प्रश्नकर्ता: सर, अभी हम फुले मूवी देख कर आ रहे हैं और मैं शॉक में हूँ।
आचार्य प्रशांत: क्यों?
प्रश्नकर्ता: 150 साल पहले तक भी महिलाओं के पास शिक्षा अवेलेबल नहीं थी। इस देश में एक भी औरत पढ़ी- लिखी नहीं थी।
आचार्य प्रशांत: बहुत कम देश में लड़कियों, महिलाओं को पता होगा कि आज अगर वो पढ़ लिख भी पा रही हैं तो उसका क्रेडिट किसको जाता है — नहीं जानते। और इसी तरह से बहुत कम महिलाओं को पता होगा कि अगर वो सिर्फ़ 150 साल पहले तक पढ़ने लिखने के अधिकार से ही वंचित थी, संभव ही नहीं था पढ़ना लिखना, तो वो किसकी वजह से था? ना तो हमें ये पता होता है कि हमारे दोस्त कौन है, ना हमें ये पता होता है कि हमें दबाकर किसने रखा — तो नतीजा ये होता है कि, वही जो पुरानी ताकतें हैं जिन्होंने हमें दबा कर रखा था वही आज हमारे सामने होती हैं थोड़ा बहुत अपना रूप बदल कर के। और हम उन्हें अपना दोस्त समझ रहे होते हैं।
बहुत कम महिलाएँ होंगी देश में जो ये सवाल करती होंगी कि वो ताकतें जिन्होंने इस देश की सारी की सारी लड़कियों को अनएजुकेटेड (अशिक्षित) रखा था, बेसिक लिटरेसी तक नहीं लेने दी थी। वो ताकतें कहाँ चली गई? वो ताकतें मर तो नहीं गई ना? वो आज भी होंगी एक्टिव। वो किसी और रूप में एक्टिव हैं। तो बहुत कम महिलाएँ ये सवाल पूछती हैं कि वो कौन सी फोर्सेज थी? और आप ये अगर पूछोगे नहीं, आप पास्ट को जानोगे नहीं, पास्ट को सीखोगे नहीं, तो पास्ट अपना रूप बदल करके आपको प्रेजेंट में भी एन्स्लेव करेगा, गुलाम बनाएगा।
प्रश्नकर्ता: सर मूवी में कुछ ऐसे सीन्स थे जो मेरे लिए काफी शॉकिंग थे। जिनमें से कुछ था जहाँ पर छोटी-छोटी बच्चियाँ थी छह-साल की सात साल की बच्चियाँ थी। उनके माँ-बाप उनको बोरियों में बंद करके, कपड़ों में बंद करके ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का छोटा स्कूल जो था, वहाँ पर लेकर के आ रहे थे और ये मेरे लिए बहुत ज़्यादा शॉकिंग था कि उस समय महिलाओं की बच्चियों की स्थिति थी क्या देश में?
आचार्य प्रशांत: देखिए स्थिति ये थी कि, लड़की पैदा हुई है पुरुष की गुलामी करने के लिए और उसे एजुकेशन ले के क्या करना है? एजुकेशन अगर लेगी तो फिर वो चिट्ठियाँ भी लिख सकती है और वो चिट्ठी लिखेगी तो बाहरी दुनिया से उसका कम्युनिकेशन हो सकता है। कम्युनिकेशन होगा तो उसकी स्लेवरी हट सकती है।
असल में लड़की के पास जो है ना वो वूम्ब होता है। प्रोक्रिएशन प्रजनन की ताकत होती है। और इस ताकत को कंट्रोल में रखना बहुत जरूरी होता है। कास्टिज़्म के लिए क्योंकि अगर लड़की पढ़ लिख गई है और अगर वो फ्री हो गई है तो वो हो सकता है कि वो अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद से अपने लिए पार्टनर चुन ले। और अगर लड़की अपनी पसंद से पार्टनर चुनने लग गई तो जो पूरा कास्ट सिस्टम है वो कोलैप्स कर जाएगा।
प्रश्नकर्ता: मतलब आप कह रहे हैं कि जेंडर डिस्क्रिमिनेशन है उसकी जड़े जो हैं, वो कास्ट सिस्टम में है।
आचार्य प्रशांत: देखो कास्ट सिस्टम में जो इंटरमैरिज होती है वो नहीं हो सकती और वो रूट है कास्ट सिस्टम की ना। ये जितने वर्ण हैं और जातियाँ और उपजातियाँ हैं, अगर ये आपस में विवाह करने लग जाए तो कास्ट तो खत्म, खत्म हो गई। समझ रहे हो?
कास्ट तभी चल सकती है जब एक जाति दूसरी जाति में जाकर के शादी ना करे, तभी कास्ट चल सकती है तो कास्ट को बचाने के लिए बहुत जरूरी है कि लड़कियों को दबा कर रखा जाए। हम सोचते हैं कि जो जेंडर ऑपरेशन है और जो कास्ट ऑपरेशन है ये तो अलग-अलग चीज़ें हैं। नहीं, अलग-अलग चीज़ें नहीं है। लड़कियों को दबा के नहीं रखोगे तो एक वर्ण की लड़की दूसरे वर्ण के लड़के से जाकर शादी कर लेगी या एक जाति की लड़की दूसरी जाति से शादी कर लेगी।
सवर्णों की लड़की शूद्रों के यहाँ जा सकती है। शूद्रों की लड़की सवर्णों के यहाँ आ सकती है। तो ये सब अगर हो गया तो फिर कास्ट सिस्टम बचेगा कहाँ? कास्ट खत्म। एक बार इंटर्मिंगलिंग ऑफ कास्ट हो गई तो कास्ट खत्म हो जाएगी ना।
तो जो कल्चरल नॉर्म था वो तो यही था कि वर्ण को किसी तरह से भी बचा कर रखना है। तो भगवत गीता भी शुरू ऐसे ही होती है कि अर्जुन कह रहे हैं कि — अगर युद्ध हो गया और क्षत्रिय सारे मारे गए, तो क्षत्रियों की जो स्त्रियाँ हैं वो जाकर के दूसरे वर्णों में प्रतिलोम विवाह कर लेंगी।
प्रतिलोम विवाह माने — जब ऊँचे वर्ण की स्त्री जाकर दूसरे तथाकथित नीचे वर्ण में जाकर के विवाह कर लेती है या संतान पैदा कर लेती है। बोले उससे वर्णशंकर पैदा होंगे। वर्णशंकर माने कि — जिनका कोई वर्ण एट्रिब्यूट नहीं किया जा सकता। तो उनको जो है बहुत नीची दृष्टि से देखा जाता था — वर्णशंकरों को।
बोले जो वर्णशंकर पैदा होंगे तो फिर ये जब श्राद्ध वग़ैरह करेंगे तो पित्रों की आत्माएँ श्राद्ध स्वीकार नहीं करेंगी वो श्राद्ध नहीं स्वीकार करेंगी तो वो फिर भूखी प्यासी रह जाएँगी। तो फिर इसकी वजह से वो उनका प्रकोप होगा और श्राप लगेगा। तो ले दे के पूरी गीता भी इसी बात से शुरू होती है कि महिला अगर चली गई और किसी दूसरे वर्ण में उसने विवाह कर लिया मेटिंग कर ली, तो क्या होगा? और ये पूरी जो वर्ण व्यवस्था थी जो आगे चलके फिर कास्ट सिस्टम बनी। जो पूरी वर्ण व्यवस्था थी उसके लिए बहुत खतरे की बात थी कि महिला आजाद हो गई है और अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िन्दगी के फैसले ले सकती है।
वर्ण व्यवस्था पूरी ढह जाती अगर महिला आजाद हो जाती। क्योंकि फिर जो है इंटर्मिंगलिंग हो जाती है ना, वर्णों की और जातियों की तो इसलिए महिलाओं को दबाकर रखना बहुत जरूरी — और भी कारण थे पर ये एक प्रमुख कारण था कि महिलाओं को दबाकर क्यों रखना है ताकि वर्ण व्यवस्था चलती रहे। तो इसलिए उनको शिक्षित नहीं होने देना है। इसलिए उनके पास किसी भी तरह के न्यूनतम अधिकार भी नहीं आने देने हैं।
ये सब इसलिए चला करता था और इसलिए ये हालत थी कि जो 19वीं शताब्दी थी, उस के चौथे पाँचवें दशक तक भी भारत में कोई गर्ल्स स्कूल ही नहीं था और जो फीमेल लिटरेसी थी वो लगभग शून्य थी। अभी आप सोचो तो, दिमाग सुन पड़ जाए ये सोच के कि, देश में एक भी पढ़ी लिखी लड़की थी ही नहीं। एक भी या रही होती तो, दो-चार मुट्ठी भर।
फीमेल लिटरेसी वज़ वेरी वेरी क्लोज़ टू ज़ीरो। ये कितनी ज़्यादा खतरनाक बात है। और वही जो पहला स्कूल खोला जा रहा है तो पहला स्कूल खोलने में भी जिन लोगों के स्वार्थ थे महिलाओं को अनएजुकेटेड और डिसएवर्ड अशक्त रखने में उन्होंने जितना ज़्यादा विरोध हो सकता था करा। रज़िस्टेंस दिया, मारपीट की, लड़ाई झगड़े किए, कोर्ट केसेज़ करे जो कुछ भी कर सकते थे सब कुछ उन्होंने करा।
लेकिन आज की जो लड़की है वो बिल्कुल नहीं जानती है कि उसको जो फ्रीडम आज मिली हुई है उसके लिए उसको किसके प्रति थैंकफुल होना है। फ्रीडम होती तो बर्थ राइट है लेकिन वो बर्थ राइट भी अवेलेबल नहीं होती है ना। यूँ नहीं उपलब्ध होती, तो आज महिलाओं को अगर वो आजादी मिली हुई है तो उसके लिए बहुत लोगों ने बहुत संघर्ष करा है।
उसमें डी.के.कर्वे (धोंडो केशव कर्वे) आते हैं, शुरुआत और पीछे से — राजा राममोहन रॉय से होती है और — ईश्वर चंद्र विद्यासागर फिर उसके बाद — ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले आते हैं और हाँ हम कैसे भूल सकते हैं — डॉ.अंबेडकर — ई.वी.आर पेरियार (इरोड वेंकट रामासामी पेरियार)। ये वो लोग थे जिन्हें कहा जाना चाहिए महिलाओं के सच्चे हितैषी, सच्चे मित्र पर बहुत कम महिलाओं को पता है कि इन्हीं लोगों की बदौलत आज वो शिक्षा, संपन्नता, नौकरी, करियर, समता न्याय इनके जो हैं, फिर वो फल भोग पा रही हैं। बहुत कम महिलाओं को ये बात पता है। तो ऐसा ही है।
प्रश्नकर्ता: आप थोड़ा सा बता सकते हैं इस बारे में कि जैसे ज्योतिबा फुले जो है उनके लिए तो बिल्कुल — लोगों को जाकर के शायद ये मूवी देख कर के आनी ही चाहिए। और इनसे अलग आपने बाबा साहेब अंबेडकर का नाम लिया। तो किस तरीके से उन्होंने क्या लड़ाईयाँ जो हैं — वो स्त्रियों के हक़ के लिए लड़ी? तो कुछ ऐसे इंसिडेंट्स हैं जो — मतलब आप कांस्टीट्यूशन के बारे में तो जानते ही हैं, बट और कुछ ऐसे इंसिडेंट्स हैं जो आप बता सके।
आचार्य प्रशांत: नहीं जो सबसे बड़ा उस लड़ाई का परिणाम है वो तो भारत का संविधान ही है। भारत के संविधान में महिलाओं को जो स्थान मिला हुआ है एक बराबरी के मनुष्य का स्थान तो वो आसानी से मिलने वाला नहीं था। क्योंकि भारत में जो व्यवस्था चली थी पारंपरिक रूप से वो कतई महिलाओं के पक्ष में नहीं थी, तो जो आज हमारा संविधान है वो कोई पहला संविधान थोड़ी ही है। उसके पहले स्मृतियाँ चलती थी कई स्मृतियाँ होती थी जैसे — मनुस्मृति का नाम सुना होगा। तो मनुस्मृति वग़ैरह भी अपने आप में लीगल डॉक्यूमेंट ही थे एक तरह के। वो भी एक प्रकार के संविधान ही थे। वो पूरे-पूरे कभी भी एनफोर्स नहीं होते थे पर उनका भी जो काम था वो यही था काइंड ऑफ कोडिफाइड लॉ। और वो जो लॉज़ थे उन लॉज़ में महिलाओं की बड़ी हालत खराब थी, बड़ी दुर्दशा थी।
आज की जो लड़की है वो कल्पना भी नहीं कर सकती है कि अगर भारतीय संविधान नहीं होता और वही जैसी पुरानी व्यवस्थाएँ चल रही थी वो चल रही होती, तो आज उसकी क्या दुर्दशा होती? अगर हम कोशिश भी कर ले ना, तो जो आज की जो मॉडर्न लड़की है उसको हम बताएँ कि सिर्फ़ आज से 150 साल पहले भी किस तरीके के लॉज़ से तुम्हारी तक़दीर गवर्न होती थी। तो वो लड़की मानेगी नहीं और मानेगी तो शॉक में आ जाएगी।
हिंदू कोड बिल लेकर आए थे डॉ. अंबेडकर। ठीक है? उसको बनाया पहले। इंडियन कांस्टीट्यूशन के इफेक्ट में आने के बाद उसको लेकर के आए थे। क्योंकि कांस्टीट्यूशन जब बराबरी की बात कर रहा है तो जो हिंदुओं के जो पर्सनल लॉज़ है उनमें भी बराबरी दिखनी चाहिए ना। यही तो फिर संविधान को मानने का तकाज़ा हुआ कि भाई एक संविधान आ गया जो कहता है सब बराबर है। तो फिर जो पर्सनल लॉज़ हैं वो भी तो बराबरी पर ही आधारित हों।
तो हिंदू कोड बिल लेकर के आए थे। जिसमें पहली बार महिलाओं को वो हक़ दिए जा रहे थे जो कि महिलाओं को आमतौर पर मिलते नहीं है। भारत में तो एकदम ही नहीं मिले हुए थे। उदाहरण के लिए पिता की संपत्ति में हक़, डिवोर्स का हक़ कि अगर शादी ठीक नहीं चल रही है तो महिला भी पुरुष भी दोनों कह सकते थे कि इस शादी को नलिफाई किया जाए और ये सारी चीज़ें लोगों को बर्दाश्त नहीं तो जो हिंदू कोड बिल था वो पास ही नहीं हुआ। उसको पहले डिले किया गया, डाइल्यूट किया गया।
तो डॉ.अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल को जो विरोध मिल रहा था उस विरोध के कारण उन्होंने इस्तीफ़ा ही दे दिया। लॉ मिनिस्टर थे ना उस वक्त उन्होंने इस्तीफ़ा ही दे दिया। हालांकि उनके इस्तीफा देने के बाद वो जो ड्राफ्ट था बिल का, उसके चार हिस्से करके उनको अलग-अलग करके पास किया गया, वॉटर डाउन तरीके से डाइल्यूटेड तरीके से। क्योंकि लोगों का विरोध ये था कि जो भारतीय संस्कृति चली आ रही है जिसमें महिला का एक स्थान है अगर आप ऐसे लीगल प्रोविजंस ले आए, जिसमें महिला को बराबरी का दर्ज़ा मिल गया तो फिर भारतीय संस्कृति का क्या होगा? तो ये सब रहा।
अब आमतौर पर डॉ.अंबेडकर को आप एसोसिएट करके देखते हो कास्ट्स वाला जो स्ट्रगल है पूरा उससे। लेकिन ये जो पूरा प्रकरण है जिसके कारण उन्होंने इस्तीफ़ा ही दे दिया था मिनिस्ट्री से। ये इसमें कोई कास्ट एँगल नहीं था। ये पूरे तरीके से महिलाओं के कारण, महिलाओं के पक्ष में डॉ.अंबेडकर ने वो बिल ड्राफ्ट करा और जब वो बिल देखा कि वो नहीं होने वाला इनएक्ट, लेजिसलेट नहीं होगा तो फिर इस्तीफ़ा ही दे दिया। ये बात भी बहुत कम महिलाओं को पता है कि उनके वास्तविक हितैषी रहे कौन हैं?
