प्रश्नकर्ता: अध्यात्म में स्वार्थी होने की बात कही जाती है। अध्यात्म में स्वार्थ का क्या महत्व है?
आचार्य प्रशांत: अध्यात्म सारा अहंकार के लिए होता है। सत्य को अध्यात्म की तो कोई ज़रूरत नहीं है न? अध्यात्म की सारी साधना किसके लिए होती है? अहम् के शमन के लिए। अहंकार परेशान है, उसी की परेशानी दूर करने के लिए अध्यात्म का पूरा क्षेत्र है, है न? हाँ, तो सब स्वार्थ किसके होते हैं? अहम् के ही होते हैं न? अहम् के ही सब स्वार्थ होते हैं न? तो स्वार्थों में सबसे बड़ा स्वार्थ क्या है अहम् का? कि उसकी परेशानी दूर हो जाए।
तो अध्यात्म क्या है? अहम् के सबसे बड़े स्वार्थ को पूरा करने की कोशिश। अध्यात्म है अहम् को वास्तव में स्वार्थवान होने का ज्ञान देना। अहम् से कहना, ‘तू कहाँ इधर-उधर उलझा हुआ है, तू अपने असली स्वार्थ की पूर्ति कर भाई!’ एक आदमी है जिसके आग लगी हुई है। अभी उसका क्या स्वार्थ है? वो अपनी आग बुझाये। अहंकार वो आदमी है, उसको आग लगी रहती है हर समय। उसे अपने स्वार्थ की पूर्ति करनी चाहिए।
लेकिन उसकी जगह वो क्या कर रहा होता है? उसके आग लगी हुई है और वो धीरे-धीरे चला जा रहा है। ‘कहाँ जा रहे हो भैया?’ ‘कहीं नहीं। जा रहे हैं ज़रा दुकान पर बैठेंगे।’ और देखो उसको पीछे से, उसके आग लगी हुई है। और कह रहा है, ‘हम दुकान पर बैठने जा रहे हैं।’ ‘क्या करने जा रहे हो भैया?’ ‘कुछ नहीं। आज ब्याह है हमारा।’
अरे! धुआँ उठ रहा है! लपटें घिरी हुई हैं! और ये जा रहे हैं ब्याह करने। तुम्हें ज़रूरत क्या है कहीं जाने की? आग के इर्द-गिर्द ही तो फेरे लेने होते हैं। देवी जी को यहीं बुला लो। उनको बोलो, मेरे ही चारों ओर घूम जा। असली आग तो मेरे ही लगी हुई है। या तुम देवी जी के चारों ओर घूम जाओ। बराबर की आग दोनों ओर है।
हम ऐसे ही लोग हैं। लगी हुई है आग और जा रहे हैं घर बसाने, संसार रचाने। अध्यात्म कहता है, मूरख! पहले, पहला काम कर ले। पहले, पहला काम कर ले। तुझे शोभा नहीं देता कुछ भी और करना। तू इस हालत में नहीं है कि तू कुछ और भी करे। लगी हुई है आग और कह रहे हैं कि अब परिवार बढ़ाना चाहिए, बच्चे पैदा करते हैं। बाप भी जल रहा है, माँ भी जल रही है, माँ की कोख भी जल रही है और उसमें से सन्तानें पैदा की जा रही हैं।
अभी आपका स्वार्थ इसी में है कि बाक़ी सबकुछ भूलें और पहले पहला काम करें। पहला काम अगर ठीक चलता रहेगा तो फिर बाक़ी सब काम अपनेआप ठीक हो जाएँगे। और पहला काम ही गड़बड़ है और बाक़ी काम करने में रत हो रहे हो तो बड़ा कष्ट पाओगे।
प्र: क्या इसी सन्दर्भ में कहा जाता है कि अहंकार दूर होने पर सभी कष्ट भी दूर हो जाते हैं?
