फुलवा भार न लै सकै || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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फुलवा भार न लै सकै || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

वक्ता: फुलवा भार न लै सकै, कहैं सखिन सो रोए!

ज्यौं ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं त्यौं भारी होए!

मन फूल जैसा करो, जो भार ले ही न। फूल पर तुम ओस की बूंदें भी डाल देते हो तो क्या होता है?

सभी श्रोता: आगे बढ़ जाती हैं।

वक्ता: वो मन भार लेता ही नहीं है! वो क्या करता है उन बूंदों को?

सभी श्रोता: वो निकल जाती हैं।

वक्ता: ‘वो निकल जाती हैं’, ऐसे हो जाओ! कम्बल की तरह मत रहो। मन कम्बल की तरह न हो। कम्बल क्या करता है?

सभी श्रोता: बूंदों को अपने अंदर बैठा लेता है।

वक्ता: कम्बल पर बूँद क्या, तुम एक बाल्टी पानी डाल दो, वो उस पानी का क्या करेगा?

सभी श्रोता (एक स्वर में): उसे सोख लेगा।

वक्ता: मन को फूल की तरह रखो, वो भार ले ही न! तुम भार डालो हम लेंगे ही नहीं! मन कामरी की तरह न हो।

श्रोता(पढ़ते हुए): कहैं सखिन सो रोए!

वक्ता: मेरे ऊपर भार आ रहा है। भार की अवस्था में, फूल बिलकुल खुश नहीं रहता। भार की अवस्था में फूल रो पड़ता है, वो खुश नहीं रहता। वो भार..

श्रोता : वो भार के प्रति संवेदनशील हो जाता है।

वक्ता: वो संवेदनशील है! जैसे ही तुम उस पर भार डालोगे, वो अप्रसन्न हो जाएगा और भार को छोड़ देगा। हम में से तो बहुत लोग चाहते हैं कि भार रहे जीवन में। बोलो?

सभी श्रोता(हँसते हुए): ज़िम्मेदारियाँ ।

वक्ता: ज़िम्मेदारी! न फूल जैसा रहे। जो बिलकुल खिन्न हो जाये जैसे ही उसके ऊपर तुम…?

श्रोता १: भार डालो।

वक्ता: भार डालो! भार क्या है? धारणाएं भार हैं। भविष्य भार है। ज़िम्मेदारियाँ, कर्त्तव्य, महत्वाकांक्षायें, बंधन, यही सब भार है।

श्रोता २: यहाँ पर सखियाँ किसको..?

वक्ता: प्रतीक है, अपने ही जैसे जो और हैं। अपने ही जैसे जो और हैं, उनसे। ठीक है? उतने ही नाज़ुक रहो, उतने हलके, उतने मासूम। ठीक है? मन इतना संवेदनशील हो कि, उस पर ज़रा भी दवाब पड़े तो वो उसको पकड़ ले, कि, ‘न, न, न, न… कुछ है जो मन पर है। कुछ है जो दबा रहा है, कुछ है जो मुझे उड़ने नहीं दे रहा। वो संवेदनशीलता रहे, जैसे फूल की पंखुड़ी। ठीक है? कम्बल की तरह नहीं कि सोखे जा रहे हैं, सोखे जा रहे हैं। हम क्या सोखते रहते हैं?

बेकार का ड्रामा!

जो आ रहा है, वही सोखे जा रहे हैं…

जो आ रहा है, वही सोखे जा रहे हैं…

जो आ रहा है, वही सोखे जा रहे हैं…

लेकिन, फूल की पंखुड़ी को एक कीमत अदा करनी पड़ती है। उसकी ज़िन्दगी दो ही दिन की होती है। कम्बल बड़ा स्थायी होता है! वो जिए जाता है और सारी गंदगी लिए जाता है, बड़ी आयु पाता है!फूल दो ही दिन जियेगा। दो दिन जीता है पर मस्त जीता है! ठीक है?

गंदे फूल तुमने बहुत कम देखे होंगे, और साफ़ कम्बल भी बहुत कम देखे होंगे। (हँसते हुए)

(सभी श्रोता ज़ोर से हँसते हैं)जितने दुर्लभ गंदे फूल हैं, उतने ही दुर्लभ साफ़ कम्बल हैं! कम्बल की फितरत कुछ ऐसी है कि उसे जितना भी साफ़ करो, उसे अगले ही दिन फिर सोख लेना है। मन ऐसा मत रखना कि कोई बार-बार उसे साफ़ कर भी रहा है, तो अगले ही दिन तुम फिर गंदे हो गए! माहौल बदला नहीं और सोख लिया।कामरी! फिर यही नाम रहेगा।

सभी श्रोता(हँसते हुए): कामरी।

वक्ता: ‘फूल की पंखुड़ी जैसे’, वो सोखती ही नहीं है। मर जाएगी! ज़्यादा उसे परेशान करोगे, तो फूल नष्ट हो जाएगा। ऐसा ही होता है। तुम उसके साथ छेड़खानी करो, थोड़ी ही देर में वो खराब हो जाएगा, नष्ट हो जाएगा। पर उसे गन्दा करके ज़िन्दा नही रख पाओगे!

फूल जैसे रहो! जब तक जिएंगे, स्वभाव में जिएंगे। जब तक जिएंगे, फूल जैसे रहेंगे। बाकी मौत से डरता कौन है!

– ‘ज्ञान सेशन’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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