पूजा-पाठ के क्या लाभ हैं?

Acharya Prashant

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पूजा-पाठ के क्या लाभ हैं?
हम न पूजा-पाठ जानते हैं, न भजन-कीर्तन जानते हैं। बस करते जाते हैं, निभाते जाते हैं। आप जो कुछ भी करते हो, पूजा-पाठ, तप, यज्ञ इत्यादि, पूछिए कि इससे आपकी परेशानी कैसे मिट रही है? बिना जाने-समझे पूजा-पाठ करते-करते यह स्थिति आ गई है कि अब एक पीढ़ी खड़ी हो गई है, जो किसी भी तरह की पूजा, पाठ या जप करना ही नहीं चाहती। मंदिर बहुत लाभ की जगह हो सकता है, अगर उसे रूढ़िवादी स्थान न बना दिया जाए। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या पूजा-पाठ, यज्ञ आदि नित्य कर्मों से मुक्ति की तरफ़ बढ़ने में कुछ मदद मिलती है?

आचार्य प्रशांत: नहीं देखिए, भूलना नहीं है कि आपकी परेशानी आपकी सब गतिविधियों के केंद्र में होनी चाहिए। ठीक है? मैं अगर परेशान हूँ तो मुझे हक़ ही नहीं है कुछ भी इधर-उधर का करने का। मेरा पहला दायित्व है — मैं पूछूँ कि मैं जो कुछ भी करने जा रहा हूँ, उससे मेरी परेशानी मिटेगी या नहीं मिटेगी? क्यों? क्योंकि मेरा पहला कर्तव्य है स्वधर्म में जीना। मेरा पहला कर्तव्य है स्वभाव में जीना। ठीक है।

कर्तव्य माने वो चीज़ जो करने लायक है। तो अगर मैं परेशान हूँ तो मेरे लिए करने लायक पहली चीज़ यही है कि अपनी परेशानी दूर करूँ। मैं कुछ भी और करने लग गया अपनी परेशानी साथ में लिए-लिए तो ये ग़लत होगा। ये अर्धम है, ये अकर्तव्य है।

समझ में आ रही बात?

तो आप जो भी कुछ करते हो, पूजा-पाठ, तप, यज्ञ इत्यादि, आप पूछ लीजिए इससे आपकी परेशानी कैसे मिट रही है? और साफ़ सवाल, ठीक है? मैं ये नहीं कह रहा कि आप कुछ मानें, न ये कह रहा हूँ कि कुछ न मानें। पर पूछिए ज़रूर कि ये मुझे जो कुछ भी करने को कह रहे हो, इसका मेरी जो सीधी-सीधी समस्याएँ हैं, उनसे ताल्लुक़ क्या है?

मालूम है आप ये सवाल क्यों नहीं पूछ पाते? आप ये सवाल इसलिए नहीं पूछ पाते क्योंकि आपने कभी ख़ुद से ही स्वीकार नहीं किया कि आपकी असली समस्या क्या है। पहले ख़ुद तो स्वीकार करिए न कि मेरी असली समस्या ये है।

मान लिया एक बार मैंने साफ़-साफ़, ऐसे, ऐसे उंगली रखकर, पिन प्वाइंट करके कि ये मेरी असली समस्या है। अब मैं इधर-उधर कुछ कर रहा हूँ, तो अब मैं एक साफ़ सवाल रख सकता हूँ। क्या साफ़ सवाल? कि ये मैं जो भी कुछ कर रहा हूँ इधर-उधर, इससे ये समस्या मिटेगी कि नहीं मिटेगी? ये बिलकुल साफ़ सवाल होगा जिसका साफ़ जवाब आएगा – यैस और नो (हाँ या न)। इसमें अब कोई धोखाधड़ी हो नहीं सकती। ठीक?