आचार्य: अहंकार दूर होने पर कष्ट दूर किसी और के लिए नहीं हो जाते। अहम् स्वयं अपना ही कष्ट है। सब कष्टों को भोगने वाला भी कौन है? अहम् ही है। तो अहम् हटेगा तो कष्ट इसलिए हट जाएँगे क्योंकि कष्टों को भोगने में अब किसी की रुचि नहीं रही। अहम् कोई ऐसा थोड़े ही है कि कन्धे पर कोई फोड़ा-फुंसी हो गयी है तो वो हट जाएगी और आप बचे रह जाएँगे। अहम् वो है जिसको हमने अपनी सत्ता सौंप दी है। अहम् 'मैं' है, 'मैं'। हम, अहम्!
तो अहम् हटने पर कष्ट ही नहीं दूर होते, वो पीछे की बात है, अहम् हटने पर कष्टों को भोगने वाला दूर हो जाता है। हम अपने कष्ट आप हैं। हमें कोई बाहरी कष्ट थोड़े ही सताता है। अहंकार अपने लिए स्वयं ही एक कष्ट है। उसे कोई कष्ट सताता नहीं है, अहम् का ही दूसरा नाम है कष्ट। उसे कोई बाहरी कष्ट थोड़े ही आकर परेशान करता है!
लेकिन हमारी दावेदारी कुछ विचित्र होती है। हम कहते हैं, 'मैं अहंकार हटा रहा हूँ।' दूसरे शब्दों में कहें तो अहंकार, अहंकार हटा रहा है। और आगे का खेल और निराला, 'मैंने अहंकार हटा दिया।' अहंकार ने अहंकार हटा दिया, बचा क्या? अहंकार। क्या बात है! ‘मैं’ को हटाना नहीं होता, चुपचाप हट जाना होता है।
प्र: सैद्धान्तिक रूप से तो चीज़ें समझ में आ गई हैं। लेकिन वास्तव में गहराई में जाने पर कि ये सब चीज़ें हमारी लाइफ़ (ज़िन्दगी) से कैसे, पल-पल पर जुड़ी हुई हैं, वो फिर कन्फ्यूज़न (संशय) हो जाता है।
आचार्य: उदाहरण दीजिए न। कहाँ पर अटक जाते हैं?
प्र: कहाँ, अहम् कहाँ है? किसको हटायें?
आचार्य: अहम् कहाँ नहीं है?
प्र: और हटाने के बाद फिर वापस आ जाता है। तो आया कब?
आचार्य: किसने हटा दिया? अभी क्या बात करी हमने? अहम् ने अहम् को हटाया। बाक़ी क्या बचा? अहम्। तो ये वापस आया है अहम् या हटा ही नहीं था? अपनेआप को ही धोखा दे दिया कि मैंने हटा लिया है। अहम् कहाँ है? जहाँ आप हैं वहीं है।
अपनेआप को हम यक़ीन दिलाना चाहते हैं कि अहम् हमारी हस्ती का कोई हिस्सा भर है। एक हिस्सा है, एक बिन्दु है, एक अंश है, जिसको हम कह सकते हैं कि अहम् है। और अगर अहम् हमारी हस्ती का अंश भर है तो हमें सुविधा हो गयी। फिर हम कह सकते हैं कि हमारे ही भीतर ऐसा कुछ है जो अहम् नहीं है। उसको हम कोई ऊँचा नाम देना चाहेंगे — सत्य, आत्मा इत्यादि। है न?
ये सुविधा अपनेआप को मत दीजिए। आप नख-शिख अहम् मात्र हैं। शरीर की एक-एक कोशिका अहम् मात्र है। मन की एक-एक तरंग अहम् मात्र है। जीवन का एक-एक अनुभव अहम् मात्र है। हर विचार अहम् मात्र है। अपनेआप को क़तई छूट मत दीजिए ये विश्वास करने की कि आपके पास ऐसा कुछ भी है जो अहंकार से रिक्त है, शुद्ध है।
प्र: हम इससे मुक्ति कैसे पाएँगे? वो तो जाएगा ही नहीं।
आचार्य: उससे मुक्ति पाने की ज़रूरत नहीं है, ज़रूरत है ये देखने की कि आपको उसकी ज़रूरत क्या है। कोई चीज़ आवश्यक हो, कोई चीज़ आपका बड़ा क़ीमती हिस्सा हो, तब तो यह प्रश्न उठता है कि कैसे इससे मुक्ति पायें, बड़ी समस्या है। जो चीज़ बिलकुल अनावश्यक हो और आपने जबरन पकड़ रखी हो, उसको लेकर के ये सवाल पूछें कि इससे मुक्ति कैसे पायें या ये पूछें कि मुझे हुआ क्या है जो मैंने इस चीज़ को पकड़ रखा है?
