पूछो तो सही!

Acharya Prashant

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पूछो तो सही!
तुम्हारी जिज्ञासा को ही मार दिया गया है, तुम्हारी धार को कुंठित कर दिया गया है। तुम्हारा मन कोई प्रश्न करने लायक ही नहीं बचा है, तुम डर गये हो। तुम्हें लगता है, सवाल कर देंगे तो भगवान जी नाराज़ हो जाएँगे। याद रखना कि जो मन इन कथाओं पर सवाल नहीं कर सकता, जो इन कथाओं के मर्म तक नहीं पहुँच सकता, वो फिर अपने जीवन पर भी सवाल नहीं उठा पाएगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: धर्म का मतलब होता है — पूर्ण जानना। जिज्ञासा तो करो कम-से-कम, जहाँ जिज्ञासा ही नहीं है वहाँ जानना कैसे होगा? एक आखिरी तल आता है जब जिज्ञासा भी छोड़ देनी होती है पर शुरुआत तो जिज्ञासा से होगी। पूछो तो सही कि ये जो कुछ है, वो क्या है।

अब अभी जब सीआईआर कोर्स होता है हमारा, वो सम्पन्न हुआ। वो इस बार पौराणिक कथाओं पर था — श्रीकृष्ण की, विष्णु की जो पौराणिक कथाएँ हैं, उन पर था। तो कथाएँ बड़ी पेचीदा हैं, घुमावदार हैं, रंग-बिरंगी हैं, पर उनका सार बड़ा स्पष्ट और प्रत्यक्ष है। जिन लोगों ने उस कोर्स को अटेंड किया, उन्होंने कहा कि इस कथा का ये अर्थ था, ये तो हमें पता ही नहीं था। ये बचपन से हम सुनते आये हैं।

बड़ी प्रचलित कथा है। अब कालिया नाग की कथा है, बोले हमें तो यही पता था कि यमुना में रहता था, लोगों को परेशान करता था, श्रीकृष्ण की गेंद चुरा ली, श्रीकृष्ण गये उसको मार-पीटकर गेंद वापस ले आये। तो हमें तो यही पता था। इसके इतने गूढ़ किन्तु स्पष्ट और प्रकट आन्तरिक अर्थ हैं, ये तो हमने कभी जाना नहीं था।

तुमने इसलिए नहीं जाना क्योंकि तुम पूछते ही नहीं हो कि नाग से भगवत्ता का क्या लेना-देना और ये कौन सा नाग है जिसकी हज़ारों पत्नियाँ भी रह रही हैं उसके साथ कालिया दह में। तुम पूछते ही नहीं हो कि ये सब प्रतीक तो नहीं है। ऐसा तो नहीं है कि ये सब, कुछ और बताने के लिए कहा जा रहा है।

तुम्हारी जिज्ञासा को ही मार दिया गया है, तुम्हारी धार को कुंठित कर दिया गया है। तुम्हारा मन कोई प्रश्न करने लायक ही नहीं बचा है, तुम डर गये हो। तुम्हें लगता है, सवाल कर देंगे तो भगवान जी नाराज़ हो जाएँगे। याद रखना कि जो मन इन कथाओं पर सवाल नहीं कर सकता, जो इन कथाओं के मर्म तक नहीं पहुँच सकता, वो फिर अपने जीवन पर भी सवाल नहीं उठा पाएगा।

जो उन कथाओं को बस यूँही माने चला जा रहा है कि कथाएँ हैं, ऐसा ही हुआ होगा — एक साँप रहा होगा, एक साँप और उसके बहुत सारे फन थे। वो फिर ये भी मान लेगा कि जीवन जैसा जी रहा है वैसे ही तो जिया जाता है। जैसे कथाओं को उसने बिना प्रश्न के स्वीकार कर लिया है, वैसे ही जीवन की प्रचलित विधाओं को भी, जीवन के भी प्रचलित तरीकों को वो बिना प्रश्न के स्वीकार कर लेगा। वो कहेगा ऐसे ही तो होता है, सब ऐसा ही कर रहे हैं तो हम भी ऐसा ही करेंगे।

