगे। और गिरने से पहले दो-चार को मार दोगे। जो-जो कांड हो सकते हैं, सब कर दोगे, और फिर मौत आएगी।
और यह मौत सबसे पहले किनको आएगी? वे जो मेगा-रिच (mega-rich) नहीं हैं। जैसे पिरामिड होता है—तो ह्यूमन स्पीशीज़ का एक्सटिंक्शन नीचे से शुरू होगा; यानी, जो सबसे गरीब हैं, वहीं से धीरे-धीरे सब गायब हो जाएंगे। जो मेगा-रिच हैं, वे भी जाएंगे, पर सबसे अंत में। पहले सारे गरीब गायब होना शुरू होंगे—फिर टॉप ऑफ द पिरामिड; फिर जो रिसोर्सफुल हैं, वे भी उड़ जाएंगे।
लोग कहते हैं, "आप बस डराते ही हो या कोई समाधान भी बताते हो।" समाधान, मैं सैकड़ों बार बता चुका हूं। आज ही हमें बता रहे थे कि भारत का जो आम आदमी है, वह एनुअली ढाई टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है—बस, सिर्फ ढाई टन। और फिर इन्होंने सेलिब्रिटीज़ का एक पूरा टेबल दिखाया, सेवरल मिलियन टन एनुअली। समाधान समझ में आ रहा है? हम अपने ऊपर ले लेते हैं कि, "नहीं, मैं ना कि एक बल्ब कम जलाऊंगा तो मैं क्लाइमेट चेंज रोक दूंगा।" भाई मेरे, तू ढाई टन एमिट करता है; यहां तक कि जो एवरेज अमेरिकन भी है, वह भी 14-15 टन एमिट करता है। इसमें जो रियल culprit हैं आप लोगों को संदेश भेजा था याद होगा कि दुनिया की बस 60 कुल कंपनियां हैं
श्रोतागण: चार
आचार्य प्रशांत: चार तो 25% वाली थी
श्रोतागण: 57
आचार्य प्रशांत: 57 है जिनसे कितने परसेंट है
श्रोतागण: 80%
आचार्य प्रशांत: 80% है। टॉप चार कंपनियों का आपको भेजा था कि 25% इनसे हैं और टॉप 57 कंपनियां ले लो तो दुनिया का 80% एमिशन वो करती हैं। और ये 57 कंपनियां क्या करेंगी? कंपनियां कॉन्शियस होती है क्या? कंपनियां इंसान है। कंपनियों में चेतना होती है। कंपनी माने कौन? कंपनी का ओनर। इन लोगों के अपने पर्सनल एमिशंस मिलियंस ऑफ टन्स ऑफ कार्बन डाइऑक्साइड में होते हैं। ये जो इनकी Yacht होती है, जो इनके प्राइवेट जेट होते हैं, इनकी जो लाइफस्टाइल होती है, लेकिन ये बातें आपको कभी नहीं पता लगने देंगे।
उल्टे ये आपसे बोलते हैं, “देखो, तुम ना कार पुलिंग किया करो।” भाई, आम आदमी कितनी भी कार पुलिंग कर ले, उससे नहीं होगा। असली बात ये है कि ये जिनको हमने अपना आदर्श बनाया हुआ है—सेलिब्रिटी, इनको हमें खींच के नीचे उतारना पड़ेगा। हमें इनके कंसमशन पर रोक लगानी पड़ेगी। और आम आदमी का भी अगर कंसमशन बढ़ रहा है, तो क्यों बढ़ रहा है? क्योंकि आम आदमी इन्हें आदर्श मानता है।
आम आदमी कहता है, “यह ऐश कर रहे हैं, यही गुड लाइफ होती है, यही जो गुड लाइफ है मुझे भी चाहिए।” ये कंसमशन कर रहे हैं, तो मैं भी कंसमशन करूंगा। आप में कंसमशन की सबसे ज्यादा आग कौन भड़काता है? ये सेलिब्रिटीज ही तो। देखो, मैं अपनी वाइफ को लेकर कहीं एल्प्स पर चढ़ा हुआ हूं।
एक भी सेलिब्रिटी बता दो, जो सेलिब्रिटी है पर वो कंसमशन की मूर्ति नहीं है, कंसमशन का एंबेसडर नहीं है। बताओ?