प्रश्नकर्ता: सर आपने कुछ ताकतों के बारे में बात की थी स्टार्टिंग में। जिन ताकतों के कारण जो है महिलाओं की वैसी स्थिति रही या बनी आई। फिर आपने कहा कि ऑलरेडी एक कॉडिफाइड लॉ जो है * एग्ज़िस्ट* करता था इन द फॉर्म ऑफ़ मनुस्मृति।
आचार्य प्रशांत: नॉट जस्ट मनुस्मृति देयर वर मेनी स्मृतिस एँड नन ऑफ देम वज़ एक्सेप्टेड एज़ अ कांस्टीट्यूशन बाय एनी स्टेट। बट दे वुड हैवली इन्फ्लुएँस द लॉ मेकिंग।
प्रश्नकर्ता: तो एक तरफ तो आप हमें गीता पढ़ाते हैं। तो एक तरफ तो हम गीता पढ़ते हैं। जहाँ पर आप उसका जो शुद्ध अर्थ है वो हम तक पहुँचाते हैं या आपने इतने सारे उपनिषद् जो है वो पढ़ाए हैं। दूसरी तरफ मनुस्मृति है जो बेसिकली इतना इंपोरटेंस होल्ड कर रही है कि वो सेंचुरीज़ तक एक पर्टिकुलर जेंडर और सिर्फ़ एक जेंडर नहीं उसका जो प्रभाव है वो दूसरे जेंडर पे भी आता है। वो पूरी एक सोसाइटी को समाज को गवर्न कर रही है। तो ऐसा कैसे हुआ कि भारत का जो समाज है वो उसका आधार गीता नहीं रहा पर स्मृति जो है वो बन गई। और उसका इंपैक्ट भी देखा जा रहा है। वो कोई बहुत कंस्ट्रक्टिव नहीं है। वो ऐसा है कि एक पूरा का पूरा जेंडर जो है वो ऑप्रेस स्टेट में है कि उसके पास ना पढ़ने का राइट है, ना लिखने का राइट है, ना उसका अपना कोई प्रॉपर्टी का राइट है, ना उसके अपने बेसिक ह्यूमन राइट्स इन प्लेस हैं। तो ये हुआ क्या?
आचार्य प्रशांत: अच्छा है, रोचक सवाल है। देखो जो वैदिक पीरियड था ना अर्ली वैदिक पीरियड। उसमें जो जो इंडियन सोसाइटी थी या कह दो जो आर्यन सोसाइटी थी वो बहुत खुली हुई थी ना, उनका नेचर जो था वो घुमक्कड़ था। घुमक्कड़ लोग, आजाद लोग, मस्त लोग — ट्राइबल एक आउटलुक जिनका, ठीक है? ये ऐसे लोग थे तो ये समझ लो चला है करीब ईसा से 2000 साल पहले से लेकर के ईसा के 500 साल पहले तक और इस पीरियड में हम पाते हैं कि महिलाओं को बड़ी छूट थी।
तुमने ये सारे नाम सुन ही रखे हैं — गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा अपाला, घोषा, ठीक है और महिलाओं को हर तरह की स्वतंत्रता थी। जैसा आज तुम उनके कपड़े लते देखते हो ऐसे नहीं होता था। बहुत आराम से अपने स्वच्छंद तरीके से रहो, खाओ, पियो, कपड़े पहनो, विचरण करो। विवाह करना है तो करो, नहीं करना तो ना करो। ठीक है? वो लोग दूसरे थे। वो ज़माने दूसरे थे।
प्रश्नकर्ता: इतना तो आज भी नहीं है।
आचार्य प्रशांत: जितनी आज भी भारतीय समाज में तुम महिलाओं को छूट और इज़्ज़त नहीं देखती हो। जो वैदिक समय था उस समय पर महिलाओं को इससे ज़्यादा छूट थी। इससे ज़्यादा इज़्ज़त थी और रोकने-टोकने वाला कोई होता नहीं थी।
पाँचवी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास दो घटनाएँ घटती हैं जिन्होंने भारत की महिलाओं का इतिहास बदल के रख दिया। दो घटनाएँ और दोनों घटनाएँ एक साथ घट रही हैं समानांतर पैरलेली।
पहली ये घटती है कि जो इकोनॉमिक इवोल्यूशन है उसके नेचुरल प्रोग्रेशन में सोसाइटी गैदर की जगह एग्रीकल्चरल हो गई। पैस्टोरल की जगह वो सेटलर्स की सोसाइटी होने लगी। वो रुकने लगे वह एक जगह पर कह रहे अब खेती करेंगे। आप जब खेती करोगे तो पहली बार जो ओनरशिप है वो एक बड़ा मुद्दा बन गई। क्योंकि इसके पहले जो आम आदमी था वो लैंड ओन नहीं किया करता था। क्या करोगे लैंड ओन करके? बहुत सारा। जब खेती होती है तो लैंड ओनरशिप का सवाल पैदा होता है। तो जो अर्थव्यवस्था थी वो एग्रीकल्चरल होने लग गई। उसके पहले कैसी थी? घुमक्कड़।
तो अब जब लैंड आ गया तो फिर इन्हेरिटेंस की बात भी होगी। इन्हेरिटेंस की क्या बात होगी कि भाई मैंने बड़ी मुश्किल से अब इस लैंड पर कब्ज़ा करा है और मैंने खेती करी है और जब खेती होती है तो फिर उसमें सरप्लस भी इकट्ठा होता है। तो लैंड भी आ गया है, सरप्लस भी आ गया है, तो मेरे पास कुछ है। तो इन्हेरिटेंस का मुद्दा भी अब इंपॉर्टेंट हो गया ना, क्योंकि मैं तो मरूँगा मेरे पास मेरा लैंड किसी को जाना है मेरी इन्हेरिटेंस किसी को जानी है। तो अब ये जरूरी हो गया कि मुझे पता हो कि — ये मेरी औलाद है और ये मेरी फैमिली है। और मेरी फैमिली पे मेरा स्ट्रिक्ट कंट्रोल है।
तो जब एग्रीकल्चर आया तो एग्रीकल्चर से लैंड ओनरशिप आई। जब लैंड ओनरशिप आई तो लैंड किसी को दोगे भी तो इन्हेरिटेंस का मुद्दा आया। वहाँ से फिर फैमिली को स्ट्रिक्टली कंट्रोल करने की बात आई। बात समझ रहे हो?
अब जब फैमिली को स्ट्रिक्टली कंट्रोल करना है तो उसके लिए लॉज़ भी होने चाहिए तो फिर लॉज़ को लिखे जाने की भी ज़रूरत पड़ी। पहले कोडिफाइड लॉज़ नहीं थे, वेदों में आप नियम नहीं पाते हो कि समाज के नियम क्या होने चाहिए और परिवार के नियम क्या होने चाहिए? ये सब आप नहीं पाते या राजा अभी किन सिद्धांतों पर प्रजा को गवर्न करे ये सब भी आपको वेदों में नहीं मिलता है। वेदों में आपको कर्मकांड में मिलता है —रिचुअलिज़्म और ज्ञानकांड में मिलती है — जिज्ञासा। ठीक है? तो वेद तो ये है।
और ये सब हम बोल रहे हैं कि पाँचवी शताब्दी तक अभी तो घुमक्कड़ थे और अभी जो वेदों का ही रचना काल है अभी वो चल रहा है। उपनिषद् लिखे जा रहे हैं। प्रमुख उपनिषद् है। फिफ्थ सेंचुरी बीसी में है हम। प्रमुख उपनिषदों में से कुछ उपनिषद लिखे जा चुके हैं पहले ही। लेकिन अब *इकॉनमी चेंज़ हो गई है। इकॉनमी चेंज़ हो गई है। लैंड ओनरशिप, लैंड राइट्स, इनहेरिटेंस ये मुद्दे आ गए हैं। तो अब फैमिली को कंट्रोल करना जरूरी हो गया है।
तो फिर उसके बाद एक प्रक्रिया शुरू होती है रिजिड कोडिफिकेशन ऑफ लॉ की और वो प्रक्रिया उन्हीं के हाथ में है जिनको इन सब बातों से बहुत लेना देना था, कि भैया रुपया पैसा किसके पास है? फैमिली को कंट्रोल करना ये सारी बातें। उस प्रक्रिया के चलते लगभग सेकंड सेंचुरी बीसी से मनुस्मृति का काल शुरू होता है। मनुस्मृति भी एक झटके में नहीं लिखी गई। वो भी सेकंड सेंचुरी बीसी से शुरू करके अगले 100, 200, 300 सालों तक लिखी गई है। तो एक तो ये चीज़ थी।
दूसरी जो चीज़ थी वो थी कि फिफ्थ सेंचुरी बीसी में भारत की धरती पर दो महानुभाव प्रकट हो जाते हैं। एक का नाम है सिद्धार्थ गौतम और एक का नाम है वर्धमान महावीर। और ये क्यों पैदा होते हैं? ये इसीलिए पैदा होते हैं कि जो वैदिक धर्म था हमने कहा उसके दो हिस्से थे। दो हिस्से कौन से थे उसके? एक हमने कहा रिचुअलिज़्म वाला हिस्सा और दूसरा हमने कहा जो फिलॉसोफिकल हिस्सा था जिसमें जो ज्ञान मार्ग था जिसमें इंक्वायरी चलती है। ठीक है? लेकिन जो डोमिनेंट हिस्सा था जिस पर ज़्यादातर लोग चलते थे वो रिचुअल्स वाला हिस्सा था। कर्मकांड वाला हिस्सा। और जो कर्मकांड वाला हिस्सा था वो भी ओवर द सेंचुरीज करप्ट हो के बहुत ज़्यादा वो सेल्फ सेंटर्ड माने — स्वार्थ परक हो गया था। कि सैक्रिफाइसेज़ होनी चाहिए।
कर्मकांड माने यही होता था ज़्यादा सैक्रिफाइसेज़ होंगी और इससे देवता खुश हो जाएँगे और तुमको वरदान देंगे, खुश रखेंगे, तुम्हारे शत्रुओं का नाश करेंगे। ये सब तो उसमें फिर स्लॉटर वग़ैरह भी काफी होने लग गया था, एनिमल स्लॉटर बहुत होता था। उसमें काऊस स्लॉटर भी शामिल था। तो ये सब बहुत होने लग गया था। बहुत हिंसा होने लग गई थी। तो इसीलिए ये जो बुद्ध और महावीर का जो पूरा धर्म था वो फिर अहिंसा पर आधारित था। क्योंकि वो उठा ही था हिंसा की प्रतिक्रिया में। और वो हिंसा ज़्यादातर कौन सी हिंसा थी? जो कर्मकांड में हिंसा होती थी। तो ये दोनों आते हैं और इन दोनों ने बिल्कुल धर्म युद्ध छेड़ दिया कि भाई जो चल रहा है ये गड़बड़ चल रहा है। इसको ठीक होना पड़ेगा।
तो जो वैदिक धर्म चल रहा था उसकी जो कुरीतियाँ थी उनके खिलाफ बुद्ध और महावीर बिल्कुल तन कर खड़े हो गए और कहा — अहिंसा। अहिंसा — माने जो तुम चला रहे हो ये नहीं चलेगा क्योंकि हिंसा बहुत चल रही थी। जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ हिंसा होती ही है ना, तो हिंसा खूब चल रही थी तो बुद्ध महावीर के आने का दो तरफा प्रभाव पड़ता है।
वैदिक धर्म पर एक तरफ तो ये प्रभाव पड़ता है कि बुद्ध के बाद के जो उपनिषद् हैं वो और ज़्यादा निखर के सामने आते हैं क्योंकि बुद्ध ने आकर एक चुनौती दी। उस चुनौती के जवाब में जो वैदिक धर्म था उसके जो सुलझे हुए लोग थे, जो साफ सुथरे लोग थे, उन्होंने आत्ममंथन करा, खुद को देखा और बोले कि बुद्ध जो बात कह रहे हैं, जरा उस पर विचार करो। ठीक है? क्योंकि वो ज्ञान के लोग थे ना।
वो ज्ञान के लोग थे और ज्ञान का जो इंसान होता है उसके सामने जब आप कोई तर्क रखते हो तो उस तर्क पर विचार करता है। तो जो वाकई ज्ञान मार्गी थे उन्होंने बुद्ध के आगमन को एक अवसर की तरह लिया और अपनी ही बात को अपने ही तर्क को, जो उपनिषदों का विचार था उसको और निखारा। उसका नतीजा ये होता है कि आगे फिर और जो उपनिषद् आते हैं, वो और ज़्यादा हम पाते हैं कि संक्षिप्त होते जा रहे हैं और बिल्कुल सीधे सिर्फ़ ब्रह्म की ओर इशारा कर रहे हैं। तो एक तो ये असर पड़ा बुद्ध के आने का कि जिनको बेहतर होना था वो बेहतर हो गए बुद्ध के आने से।
मैं वैदिक धारा के भीतर की बात कर रहा हूँ। वैदिक धारा के ही भीतर जिनको बेहतर होना था वो बुद्ध के प्रभाव में बेहतर हो गए। जैसे अष्टावक्र गीता है, वो बुद्ध के बाद की है और उस तरह की कोई चीज़ हमें बुद्ध से पहले देखने को नहीं मिलती है।
और दूसरी तरफ दूसरे भी तरह के लोग थे। जिन्होंने कहा कि ये जो बुद्ध आए हैं ये हमारी जो पुरानी व्यवस्था है, ये उसको बर्बाद करने के लिए आए हैं। तो वो और रिजिड और कट्टर हो गए। बुद्ध के आने के बाद से एक ओर आपको और बेहतर उपनिषद् मिलते हैं और दूसरी ओर मनुस्मृति मिलती है दो तरफ़ा असर हो रहा है। नहीं समझे? जिन्हें बेहतर होना था वो और बेहतर हो गए और जिन्हें बदतर होना था वो और बदतर हो गए। उन्होंने कहा कि ये बुद्ध और जो बाकी ये जो सब लोग हैं जो आ गए हैं श्रमण परंपरा वाले लोग। ये जो हमारी पारंपरिक वैदिक व्यवस्था है ये उसको भ्रष्ट कर रहे हैं तो हम उसको और जो है फोर्टिफाई कर देते हैं। हम उसको और कवच पहना देते हैं। तो उस फोर्टिफिकेशन का जो परिणाम था वो ये थे — कि फिर धर्मसूत्र आए, फिर धर्मशास्त्र आए और वो ये सब स्मृतियाँ एक-एक करके आके सामने खड़ी होने लग गई, जिसमें मनुस्मृति भी शामिल है।
तो ये हम देखते हैं कि ऐसा हुआ है। बात समझ में आ रही है?