हम चाल क्या चलते हैं? हम कहते हैं, “मैं अपने आप को बताउँगा ही नहीं कि मेरी साफ़ समस्या क्या है। तो मैं इस पूरी चीज़ को ऐसे कह दूँगा ‘मेरी न..., साफ़ समस्या इधर ऐसे है..., नहीं... पता नहीं है मुझे, मैं साफ़ कह नहीं सकता। शायद ऐसा, शायद वैसा।‘ हम उस पूरी चीज़ को धुंध में रखेंगे, कोहरे में रखेंगे, ऐसे नेबुलस (धुंधला/ अस्पष्ट) रखेंगे बिलकुल।

तो फिर क्या होगा? अब ये मैंने यहाँ ऐसे (उंगली से दिखाकर) पिन प्वाइंट करने की जगह कह दिया कि मेरी पूरी समस्या इधर कहीं है। तो आप इधर कुछ कर रहे हो, अपनी कोई विधि कर रहे हो, कुछ भी कर रहे हो अपना आध्यात्मिक कार्यक्रम। तो आप कह दोगे, “क्या पता इससे यहाँ फ़ायदा हो, क्या पता मेरी समस्या यहाँ हो। क्या पता इससे यहाँ फ़ायदा हो, यहाँ भी तो हो सकती है मेरी समस्या।” क्योंकि आपने अभी ख़ुद ही स्पष्टता से ये घोषणा नहीं करी है कि मेरी समस्या तो (उंगली के इशारे से दिखाते हुए) ये है।

तो किसी के पास आप जाएँगे, वो कहेगा, “देखो, ये करने से ये फ़ायदा होता है।” आप कहेंगे, “हाँ, बढ़िया चीज़ है। क्योंकि क्या पता मेरी समस्या यहीं पर हो। क्या पता यहीं पर हो, क्या पता यहीं पर हो, क्या पता यहीं पर हो।” (इधर से उधर दिशा बदलकर दिखाते हुए)

समझ में आ रही है बात?

हम ऐसे हैं जैसे हमें गुप्त रोग है कोई, और हम ख़ुद ही नहीं मानना चाहते कि हैं। लेकिन कुछ-कुछ तो होता ही रहता है ऊपर-नीचे, बीच में, तो हम चले जाते हैं किसी-किसी मेडिकल मॉल में। कहाँ चले गए? मेडिकल मॉल में। और वो मल्टीस्पेशलिटी है, जहाँ पर ये भी हो सकता है, वो भी हो सकता है, ये भी हो सकता है, वो भी हो सकता है। और वहाँ घूम-घूम कर कूद-कूद कर हम कभी किडनी वाले के पास जा रहे, कभी इसके पास जा रहे, कभी उसके पास जा रहे और मज़े मार रहे हैं बिलकुल। और बीच-बीच में जाकर के वहाँ पर नीचे समोसा भी खा लिया। ख़ूब मज़े ले रहे हैं!

जिसके भी पास जा रहे हैं, वो बोल रहा है ‘हाँ, हाँ, ये कर लो, ये टेस्ट करा लो, अब तुम ये कर लो’। लग भी ऐसा रहा है कि कोई उदेश्यपूर्ण जीवन है, *पर्पसफ़ुल लाइफ़*। अब क्या करें? एमआरआई करा रहे हैं। अब कहाँ? नेफ्रोलॉजी लैब में घुसे हुए हैं। अब क्या कर रहे हैं? ये करा रहे हैं, वो करा रहे हैं, सीटी स्कैन चल रहा है, एक्स-रे चल रही है। जितने तरीक़े के टेस्ट हो सकते हैं, सब चल रहे हैं।

और हर चीज़ में अपने आप को ये बता रखा है – ‘क्या पता फ़ायदा हो ही जाता है! कर लो, इससे हो जाए अब’। हकीक़त यह है कि तुम भलीभाँति जानते हो कि तुम्हारे कहाँ पर खुजली है लेकिन रूह काँपती है ये स्वीकार करने में। क्योंकि सिखा दिया गया है कि कुछ बातें बताने की नहीं होतीं, ख़ुद को बताने की नहीं होतीं।

समझ में आ रही है बात?