लेकिन नहीं, आप ये बिलकुल नहीं बताना चाहेंगे कि आप कैसे दिन-रात कोशिश कर-करके अहम् को पकड़े रहते हैं, जान लगा-लगाकर अहम् को पकड़े रहते हैं। उसका कोई उल्लेख नहीं करना चाहेंगे, बल्कि प्रश्न करना चाहेंगे कि इससे मुक्त कैसे हों। आप कैसे पकड़ते हैं अहम् को, पहले ये तो बताइए न।
मैं बताता हूँ। अहम् माने अधूरापन। वो अधूरापन अपनेआप को बचाये रखता है किसी-न-किसी चीज़ का सहारा लेकर। जिस भी चीज़ का जीवन में आप सहारा लेते हैं, जिन भी विषयों से आप जुड़े होते हैं, वास्तव में उनसे जुड़कर आप अहम् को ही बचा रहे होते हैं। अभी ये सत्र पूरा हो जाएगा, इसके बाद आप फोन उठाकर के कहीं बातचीत करने लग जाएँगे। ऐसे आपने अहम् को ऊर्जा दी, ऐसे आपने बचा लिया अपनेआप को।
आप दिनभर इधर-उधर होकर के कुछ विचार कर रहे थे। किसी विषय में ही था न विचार? जिस भी विषय में आप विचार कर रहे थे, उसके माध्यम से अहम् को ही सहारा दे रहे थे आप। ऐसे आदमी अहम् को बचाये रखता है, पकड़े रखता है। तुम न पकड़ो अहम् को तो मुक्ति-ही-मुक्ति है। जैसे अभी आपने उस माइक को पकड़ रखा है न, ऐसे अहम् को पकड़ते हैं। या ऐसे कहिए कि ऐसे अहम् अपने विषय को पकड़ता है, अपनेआप को बचाये रखने के लिए। अभी आप क्या हैं? अहम्। और ये माइक क्या है? विषय।
विषय अगर छूट गया तो अहम् भी मिट जाएगा, क्योंकि अहम् अकेलापन बर्दाश्त नहीं कर सकता। अहम् एक अधूरी इकाई है जो अपनेआप जी ही नहीं सकती अगर उसे किसी का सहारा न मिले। जैसे अभी आपने माइक पकड़ रखा है, अहम् ऐसे ही एक के बाद एक दिनभर विषय पकड़ता रहता है ताकि वो बचा रह सके, जीवित रह सके। माइक बिलकुल भौतिक है, ग्रॉस (स्थूल) है, दिख रहा है अभी, तो पता चल रहा है कि आपने माइक को अपने हाथों से पकड़ रखा है। लेकिन जब आपने माइक को नहीं भी पकड़ रखा था तो आपने वैचारिक तरीक़े से कुछ-न-कुछ और पकड़ रखा था। वो जो पकड़ है उसी का नाम बन्धन है। अब बताइए मुक्त कैसे होना है?
जो कुछ भी आप सोचते रहते हैं, वही अहम् को सहारा दिये हुए है। जो कुछ भी आप पकड़े रहते हैं, वही अहम् को सहारा दिये हुए है। जो कुछ भी आपको प्रिय है, वही अहम् को सहारा दिये हुए है। जिन भी चीज़ों की आपको चिन्ता लगी रहती है, वही अहम् को सहारा दिये हुए हैं। जिन भी चीज़ों से आप भय खाते हैं, वही अहम् को सहारा दिये हुए हैं। जिन भी चीज़ों की आपको उम्मीद है, वही अहम् को सहारा दिये हुए हैं। ऐसे ज़िन्दा रहता है अहंकार।
अहंकार को छोड़ना हो तो अहंकार को छोड़ने की बात मत करिए। अहंकार के विषय को छोड़िए, वो चीज़ ज़्यादा व्यावहारिक है। अहंकार हमेशा कुछ माँगता है सहारे के लिए। जिस भी चीज़ को उसने सहारे के लिए माँग रखा हो, देख लो कि तुम्हें उसकी वाक़ई ज़रूरत है क्या। न दिखायी दे ज़रूरत तो छोड़ दो। वो चीज़ गिरेगी, उसके साथ ही गिर जाएगा अहंकार।
प्र: हमारी सारी इच्छाएँ और सारी हमारी जो आसक्तियाँ हैं, यही अहम् है?