जीवन ऐसे ही जिया जाता है — कमाया जाता है, फिर गाड़ी खरीद ली जाती है, फिर शादी कर ली जाती है, बच्चा पैदा कर दिया जाता है, मकान खड़ा कर दिया जाता है, फिर बच्चे की शादी की जाती है। फिर ऐसा किया जाता है, फिर वैसा किया जाता है, आगे मर जाया जाता है। सवाल उठाना उसे आएगा ही नहीं और इससे बड़ा मूर्खतापूर्ण जीवन नहीं हो सकता।

एक आदमी को तुम कहानी सुनाओ, उसको समझ में ही न आए तो मूर्ख है, ये बात ज़ाहिर हो जाती है कि नहीं, बोलो? वैसे ही एक आदमी को अपना जीवन ही न पता हो, समझ में ही न आता हो, बस यूँही जिये जाता हो तो वो महामूर्ख हुआ कि नहीं, बोलो? किसी को एक कहानी समझ में न आये तो मूर्ख है और किसी को ज़िन्दगी ही समझ में न आये तो, बोलो? (महामूर्ख) पर तुमको समझ में ही नहीं आता कि महामूर्ख बने जा रहे हो।

ये तुमने क्या कर लिया है, ये तुमने क्या डेरा जमा लिया अपने चारों ओर। कहानी तो फिर भी कहीं शुरू होती है और खत्म हो जाती है। ज़िन्दगी के साथ तो तुम खत्म होते और ज़िन्दगी तुम्हारे ही साथ जाकर के खत्म होती है। तुम क्या करे जा रहे हो? सवाल तो पूछो कि मैं ऐसे क्यों जी रहा हूँ? तुम उलझे हुए हो और उलझनों की तरफ़ बढ़ते जा रहे हो। तुम एक के बाद एक गहरे दलदल में प्रवेश करते जा रहे हो।

हर वो नया काम जो तुम अपनी ज़िन्दगी में शुरू कर रहे हो तुम्हें एक नये दलदल में ढ़केल रहा है, तुम बाहर कैसे आओगे? और तुम्हें ज़रा भी चिन्ता नहीं है, कोई फ़िक्र नहीं है कि तुम्हें बाहर आना है। तुम फँसने के लिए पैदा हुए हो?

अधिकांशत: वो सबकुछ जिसको हम अपने जीवन का सुख और सार कहते हैं, और कुछ नहीं है हमारा नर्क है। पर हममें इतनी भी मेधा नहीं है, इतनी भी धार नहीं है कि हम ये बात देख पाएँ।

दलदल में होना कोई बहुत लज्जा की, असम्मान की बात नहीं है। इंसान पैदा हुए हो, गलती हो जाती है, फिसल जाता है। पर मैं ताज्जुब में तब पड़ जाता हूँ जब मैं देखता हूँ कि एक दलदल से दूसरा दलदल, जब मैं देखता हूँ कि इंसान एक ही गड्ढे में दस बार गिर रहा है। समझ में नहीं आता तब कि ये हो क्या रहा है? और मैंने इस पर विचार किया, समझना चाहा, इसमें मुझे बहुत बड़ा काम धर्म का लगा।

आदमी की गहरी-से-गहरी जिज्ञासा अपने प्रति हो सकती है। जब आपकी अपने प्रति जिज्ञासा को ही सफोकेट (घोंट) कर दिया जाता है, कुंठित कर दिया जाता है, उसका गला घोंट दिया जाता है, तो फिर आपकी किसी के प्रति कोई जिज्ञासा बचती नहीं है। आप बस मानते चलते हो, आपका दिल सा ही टूट जाता है।