तो एक तो ये कि अब लैंड ओनरशिप बढ़ गई। जो छोटे-छोटे पहले राज्य होते थे आर्यों के वो बड़े राज्य बनने लग गए थे। जितना बड़ा राज्य होता है — प्रॉपर्टी की बात होती है वो उतनी बड़ी होती जाती है। ट्रेड उतना बड़ा होता जाता है। संपत्ति उतनी बड़ी होती जाती है और फिर इन्हेरिटेंस का मुद्दा भी उतना ही बड़ा होता जाता है। समझ में आ रही है बात? तो फिर महिलाओं ने जो अपना स्थान था, अपनी आजादी थी, वो खोनी शुरू कर दी। इट बिकम वेरीे इंपोर्टेन्ट टू कंट्रोल द वूम्ब। वूम्ब* महिला की सेक्सुअलिटी को कंट्रोल करना बहुत जरूरी हो गया।
दूसरा वही कि भई बुद्ध आए हैं इससे पहले कि उनके ज्ञान की बात घर-घर पहुँचे गाँव-गाँव पहुँचे उसके पहले ही नियम कायदे बना दो और ये कह दो कि जो इन नियमों को तोड़ेगा वो जाकर नर्क में सड़ेगा। तो फिर उस तरीके से जो आप पाते हो कि मनुस्मृति के विधान वग़ैरह थे वो सब रचे गए। तो बहुत ऊँची जगह से महिलाओं ने शुरू करा वैदिक धर्म में।
लेकिन ईसा के समय तक आते-आते यही जो जो ऊँचा धर्म था और जो जिसमें महिलाओं का ऊँचा स्थान था वो काफी हद तक उसमें भ्रष्ट तत्व घुस चुके थे। जो गुप्ता काल है ना, ईसा के बाद का तीसरी से छठी शताब्दी, जिसको आप गोल्डन पीरियड बोलते हो स्वर्णकाल वो वास्तव में हिंदू ऑर्थोडॉक्सी का स्वर्ण युग था। वो हिंदू ऑर्थोडॉक्सी का स्वर्ण युग था।
उसके बाद जो महिलाओं की स्थिति में सुधार आता है वो फिर सीधे शुरू होता है भक्तिकाल से 13वीं से 17वीं शताब्दी। तो समझो कि लगभग 2000 साल का समय ऐसा रहा है मनुस्मृति से लेकर के भक्तिकाल के बीच में, जब महिलाओं की महा दुर्दशा रही है। फिर आज आप पा रहे हो ना कि, आज आप एक अप स्विंग पर हो महिलाओं की स्थिति बेहतर होती जा रही है, इसकी शुरुआत भक्तिकाल से होती है।
तो भक्तिकाल में आप इंडिविजुअल स्पाइक्स देखते हो। तो गुरु नानक आकर के बोलते हैं कि अरे आप महिला को बुरा क्या बोल रहे हो, वो तो बादशाहों को जन्म देती है। और मीराबाई आपके सामने आती हैं जितने संत थे उन्होंने भी जातपात आधारित या लिंग आधारित भेदभाव का विरोध किया। तो वो आपको कुछ शुरुआती सुगबुगाहट देखने को मिलती है।
उसके बाद आते हैं अंग्रेज और अंग्रेज आ रहे हैं एक खुले माहौल से। तो अब जैसे सती को जो बैन करने का काम था वो राजा राममोहन रॉय के साथ विलियम बेंटिक इन्होंने करा था। तो भक्तिकाल में हम पाते हैं महिलाओं की स्थिति थोड़ी बेहतर होनी — कुछ आहट आने लग जाती है। पहली किरणें।
फिर अंग्रेजों ने बहुत सारे ऐसे नियम बनाए जिसमें कि महिलाओं को कुछ फायदा होना शुरू हुआ। आज की जो लड़की है उसको यकीन ही नहीं होगा कि बाल विवाह क्या चीज़ होती है? और बहु विवाह क्या चीज़ होती है? एक-एक पुरुष कितनी महिलाओं से शादी कर सकता है? बहु विवाह।
बहु विवाह — माने एक पुरुष कितनी भी महिलाओं से शादी कर सकता था। जो हिंदू कोड बिल ला रहे थे जिसको पास नहीं होने दिया लोगों ने उसमें जिस बात पर बवाल मचा था उसमें एक बात ये भी थी कि, जो बहु विवाह होता है — *पॉलीगैमी।*अंबेडकर कह रहे थे बंद करो ठीक है तो लोगों ने ये भी कहा कि ये भी हमारी संस्कृति का हिस्सा है इसका क्यों विरोध किया जा रहा है। खैर बाद में वो बंद हो गया। लेकिन उस समय पर तो विरोध हुआ ही। तो बाल विवाह चलता था, बहु विवाह चलता था।
विधवा जो हो गई है वो दोबारा शादी नहीं कर सकती थी। शादी तो छोड़ दो। उसके बाल काट करके उसको ऐसे कोने में डाल देते थे। सती प्रथा चलती थी। राजा मान राममोहन रॉय की अपनी एक रिश्तेदार थीं उन्होंने अपने घर में सती होते देखा — राजा राममोहन राय ने। वहाँ से वो एकदम उग्र हो गए कि ये क्या चल रहा है। तो ये सब चला करता था। तो इन सब चीज़ों के खिलाफ जो भारतीय सुधारक थे उन्होंने अंग्रेजों की मदद ली और कुछ नियम कायदे जो है वो स्थापित करें।
उसी प्रक्रिया में फिर इनका नाम आता है सावित्रीबाई फुले का, ज्योतिबा फुले का, सत्यशोधक समाज का और फिर वही प्रक्रिया आगे चलती है तो उसमें और पंडिता रमाबाई का नाम आता है उसी समय पर। और वो प्रक्रिया आज तक भी चल रही है। भारत में आज भी महिलाएँ बहुत हद तक दबी हुई हैं। और एक हिस्सा जरूर है जिसको हम कह सकते हैं कि काफी हद तक वो अब बराबरी पर आ गया है। लेकिन फिर भी अगर एक जनरल बात करें तो मोटे तौर पर तो यही है कि महिलाओं की आज भी भारत में बहुत दुर्दशा है। और इतना और हो गया है कि पहले वो दुर्दशा पुरुष वर्ग करता था। आज वो दुर्दशा महिलाएँ ज़्यादा अपने आप ही कर रही हैं। क्योंकि जो पुराना कल्चरल नॉर्म्स हैं महिलाओं ने उसको आत्मसात कर लिया। इंटरनलाइज़ कर लिया है। तो उसको सोचती हैं कि ये तो हमारा ही अपना वैल्यू सिस्टम है। उसको अपना कल्चर अपनी संस्कृति मानती हैं। अपनी ही दुर्दशा कराने को अपनी संस्कृति मानती हैं।
प्रश्नकर्ता: इसमें तीन चीज़ें जैसे है। अगर पहले वैदिक काल के बारे में बात की जाए तो उपनिषद् है वहाँ पर हमारे पास। फिर बीच में मनुस्मृति जो है वो आती है और फिर हमारे पास कांस्टीट्यूशन आता है जो कि आपका एक तरीके से — जस्ट अभी। अभी की बात है एकदम तो लेकिन उसके बाद भी उसके बावजूद भी आज भी ये देखा जाता है कि बचपन से आपकी जो — पहले तो ये था कि 1848 में पहला जो है महिलाओं का स्कूल बना, उससे पहले तक तो शिक्षा भी नहीं थी। लेकिन जब वो शिक्षा आज उपलब्ध भी है आपके पास तो भी ज़्यादातर घरों में उस शिक्षा का प्रयोग इसीलिए किया जाता है कि बच्ची जो है पढ़ लिख लेगी थोड़ा और पढ़ लिखने से इसकी एक अच्छे घर में शादी हो जाएगी। व्हिच इज़ बेसिकली अगेन द सेम थिंग एज़ इट वज़ हैपनिंग बिफोर।
आचार्य प्रशांत: नहीं देखो उसको इंसान जो है ना, माना नहीं गया है। उसके पास किसी तरह की क्रिएटिव या प्रोडक्टिव एबिलिटी हो सकती है। इस बात को स्वीकार नहीं किया गया है। उसको बस इंस्ट्रूमेंट ऑफ रिप्रोडक्शन की तरह देखा गया है। और अगर वो अपने इस स्टेटस को स्वीकार कर ले तो हम उसको देवी बोल देंगे। समझ गए?
उसके पास किसी भी और इंसान की तरह चेतना है, संभावना है, ऊँचा उठ सकती है, बढ़ सकती है। जिंदगी में बड़े-बड़े काम कर सकती है। इन चीज़ों को कम महत्व दिया गया है। ज़्यादा महत्व इस बात को दिया गया है कि शी इज़ द व्हीकल ऑफ रिप्रोडक्शन। वो जो वंश वग़ैरह है उसको आगे बढ़ाने वाली ताकत है। तो वंश किसका? — वंश पुरुष का। तो वो पुरुषों के काम को आगे बढ़ाने के लिए है। तो ये उसका स्टेटस रखा गया है जो कि वास्तव में बस — क्या बोलूँ? कि इंसान पैदा ही जानवर होता है ना। हर आदमी स्वार्थी है। अपने स्वार्थ के लिए वो किसी का भी ऑपरेशन कर सकता है।
*प्रश्नकर्ता: एक और काफी इंटरेस्टिंग कंट्रास्ट था। देखो
*आचार्य प्रशांत:** देखो ऐसे होता है। अब ये सामने जा रहा है, अब इसने अपने स्वार्थ के लिए सबका रास्ता रोक दिया है। समझ रहे हो? मुझे नहीं मालूम कि इसको इस रोड पे चलने की परमिशन भी है कि नहीं है। पर इसने क्या करा है? देखो ये बीच की लेन में है और इसने बाकी दो लेन भी खा ली हैं ये होता है। ऐसे समझ रहे हो दलितों को भी रोक दो, महिलाओं को भी रोक दो। क्योंकि साहब हम, सब कुछ हमारा रहे। हम चौड़ में चलेंगे, कोई तरीका नहीं है कि यहाँ से निकला जा सके, कोई तरीका नहीं है और ये तो बहुत लंबा जाम लगाएगा भाई। ये तो मतलब हक़ के साथ चल रहा है कि मैं तो नहीं हिलूँगा, इससे कभी निकल ही नहीं सकते आप।
*प्रश्नकर्ता: एक और चीज़ भी देखने को मिलती है शुरुआत से ही। दो चीज़ें हैं एक तो जैसे अगर मैं अनटचेबल्स जिनको कहा जाता है, बेसिकली वर्ण व्यवस्था से बाहर जिन लोगों को रख दिया गया। तो उनको यदि आज उनके हक़ के बारे में बताया भी जाता है या उनको बेसिकली एक तरीके से समाज का हिस्सा जो है — कांस्टीट्यूशन के थ्रू वो बताया भी जाता है। पर उसके बावजूद समाज का कुछ आपके आसपास का माहौल लोग या आप एक ऐसे समाज से आ रहे हो कि वो बात लगातार आपके अंदर रीइंफोर्स होती रहती है और यही चीज़ कहीं ना कहीं महिलाओं के साथ भी होती है। कि आपके जो हक़ हैं या जो आपके राइट्स हैं वो आपको गिवेन है कांस्टीट्यूशन ने दिए हैं पर वो समाज इस तरीके का है कि वो आपको एक खुले मन से एक समझ से चॉइस इतनी आसानी से करने देता नहीं है। और वो उस पर हर तरीके की बंदिशें लगाएगा। बहुत छोटी-छोटी चीज़ें होती हैं।
आप अगर एक बैचलर हो तो आपके लिए ओवर द इयर्स और ज़्यादा डिफिकल्ट हो गया है टू इवन हैव अ फ्लैट फॉर योरसेल्फ। कि भई सिंगल जो है, रेंट की मैं बात कर रही हूँ कि सिंगल महिला जो है अगर आपको रेंट पे भी अपने लिए फ्लैट लेना है तो उसमें भी दिक्कतें ओवर द इयर्स अब और ज़्यादा बढ़ती चली जा रही है।
जबकि विद द एडवेंट ऑफ़ द टेक्नोलॉजी उल्टा होना चाहिए था, कि और ज़्यादा सोसाइटी जो है वो लिबरलाइज्ड हो रही है। एँड मोर सच एवन्यूस जो है वो ओपन हो रहे हैं। जहाँ पे आप अपनी मर्जी से आज चीज़ें…..