आचार्य: इच्छाएँ ही नहीं, अनिच्छाएँ भी। राग ही नहीं, द्वेष भी। रुचि ही नहीं, अरुचि भी। मित्र ही नहीं, शत्रु भी।
प्र: गृहस्थ आदमी का क्या लक्ष्य होना चाहिए?
आचार्य: गृहस्थ रहे।
प्र: तब तो घूम-फिरकर वहीं आये। जब गृहस्थ ही रहेगा तो फिर वो सारी इच्छाएँ और आसक्तियाँ कहीं-न-कहीं रहेंगी ही। गृहस्थ भी रहे और आसक्तियाँ भी न रहें, क्या ये सम्भव है?
आचार्य: आप उस शर्ट के भीतर बैठे हैं तो अपनेआप को शर्टस्थ क्यों नहीं बोल रहे? आप ये गद्दे के ऊपर बैठे हैं, अपनेआप को गद्दस्थ क्यों नहीं बोल रहे? अभी तो आप अपने घर में भी नहीं है, इस वक़्त आप अपने घर से बहुत दूर हैं, तब भी अपनेआप को बोल रहे हैं गृहस्थ। और शर्ट के अन्दर घुसे हुए हैं लेकिन अपनेआप को शर्टस्थ तो नहीं बोल रहे। क्यों नहीं बोल रहे?
घर या गृह कोई ईट-पत्थर की जगह नहीं होती, वो एक मानसिक अवस्था होती है। आप यहाँ मेरे सामने बैठे हो, आप गृहस्थ कैसे हो गये भाई? अगर शर्टस्थ नहीं हो तो गृहस्थ क्यों हो? गद्दस्थ नहीं हो तो गृहस्थ क्यों हो? गृहस्थ वो नहीं है जिसके पास रहने को घर होता है या बीवी-बच्चे होते हैं; गृहस्थ वो है जो घर को और बीवी और बच्चों को दिमाग में लिये-लिये घूमता है, वो गृहस्थ है। और उसके लिए फिर आत्मस्थ होने का कोई तरीक़ा नहीं है।
नहीं तो, बहुत सन्त हैं जिन्होंने ब्याह किया था, उनके बच्चे भी हुए थे। उनकी समाधि में कोई बाधा थोड़े ही आयी! क्योंकि बीवी-बच्चे सब बाहर-बाहर रहते थे, उनको वो दिमाग में नहीं घुसने देते थे। तो वो कभी गृहस्थ नहीं हुए। जो गृहस्थ नहीं है, वो फिर समाधिस्थ हो सकता है। पर जिसने इन सब चीज़ों को दिमाग में घुसेड़ लिया, उसके लिए अब कोई जगह नहीं है। जो गृहस्थ है, अब वो अन्त:स्थ कैसे होगा?
