प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पूँजीवाद की बात बार-बार उठती है और वो हमारे जीवन का तथ्य ही है। तो जब आप ये बात करते हैं और जब हम अपने आस-पास की सामाजिक व्यवस्था भी देखते हैं तो कम्युनिज़्म (साम्यवाद) का खयाल बार-बार उठता है। और धर्म की बात भी जैसे बार-बार होती है कि धर्म में स्थापित होना बहुत ज़रूरी है, लेकिन साथ में एक सामाजिक ढाँचा अगर कम्युनिज़्म (साम्यवाद) की तरफ़ रुख लेता है फिर से, जो कि एक चक्का ही है जो चलता रहता है वो, पूँजीवाद से कम्युनिज़्म पर बार-बार। क्या उससे कुछ चीज़ें बेहतर हो पाएँगी? कुछ तलों पर तो वो बेहतर दिखता ही है पर कहीं वो बहुत शोषण भी हुआ है ऐसे समाजों में।
आचार्य प्रशांत: आदमी को न पूँजीवाद बचाएगा न साम्यवाद बचाएगा, आदमी को तो सत्य ही बचाएगा न? पूँजी एक हाथ में हो, इसमें कोई खास बात नहीं और पूँजी अनेक हाथों में हो या राज्य के हाथ में हो, इसमें भी कोई खास बात नहीं। क्योंकि जिसको तुम राज्य कह रहे हो उसको भी चलाने वाला तो आदमी ही है।
पूँजी एक हाथ में भी है अगर, जिसको पूँजीवाद कहते हो, उसमें भी उस पूँजी का उपयोग करने वाला कौन है? आदमी। और पूँजी अगर राज्य के हाथ में है तो भी उस पूँजी का उपयोग करने वाला कौन है? आदमी ही तो है। बात अन्ततः ये है कि धन एक संसाधन है और उसका तुम उपयोग कैसे कर रहे हो। और उपयोग करने वाला कौन है? आदमी का मन।
आदमी का मन अगर सत्यनिष्ठ है तो कोई बुराई नहीं अगर उसके पास अरबों भी हैं तो, क्योंकि उसके पास अरबों हैं, उन अरबों का इस्तेमाल वो? उसी (उँगली से ऊपर की ओर इंगित करते हैं ) के लिए करेगा। बात पूँजी की नहीं है, असली बात आदमी के मन की है। आदमी का मन अगर सत्यनिष्ठ है तो क्या बुरा हो गया अगर उसके पास करोड़ों-अरबों हैं?। अच्छी बात है, होने चाहिए। जो आदमी सत्यनिष्ठ है उसके हाथों अगर में ताकत है; चाहे वो धन की ताकत हो, ज्ञान की ताकत हो, भक्ति की ताकत हो, सत्ता की ताकत हो, तो ये तो अच्छी ही बात है न। वो उस ताकत का उपयोग? परमार्थ के लिए ही करेगा।
और इसी तरीके से राज्य जो चला रहे हैं, सत्ता जो चला रहे हैं अगर वो एक समूह है, एक कमिटी (समिति) है उसमें भी लोग अगर सत्यनिष्ठ हैं तो साम्यवाद भी बढ़िया चीज़ है। फिर उनके हाथों में जो सत्ता है, सेन्ट्रलाईज़्ड(केन्द्रीकृत) ताकत है, उसका भी वो उपयोग परमार्थ के लिए ही करेंगे। ले-देकर सत्ता का या धन का उपयोग क्या करना है इसका निर्णय करने वाला तो आदमी का मन ही है न? आदमी के मन को सही राह दिखाता है अध्यात्म। अध्यात्म है तो पूँजीवाद बहुत अच्छा है। अध्यात्म है तो साम्यवाद भी बहुत अच्छा है। अध्यात्म नहीं है तो पूँजीवाद हो या साम्यवाद हो, आदमी कलपता ही रहेगा, बिलखता ही रहेगा, छटपटाता ही रहेगा।
बात न पूँजी की है न किसी वाद की है, बात सत्य की है। सत्य हो तो पूँजीवाद भी अच्छा और साम्यवाद भी अच्छा। सत्य नहीं है तो दोनों बर्बाद।
समझ में आ रही है बात?
हम अक्सर ये सोचते हैं कि कोई व्यवस्था आकर के हमको मुक्ति दे देगी या दुख से निजात दे देगी। व्यवस्था से थोड़े ही मिलती है मुक्ति वगैरह। कोई भी व्यवस्था लाने वाला कौन है? इंसान। कोई भी व्यवस्था चलाने वाला कौन है? इंसान। और इंसान का ही मन अगर भ्रष्ट है तो व्यवस्था क्या कर लेगी? हर चीज़ के केन्द्र में कौन बैठा है? इंसान। तुम ऊँची-से-ऊँची व्यवस्था लगा दो, जब इंसान का मन ही भ्रष्ट है, भोग के लिए आतुर है, लालची है, डरा हुआ है, कामी है, क्रोधी है, ईर्ष्यालु है, तो व्यवस्था क्या कर लेगी?
इंसान का शोधन होना चाहिए, इंसान आध्यात्मिक होना चाहिए, फिर वो अपने लिए सही व्यवस्था खुद चुन लेगा। कभी-कभी पूँजीवाद सही व्यवस्था हो सकती है, कभी साम्यवाद हो सकती है, कभी समाजवाद हो सकती है। व्यवस्थाएँ तो हालात पर निर्भर करती हैं। जिस तरीके के हाल हों उसके अनुरूप व्यवस्था चुन लो और हाल बदले तो व्यवस्था भी बदल दो। व्यवस्था में ऐसा क्या पुनीत-पावन है कि बदली नहीं जा सकती? आज पूँजीवादी हो, कल साम्यवादी हो जाना। कोई फ़र्क नहीं पड़ गया।
असली बात ये है कि तुमको सत्यवादी होना चाहिए। सत्यवादी हो तो उसके बाद पूँजीवादी हो, साम्यवादी हो सब चलेगा। और सत्यवादी हो, तो तुम्हें साफ़ पता चल जाएगा कि कब पूँजीवाद की ज़रूरत है, कब साम्यवाद की ज़रूरत है। सब जान जाओगे; सत्यवादी नहीं हो तो कुछ नहीं जान पाओगे। खोखले आदर्शों पर चलते रहोगे, जैसे कि इतिहास में चला गया है। बड़ी बर्बरताएँ होंगी, बड़ी मूर्खताएँ होंगी, बड़ी हिंसा और बड़ी क्रूरताएँ होंगी, जैसा कि इतिहास में होती आयी हैं। पूँजीवाद में भी हुई हैं, साम्यवाद में भी हुई हैं।
आदमी ठीक होना चाहिए, फिर वो वाद इत्यादि ठीक कर लेगा।
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