जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच
उत्यम ते अलगे रहै, निकटि रहै तै नीच
~ संत कबीर
प्रश्न: निकटता का अर्थ लिप्तता तो नहीं है, फिर निकटता क्या है?
वक्ता: साखी की जो पहली पंक्ति है, उसी में उत्तर स्पष्ट है ।
“जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच”
एक-एक शब्द में सार है- ‘जोरू’, ‘जूठणि’, ‘जगत’, ‘भले-बुरे’, ‘बीच’। इन्हीं को देखोगे तो समझ जाओगे कि उत्तम कौन है, नीच कौन है, किस निकटता की बात हो रही है।
जगत का अर्थ ही है वो मन, जो अलग-अलग देखता है, भेद करता है और चुनाव करता है। जहाँ कहीं भी चुनाव है, वहीँ अच्छा-बुरा है, अन्यथा किस आधार पर चुनाव करेंगे आप। कहीं न कहीं मान्यता होनी चाहिए, कोई आधार होना चाहिए, कोई पैमाना होना चाहिए। उसी पर चलेंगे और चुनाव कर लेंगे कि यह भला है, यह बुरा है। यही वो द्वैत है जिस पर जगत आधारित है। एक को पकड़ो, दूसरे को छोड़ो, और जिसको पकड़ा, वो उसके संयोग के बिना हो नहीं सकता था, जिसको छोड़ा है। तो पकड़ना कभी पूरा नहीं हो सकता। और जिसको छोड़ा, उसे कभी छोड़ नहीं सकते।
सफ़ेद बहुत अच्छा लगता है, पर सफ़ेद है नहीं काले के बिना, तो सफ़ेद को पकड़ा ही ऐसा कि काले की याद हमेशा बनी रही। जीत बहुत भली लगती है, पर जीत हो नहीं सकती हार के बिना। डूबे तो जीत के ख्याल में रहे, लेकिन हार का खौफ़ हमेशा बना रहा। अपना तो बहुतों को बनाया, लेकिन अपनापन हो नहीं सकता परायेपन के बिना। तो बात तो अपनेपन की करते रहे, लेकिन पीछे, नेपथ्य में, परायापन मौजूद ही रहा। यही संसार है।
संसार का अर्थ है – जिसमें आप कभी किसी के हो नहीं सकते। न आप किसी के हो सकते हो, न आप किसी को त्याग सकते हो, आप बस बीच में भटकते रह जाते हो, त्रिशंकु। संसार वह जगह है, जहाँ आपने जिसको पाया, उसको पाया नहीं, और जिसको छोड़ा, उसको छोड़ा नहीं। और पाने और छोड़ने के अतिरिक्त आपने कुछ किया नहीं।
जीवन भर यही किया – यह पाना है और उससे बचना है। अच्छा करना है, बुरे से बचना है, दाँयें जाना है, बाँयें की ओर मुड़कर नहीं देखना है। लेकिन परिणाम यही हाथ आया कि जिधर गये, उधर कभी पहुँचे नहीं, और जिससे भागे, उससे कभी आगे नहीं निकल पाए। यही संसार है।
“जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच”
सुन्दर प्रयोग किया है, बिलकुल मार्मिक प्रयोग है- ‘जूठन’ का। जूठा वो जो आपका मन है। जूठा वो जो किसी और के द्वारा पहले ही प्रयुक्त हो; एक तरह का अवशिष्ट, बचा-खुचा, अवशेष। जिसमें मौलिकता न हो, जो प्रथम न हो, जो असली न हो, ओरिजिनल न हो, उसे ‘जूठा’ कहते हैं। क्या कुछ है आपके पास जो मौलिक है, जो प्रथम है, अव्वल है, आपका है? तो दूसरी जगह पर से देखने में जगत की एक दूसरी परिभाषा निकलती है- ‘जगत वो जहाँ सब जूठा है’। जगत वो जहाँ कुछ भी आपका नहीं है, जहाँ सब बासी है, और सब उधारी का है।
आपमें से जो लोग यह जानने में उत्सुक हों कि संसार आप पर कितना हावी है, या जो यह जानने में उत्सुक हों कि आप संसार से कितना आगे बढ़ गए हैं, या जो यह जानने में उत्सुक हों कि संसार में आकर क्या कमाया, वो बस यह सवाल अपने आप से पूछ लें कि, “क्या कुछ भी है ऐसा मेरे पास जो पूर्णतः मेरा है, जो कहीं से पाया नहीं, उधार नहीं लिया, माँगा नहीं। जो मुझसे पहले और मेरे अतिरिक्त था ही नहीं। जो मात्र मैं हूँ”। और हममें से जो भी लोग यह दावा करते हैं कि वो जीवित हैं, उनका अपने प्रति बड़े से बड़ा धर्म यही है कि इस सवाल को ज़रूर अपने आप से पूछें, “क्या कुछ है मेरे पास ऐसा जो मुझे परंपरा से, अतीत से, दूसरों से और संसार से नहीं मिला है?”