जैसे कोई बच्चा हो, उसने जो सबसे ऊँची-से-ऊँची चीज़ माँगी हो और उसको न मिली हो। फिर आप उसको छोटी-मोटी चीज़ें दिखाओ, तो उसका उनमें मन नहीं लगता। वो कहता है, ‘देनी हो तो दे दो, न देनी हो न दो। जो असली चीज़ माँगी थी वो तो नहीं मिली।’ यही आपके साथ होता है जब आपको वो नहीं मिलता, जो असली है। जब असली नहीं मिलता तो जो कुछ नकली है उसके प्रति आप उदासीन हो जाते हो। उदासीन समझते हो न? *इंडिफिरेंट*। मिला तो ठीक, नहीं मिला तो कोई बात नहीं।

फिर ज़िन्दगी आपके ऊपर जो भी थोपती चलती है, आरोपित करती चलती है, आप कहते हो — ठीक है, हो गया, लाओ। ऐसे जीना है, अब ऐसे ही जिएँगे। जो असली था वो तो मिला नहीं।

'गॉड इज़ योर प्राइमरी लव अफेयर, व्हेन इट फेल्स देन यू आर प्रिपेयर्ड टू मैरी एनीबॉडी।' (भगवान तुम्हारा पहला प्यार है, जब वो नहीं मिलता तो तुम फिर किसी से भी शादी करने को तैयार हो जाते हो)

होता है कि नहीं होता है?

जिसको दिल से चाहा हो, जो पहली ख्वाइश, पहली जुस्तज़ू हो। जब वो न मिले तो आदमी कहता है, ‘अब तो जिसके पल्ले ही बाँध दोगे चलेगा, अब क्या फ़र्क पड़ता है। अब तो इधर जाएँ तो इधर, उधर जाएँ तो उधर, सब एक बराबर।’ तो यही हमारा हाल है।

आत्मा मिली नहीं तो उसके बाद फिर संसार के टुकड़े, छिलके, जो भी मिलते हैं, जूठन हम स्वीकार करते रहते हैं।

तो जो भाव ज़्यादातर लोगों में देखा जाता है कि वो आत्महंता होते हैं, अपने ही दुश्मन होते हैं वो इसी कारण होता है। दिल टूट चुका होता है न। जब आदमी का दिल टूट जाता है तो फिर वो अपनी भलाई की परवाह नहीं करता।

हमारा दिल तोड़ दिया है। धर्म ने तोड़ दिया है दिल हमारा। हमें सबसे पहले ब्रह्म चाहिए था, सत्य चाहिए था। हमें वो मिला नहीं, हमें वंचित कर दिया गया। जब वो नहीं मिलता तो फिर एक घुटन में, एक नैराश्य में जीवन बीतता है। आदमी की ऊर्जा ही दम तोड़ देती है, गला घुट जाता है। फिर आदमी कहता है ठीक, मुर्दा समान हो जाता है।

असली धर्म को पा लो, जीवन में बहार आ जाएगी, खिल उठोगे, चेहरा जगमगाएगा। योग, तप, जप से जो नहीं हो सकता वो आत्मा कर देगी।

दूर वाले टीले पर श्रीखाटूमल महाराज का मन्दिर है। वहाँ मन्नत माँगने के लिए चुन्नी बाँधनी होती है। ओ, कमलेश जाना है। और ये बातें मेरी ज़रा खतरनाक हैं, सबके सामने कर मत देना, उपद्रव हो जाएगा, लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचेगी। खाटूमल महाराज को हम भगवान के नाईं पूजते हैं, उनके बारे में आपने असंसदीय, अशोभनीय बातें क्यों कर दीं। दंगे हो जाएँगे।