आचार्य प्रशांत: देखो यार एक इंसान है, ठीक है। एक दूसरा इंसान है। ए है और बी है। ठीक है? अगर ए को बी के लेबर का फायदा मिल रहा है। ठीक है? लेबर मिल रहा है, लो कॉस्ट लेबर मिल रहा है। कई तरह की सर्विस मिल रही हैं बी से। और ये सब लगभग मुफ्त में मिल रहा है। तो ए क्यों मना करेगा? ए बल्कि बी को प्रमोट करे और बी उसके कंपटीशन में खड़ा हो जाए।
तो पहली बात तो जो ए को जो प्रिविलेजेस और सर्विस मिल रही थी वो बंद हो गई। और दूसरे ए को अब कंपटीशन और झेलनी पड़ रही है रिसोर्सेस के लिए। तो ए ऐसा क्यों चाहेगा? बात खत्म हो गई। तो बी को दबा दिया जाता है। अब दबाने का एक तरीका होता है कि किसी को बंदूक से दबा दो। ठीक है? हिंसा करके दबा दो। और दबाने का जो सबसे कुटिल तरीका होता है वो ये होता है कि बी को बोल दो कि ये ईश्वर का विधान है कि, तू दब के रह। ये भगवान का एक तरीका है, भगवान की बनाई व्यवस्था है कि तुम दब कर रहो।
प्रश्नकर्ता: ये बात ना शुरुआत से लगातार जो है चलती चली आ रही है। चाहे वो अनटचेबल्स का केस हो। चाहे पूरी वर्ण व्यवस्था हो, या चाहे महिलाओं के लिए ये बात रखना सामने कि यदि आप एजुकेटेड होती हैं तो वो बात सिर्फ़ ये नहीं है कि आप हो नहीं सकती हैं। कोई रेस्ट्रिक्शन इट्स नॉट जस्ट अबाउट रेस्ट्रिक्शन इट्स अ सिन कि ये पाप है।
आचार्य प्रशांत: हाँ ये पाप है। कहीं ना कहीं आप कुछ गलत कर रहे हो। ये ज़्यादा आप सेल्फ सेंटर्ड हो रहे हो।
प्रश्नकर्ता: आप गलत कर रहे हो आप धर्म के खिलाफ जा रहे हो।
आचार्य प्रशांत: नहीं अब ये तो कोई नहीं कहेगा — आज की लड़की पढ़ रही है, धर्म के खिलाफ जा रही है आज ये कोई नहीं कहता।
प्रश्नकर्ता: आज नहीं, मतलब तब था।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तब तो क्योंकि रोका ही उन्हें धर्म के नाम पे जाता था कि ये तो मनुस्मृति वग़ैरह और जिस तरह के जो धर्मशास्त्र है। उनमें ये है कि लड़की को तो किसी गुरु के पास भी नहीं जाना चाहिए। पति ही उसका अकेला गुरु है और उसे कुछ पढ़ने लिखने की ज़रूरत नहीं है। पति की सेवा ही उसका धर्म है।
तो जिसको आप इंडियन वूमन बोलते हो ना और बार बोलते हो ना द इंडियन वूमन। वो इंडियन वूमन और कुछ नहीं है। वो, वो वूमन है जो मनुस्मृति से निकल कर आई है। नहीं तो जो आप कहते हो ना इंडियन वूमन ऐसी होती है और अमेरिकन वूमन वैसी होती है। तो इंडियन वूमन कोई जेनेटिकली थोड़ी अलग होती है। वो पैदा तो भारतीय लड़की और अमेरिकन लड़की — वो एक सी होती हैं। पर वो जो डिफाइनिंग कैरेक्टरिस्टिक्स है इंडियन वूमन की वो सारी वही है जो इन किताबों में लिखी हुई है। और लोगों ने भले वो किताब पढ़ नहीं रखी है पर जीते वो उसी किताब को हैं।
प्रश्नकर्ता: वो किताब लोगों तक पहुँचती कैसे है?
आचार्य प्रशांत: हवाओं में है। हवाओं में वो किताब आपने कभी देखी नहीं है। किताब आपने देखी नहीं पर हर आदमी उसी किताब के नियमों का जो उसमें जो वर्सेस हैं उन्हीं का पालन कर रहा है। *थ्रू कंडीशनिंग, थ्रू अब्सॉर्प्शन, अब्सॉर्प्शन फ्रॉम वेयर? फ्रॉम द कल्चर, फ्रॉम अदर्स एँड अदर्स हैव बीन अब्सॉर्बिंग इट ओवर द सेंचुरीस फ्रॉम अदर्स।
प्रश्नकर्ता: देयर नीड्स टू बी सम पावर सोर्स* ना, जो कंटीन्यूअसली उसको रिइंफोर्स।
आचार्य प्रशांत: हाँ, वो पावर सोर्स थोड़ा ना जो इलिट्स, जो पुरोहितों की, प्रीस्ट्स की जो प्रिविलेज क्लास थी, वहाँ से वो चीज़ जो थी — वो ऐसे समझ लो — जैसे कि व्हट्स अप ब्रॉडकास्ट्स होते हैं। एक दो लोग बनाते हैं और फिर वो पूरे देश में फैल जाते हैं ना। ये जो मिसइनफॉरमेशन वाले व्हट्स अप यूनिवर्सिटी वाले होते हैं वो कोई एक दो खुफिया लोग बैठे हैं जो बैठकर के बना रहे हैं। दिमाग लगा रहे हैं और वहाँ से वो पूरे देश में फैला देते हैं।
प्रश्नकर्ता: कई बार ऐसा भी होता है कि इंस्टाग्राम पर रील्स हैं, यू ट्यूब पे शॉट्स हैं। तो कई बार जो आपके बाबा लोग होते हैं या उनके वीडियोस वहाँ पर उपलब्ध होते हैं और वहाँ पर वो भी बात कह रहे होते हैं महिलाओं के संदर्भ में कि, भई जल्दी शादी करा दो या शादी कराने के बाद उतना ही पढ़ाने लिखाने की ज़रूरत है, जितना जो है भाई शादी के लिए जरूरी है या बच्चे पैदा करना।अगर आप बच्चे नहीं पैदा करते हो..
आचार्य प्रशांत: ये सब ना देखो मैं चाहता हूँ मनुस्मृति हर भारतीय महिला पढ़े, हर भारतीय महिला को मनुस्मृति पढ़नी चाहिए। तभी उसे पता चलेगा कि वो जो डेली बिहेवियर करती है वो एक्सजेक्टली इस वर्स से आ रहा है।
ये श्लोक लिखा हुआ है और आप जो बिहेवियर करती हो यहाँ से आ रहा है। क्योंकि सारी बातें ना — कहाँ झुकना है, कहाँ खड़े होना है, कितने कदम पीछे चलना है, सेक्स के रूल्स ये सारी की सारी बातें जो हम सोचते हैं कि हमारी कल्चर में है। वो एग्जैक्टली वहाँ पर लिखी है। वहाँ से आ रही है कल्चर में।
हम सोचते हैं कि ये तो हमारा स्वभाव है। वो तुम्हारा स्वभाव नहीं है। वो वहाँ से लिखा हुआ है। वहाँ से तुमने उठा लिया है।
प्रश्नकर्ता: जस्ट फॉर क्लेरिटी क्योंकि हमें कल्चर में सोसाइटी में फीड ऐसा कर दिया गया है कि एक बहुत इंपॉर्टेंट ग्रंथ है या एक बहुत इंपॉर्टेंट पुस्तक है। लेकिन आप उसको किस तरीके से देखते हैं?
आचार्य प्रशांत: हिस्टोरिकल डॉक्यूमेंट है। आपको पता चलता है कि सेकंड सेंचुरी बीसी से लेकर सेकंड सी ई तक जो भारत था उसमें रिलीजियस और सोशल कंडीशंस कैसी थी? तो इस नाते ये एक हिस्टोरिकल डॉक्यूमेंट है और हिस्ट्री इज़ इंटरेस्टिंग।
तो मनुस्मृति को आप पढ़ेंगे तो उसमें आपको बहुत सारी रोचक बातें पता चलेंगी कि क्या है क्या नहीं है। बट व्हेन इट कम्स टू द इंडिया ऑफ टुडे — ये काफी हास्यास्पद बात होगी — कोई कहे कि आज के भारत में भी मनुस्मृति जैसी किताबों की कोई जगह है। हाँ आप उसे हिस्ट्री के नाते पढ़िए। आप उसे सामान्य ज्ञान के नाते पढ़िए। आपके ज्ञान चक्षु खुलेंगे कि क्या चलता रहा है। हिस्ट्री में कैसे चलता रहा है? कुछ मनुस्मृति में अपलिफ्टिंग वर्सेस भी हैं, बढ़िया हैं और जो ऐसे वर्सेस हैं जिनसे विसडम बढ़ती है उनकी सराहना भी होनी चाहिए। सम्मान भी होना चाहिए।
जो चीज़ जैसी है जस का तस हमें देखना चाहिए। जो चीज़ ढंग की है उसको स्वीकार करो। और जो चीज़ अब एक चुटकुले की तरह है। उसको चुटकुले ही मानो। उसको जिओगे थोड़ी।
प्रश्नकर्ता: मतलब ये जो कंट्रास्ट रहा है पूरा ये काफी ज़्यादा शॉकिंग है। एक तरफ तो हमारे पास नाम आते हैं मैत्रीयी के, गार्गी के, लोपामुद्रा के वैदिक एज से। एँड उसके बाद हम पाते हैं कि जस्ट 2000 साल बाद ही सावित्रीबाई फुले जो हैं वो अपनी बेसिक एजुकेशन के लिए भी वो उन्हें लड़ाई करनी पड़ रही है। लड़ना पड़ रहा है। संघर्ष करना पड़ रहा है। संघर्ष ही नहीं रादर पूरी एक सामाजिक क्रांति लेकर के आनी पड़ रही है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, मतलब उनकी जान नहीं चली गई। यही बड़ी बात है। लोग उनको तो मारने पे उतारू थे कि मार ही दो इनको।
प्रश्नकर्ता: पिक्चर में एक जगह पर ये भी दिखाया है कि जब वो रोज़ जाती थी अपने स्कूल के लिए गली से उनको गुजरना पड़ता।
आचार्य प्रशांत: गोबर फेंकते थे।
प्रश्नकर्ता: वहाँ पर रोज़ उनके ऊपर गोबर और पत्थर जो है।
आचार्य प्रशांत: देखो इससे ये समझो कि फ्रीडम, विज़डम, एनलाइटनमेंट ये कोई विरासत में मिल जाने वाली पक्की चीज़ें नहीं होती हैं कि एक बार आपको मिल गई तो मिल गई। इनकी हर पीढ़ी को ना सिर्फ़ रक्षा करनी पड़ती है बस बल्कि अपने तल पर दोबारा खोज करनी पड़ती है। दोबारा आविष्कार, अनुसंधान करना पड़ता है। आप ये सोचो कि वैदिक युग में महिलाओं की बहुत अच्छी स्थिति थी तो वो अच्छी स्थिति हमेशा बनी रहेगी — ऐसा नहीं होने वाला। ठीक है?