और जितना ज्यादा कंसमशन दिखाते हैं, उतना ही आप उनके चरणों में लोट जाते हो। यही तो कर रहे हैं वो, और यही आप करो। इसके लिए दुनिया भर के मोटिवेटर आपको बोलते हैं, “भाई, तू भी सक्सेस हो जाएगा।” सक्सेस माने, और क्या होता है? कि तुम भी इन सेलिब्रिटीज के कम से कम नौकर जैसे हो जाओगे। तो तुम सक्सेस कहलाओगे—सक्सेसफुल नहीं, सक्सेस। भाई, तू सक्सेस हो गया।
आम आदमी का भी कंसमशन, ये सेलिब्रिटी ही तो बढ़ा रहे हैं। दुनिया की आबादी के 0.01% लोग जिम्मेदार हैं इस पूरे ग्रह को तबाह करने के लिए, और यह बात कभी सामने लाई नहीं जा रही है। बल्कि आम आदमी को गुनहगार बनाया जा रहा है, उसको बताया जा रहा है कि, “देखो, तुम ना रिसाइक्लिंग किया करो, तुम एक बल्ब कम जलाओ, तुम कार की जगह—ना, तुम एक काम करो: तुम बस में जाओ, तुम इलेक्ट्रिक व्हीकल चलाओ।” क्यों? क्योंकि जो इलेक्ट्रिक व्हीकल बना रहे हैं, वो खुद सबसे बड़े एमिटर हैं। और वो आपको यह नहीं बता रहे हैं कि एंड-टू-एंड पूरा लाइफ साइकिल लेने पर, इलेक्ट्रिक व्हीकल उतना ही कार्बन एमिट करता है जितना कि फॉसिल फ्यूल वाला—यह कोई आपको बता नहीं रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: सर इसमें एक फैक्ट और था मैं रिसेंटली पढ़ रहा था कि जो लिथियम होता है जिससे बैटरी बनती है किसी इलेक्ट्रिक व्हीकल की एक टन लिथियम को एक्सट्रैक्ट करने के लिए 20 लाख लीटर फ्रेश वाटर चाहिए होता है।
आचार्य प्रशांत: हमारे समाज में यह बताया जा रहा है कि इलेक्ट्रिक व्हीकल से तो क्रांति आ जाएगी और उनकी नंबर प्लेट भी ग्रीन लगती है। किसको मूर्ख बनाया जा रहा है? असल में, जो इस पूरे ग्रह को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार हैं, उनके नाम हम लेना नहीं चाहते, जबकि उनके नाम सार्वजनिक हैं। बस जाकर Google करिए कि कौन से वो लोग हैं – "टॉप 100 पीपल हू आर रिस्पॉन्सिबल फॉर डिस्ट्रॉइंग द प्लैनेट थ्रू कार्बन एमिशंस." इससे आपको आसानी से पता चल जाएगा कि वे कितनी कार्बन एमिशन कर रहे हैं। फिर भी, प्लैनेट को बचाने की जिम्मेदारी आम आदमी पर डाल दी गई है।
कुछ सज्जन कहते हैं, "साहब, आप ना कपड़े प्रेस मत किया करो; इससे प्लैनेट बच जाएगा।" पर असल में, यह मूर्खता है कि असली गुनहगारों के नाम लेने की हिम्मत नहीं की जाती। अगर कपड़े नहीं पहने जाएं तो भी बचत नहीं होती। आम आदमी को कहा जाता है, "तू नंगा फिर," क्योंकि देखिए, कार्बन तो गारमेंट प्रोडक्शन में भी एमिट होता है। चाहे आप कितनी भी चीजें कम करें, लाभ जरूर होगा – पर कितना यह पेनी वाइज पाउंड फुलिश है।
इस बीच, एक टन कार्बन बचाने या एक गीगा टन बचाने का मुद्दा भी खड़ा होता है। जो गीगा टन वाले हैं, उनके नाम हम नहीं लेते क्योंकि उन्हीं के दम पर पूरी व्यवस्था चल रही है; वही हमारे राजा और नवाब हैं। जब यह वीडियो पब्लिश होगा, तो बहुत सारे होनहार यह लिखेंगे कि आपने क्लाइमेट चेंज की इतनी बात की, जबकि हॉल में AC भी चल रहा था। इन मूर्खों को यह पढ़ा दिया गया है कि आम आदमी द्वारा AC चलाने से ही पूरी कार्बन क्राइसिस उत्पन्न हो रही है।