धर्म के मारे कुर्ता-पजामा और साड़ी अभी तक बिक रहे हैं। इतनी महिलाओं को जानता हूँ जिनके पास बस एक या दो साड़ियाँ हैं, उनको या तो वो शादी पर पहनती हैं या धर्म के सामने। वैसे वो चाहे कैसी भी घूमें; और वो कैसी भी घूमें उसमें कोई आपत्ति नहीं है मुझे, अच्छा है घूमो जैसे भी घूम रहे हो, सबके लिए अच्छा है। लेकिन ये धर्म के सामने जाने का साड़ी से क्या तुक है? या खतरा है तुम्हें कि मन्दिर में घुस रहे तो पूरा ढक लो अपने आप को, यही सबसे ज़्यादा खतरा है।

पंडे-पुजारी वैसे भी थोड़ा विख्यात हैं अपने लाजवाब स्वभाव के लिए (सभी श्रोतागण हँसते हुए)। अब बनारस वालों से क्या छुपाएँ।। तो वहाँ जाना है तो पूरी साड़ी, दस-बीस-चालीस मीटर लपेटकर और इतना घूँघट डालकर घुसना है, क्यों भाई?

ये मुझे समझ में नहीं आता, दिवाली पर सारे मर्द कुर्ता-पजामा क्यों पहनते हैं? कुर्ते-पजामे का धार्मिकता से क्या लेना-देना है? जब मैं छोटी निक्कर पहनकर के आपका सत्र लेने आया तो मुझे टोका गया — कह रहे हैं देखिए, धर्म का मामला है, आप इतनी छोटी चड्डी में लोगों के सामने बैठ जाएँगे। कुर्ता-पजामा, ये दिवाली पर कुर्ता-पजामा क्यों? बताइए मुझे, मैं जानना चाहता हूँ। क्योंकि कोई बड़ा गहरा रिश्ता लग रहा है, साड़ी और कुर्ता-पजामा इसका धर्म से क्या लेना-देना है? मन्दिर में आप स्कर्ट पहनकर क्यों नहीं जा सकते? भाई वो अन्तर्यामी है। वो अन्दर, बाहर हर जगह है। आप कहाँ, किससे छुपा रहे हो।

“पर्दा नहीं जब कोई खुदा से, बन्दों से पर्दा करना क्या?” और यहाँ बन्दे तो छोड़िए, आप खुदा से ही पर्दा करने जा रहे हो। सबसे ज़्यादा पर्दा खुदा से ही है।

प्रश्नकर्ता: सर, व्हेन आई वाज यंग लाइक, इलेवन टू ट्वेंटी ईयर ओल्ड देन आई वुड नॉट वीयर शॉर्ट्स क्लॉथ्स सो दैट दी अदर पीपल विथ इन द टेंपल डॉन्ट डिस्ट्रैक्ट, अदर हैव मेंटेन दी टेंपल रूल (सर जब में ग्यारह और बीस साल की जवान थी तो मुझे छोटे कपड़े पहन कर मन्दिर नहीं जाने देते थे क्योंकि उससे लोग विचलित होते हैं)।

आचार्य प्रशांत: तो वो चीज़ तो फिर हर जगह होनी चाहिए न, सड़क पर भी पहन कर मत चलिए शार्ट्स। एक्सिडेंट (दुर्घटनाएँ) होंगे, लोग डिस्ट्रैक्ट होंगे।

अरे भाई, तो सड़क पर भी तो खतरनाक है। फिर तो स्विमिंग पूल में भी साड़ी पहनकर जाइए, नहीं तो दो-चार डूब जाएँगे (सभी श्रोतागण हँसते हुए)। नहीं, सबसे खतरनाक तो फिर स्विमिंग पूल है न? वो हाथ-पाँव चलाना बन्द करके वो (चारो तरफ देखने का इशारा करते हुए), लो डूब ही गया, ले खत्म।

प्रश्नकर्ता: सर, हमसे मन्दिर में दर्शन करने के लिए एक पहनावे में आने के लिए कहा जाता है?