तो ख़ुद को ही नहीं बताएँगे। वो चले गए हैं उसके, है गुप्त रोग और जाकर के दाँत दिखा रहे हो, जीभ दिखा रहे हो। ये संबंध क्या है? मुँह में, कैसे?

समझ में आ रही है बात?

तो हर चीज़ कामयाब हो सकती है। बिलकुल हो सकती है, अगर आपको पता हो उस चीज़ का इस्तेमाल आपको किसलिए करना है। न तो हम जानते हैं कि हमें क्या समस्या है, न हम ये जानते हैं कि जहाँ हम जा रहे हैं, वो चीज़ क्या है।

अब वहाँ पर सब अलग-अलग डिपार्टमेंट्स (विभागों) के नाम लिखे हुए हैं, पता भी नहीं है कि यहाँ होता क्या है। कुछ लिखा बड़ा-बड़ा है। अच्छा, क्या लिखा है? *ईएनटी*। ईएनटी कुछ होता होगा, हमें क्या पता। ईएनटी माने होता होगा *इरीथ्रियम नाइट्रो टॉलवीन*। वहाँ जाकर घुस गए। तुम्हें पता भी है कि तुम जो कर रहे हो, वो क्या चीज़ है। और ईएनटी वाले के पास जाकर के कह रहे हैं ‘बाल बहुत झड़ रह हैं।’

यज्ञ क्या है?

हम पता तो करें पहले। हमें पता भी है यज्ञ क्या है? ईएनटी बिलकुल काम का विभाग हो सकता है लेकिन पता तो हो आपको कि वो करता क्या है। क्या हम यज्ञ जानते हैं? हम न ध्यान जानते, न यज्ञ जानते, न पूजा जानते, न पाठ जानते, न भजन जानते, न कीर्तन जानते। न हम ये जानते कि वो क्या हैं, न हम ये मानते कि हमारी समस्या क्या है, तो तुम्हारे काम क्या आएगा?

नहीं समझ में आ रही बात?

न आप ये जानते कि आप जिस डॉक्टर के पास जा रहे हो वो विशेषज्ञ किस चीज़ का है, न आप ये जानते कि आपको कौनसा रोग हुआ है, तो आपको कैसा फ़ायदा हो जाना है, बताइए? फिर आपको ये भी नहीं पता चलेगा कि जिसके पास आप गए हो, वो डॉक्टर असली है या नीम-हकीम है, क्वैक है। और सब यही घूम रहे हैं!

यज्ञ का अगर असली अर्थ पता हो तो यज्ञ बहुत पवित्र और पावन चीज़ है। लेकिन ये जो इधर-उधर पंडित घूम कर यज्ञ कराते रहते हैं, इन्हें यज्ञ का क्या पता है। इनके लिए तो यज्ञ का मतलब है लकड़ी जलाना और उसमें घी डाल दो और वो हर छोटी शॉपिंग (खरीदारी) की जगह पर वो सब होता है न खरीदारी का कि ‘फ़लानी यहाँ पर यज्ञ, हवन और पूजा-पाठ की वस्तुएँ मिलती हैं’। और उसके यहाँ पर जाकर के आप उसको बस बोल भर दो ‘यज्ञ’, वो खटाखट, खटाखट, खटाखट, पूरी रेसिपी आपके सामने रख देगा।

ऐसे आपको आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति होने वाली है क्या? बोलिए। और आपको ख़ुद नहीं पता होता आप क्या कर रहे हो। वो पंडित बोल देता है अब न ये तीसरी उंगली आगे करो, तो आप तीसरी कर देते हो, कभी दूसरी कर देते हो, कभी कुछ कर देते हो। फिर कहता है अब ऐसे उठाओ, ऐसे डालो।