और ये जो शर्ट है न, ये आपको बहुत प्यारी हो जाए तो यक़ीन जानिए, थोड़ी देर में आप कहना शुरू कर देंगे कि मैं शर्टस्थ हूँ। अब जो शर्टस्थ हो गया, जिसको शर्ट से ही इतना प्रेम हो गया, वो करेगा क्या सत्य का? तुम्हें मिल तो गयी तुम्हारी प्यारी वस्तु, शर्ट, तो तुम शर्टस्थ रहो न। वैसे ही जिसको गृह ही सबसे प्यारी वस्तु लगने लगे, उसके लिए यही उचित है कि अब वो दिमाग में गृह को ही लिये-लिये घूमे। तुम्हारे दिमाग पर तुम्हारे गृह का कब्ज़ा है, तो गृहस्थ रहो।
फिर समझिएगा। गृहस्थ होना बाहरी तौर पर शादी-ब्याह कर लेने की बात नहीं है। बाहरी तौर पर कुछ भी चलता रहे, क्या फ़र्क पड़ता है! ये जो कुछ बाहर का है, उसे भीतर प्रवेश करने की आज्ञा नहीं मिलनी चाहिए। होगी दुकान, होगा कारोबार, पति होंगे, पत्नी होंगी, बच्चे होंगे। ये सब हैं इधर (बाहर), ये खोपड़ी पर चढ़कर न नाचें। ये जीवन का केन्द्र न बन जाएँ। ऐसा न हो कि यही-यही घुस गये हैं आपके भीतर और आपका जीवन इन्हीं से भर गया है बिलकुल। जिसके साथ ये हो गया, वो अब हो गया गृहस्थ। और जो हो गया गृहस्थ, उसके लिए अब कोई सम्भावना नहीं है।
अगर ईट-पत्थर का गृह है आपका, तो आप समाधिस्थ हो सकते हैं। अगर ईट-पत्थर का गृह है, जिसके भीतर आप रहते हैं तो आप समाधिस्थ हो सकते हैं। मैंने कहा, बहुत हुए हैं शादीशुदा सन्त वगैरह जो समाधिस्थ हुए, क्योंकि वो ईट-पत्थर के घर के अन्दर रहते थे। और दूसरी ओर होता है आम संसारी, उसके भीतर ईट-पत्थर का घर रहता है! यह पक्का गृहस्थ है। इसके लिए कोई मुक्ति नहीं, इसके लिए कोई सत्य नहीं, इसके लिए कोई समाधि नहीं।
तुम घर के भीतर हो, तुम्हें मुक्ति मिल सकती है, पर घर अगर तुम्हारे भीतर घुस गया तो तुम्हें मुक्ति नहीं मिलने वाली। फिर वो चाहे घर हो जो तुम्हारे भीतर घुसा हो, चाहे तुम्हारी शर्ट घुसी हो तुम्हारे भीतर, चाहे दुनिया की कोई और चीज़ घुसी हो। सब काम-धन्धा बाहर-बाहर चले, ठीक है। भीतर घुसेड़ लिया, मारे गये। पर भीतर ही घुसेड़े हुए हैं। यहाँ बैठे हुए हैं, तब भी बात क्या कर रहे हैं? कि साहब! हम तो गृहस्थ हैं। ये कोई बात है!
ये वैसी ही बात है कि कोई पूछे, 'मेरी बकरी का नाम मुनिया है, क्या मुझे मुक्ति मिल सकती है?' मुक्ति का मुनिया से ताल्लुक़ क्या है भाई? 'नहीं आचार्य जी, मेरी बकरी का नाम मुनिया है, क्या मुझे मुक्ति मिल सकती है?' बकरी अपनी जगह है, मुक्ति अपनी जगह है। वैसे ही बीवी-बच्चों को रखा करो। उनको उनकी जगह रहने दो। उनको मुक्ति की जगह पर काहे को बैठा देते हो भाई? उनकी तुम्हारे शारीरिक जीवन में कुछ जगह है, वो जगह उनको दे दो। पर उन्हें अपनी ज़िन्दगी का भगवान मत बना लो, कि मैं तो इन्हीं के लिए जीता हूँ, इन्हीं के लिए मरता हूँ। 'मेरी मुनिया ही ज़िन्दगी है मेरी।' फिर कुछ नहीं हो पाएगा।
हम बड़े मस्त लोग होते हैं। हम घर में नहीं रहते, घर हममें रहता है। हम गाड़ी में नहीं चलते, गाड़ी हममें चल रही होती है। हम बर्तनों में नहीं खा रहे होते, बर्तन हमें खा रहे होते हैं। अध्यात्म वर्जित नहीं करता किसी चीज़ को। उसे मतलब ही नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो मुनिया और चुनिया के साथ। जो करना है करो। बकरी पालनी है, बकरी पालो। भेड़ पालनी है, भेड़ पालो। पर तुम बकरी-भेड़ को खोपड़े पर चढ़ा लोगे, कन्धे पर लादकर घूमोगे और फिर कहोगे, 'मुक्ति नहीं मिल रही आचार्य जी', तो क्या बोलें आचार्य जी?