आचार्य प्रशांत: व्हिच ओनली मीन्स दैट द टेम्प्लेस आर नथिंग बट सोशल इंस्टीट्युशंस। दे आर नॉट स्प्रिचुअल, दे आर सोशल (उसका मतलब केवल इतना है कि मन्दिर सिर्फ़ एक सामाजिक संस्थान हैं)।

*यस्टरडे नाईट वी टॉक्ड अबाउट लल्ला, राइट? व्हाट डिड शी टॉक्ड अबाउट क्लॉथ्स? — क्लॉथ्स आर सोशल इंस्टीट्युशंस, क्लॉथ्स आर अ कवरिंग ऑफ़ द सोसाइटी ऑन योर फिज़िकल बॉडी। एंड इफ़ द प्रीस्ट इज़ डिमांनडिंग दैट यू वियर क्लॉथ्स, इन फैक्ट सेइंग दैट यू बेटर कम टू अ सोशल प्लेस एज़ अ सोशल मैन।

द रियल टेम्पल विल ऑलवेज़ बी अ टेम्पल ऑफ़ नेकेडनेस, नॉट जस्ट फिज़िकल नेकेडनेस, टोटल नेकेडनेस। टोटल नेकेडनेस मीन्स दैट यू विल इवन कास्ट आल योर फेसेस आउटसाइड द टेम्पल, नॉट ओनली योर शूज़ बट आल योर मास्कस, योर एनटायर पर्सनैलिटी वुड बी डिपोज़िटिड इन द शू-रूम। एंड यू गेट अ टोकन। व्हेन यू कम आउट देन यू कैन वियर योर फेस अगेन। दैट इज़ रियल नेकेडनेस, राईट। इंस्टेंट ऑफ़ वाल्किंग इनटू द टेम्पल एब्सोल्युटली नेकेड यू आर एड्वाइज़ड टू वाक इन विद दिस एंड दैट काइंड ऑफ़ क्लोथिंग* (कल रात को हम लल्ला के बारे में बातचीत कर रहे थे न, उन्होंने कपड़ों के बारे में क्या कहा है? — कपड़े एक सामाजिक मान्यता हैं, कपड़े आपके शरीर में समाज को लपेटने की बात है। और यदि पण्डित-पुजारी ये सब पहनने को बोल रहे हैं तो वो बोल रहे हैं कि ये ज़्यादा अच्छा होगा कि सामाजिक रिवाज में एक सामाजिक आदमी बनकर आओ।

सच्चा मन्दिर हमेशा सच की नग्नता का मन्दिर होगा, वहां पर सिर्फ़ शारीरिक नग्नता नहीं होगी, पूर्ण नग्नता होगी। पूर्ण नग्नता का मतलब ही है कि आप अपने सारे चेहरे, मान्यताओं को मन्दिर के बाहर ही रखकर आए हो। न कि सिर्फ़ अपने जूते बल्कि अपने सारे चेहरे, अपना सारा व्यक्तित्व, सब कुछ जूताघर में रखकर आए हो। वापस आकर फिर अपना चेहरा पहन लेना, ये है नग्नता। पूर्ण नग्नता की जगह आपको कहा जाता है कि आप इस पहनावे में आइए।)

प्रश्नकर्ता: गहने सब ठीक हैं?

आचार्य प्रशांत: किस चेहरे की बात कर रहे हैं? हम, क्या हटाने की बात कर रहे हैं? आप कपड़े उतारकर नहाने घुस जाती हैं तो उससे क्या आप आत्मा हो जाती हैं?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, तो सबके सामने नंगे थोड़ी हो जाएँ?