कई घरों में तो बड़ा आतंक फैल जाता है।‌ कहते हैं, ‘देखो, ऐसे डालना था और इसने ऐसे डाल दिया।’ वो ऐसे डाल रहा है और पंडित जी ने कहा था ऐसे डालना है और माँ उसको ऐसे आँख दिखा रही है। क्योंकि बोल तो सकते नहीं अभी, पवित्र आयोजन चल रहा है। तो वहाँ डाँट-वाँट पड़ नहीं सकती, गाली-गलौज हो नहीं सकती। बाद में खाएगा जूता! अभी तो बस आँख दिखाई जाती है, ऐसे, (आँख बाहर निकालकर दिखाते हुए) ज़ोर से। और वो बेचारा बच्चा ऐसे थरथरा के बैठा हुआ है। कह रहा है, ‘और पता नहीं क्या-क्या होना है अभी!'

मेरी तो होती थी पंडितों से, मैं कहता था, ‘मतलब तो बता दो बोल क्या रहे हो’। उसे ख़ुद ही नहीं पता। नारियल रख के बैठ गया है, केला रख के बैठ गया है, सेब रख के बैठ गया है; बूंदी का लड्डू ला रहा है। करोगे क्या इसका? क्यों, क्यों डाल रहे हो आग में? बताओ। यज्ञ का अगर वास्तिवक अर्थ नहीं पता तो उससे लाभ कैसे पाओगे? बताओ।

और कोई पूजा भी कर रहे हो, 'ॐ जय जगदीश हरे', अरे! जगत पता नहीं, जगदीश की क्या बात कर रहे हो? कुछ पता भी कर लोगे या बस यही बोल दोगे कि ‘तुम सबके स्वामी’? स्वामी तुम्हारी, तुम्हारी अर्धांगिनी है, काहे झूठ बोल रहे हो जगदीश से, ‘तुम सबके स्वामी’?

सबसे बड़ा स्वामी अहंकार है और वहाँ जा के बोल रहे हो, “मात-पिता तुम मेरे।“ कैसे मात-पिता? अभी बैंक का फॉर्म भरोगे उसमें लिखोगे, मेरे बाप का नाम जगदीश है?

(प्रतिभागी हँसते हैं)

तो काहे वहाँ पर झूठ बोल रहे हो खड़े होकर के? क्या फ़ायदा मिलेगा बताओ ऐसी आरती से? कुछ अर्थ तो समझेंगे या नहीं समझेंगे? यही वजह है कि जगत घोर रूप से अधार्मिक होता जा रहा है। कुछ जानना नहीं, कुछ समझना नहीं, बस करे जाना है, करे जाना है, निभाना है।

वहॉं अमेरिका में पंडित इंपोर्ट (आयात) होते हैं। कहते हैं, ‘भई! देखो अब मुंडन कराना है तो कोई तो आएगा न जो मंत्र बोलेगा।’ कहे तुम ख़ुद क्यों नहीं पढ़ सकते हो, कौनसे मंत्र हैं। या ऋषियों ने कहा था कि सबके लिए ये नहीं हैं, मंत्र? बोलो। धर्म बोध के लिए है या अंधानुकरण के लिए है? कि समझा नहीं, जाना नहीं, बस करे जा रहे हैं।

और उसका जो ख़तरनाक नतीजा निकलता है, जानते हैं क्या होता है? फिर एक पीढ़ी आती है जो कहती है, इन चीज़ों का कोई अर्थ तो है नहीं, ये तो हमें करनी ही नहीं। बिना जाने-समझे पूजा-पाठ करते-करते ये स्थिति आ गई कि अब एक पीढ़ी खड़ी हो गई है जो किसी भी तरह की पूजा, कोई पाठ, कोई जप करना ही नहीं चाहती।