मुनिया बोली, 'मैं…' फिर तुम पूछते हो, अहम् क्या है? मुनिया बोली, 'मैं…'
बढ़िया है ये सब, जीवन के रूप-रंग हैं, चलते रहते हैं। फलों में पोषण बहुत होता है, पर उनमें थोड़ा स्वाद भी होता है, चटकारा भी होता है। संतरा खाओ, सेब खाओ, आम खाओ, स्वाद भी होता है न? तो वैसे ही ये सब जीवन में थोड़ा रूप-रंग देने वाली, थोड़ा माल-मसाला भरने वाली चीज़ें होती हैं, बाहरी। जैसे सलाद पर किसी ने ज़रा सी काली मिर्च छिड़क दी हो। जब तक ये मुनिया और चुनिया, सलाद पर छिड़की हुई काली मिर्च की तरह हैं, तब तक ठीक है। पर ये न कर लेना कि तुमने नाश्ता ही काली मिर्च का कर डाला। कि नाश्ते में क्या लेते हैं? काली मिर्च। सब काला-ही-काला हो जाएगा भीतर। बात समझ में आ रही है?
हर चीज़ को उसकी जगह पर रखो। घर, घर है और सच, सच है। घर, सच की जगह नहीं ले सकता। जब तक घर सच की जगह न ले, घर बढ़िया है। मौज करो, टीवी देखो, कोई दिक्क़त नहीं है। तमाशा है, देखो। बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है। देखो भाई, देखो। कोई दिक्क़त नहीं है, जब तक जो कुछ भी तुम देख रहे हो, वो खोपड़े पर ही न चढ़ जाए तुम्हारे। और जहाँ पाओ कि ये सब अब खोपड़े पर चढ़ने लगा है, तत्काल उतार दो, एकदम झटककर गिरा दो।
पूरा हक़ है तुम्हें, तुम्हारे सामने नाश्ता आया है, सलाद आये हैं, फल आये हैं, उन पर थोड़ा नमक डालो, थोड़ा नींबू डालो, थोड़ी काली मिर्च डालो। पर ये थोड़े ही कि एक अंगूर आया कुल नाश्ते में, और उसमें तुमने आधा किलो काली मिर्च डाल दी। हमारा जीवन ऐसे ही चल रहा है। मसाला-ही-मसाला है, सत्त्व कहीं नहीं। सार नहीं होता, मसाला-ही-मसाला रह जाता है। फिर तो कुछ नहीं है।
संन्यास का भी मतलब ये नहीं होता कि तुम घर छोड़ दो, काम-धन्धा, दुकान छोड़ दो, बीवी-बच्चा छोड़ दो। संन्यास का मतलब होता है जो चीज़ जिस जगह का अधिकार रखती है और जितना अधिकार रखती है, उसे उसी जगह पर रखो और उतना ही अधिकार दो। हर चीज़ को सही जगह पर रखो। चप्पल कान में नहीं लटकायी जाती न? लेकिन चप्पल की उपयोगिता है। संन्यास का मतलब ये नहीं होता कि चप्पलें उठाकर फेंक दी। संन्यास का मतलब होता है, चप्पल है तो कान में नहीं, पाँव में पहनेंगे। बात समझ में आ रही है?
तो इसी तरीक़े से जिसको कहते हो गृहस्थी, उसको कान में मत लटका लो। उसकी शारीरिक जीवन में कुछ उपयोगिता है, उसको चलने दो। अपने भीतर की जगह साफ़ रखो। तुम्हारे भीतर एक मन्दिर है। और वो मन्दिर इसलिए नहीं है कि तुम उसमें अपनी पत्नी की ही मूर्ति प्रतिष्ठापित कर दो, कि यही तो मेरे जीवन की देवी हैं। अपने भीतर के मन्दिर में सच को प्रतिष्ठा दो। मूर्ति ही वहाँ बैठानी है तो गायत्री की मूर्ति बैठाओ।