आचार्य प्रशांत: किस नग्नता की बात हो रही है, आप समझ रहे हैं? किस नग्नता की बात हो रही है? कपड़े उतारने की बात हो रही है, बस? मैंने कहा चेहरे उतारकर घुसो, पूरा व्यक्तित्व बाहर रखकर घुसो, उसे कहते हैं नग्नता।

कल रात में इतनी देर तक बात हुई लल्लेश्वरी की, लल्लेश्वरी समझा रही थीं कि गुरू ने कहा, ‘जैसे भीतर हो वैसे ही बाहर हो जाओ।’ और उसके बाद वो नग्न ही घूम रही थीं, तो क्या समझा आपने? जैसे भीतर हो वैसे बाहर हो जाओ, माने क्या? कि भीतर आँतें-फुलाती हो तो क्या, बाहर भी आँतें लटकाकर घूमो। भीतर मल भरा है और मूत्र भरा है तो बाहर भी मल-मूत्र चिपकाकर घूमो। क्या अर्थ है इसका कि जैसे भीतर हो वैसे बाहर भी हो जाओ?

प्रश्नकर्ता: जो स्वाभाव है।

आचार्य प्रशांत: हाँ। 'भीतर हो' से अर्थ है — आत्मा हो तुम तो बाहर भी आत्मस्थ ही जियो।

हम स्थूल लोग हैं न? तो महावीर को देखते हैं तो एक ही बात समझ में आती है कि नंगे हैं। तो जैसे ही नंगेपन की चर्चा छिड़ी तो आपको जैन याद आ गये। महावीर की नग्नता बस ये नहीं है कि उन्होंने कपड़े उतार दिये, कपड़े उतारना बहुत छोटी बात है। महावीर की नग्नता, लल्ला की नग्नता है। महावीर की नग्नता आत्मा की नग्नता है। महावीर की नग्नता सत्य की नग्नता है। सच नंगा होता है न, महावीर वैसे नंगे हैं। कपड़े भर उतारने से कोई नंगा नहीं हो जाता। कपड़े तो एक बलात्कारी भी उतरता है तो वो आत्मा में स्थापित हो गया? कपड़े तो एक पागल भी अपने फाड़ देता है, तो वो आत्मा में स्थापित हो गया?

सुबह जब आप मल विसर्जन करने जाते हैं, मूत्र त्याग करते हैं, तो कपड़े उतार देते हैं। तो तब आत्मा मूत रही होती है? कपड़े उतारने से अगर नग्नता आ जाती तो फिर तो सारे शौचालय मन्दिर होते। पर तर्क तो हम कर ही नहीं पाते न। धर्म को हमने तर्क से भी नीचे की चीज़ बना दिया है। तर्कातीत होना अलग बात होती है और बुद्धि इतनी कुंठित हो जाए कि आप तर्क भी न कर पाएँ वो दूसरी बात होती है।

किसी चीज़ का विचारातीत होना एक बात है और मन ऐसा कुन्द हो गया हो कि उसमें विचार भी न उठते हों बिलकुल दूसरी बात है। अतिबुद्धि होना एक बात है कि बुद्धि के आगे निकल गये और निर्बुद्धि होना दूसरी बात है। हमने धर्म को निर्बुद्धियों का अड्डा बना दिया है। तो जितने मूर्ख हैं वो सब धर्म की ओर भगे जाते हैं। और जितने लोग हैं जिनमें ज़रा मेधा है, समझदारी है, प्रज्ञा है, वो सब धर्म से अब इसीलिए कटे जाते हैं, विमुख हुए जाते हैं।

आप जापान जाइए वहाँ अधिकांश लोग बोलते हैं कि हमारा कोई धर्म ही नहीं, हमें धर्म से कोई लेना-देना नहीं। एथीस्टस की तादाद दुनिया में बढ़ती ही जा रही, एथीस्ट समझते हो? अनईश्वरवादी। हम मानते ही नहीं कि कोई ईश्वर है, हमारा गॉड में कोई यकीन नहीं है। ऐसों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए बढ़ती जा रही है क्योंकि धर्म का अर्थ ही हो गया है — मूर्खता। तो कहते हैं हमें धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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