समाज में हमेशा हर तरह की ताकतें होती हैं। अंधेरे की, अज्ञान की, अहंकार की ताकतें भी हमेशा होती हैं और वो हमेशा चाहेंगी कि जो कुछ भी अच्छा है, ऊँचा है, सुंदर है, प्रकाशित है उसको बर्बाद कर दें। और उसकी जगह अंधेरे का राज कायम कर दें। शोषण का राज कायम कर दें वो ताकतें हमेशा रहेंगी, तो कभी आपको कुछ अच्छा मिल जाए तो उसको टेकन फॉर ग्रांटेड मत मानिए। उसकी रक्षा करिए, उसको आगे बढ़ाइए, उसको गहराई दीजिए। नहीं तो चक्र चलते रहते हैं। कुछ बहुत ऊँचे जाता है वो नीचे भी चला आता है। आपको देखना है कि ऊँचाई उसकी कायम रहेगी कि नहीं रहेगी।
प्रश्नकर्ता: इससे अलग एक काफी स्टारकिंग कंट्रास्ट रहता है कि इंग्लैंड में 19 सेंचुरी में 1843 में एडा अगस्टा लवलेस जो हैं उन्होंने पहला कंप्यूटर प्रोग्राम लिखा था। सो द फर्स्ट प्रोग्रामर वज़ एक्चुअली अ वुमेन एँड उस समय यदि मैं भारत में महिलाओं की स्थिति देखूँ तो वहाँ पर ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले लड़ रहे थे, समाज से कि स्पेशली अपर कास्ट से, कि महिलाओं के हाथ में वो एक किताब भी आ सके।
आचार्य प्रशांत: तो आप ये समझो कि 1757 में प्लासी की लड़ाई थी, ठीक है। और 1857 में जिसको हम कहते हैं स्वतंत्रता का पहला संग्राम था। 1757-1857 — 100 साल, और ये दोनों ही लड़ाईयाँ हमने हारी भारत में और यही वो समय था जब ब्रिटिश राज भारत में जड़े जमा गया। ईस्ट इंडिया कंपनी थी। 1857 के बाद फिर जो राज था वो ब्रिटिश क्राउन को क्वीन विक्टोरिया को चला गया। तो यही वो 100 साल का समय था जब जो ब्रिटिश अथॉरिटी थी इंडिया में वो कंसोलिडेट हो गई।
प्लासी से लेकर के दिल्ली के बीच में। दिल्ली माने — जब जाके बहादुर शाह ज़फर को ध्वस्त कर दिया गया और आखिरी मुगल किंग भी समाप्त हो गया। 1857 ये वो समय था जब यूरोप में महिलाएँ निखर कर सामने आ रही थी। ये वो समय था जब चार्ल्स बैबेज का जो वो इंजन था कंप्यूटिंग इंजन था, एनालिटिकल इंजन था एगस्टा लवलेस उसकी प्रोग्रामिंग कर रही थी।
महिलाएँ हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही थी समझो अच्छे से, जिस समय भारत एक के बाद एक लड़ाई हार रहा था उस समय भारत में शायद एक भी महिला शिक्षित ना मिलती ढूंढने से। और जिस समय यूरोप — सिर्फ़ इंग्लैंड ही नहीं, डच भी थे पॉर्चुगीज़ भी थे, फ्रेंच भी थे। ये सब भारत में एक के बाद एक लड़ाई जीत रहे थे। ये वो समय था जब उनकी महिलाएँ भी अपने-अपने क्षेत्रों में लड़ाईयाँ जीत रही थी। विज्ञान, मेडिसिन, कला, साहित्य, राजनीति, लॉ हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही थी। बात समझ रहे हो?
यूरोप से अगर भारत हार रहा था तो उसका कारण ये था कि भारत ने अपनी महिलाओं को हरा रखा था। और यूरोप अगर भारत से जीत रहा था तो उसका कारण ये था कि यूरोप ने अपनी महिलाओं को जिता रखा था। जिस जगह पर महिलाओं की दुर्दशा होती है वो जगह बर्बाद हो जाती है। और आइरोनिकली ये बात खुद मनुस्मृति बोलती है।
ये घोर विडंबना है कि खुद मनुस्मृति ये बात बोलती है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, देवता वहाँ निवास करते हैं। समझ रहे हो? और जिसका निष्कर्ष जिसकी कॉलोनरी ये हो सकती है कि जहाँ नारी की पूजा नहीं होती है, जहाँ नारी अपमानित प्रताड़ित होती है, वहाँ बर्बादी आती है, वहाँ पर राक्षस निवास करते हैं। राहा देवता रमण करते हैं।
तो मनुस्मृति जो बात बोलती है, वो बात हमको बड़े-बड़े आइरोनिकल तरीके से सच होती दिखाई देती है। आप महिलाओं को बर्बाद करोगे आप भी बर्बाद हो जाओगे। जिस समय हमें इस बात की खुशी हो रही थी कि पहला महिला स्कूल खुल रहा है — खुशी भी आज हो रही है। उस वक्त तो खुशी भी नहीं हो रही थी। उस वक्त तो इसको एक कलंक की तरह देखा जा रहा था। उसके कुछ ही समय बाद यूरोप में उस महिला का जन्म हुआ था जो डबल नोबेल प्राइज़ विनर थी। किसकी बात कर रहा हूँ? — मैरी क्यूरी।
1890 में गए हैं ज्योतिबा। 1897 में गई थी सावित्रीबाई। और उस समय मैरी क्यूरी अपना बच्ची रही होंगी। पढ़ाई लिखाई की कोशिश कर रही होंगी।
जरा देखना — मैरी क्यूरी का ईयर ऑफ़ बर्थ क्या है? निर्मल देखना।
तो ये बड़ा इंटरेस्टिंग कंट्रास्ट है कि जब सावित्री बाई अशिक्षा से लड़ रही हैं। ऊँच-नीच से भेदभाव छुआछूत से लड़ रही हैं। और अंत में प्लेग से लड़ रही थी। दुर्भिक्ष से अकाल से भी लड़ रही हैं, फिर महामारी से, प्लेग से लड़ रही हैं। उसी प्लेग में उनकी मृत्यु भी हुई थी। उस समय पर यूरोप में वो सब तैयार हो रहा है जहाँ एक लड़की जाकर के डबल नोबेल प्राइज़ जीतने वाली है।
1867 माने 30 साल की थी — मैरी क्यूरी जब सावित्रीबाई फुले की मृत्यु हुई माने 30 साल की थी। मतलब वो अपने रिसर्च में डूबी हुई थी। भारत में जिस समय लड़की पढ़ने भी नहीं जा रही है उस समय मैरी क्यूरी अपने रिसर्च में डूबी हुई है और दो-दो नोबेल प्राइज़ निकालने वाली हैं। और हम फिर कहते हैं कि — अमेरिका आगे क्यों निकल गया? यूरोप आगे क्यों निकल गया? क्योंकि उनकी महिलाएँ बहुत आगे निकली हुई थी।
आप अपने घर की लड़की को, बेटी को, बहू को दबाते हो। फिर आप सोचते हो कि देश आगे बढ़ जाएगा। मजाक है क्या?
प्रश्नकर्ता: इसमें शायद यूरोप में भी, जो एक तरीके से महिलाएँ आगे बढ़ रही थी उसमें काफी बड़ा रोल जो था वो फिलॉसफर का था रेनेसां का था, वोल्टेयर थे आपका रूसो थे। तो फिलॉसोफी का इन जनरल जो सोसाइटी है, समाज है — उसका उस पर क्या फर्क पड़ता है?
आचार्य प्रशांत: बहुत फर्क पड़ता करता है।
प्रश्नकर्ता: क्योंकि बात ऐसी लगती है कि भई कोई व्यक्ति हैं फिलॉसोफर हैं। वो अपनी कोई बात बोल रहे हैं या फिर वो ऑथर हैं वो लिख रहे हैं। बट हाउ विल दिस चेंज द एँटायर कोर्स ऑफ द डायरेक्शन ऑफ़ ह्यूमैनिटी ऑल टुगेदर।
आचार्य प्रशांत: फिलॉसफी* ही सब कुछ है। सब कुछ फिलॉसोफी है। इतिहास — सम्राट नहीं लिखते, उनकी तलवारें नहीं लिखती, तोपे नहीं लिखती, बॉम्स नहीं लिखते हैं, पॉलिटिक्स नहीं लिखती है। इतिहास — किताबें लिखती हैं। थॉमस पेन की राइट्स ऑफ मैन, ज्योतिबा फुले और उस समय पर और ना जाने कितने विचारक थे जो किताबें लिख रहे थे। और उन्हीं की किताबें पढ़-पढ़ के भारत में समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी ये सब आगे बढ़े हैं।
भारत की आजादी में यूरोपियन विचारों की विचारकों की किताबों का बड़ा रोल है। कितनी अजीब बात है। आप एक यूरोपियन पावर के अगेंस्ट स्ट्रगल कर रहे हो। इंडियंस स्ट्रगल कर रहे हैं ब्रिटेन के खिलाफ लेकिन उस स्ट्रगल के लिए भी जो फिलॉसोफिकल बेसिस है वो यूरोप से ही आ रहा है। जो रेनसा के थिंकर्स और राइटर्स और फिलॉसफर थे। उन्हीं की किताबों को पढ़-पढ़ के जो भारतीय युवा वर्ग था वो फिर आलोवित हो रहा था, आंदोलित हो रहा था कि हमें भी कुछ करके दिखाना है। तो फिलॉसफी ही सब कुछ है — और इसमें भी विडंबना क्या?
फिलॉसफी का पालना भारत देश ही रहा है। दर्शन ने सबसे पहले भारत में ही आँखें खोली हैं। लेकिन जो भारत में धर्म की दशा हो गई और संस्कृति की दशा हो गई। ये दोनों दर्शन से बिल्कुल ही जुदा हो गए। कायदे से संस्कृति का आधार होना चाहिए धर्म। और धर्म का आधार होना चाहिए दर्शन। लेकिन भारत में धर्म बन गया सदाचार, दुराचार, डज़ एँड डोंट्स, ठीक है? और संस्कृति बन गई पुरानी परंपराएँ कि जो कुछ भी परंपरा पर चला आ रहा है उसको हम बोल देंगे यही तो हमारी महान संस्कृति है। अब भले ही वो परंपरा बिल्कुल किसी मूर्खता से या पाखंड से शुरू हुई हो — पर ये देखने वाला कोई नहीं तो दर्शन से धर्म बिल्कुल कट गया। धर्म जो है वो दर्शन से फिलॉसफी से बिल्कुल कट गया तो ज्ञान के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई और जब ज्ञान के लिए जगह नहीं रह जाती है ना धर्म में, तो धर्म बर्बाद हो जाता है।
भारत में आज भी धर्म क्या है — अंधभक्ति। आप जब किसी रिलीजियस आदमी, धार्मिक व्यक्ति की भारत में कल्पना करते हो तो कौन होता है? आप बोलते हो —डिवोटी, आप ये थोड़ी बोलते हो — थिंकर। बोलते हो क्या? आप थिंकर नहीं बोलते ना, आप क्या बोलते हो? — रिलीजियस है तो डिवोटी होगा, भक्त होगा।
ये जो बिना ज्ञान की भक्ति है, इसने तबाह कर दिया भारत को।
दर्शन माने पता है — भक्ति भी होती है, भक्ति का भी दर्शन होता है उसे — द फिलॉसफी ऑफ़ भक्ति। और जो भक्त हैं उन्हें भक्ति का भी दर्शन नहीं पता, तो बिना दर्शन के धर्म कैसे आ जाएगा? तो धर्म का एक तरीके से कह सकते हैं कि धर्म का जो आधार है — हाँ वो दर्शन है। हाँ, धर्म का आधार दर्शन है।
बौद्ध धर्म क्यों इतना सशक्त हो के उभरा है? क्योंकि बौद्ध दर्शन सशक्त था। इसी तरीके से जिसको सनातन धर्म बोलते हो। जब तक उसके आधार में वेदांत का ज्ञान है तब तक सनातन धर्म ताकतवर रहेगा। लेकिन जैसे ही तुम सनातन धर्म का नाम, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ, प्रथाएँ, अंधी परंपराएँ ये सब कर दोगे। अंधभक्ति ये सब कर दोगे तो ऐसे ही फिर सनातन धर्म की ताकत समाप्त हो जाती है।
धर्म बिना दर्शन के क्या है? धर्म बिना दर्शन के बेवकूफी है। सर्कस है। एक ऐसा सर्कस है जिसको देख के हँसी नहीं आती, रोना आता है। एक ऐसा सर्कस है जिसमें जानवरों के साथ-साथ इंसानों पर भी घोर अत्याचार होता है। धर्म के नाम पर भारत ने दलितों और महिलाओं के साथ जो अत्याचार करे हैं। इतना भयानक अत्याचार पूरे इतिहास में पूरे विश्व में कभी भी किसी पर भी नहीं करा गया। और ये घोर अत्याचार भारत में धर्म के नाम पर हुआ है। बिना ज्ञान का धर्म ऐसा हो जाता है।
प्रश्नकर्ता: इट बिकम्स अ टूल इन समवन्स हैंड।
आचार्य प्रशांत: इट बिकम्स अ टूल इन द हैंड्स ऑफ़ इग्नोरेंस। द प्रिमिटिव इग्नोरेंस दैट वी आर ऑल बोर्न विद।
प्रश्नकर्ता: फुले मूवी में जो सीन की बात कर रही थी मैम, कि जहाँ चल के जा रही थी सावित्रीबाई फुले और उनके ऊपर गोबर फेंका गया, तो एक तरह से विरोध था उनके सही काम का। तो वो तो उस समय का था लेकिन आज के टाइम में कुछ जो भी सही काम करने जाता है उसका भी विरोध होता है। शायद, गोबर ना फेंकते हों लेकिन उसका नेचर क्या होता है आज के टाइम में?