और हम उनको दोष नहीं दे सकते। क्योंकि उन्होंने अपने घर में यही देखा है, माँ-बाप को, दादा-दादी, नाना-नानी को, कि ये बिना जाने-समझे कुछ भी करते रहते हैं। बस ऐसे ही खड़े हो जाते हैं, करना है, ऐसा है, वैसा है। घंटी बजा रहे हैं और साथ में इधर देख रही है कि बहू क्या कर रही है। ये करते हो नहीं करते हो? इधर घंटी बज रही है, वहाँ कूकर ने सिटी मार दी तो ‘देख, देख, देख’।

तुम किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? वहाँ वो छोटू खड़ा हुआ है, अब वो ज़िंदगी में कभी घंटी नहीं बजाएगा क्योंकि उसने देख लिया ये क्या है। एक पूरी पीढ़ी को अधार्मिक बना डाला हमने। करा है कि नहीं करा है? बोलिए न!

धर्म से ज़्यादा मुक्तिप्रद कुछ नहीं और धर्म से बड़ा बंधन भी कुछ नहीं। खेद की बात है कि हमने धर्म को बंधन ही बना डाला। जीवन ही पूरा यज्ञ होना चाहिए। वो जो आप आहुति दे रहे हैं वो स्वयं की देनी है। और वो जो ज्वालाएँ हैं सब, उनका काम है कि आपने जो कुछ आहुति में दिया हो उसको उठा के ऊपर पहुँचा देना। ये प्रतीकात्मक है।

'ख़ुद को किसी ऐसी जगह झोंक दो जो तुम्हें उठाकर के सीधे आसमान से मिला दे – ये है यज्ञ का वास्तिवक अर्थ।'

समझ में आ रही है बात?

‘नहीं, लकड़ी जलानी होती है और यज्ञ से धुआँ निकलता है, उससे हवा शुद्ध हो जाती है’। कैसी बातें कर रहे हो! ऐसे ही इतना प्रदुषण है, तुम लकड़ी जलाओगे, उससे हवा शुद्ध हो जाएगी। क्या है ये!

अभी ये जब वीडियो प्रकाशित होगा, देखिएगा। “अरे! जब तुम कुछ जानते नहीं हो तो इतना बोल क्यों रहे हो? जाओ, पहले हमारे पुरातन विज्ञान की कुछ जानकारी लेकर के आओ।” ये सब। वो बता रहे हैं लकड़ी जलाने से हवा शुद्ध हो जाएगी।

“अरे! तुझे आचार्य किसने बना दिया। जब तू हमारी पुरानी स्वर्णिम संस्कृति के बारे में कुछ जानता ही नहीं है।” और फिर मिस्टिकल (रहस्यमय) महागुरू भी तो हैं, वो बताएँगे — देयर इज़ एन एनशिएन्ट सांइस (एक प्राचीन विज्ञान है)।

(श्रोतागण हँसते हैं)

हो गया, ख़त्म; “देखो, उन्होंने बोला था, एनशिएन्ट सांइस है।” अरे! वो एनशिएन्ट सांइस नहीं है, सीधा-सीधा एक प्रतीक है। भूलना नहीं है कि सारी बात किसकी हो रही है? अपनी, अहम् की हो रही है। वही परेशान है, वही दुखी है। उसी से राहत चाहिए। उसी का समर्पण करने की सारी बात है।

पहले मैंने तुझे वो सबकुछ दिया जो मुझे व्यर्थ ही प्रिय था। जो मुझे व्यर्थ ही प्रिय है वही मेरा बंधन है। दिया; स्वाहा। और अंतत: मैंने स्वयं को भी दिया – स्वाहा। ये यज्ञ है। ऐसे ही आगे और समझ लीजिएगा कि पूजन का, नमन का, इनका क्या अर्थ है; मूर्ति का क्या अर्थ है।

ये सब जाने बिना अगर आप मंदिर जा रहे हैं तो लाभ नहीं होगा। और मंदिर बहुत लाभ की जगह हो सकती है, अगर उसको रूढ़ि की जगह न बना दिया जाए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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