मैं यह नहीं कह रहा कि आम आदमी को एमिशन करना चाहिए; बल्कि, मैं यह कह रहा हूं कि इतना कंजमशन और एमिशन सिखाने वाले असली जिम्मेदार तो ये सेलिब्रिटी ही हैं। हम गलत आदर्शों के साथ फंसे हुए हैं। पॉलिटिक्स, एंटरटेनमेंट और इंडस्ट्री – इन तीन क्षेत्रों से हम अपने आदर्श चुनते हैं। चाहे वे हमारे मनोरंजन के साधन हों, जिनके पास बहुत सारा पैसा हो, या वे इंडस्ट्रियलिस्ट हों या सत्ता में हों – ये तीनों हमारे दिमाग को भर देते हैं।
सच यह है कि इन तीनों क्षेत्रों के गुनहगार इस ग्रह को बर्बाद करने में योगदान दे रहे हैं, लेकिन साजिश यह है कि आम आदमी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आम आदमी जिम्मेदार ही है, पर उसकी सबसे बड़ी गलती यह है कि उसने इन सेलिब्रिटीज को सेलिब्रिटी बनाकर रखा है।
हर सेलिब्रिटी से एक घोषणा लेनी चाहिए – बताइए, आपका कार्बन फुटप्रिंट कितना है? "डिक्लेअर करो। डिक्लेअर करो तुम्हारा कार्बन फुटप्रिंट कितना है, तुम्हारा एनुअल कार्बन एमिशन कितना है। डिक्लेअर करो," ताकि जब वे यह घोषित करें तो आप उन पर आलोचना करने का मन भी नहीं करेंगे। हर सेलिब्रिटी बस यह बता रहा है कि "अनलिमिटेड कंजमशन इज द पर्पस ऑफ़ लाइफ." "हैप्पीनेस कम्स फ्रॉम कंजमशन."
मेरे भाई, कंजमशन के लिए ऐसी चीज चाहिए जिसे बिना अर्थ के कंज्यूम किया जा सके – जैसे नेचुरल रिसोर्स, बिना अर्थ के बन जाएं। पर मुझे तो कंजमशन करना है; मेरा मानना है कि टेक्नोलॉजी से बनी ये वस्तुएं वास्तव में टेक्नोलॉजी से नहीं, बल्कि पृथ्वी से बनी हैं। अगर आप दिखा सकते हैं कि बिना पृथ्वी के इन्हें बनाया जा सकता है, तो वो भी दिखाइए।
आप जिस हाई-टेक गैजेट को अपना कंप्यूटर मानते हैं, उसे बिना पृथ्वी के बना कर दिखाएं। इसी तरह, अगर आप इलेक्ट्रिक व्हीकल की बात करते हैं, तो बिना लिथियम के उन्हें बना कर दिखाएं। आपके मोबाइल फोन में भी दुर्लभ तत्व होते हैं – उन तत्वों के बिना बनाया जा सके, यह भी साबित करें।
आपको कंजमशन करना है, लेकिन इतना कंजमशन पृथ्वी कैसे अफोर्ड करेगी? मिनरल्स कहां से आएंगे? यह तभी संभव है जब आप पृथ्वी के संसाधनों का अत्यधिक दोहन करें। और जब बात आती है सबसे साधारण रिसोर्स की – जैसे भोजन – इतने लोगों के लिए भोजन कहाँ से लाया जाए, यह एक बड़ा सवाल है। यहां तक कि अगर लोग मांस न खाएं, तो भी चुनौतियां बनी रहेंगी।
दुनिया भर में 70% से अधिक खेती जानवरों के लिए की जाती है। जानवरों के लिए ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि उन्हें खिलाया जा सके और फिर उनकी उपज का सेवन किया जा सके। यह एक अजीब परिदृश्य है। कुछ कहते हैं कि शाकाहारी भी खेत का ही सेवन करते हैं, जबकि खेत से भोजन करने में भी हिंसा हो सकती है। दरअसल, 70% खेत इसी हेतु हैं कि जानवरों को सोयाबीन खिलाया जाए, जिसे बाद में मांसाहारी लोग खाते हैं।