आचार्य प्रशांत: आज के टाइम पर वर्चुअल गोबर फेंका जाता है। ट्रोलिंग करी जाती है। जब ट्रोलिंग पर बात नहीं चलती तो कोर्ट केस वग़ैरह हो जाएँगे। जब वो भी सफल ना हो तो गोली भी मार देते हैं। कितने ही समाज सुधारकों को पिछले ही कुछ दशकों में गोली भी मारी गई है। कोर्ट केस का तो कोई हिसाब ही नहीं है और ट्रोलिंग छोड़ दो उसको गिनो ही मत। वो तो प्रतिपल हो रही है। आतंकवाद है वो भी एक तरह का।
हमारे भीतर कुछ बैठा है जो सच्चाई से और उजाले से बहुत घबराता है। जब भी कभी कहीं प्रकाश आता है तो उसके सामने कई हथेलियाँ खड़ी हो जाती हैं। सूरज को जैसे हथेली से रोका जा रहा हो। रोशनी नहीं आने देंगे — हथेलियाँ दिखाओ।
धूमिल की पंक्तियाँ हैं —
मैं हिंदुस्तान हूँ। जब भी मैंने उन्हें उजाले से जोड़ा है उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है इसी तरह तोड़ा है। मगर समय गवाह है कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।
तो हिंदुस्तान में यही होता रहा है। जब भी किसी सच्चे हिंदुस्तानी ने लोगों को उजाले से जोड़ा है। “जब भी मैंने उजाले से जोड़ा है, उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है, तोड़ा है।” बहुत बढ़िया पंक्तियाँ है और आगे भी है।
प्रश्नकर्ता: फिल्म में एक और डायलॉग आता है जो कि कहता है कि — ज्योतिबा फुले से ही सवाल पूछा जाता है कि, स्वतंत्रता संग्राम जो है वो चल रहा है तो आप उसमें भाग क्यों नहीं लेते? और आप ये सब क्या कर रहे हैं? — लड़कियों को पढ़ा रहे हैं तो उसका वो जवाब कुछ इस तरीके से देते हैं कि — अंग्रेजों की जो गुलामी है, वो तो सिर्फ़ 100 साल पुरानी है पर जिस गुलामी से मैं आजाद करना चाहता हूँ वो 3000 साल पुरानी है।
आचार्य प्रशांत: वो तो है ही है और पुरानी गहरी गुलामियाँ बची रहे इसके लिए नए नारों को इज़ाद करना बड़ा जरूरी हो जाता है। तुम कभी भी अपने असली दुश्मन को ना जान पाओ ना उससे लड़ पाओ। उसके लिए जरूरी हो जाता है कि जो आज के छोटे-मोटे दुश्मन हैं उन्हीं को बहुत बड़ा बनाकर दिखा दिया जाए और तुम्हारी सारी ऊर्जा नकली दुश्मनों से लड़ने में व्यर्थ करा दी जाए। बात समझ में आ रही है? तो यही ये बहुत पुरानी ये सब ट्रिक्स रही हैं चालाकियाँ कि — दुश्मन उधर है! दुश्मन उधर है! दुश्मन उधर है दूसरी तरफ है दुश्मन! दुश्मन दूसरी तरफ नहीं है। दुश्मन तुम्हारे ही बीच है। दुश्मन उन्हीं लोगों में से है जिनको तुम अपना बोलते हो जो तुम्हारे प्रिय हैं जिनका तुम सम्मान करते हो, उन्हीं में असली दुश्मन है तुम्हारा और उनसे भी आगे का जो दुश्मन है वो तुम्हारे भीतर बैठा है। तुम खुद अपने दुश्मन हो।
देखो अभी देखने में ये आ रहा है कि जो पढ़ी लिखी भी महिलाएँ हैं ना, वो भी अच्छे तरीके से भीतरी तौर पर गुलाम है। वो पढ़ लिख गई होंगी। पर उनका पढ़ना लिखना ऐसे ही है जैसे किसी गुलाम के हाथ में बड़ी ताकत आ जाए। वो उस ताकत का इस्तेमाल भी अपने मालिक की सेवा में ही कर रहा है। आप किसी गुलाम को बड़ा मजबूत शरीर दे दो। ताकत है। वो उस मजबूत शरीर का इस्तेमाल भी जो उसका आका होगा उसकी सेवा में ही करेगा। वो उस मजबूत शरीर का इस्तेमाल अपनी आजादी के लिए नहीं कर रहा है। वो अपने आका की सेवा के लिए कर रहा है।
वैसे ही देखने में ये आ रहा है कि महिलाओं को शिक्षा भी अगर मिल रही है तो भी वो उस शिक्षा का इस्तेमाल वास्तव में एक खुला जीवन, आजाद ऊँचा जीवन जीने के लिए नहीं कर पा रही हैं। वो भीतरी तौर पर अभी भी बेड़ियों में ही जकड़ी हुई है। तो यहाँ फिर आपको उपनिषद् याद आते हैं जो कहते हैं कि देखो विद्या और अविद्या दोनों जरूरी हैं।
अविद्या माने — ये जो बाहरी सब ज्ञान होता है ये भी जरूरी होता है लेकिन ये पर्याप्त नहीं होता, तुम्हें विद्या चाहिए। विद्या माने — खुद को जानना। हमारे भीतर कौन सी मान्यताएँ रूढ़ियाँ बैठी हुई हैं। हमारे भीतर, हम खुद ही अपने दुश्मन कैसे बनकर बैठे हुए हैं? ये सब जानना आत्मज्ञान, ये विद्या है। जब विद्या अविद्या दोनों होते हैं तब जाकर के मुक्ति मिलती है तब जाकर के जीवन आप स्वतंत्र जी पाते हो।
प्रश्नकर्ता: एक और क्योंकि आपके भीतर लगातार ये फीड किया गया है। धर्म के नाम पर, रिलिजन के नाम पर कि ये जितनी भी बेसिकली ऑपरेशन हुआ है वो उसी एक तरीके से अंब्रेला के अंडर हुआ है। रिलिजन के अंब्रेला के अंडर हुआ है। और लगातार आपको ये बताया गया है कि ये सेक्रेड है। ये चीज़ें सेक्रेड है। तो कई बार मैं ऐसा भी पाती हूँ कि जो महिलाएँ एक तरीके से इनको अपोज़ करती हैं, कहीं ना कहीं उनके लाइफ से इस चीज़ को हटाने के चक्कर में जो एक सेक्रेडनेस भी होती है ना — एक तरीके से जिसे आप ट्रुथ कहते हैं।
आचार्य प्रशांत: वही मतलब है कि आपने मनुस्मृति के साथ-साथ उपनिषदों को भी उठा के फेंक दिया बाहर। हाँ तो ये तो हो ही रहा है और ये जो हमारी तथाकथित लिबरल वर्ग की महिलाएँ हैं ये मूर्खता वो ज़्यादा करती हैं। उनको लगता है जितना कुछ पुराना है वो सब सड़ा गला है। वो सब मनहूस है और उसी से महिलाओं का ऑपरेशन हुआ है।
तो वो कुछ पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं समझती हैं। जो कि अपने आप में अशिक्षा की निशानी है कि आप किसी चीज़ को रिजेक्ट कर रहे हो बिना उसको समझे। ये किसी एजुकेटेड माइंड के लक्षण तो लग नहीं रहे। तो वो क्या करती हैं कि वो मनुस्मृति के साथ-साथ भगवत गीता को भी उठा के फेंक देंगी बाहर। वो कहेंगी उनको अगर बोलो कि उपनिषद् है। पढ़ो उपनिषद् तो उनको लगता है उपनिषद् भी ऑप्रेसिव डॉक्यूमेंट्स हैं। कहते हैं ये भी पेट्रियार्कि वाली बात है। इसमें भी पेट्रियार्कि है। कौन से श्लोक में पेट्रियार्कि है? कहाँ है? तुमने पढ़ा भी है। तो ये चीज़ जो अपने आप को लिबरल, वोक, इमैनसिपेटेड बोलती हैं महिलाएँ ये मैं उनसे सविनय निवेदन करुँगा कि सेल्फ नॉलेज के बिना आत्मज्ञान के बिना कोई इमैनसिपेशन नहीं हो जाता।
बाहर की जानकारी ले लेना इतिहास में क्या हुआ? समाज में क्या चल रहा है? मनोविज्ञान में क्या है? कि ये सब जानकारी लेना बहुत अच्छी बात है और बहुत जरूरी बात है लेकिन ये पर्याप्त नहीं है। नॉट सफिशिएँट नोइंग योरसेल्फ सेल्फ नॉलेज वो बहुत जरूरी है और अध्यात्म का पूरा क्षेत्र उस लिए होता है। आप जो लोक धर्म है और अध्यात्म है आप इन दोनों में विवेक से भेद नहीं कर पा रही हैं। आप इनको कॉन्फ्लिक्ट कर रही हैं। आपको लग रहा है एक ही तो बात है। जैसा कहा कि मनुस्मृति और वेदांत आपको एक ही बात लगती है। और ये दोनों दो विपरीत ध्रुव हैं। लेकिन आप शायद खुद ही क्योंकि पढ़ना नहीं चाहते अपने बायसेस के कारण तो फिर आपको पढ़ना होगा ट्रू लिबरेशन। आप तो लिबर्टी वाले लोग हैं ना, लिबर्टी होनी चाहिए। हम लिबरल हैं लिबर्टी। लिबर्टी, लिबरलिज़्म इन सबसे आगे होता है लिबरेशन। और लिबरेशन की जो बात है वो दूसरों से तो लिबरेट होना ही है। खुद से भी लिबरेट होना है। और खुद से लिबरेट होना है तो फिर गीता उपनिषद् वेदांत ये बड़े सहायक होते हैं। लिबरेशन इज़ नॉट जस्ट अबाउट पुटिंग अवे द एक्सटर्नल ऑपरेशर। इट इज़ अबाउट रियलाइजिंग दैट यू आर योर ओन ऑप्रेसर बिकॉज़ यू डू नॉट नो हु यू आर।
प्रश्नकर्ता: तो सर ज्योतिबा फुले ने कास्ट और जेंडर ऑपरेशन दोनों को ही चैलेंज किया था। तो ये जो पूरा एक एक्ट था ये क्या सिर्फ़ एक सोशल रिफॉर्म था या फिर इसका जो आधार था वो एक स्पिरिचुअल एक्ट था?
आचार्य प्रशांत: असली सोशल रिफॉर्म बिना स्पिरिचुअल फाउंडेशन के हो ही नहीं सकता। क्योंकि सोशल रिफॉर्म माने क्या? सोसाइटी माने क्या? हम सब आपस में रहते हैं और एक दूसरे से कैसे व्यवहार करते हैं? एक दूसरे को कैसे देखते हैं? एक दूसरे के प्रति क्या मान्यता रखते हैं? यही समाज है। तुम्हारे इंसान और इंसान का रिश्ता समाज कहलाता है। ठीक है? और इंसान को दूसरे इंसान से कैसा रिश्ता रखना है वो तो अध्यात्म ही तय करेगा ना। आप अपने आप को जो सोचते हो आपका खुद को लेकर जो सेल्फ कांसेप्ट है वही तय कर देता है कि दूसरे से आपका रिश्ता भी क्या होगा।
आपकी अगर अपनी आइडेंटिटी ये है कि साहब मैं तो एक बॉडी हूँ और मुझे अपने प्लेजर्स के लिए ही जीना है। तो आप समाज के सब दूसरे लोगों को भी एक बॉडी की तरह देखोगे और अपने प्लेजर के लिए उनको एक्सप्लॉइट करोगे। तो समाज सुधार बिना आत्म सुधार के तो संभव ही नहीं है ना। और आत्म सुधार को अध्यात्म कहते हैं। अगर इंसान नहीं सुधरेगा तो समाज कैसे सुधर जाएगा? ऐसा हो सकता है क्या? कि इंसान तो सब हो बेईमान और अज्ञानी और भ्रष्ट इंसान सारे ऐसे हो मेंबर्स ऑफ सोसाइटी। लेकिन समाज सोसाइटी बड़ी ज़बरदस्त हो, बड़ी अच्छी हो। ऐसा तो नहीं हो सकता ना? हाँ तो ज्योतिबा फुले को जब आप समाज सुधारक बोलते हो तो उस समाज सुधारक की बुनियाद में अध्यात्म ही होगा।
आजादी में मैं भी जियूँ और आजादी दूसरों को भी मिले। ये तो आध्यात्मिक बात ही है। अन्याय ना मैं सहूँ, अन्याय ना दूसरों को सहने दूँ। तो आध्यात्मिक बात ही है।
सामने कोई लड़की है, स्त्री है, उसको मैं एक इंसान की तरह देखूँ, जो कि खुल के जीना चाहता है जिसकी चेतना उड़ान माँगती है, ऊँचाई माँगती है। ये आध्यात्मिक बात ही है। तो अगर कोई वाकई अच्छा सोशल रिफार्मर हुआ है तो स्पिरिचुअल होगा ही होगा। और वाइसवरसा अगर कोई कहता है कि वो स्पिरिचुअल है लेकिन सोसाइटी जैसी चल रही है उसको चलने देना चाहता है तो वो स्पिरिचुअल नहीं है।
आज के समय में अभी हमने ज्योतिबा की बात करी। आज के समय में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो अपने आप को स्पिरिचुअल बोलते हैं। लेकिन आसपास क्या चल रहा है? दुनिया में क्या हो रहा है? इससे उनको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आप उनको स्पिरिचुअल नहीं बोल सकते। कोई वजह थी कि ज्योतिबा फुले को महात्मा बोला गया। आज उनको महात्मा फुले कहकर याद किया जाता है। इसीलिए ना, क्योंकि एक अच्छा समाज सुधारक होकर के ही उन्होंने ये दर्शा दिया था कि वो आध्यात्मिक भी हैं। इसलिए उनको महात्मा बोला गया। आज का तकाज़ा ये है आज भी स्पिरिचुअलिटी बड़ी पॉपुलर हो रही है। पॉप स्पिरिचुअलिटी, न्यू स्पिरिचुअलिटी लेकिन इन लोगों को दुनिया के हाल से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कोई तक़लीफ़ नहीं होती। तो ये आध्यात्मिक लोग नहीं है। ये तो ऐसे ही है बस।
प्रश्नकर्ता: एक्चुअली अध्यात्म की मन में छवियाँ इतनी ज़्यादा गहरी बैठ गई हैं कि, जब हम ज्योतिबा फुले को देखते हैं या फिर हम पूरा का पूरा फ्रीडम स्ट्रगल देखते हैं भारत का, तो उसको देखने में लगता ही नहीं है कि ये एक आध्यात्मिक घटना है। लाइक फॉर एग्जांपल जैसे बहुत बार कोट किया जाता है भगत सिंह को भी कि उनकी किताब का नाम ही था कि “व्हाई आई एम एन एथिस्ट।” तो अध्यात्म और एक तरीके से रिफॉर्म मूवमेंट्स या रिवोल्यूशनरी।
आचार्य प्रशांत: अलग-अलग करके देखा जाता है। नहीं ये अलग नहीं है। भगत सिंह को मैं बार-बार बोलता हूँ — वो सच्चे अर्थों में एक आध्यात्मिक युवा थे। ठीक है? अपनी क़ुर्बानी दे देना एक अपने से बहुत ऊँचे और आगे के लक्ष्य के लिए, उसके लिए जान दे देना ये आध्यात्मिक बात है।
प्रश्नकर्ता: क्या रोटी के लिए लड़ाई करना ये आध्यात्मिक बात है।
आचार्य प्रशांत: सिर्फ़ अपनी रोटी के लिए लड़ाई करना आध्यात्मिक बात नहीं हो सकती। अपनी रोटी के साथ-साथ दूसरों की रोटी भी जुड़ी हो तो आध्यात्मिक बात हो गई, क्योंकि हमारी जो डिफॉल्ट टेंडेंसी होती है वो होती है सेल्फ सेंटर्डनेस की स्वार्थ की। दूसरों की बहुत परवाह करना हमारी कंडीशनिंग हमारी प्रोग्रामिंग में होता नहीं है और अध्यात्म का मतलब ही होता है अपनी प्रोग्रामिंग को तोड़ना। तो जो अपने साथ दूसरों की परवाह कर ले गया वो आध्यात्मिक है।
प्रश्नकर्ता: एक तरीके से जब ब्रिटिशर्स आए इंडिया में और उनके अपने कुछ कल्चर्स थे या उनके अपने कुछ उन्होंने तरीके से चीज़ें लागू करी भारत में, समाज में, जिसका बदलाव उन्हें देखने को मिला और वो भी एक तरीके का चैलेंज था। जो ऑलरेडी पहले से भारतीय प्री कंडीशन माइंड था। तो अभी आपने जैसे कहा कि जो कुछ भी हमारी कंडीशनिंग को तोड़ता है। वो भी तो वहाँ पर कंडीशनिंग टूट ही रही है एक तरीके से कि जो ब्रिटिशर्स हैं, आपने ये बात अभी बोली थी कि जो कुछ भी हमारी कंडीशनिंग को तोड़ता है वो अध्यात्म होता है। तो कि जब ब्रिटिशर्स भी आए या कोई भी एक बाहरी तत्व आता है जो कि आपकी कंडीशनिंग से मैच नहीं करता है। तो वो भी तो आपकी एक तरीके से कंडीशनिंग तोड़ता ही है। क्या वो भी आध्यात्मिक है?
आचार्य प्रशांत: वो अपनी ओर से आध्यात्मिक तब है जब वो आपकी *कंडीशनिंग*अपने स्वार्थ के लिए नहीं तोड़ रहा। अंग्रेज यहाँ पर कुछ काम निश्चित रूप से ऐसे करके गए हैं जो भारत के लिए अच्छे साबित हुए। उदाहरण के लिए उन्होंने महिलाओं के पक्ष में और दलितों के पक्ष में प्रोग्रेसिव नियम कानून बनाए या उन्होंने पोस्टल सर्विज और रेल्वेज शुरू करी। ये सब तो भारत के लिए अच्छा था। रोड भी बनाई, पुल भी बनाए, एजुकेशनेशनल इंस्टीट्युशंस भी उन्होंने कुछ बनाए तो अच्छा था। लेकिन वो सब उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए करा। ठीक है? तो वो फिर उसको आध्यात्मिक नहीं बोल सकते।
आप दूसरे के लिए कुछ कर रहे हो इसलिए कि उससे आपका अपना स्वार्थ भी सिद्ध होता है। तो उससे दूसरे को फायदा हो रहा है, ठीक है। लेकिन वो आपने तो अपने ही स्वार्थ के लिए करा है। तो आपकी तरफ से वो आध्यात्मिक बात नहीं है। हाँ, दूसरे को वो चीज़ अगर ऊँचा उठाती है और दूसरा उस चीज़ को स्वीकार करता है भले ही उसे स्वीकार करने में तकलीफ़ हो रही हो, कहता है ऊँचा उठने के लिए मैं स्वीकार करूँगा तो उसकी ओर से आध्यात्मिक घटना हो सकती है। बात समझ में आ रही है?
मैं अपने स्वार्थ के लिए किसी को कोई किताब दे दूँ तो मैं तो आध्यात्मिक नहीं हो गया। पर वो व्यक्ति उस किताब को पढ़े और उस किताब में उसे कुछ अच्छी लेकिन अप्रिय बातें मिले। और वो कहे मुझे ये बातें अप्रिय लग रही है। पसंद नहीं आ रही फिर भी मैं इन्हें स्वीकारूँगा। तो ये उसकी ओर से आध्यात्मिक घटना हो गई। मेरी ओर से तो नहीं थी, उसकी ओर से हो गई।
प्रश्नकर्ता: ज्योतिबा फुले ने हमेशा जो ग्रंथ हैं, उस समय प्रचलित जो ग्रंथ थे या जो एक तरीके से प्रचलित रिलीजियस डोगमास थे। तो उनको एक तरीके से नकारा। हम तो किस तरीके का एक स्पिरिचुअल करेज चाहिए होता है जो कि जो होली है या सेक्रेड है, उनको क्वेश्चन कर पाए।
आचार्य प्रशांत: जो वास्तविक होलीनेस है जो वास्तविक सेक्रेडनेस है, उसके लिए आपके पास प्रेम सम्मान होना चाहिए, तब जो नकली होली चीज़ें हैं आप उन्हें क्वेश्चन कर पाओगे। जो कुछ समाज होली मान रहा है। है ना? आप भी उसको आराम से होली मान लोगे अगर आपका समाज के साथ स्वार्थ जुड़ा हुआ है। तो प्रश्न ये है कि आपका सत्य के साथ प्रेम गहरा है या समाज के साथ स्वार्थ गहरा है?
अगर सत्य के साथ प्रेम गहरा होगा तो समाज ने आपको जो फर्ज़ी होलीनेस दी होगी और फर्ज़ी सेक्रेडनेस खड़ी करी होगी आप वो सब ध्वस्त कर दोगे। आप कहोगे कि तुम्हें कोई चीज़ लगती होगी सेक्रेड, पवित्र, होली, मैं नहीं मानता। क्यों? इसलिए नहीं कि मुझे पवित्रता से समस्या है। इसलिए क्योंकि मैं वास्तविक पवित्रता से प्रेम करता हूँ, सम्मान करता हूँ। समझ रहे हो बात? जैसे भगत सिंह कह रहे हैं ना व्हाई आई एम एन एथिस्ट। वो कह रहे हैं कि जो धर्म तुम मानते हो और जो तुमने काल्पनिक सब रचनाएँ करी हुई है ईश्वर वग़ैरह की मैं उनको नहीं मानता। मैं इस अर्थ में एथिस्ट हूँ। क्यों? क्योंकि मैं सचमुच सम्मान देता हूँ सत्य को। मेरी सत्य के प्रति निष्ठा है इसलिए मेरी झूठे धर्म के प्रति निष्ठा नहीं है।
झूठे धर्म से टक्कर वही ले पाएगा जो वास्तव में सच्चा धार्मिक होगा।
वो कहेगा क्योंकि मेरे मन में सच्चे धर्म के प्रति प्यार है। तो इसलिए जो ये झूठी बातें हैं, झूठा धर्म है। मैं इसको ठुकराता हूँ। मुझे डर नहीं लगता। वो स्पिरिचुअल करेज है जो तुमने अपने सवाल में कही। ** स्पिरिचुअल करेज प्यार से आती है — सच्चाई के प्रति प्यार — सच्चाई के प्रति, अपनी संभावना के प्रति, अपनी मुक्ति के प्रति, जीवन में जो कुछ भी ऊँचा और सुंदर है उसके प्रति। अगर उन सबके प्रति प्यार है तो बाकी सब जो गड़बड़ चीज़ें हैं, ओछी चीज़ें हैं उनको आप ठुकरा लोगे। प्रेम साहस दे देता है।
प्रश्नकर्ता: अगर कल्पना की जाए कि ज्योतिबा फुले आज जो हैं, हमारे बीच होते तो वो किस तरीके के इनजस्टिसेस से फाइट कर रहे होते।
आचार्य प्रशांत: बातचीत जैसे-जैसे अंत में पहुँच रही है, प्रश्नों में गहराई बढ़ती जा रही है। बढ़िया, बहुत अच्छा सवाल है।
दो-तीन चीज़ें होती हैं आज जिनसे वह जरूर संघर्ष करते। पहला पर्यावरण जैसे उन्होंने दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करा। आज वो प्राणियों, पशुओं, पक्षियों की प्रजातियों के अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हैं। क्योंकि बात तब तो ये थी कि कोई है जिस पर अत्याचार हो रहा है और बात आज ये है कि कोई है जिसका अस्तित्व ही मिटाया जा रहा है, उसकी प्रजाति ही विलुप्त कर दी जा रही है। एक्सटिंशन रेट पता है ना कितना है? रोज 100 प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। और ये ये नेचुरल नहीं है, ये आर्टिफिशियल है, ये मैनमेड है। ये हम कर रहे हैं। तो आज अगर महात्मा फुले होते तो इसके खिलाफ खड़े होते — ये क्यों है?
दूसरा जो आज सबसे बड़ा भेद है, अंतर है — वो है अमीर और गरीब के बीच में। उस समय में भी 1850,1870 में भी दुनिया में उतनी इनक़्वालिटी नहीं थी जितनी आज है। तो जो आर्थिक असमानता है अमीर और गरीब के बीच की ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के बीच की, आज अगर महात्मा फुले होते तो उसके खिलाफ खड़े होते। और आज अगर महात्मा फुले होते, जैसे उस समय उन्होंने कहा कि धर्म के नाम पर शोषण हुआ है, आज वो खड़े होते कि तुम धर्म का ही शोषण क्यों कर रहे हो? उस समय वो धर्म के नाम पर शोषण से लड़े थे। आज वो धर्म के ही शोषण से लड़ जाते। क्योंकि आज धर्म का ही शोषण हो गया है। धर्म का ही अर्थ कुछ से कुछ बना दिया गया है। तो इसके अलावा उन्होंने काम करा था दलितों, महिलाओं के लिए लेकिन दलितों, महिलाओं की हालत आज भी कोई बिल्कुल संतुष्टि की तो नहीं हो गई है। तो वो जो उनके काम का क्षेत्र था उसको तो आगे बढ़ाते ही रहते।
प्रश्नकर्ता: यदि वो आज होते और वो आज की महिला से मिलते, तो क्या बोलते?
आचार्य प्रशांत: बोलते देख आजादी बड़ी बात होती है, गुलामी नहीं करनी है उन्होंने अपनी किताब का नाम ही दिया था “गुलामगिरी” क्योंकि गुलामी से उनको बड़ी समस्या थी।
गुलामी नहीं करनी है और अगर आजादी सचमुच चाहिए तो सिर्फ़ बाहरी आजादी से काम नहीं चलेगा। आजादी भीतर भी होनी चाहिए।
वो आज की महिला से कहते हैं कि भीतरी आजादी का भी ख्याल कर ले। तुझे दबाने वाला आज बाहर नहीं है शायद मौजूद इतना। पर तेरा शोषण करने वाला आज तेरे भीतर ही बैठा हुआ है। जिसको तू अपनी मान्यताएँ, धारणाएँ, अपने संस्कार बोलती है। वही तेरा शोषण कर रहा है। जिसको तू गुड लाइफ समझती है, हैप्पी लाइफ समझती है। है ना? तेरी गुड हैप्पी लाइफ का, तेरी आइडियल लाइफ का वो कांसेप्ट ही तेरा शोषण कर रहा है — ये कहते हैं।
प्रश्नकर्ता: लेकिन, एक तरफ मतलब उनके उन्होंने जो किया उस समय जो कदम उठाया सारे रज़िस्टेंस के अगेंस्ट एँड दैट चेंज द एँटायर कोर्स ऑफ़ डायरेक्शन फॉर वुमेन एट लीस्ट। एँड उसके बावजूद चाहे ज्योतिबा फुले हो, सावित्रीबाई फुले हो या फातिमा शेख हो इनको हमें मेन स्ट्रीम में उस तरीके से नहीं पढ़ाया जाता या हमारी आँखों के सामने लाया जाता बार-बार। जबकि इनकी जगह जरूर किसी और चीज़ ने ले ली है। सिर्फ़ इतिहास ही नहीं। अब जैसे एक फुले मूवी भी आई है तो मीडिया मे ये चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए या न्यूज़ पेपर में, अर्र्टिकल्स में।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि पीछे देखो, सच्चाई देखो तो मानना पड़ेगा कि हमारे अतीत में इतिहास में बड़ी गड़बड़ रही है, तो फिर हम जो बार-बार राग अलापते हैं ना स्वर्णिम अतीत गौरवशाली इतिहास। उसमें समस्या आ जाएगी। तो इसलिए हम ये देखना ही नहीं चाहते कि पीछे हम कैसे हालातों और बाधाओं से होकर गुजरे हैं। क्योंकि बीच में स्थितियाँ कितनी ज़्यादा विभत्स थी और बीच में नहीं, कई शताब्दियों तक। कई शताब्दियों तक कैसी दुर्दशा थी जब मानोगे कि भारी भारी दुर्दशा थी तब फिर उनके प्रति सम्मान भी उठेगा जिन्होंने तुम्हें उस दुर्दशा से बाहर निकाला है। लेकिन मानोगे दुर्दशा है तो स्वयं को जिम्मेदार भी मानना पड़ेगा। और मानोगे दुर्दशा है या रही है दुर्दशा तो जो, खोखला तुम स्वाभिमान लेकर घूम रहे हो उस स्वाभिमान को भी त्यागना पड़ेगा और स्वाभिमान के साथ अहंकार जुड़ा होता है। अहंकार नहीं अपने आप को झुकाना चाहता। तो नहीं मानेगा कि भारत देश की, भारत में स्त्रियों की, दलितों की ऐसी दुर्दशा थी।
असल में स्त्रियों दलितों की क्या दुर्दशा थी? जिन्हें हम शूद्र कहते हैं ओबीसीज वो आबादी का 40 से 50% हैं। 10-12% एससी और एसटी हैं, जिनको अछूत कहा गया, अनटचेबल कहा गया तो 70% तो यही हो गए और बाकी 30% में भी आधी स्त्रियाँ हैं। तो माने 85 से 90% लोगों की दुर्दशा थी। तो भारत के किसी वर्ग की दुर्दशा की बात नहीं हो रही है। हम समूचे भारत की दुर्दशा की बात कर रहे हैं। अगर 90% भारत की दुर्दशा थी तो माने पूरे भारत की दुर्दशा थी। अब ये मानना हमारे स्वाभिमान को बड़ी चोट पहुँचाता है कि हमने अपने राष्ट्र का ये हाल कर रखा था। तो हम आँख मूंद लेना चाहते हैं। हम ऐसा अभिनय करना चाहते हैं कि जैसे बस सब कुछ बड़ा अच्छा-अच्छा था हमारे अतीत में।
बहुत लोग हैं जो आकर कहते हैं पता है सती प्रथा ऐसी कोई चीज़ थी ही नहीं। सती का तो अंग्रेजों ने एक आविष्कार कर दिया ताकि भारतीयों को नीचे दिखाया जा सके, सोचो। लेकिन जो लोग, जो समुदाय, जो देश अपनी पुरानी गलतियों को स्वीकार नहीं करता वो अपनी पुरानी गलतियों को फिर दोहराता है।
प्रश्नकर्ता: बेसिकली आज भी बदलना नहीं चाहते।
आचार्य प्रशांत: हम आज भी बदलना नहीं चाहते। हम वही पुराना चक्र गलती का, भूल का, शोषण का, अन्याय का कहीं ना कहीं वो जारी रखना चाहते हैं। इसीलिए हम अपनी पुरानी गलतियों को देखना ही नहीं चाहते और उन गलतियों को जिन्होंने सुधारा हम उनको सम्मान नहीं देना चाहते। ये खतरे की बात है। इससे पता चल रहा है कि आज भी हमारी नियत कुछ बहुत अच्छी है।
प्रश्नकर्ता: मैं काफी सरप्राइज थी ये देखने में कि जो थिएटर था, एक तो पहली बात शोज़ बहुत कम थे। एँड बुक माय शो पे जनरली और बहुत कम पैसे के जो थे वो टिकट्स थे। ₹100, ₹200, ₹300 इनसे ऊपर के ज़्यादातर टिकट्स अवेलेबल भी नहीं और बहुत जल्दी कैंसिल हो रहे थे। मुश्किल से ये वाला शो का भी स्लॉट मिला था। एँड इवन हॉल के अंदर ज़्यादातर जो सीट्स थी वो खाली थी, जबकि भारत की आधी आबादी महिलाओं की है और जिनके बारे में ये मूवी है उन्होंने — मतलब यदि किसी के प्रति आपका ऋण है तो वो ज्योतिबा फुले के प्रति है। और उनके ऊपर यदि कोई मूवी बनती है पहली बात तो एँड उसमें महिलाएँ ही नहीं मौजूद है वहाँ पर उनको देखने के लिए।
आचार्य प्रशांत: इस देश की सब पढ़ी लिखी महिलाओं को महात्मा फुले का एहसान मानना चाहिए। लेकिन उन्हें शायद नाम ना पता हो जिन्हें नाम भी पता है — ठीक है, हो गया थोड़ा बहुत, कुछ ऐसे ही है। सही कहा फिल्म देखने भी नहीं गई और इधर-उधर की कोई फिल्म हो — असल में शोषण के बारे में जो एक छुपी बात रहती है ना, वो ये क्या है कि, कहीं ना कहीं आप अपने शोषण में खुद ही भागीदार होते हो और वो इसी बात से पता चल रहा है ना।
भई आपको अगर वाकई अपने शोषण से समस्या होती तो आप उसके प्रति कुछ प्रेम भी दिखाते कुछ कुछ अनुग्रह कुछ ग्रेटट्यूड भी दिखाते जिसने आपको फिर बचाया, बाहर निकाला। आपको अगर उसके प्रति ग्रेटट्यूड नहीं है, तो इसका मतलब यही है कि — आपको अपने शोषण से फिर समस्या भी नहीं है और जब शोषण से समस्या नहीं है तो शोषण चलेगा एक्सप्लॉयटेशन चलता रहेगा। आज भी चल ही रहा है अलग तरीके से चल चल रहा है।
प्रश्नकर्ता: कई बार ऑब्जरवेशन में ये भी आता है कि महिलाओं ने खुद को इतना एक तरीके से कमजोर बना लिया है या रीढ इतनी कमजोर कर ली है अपनी कि उनको अब ऐसा लगता है कि — ओनली थ्रू एक्सप्लॉयटेशन दे कैनएक्सप्लाइट एनीबडी, इंटेंशनली नहीं करना चाहती बट कमजोरी इतनी है।
आचार्य प्रशांत: रिवर्स एक्सप्लइटेशन कि हम इतने कमजोर हो गए हैं कि हम अपने दम पे तो चल नहीं सकते। तो चलो अब हम भी दूसरों को एक्सप्लइट करते हैं।
प्रश्नकर्ता: और वो तभी संभव है जब आप पहले खुद अपना एक्सप्लइटेशन कर पाओ।
आचार्य प्रशांत: हाँ वो तो है। देखो स्पिरिचुअलिटी इज़ अबाउट हेल्थ। इट इज़ अबाउट नाइदर रिमेनिंग वीक नॉर वीकनिंग द अदर। खुद भी स्वस्थ जिऊँगा और तुझे भी स्वस्थ करूँगा — ये अध्यात्म होता है।
प्रश्नकर्ता: पर स्वस्थ होते ही जो आपने बहुत सारे अपने स्वार्थ यहाँ-वहाँ से आपकी जिनकी पूर्ति हो रही होती है वो कटते चले जाते हैं छूटते चले जाते हैं।
आचार्य प्रशांत: पर स्वास्थ्य की बात ही यही है ना कि उसके साथ ताकत भी आती है। हम स्वस्थ होते तो बैसाखियाँ छूट जाती है।
प्रश्नकर्ता: पर पहले डर आता है।
आचार्य प्रशांत: हाँ डर आता है पर ताकत आ गई है ना। आप स्वस्थ हो गए तो आपकी बैसाखी छूट गई। कर्चस पर आप पहले चलते थे। एक सेकंड को हो सकता है बुरा लगे कि अरे मेरी बैसाखी चली गई पर आप स्वस्थ हो गए हो। तो आपको वैसाखी की अब ज़रूरत ही नहीं है। वो जो आपके पुराने सहारे थे या सपोर्ट सिस्टम्स थे वो आपसे हट जाते हैं और ये अच्छी बातें हट जाते हैं क्योंकि अब आपको उनको ज़रूरत नहीं है उनकी आपको तो अच्छी बात है।
प्रश्नकर्ता: यदि फिर से वही जो मैंने आपसे, आपके सामने सवाल रखा था कि, ज्योतिबा फुले जो है या फिर बाबा साहबअंबेडकर यदि आज आते हैं, आज यहाँ हमारे बीच फिजिकली होते और वो महिलाओं को देखते और वो महिलाओं का फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेशियो देखते हैं।
आचार्य प्रशांत: भारत में बहुत कम है और बढ़ने का नाम नहीं ले रहा, कम हो जाता है और ज़्यादा बीच में। तो कुछ नहीं तो कहते यही कि हमने अपनी इतनी मेहनत इसलिए थोड़ी करी थी, हमने जान इसलिए थोड़ी दी थी कि तुम एक तरह के शोषण से निकल के दूसरे तरह के शोषण में चली जाओ। हमने तुम्हारी आजादी की कोशिश करी थी। हमने ये थोड़ी चाहा था कि तुम अपनी आजादी का सौदा कर लो। पहले तुम्हारी आजादी तुमसे छीनी जाती थी। अब तुमने अपनी आजादी को ट्रेड कर लिया है, उसका सौदा कर लिया है। दोनों ही हालत में तुमने अपनी आजादी छोड़ दी है। कोई तुमसे पहले छीन लेता था ज़बरदस्ती। आज ज़बरदस्ती वाली बात नहीं है क्योंकि लीगल प्रोटेक्शन है और बहुत सारी सोशल जो निगाह है वो भी बदली है।
तो आज आपकी आजादी को कोई ऐसे छीनता नहीं है, छीनता नहीं है तो आप खुद ही उसको बेच देते हो कुछ बेनिफिट्स के बदले में। तो उनको दुख होता वो कहते कि कितनी मेहनत से तुमको कोई चीज़ दिलवाई थी और तुमने बेच दी। वैसे ही है जैसे कि मैं मान लो तुम लोगों को कोई गिफ्ट दूँ। बहुत मेहनत से गिफ्ट ला के दूँ और तुम उस गिफ्ट को बेच दो किसी बहुत सस्ती चीज़ के लिए। ऐसा हुआ है। और गिफ्ट पाने में ना अक्सर ये बड़ा एक खतरा रहता है क्योंकि वो गिफ्ट आपने अर्न तो करा नहीं है ना। आपको तो गिफ्ट मिला है, आपने उसको कमाया नहीं है।
प्रश्नकर्ता: आपकी लड़ाई भी उन्होंने लड़ी।
आचार्य प्रशांत: आपकी लड़ाई किसी और ने लड़ी है आपके बदले। इसीलिए तो वो जो चीज़ तोहफे में, उपहार में, मुफ्त में मिल जाती है आप उसकी कदर नहीं करते। आप उसको सस्ता समझ के या तो छोड़ देते हो या बेच देते हो, आधे पौने दामो बेच देते हो। तो इस बात को देख के इन लोगों को बड़ा दुख होता है कि यार हमने तुम्हारे लिए कितनी मेहनत करी और तुम ये क्या कर रही हो?
प्रश्नकर्ता: आपको कैसा लगता है?
आचार्य प्रशांत: ऐसा ही लगता है। ज़्यादा ईमानदारी की बात होती है कि जब कोई गुलाम है और वो साफ-साफ गुलाम हो, प्रत्यक्ष गुलाम हो, ऑब्वियसली गुलाम हो। समझ रहे हो? और बड़ी समस्या हो जाती है जब कोई है तो गुलाम पर वो दिखा यह रहा है कि मैं वोक हूँ, मैं लिबरेटेड हूँ, मैं एनलाइटेंड हूँ, मैं मुक्त हूँ, लिबरेशन है, फ्रीडम है वो ये सब दिखा रहा हूँ। तब बड़ी ज़्यादा समस्या आ जाती है। आज वो समस्या आ गई है।
हो तुम भीतर से अभी भी गुलाम ही। और भीतरी आजादी बिना अध्यात्म के आ नहीं सकती। विसडम से स्पिरिचुअलिटी से तुम्हें डर लगता है तो भीतर हो तुम गुलाम। अपनी टेंडेन्सीज़ के गुलाम हो, अपने थॉट्स, अपनी फीलिंग्स के गुलाम हो, अपनी कंडीशनिंग के गुलाम हो अब इन सब चीज़ों के तुम गुलाम हो। आज भी गुलाम हो लेकिन आज तुमने एक नाटक करना बस सीख लिया है एक प्रिटेन्स सीख लिया है कि मैं तो आजाद हूँ। गुलामी जब गुलामी जैसी लगती है तो उसको हटाना चुनौती देना थोड़ा आसान होता है। लेकिन गुलामी जब आजादी का नाम पहन लेती है, आजादी का मुखौटा पहन लेती है तो उस गुलामी को हटाना और मुश्किल हो जाता है।
आज कुछ मामले में और मुश्किल हो गया है महिलाओं की गुलामी को चुनौती देना। क्योंकि महिलाओं का एक बड़ा तबका है जो झूठी आजादी को आजादी बोल रहा है।
ये लीजिए हम वापस पहुँच गए। कोई आखिरी बात रात में चले थे सुबह हो गई। हर अच्छी यात्रा ऐसे ही होती है ना। बिल्कुल आधी रात के अंधेरे से उसका आरंभ होता है और मंजिल आते-आते थोड़ी रोशनी दिखाई देने लगती है। पर जैसे रोशनी दिखाई देती है तो पता चलता है यात्रा का अंत भी हो गया। यात्रा का अंत हो जाता है, यात्री का अंत हो जाता है। वो अपने पीछे रोशनी छोड़ जाता है। अब जिनको रोशनी का तोहफा दिया है वो जाने कि उन्हें उस तोहफे का क्या करना है। आमतौर पे हम रोशनी का सदुपयोग करते नहीं है। हम हम अपने ऊँचे से ऊँचे ग्रंथों के साथ खिलवाड़ करते हैं, हम महापुरुषों की बातों को तोड़ मरोड़ देते हैं, उनकी जो लेगसी होती है उसकी उपेक्षा कर देते हैं। यही सब चलता रहता है। चलो।
प्रश्नकर्ता: थैंक यू।