और ‘मेरे पास’ से आशय कोई लम्बा-चौड़ा नहीं है। उसको मानसिक जटिलताओं में मत छुपाईयेगा क्योंकि तथ्य से, सच्चाई से बचने का हमारा यह बड़ा अच्छा तरीका होता है कि बात को जटिल बना दो। बात को ऐसा उलझा दो कि उसकी कोई निष्पत्ति बचे ही न। जो बात सीधी है, उसको सीधा ही देखियेगा। बात इतनी सीधी है कि बस देख लीजिये कि सुबह से शाम तक आप जो कुछ भी करते हैं, जैसा आपका मन बनता है, उसमें क्या कुछ भी ऐसा है, जो आपको अतीत से, समाज से और संस्कार से नहीं मिल रहा है।
बात को और सरल कर देता हूँ। आप जो कुछ भी कर रहे हैं, जैसे भी जी रहे हैं, उसमें क्या आपको कुछ भी ऐसा मिला है, जिस पर परायेपन की छाया न हो? या यह पूछ लीजिये अपनेआप से कि, “क्या मुझे संपूर्ण अकेलेपन का एक भी क्षण उपलब्ध होता है?” वही आपका अपना होता है। सुन्दर, पूर्ण अकेलापन। और वो अकेलापन जगत से भागने वाला नहीं होता है, वो अकेलापन आपकी अपनी पूर्णता का एहसास होता है। जहाँ भी दूसरा मौजूद है, वहीँ आपकी अपूर्णता मौजूद है। नहीं तो दूसरे के लिए जगह कैसे बनती।
और यदि मन और विचारों की भाषा में बात करनी हो, तो पूछ लीजिये अपने आप से कि, “क्या दिन भर में कोई भी क्षण ऐसा उपलब्ध होता है, जब मन पर विचार हावी न हों?” आप कहेंगे, “विचारों का आना-जाना तो चलता ही रहता है, प्रवाह है”। तो मैं कहूँगा, “ठीक, विचारों का आना-जाना तो चलता रहे, तो इतना ही बता दीजिये कि ज़रा भी अवकाश आपको ऐसा उपलब्ध होता है, जब आप विचारों से अनछुए रहें। ठीक, विचारों का आना-जाना चलता रहता है। क्या कभी ऐसा होता है कि आप विचारों से अनछुए रहें?”
आप कहेंगे, “यह बात तो बड़ी अजीब है कि मैं विचारों से अनछुआ रहूँ। इसका क्या मतलब है? मेरे ही विचार हैं, तो मैं उनसे अनछुआ कैसे रहूँ?” तो मैं आपसे यह कहूँगा, “आप यहाँ इस कक्ष में बैठे हुए हैं, यहाँ इतने सारे लोग हैं। क्या आप उन सब को छू रहे हैं?” और छूने से मेरा अर्थ सिर्फ शारीरिक छूना नहीं है। क्या आप इस कक्ष में मौजूद दूसरे लोगों का प्रभाव अपने चित्त पर पड़ने दे रहे हैं? मैं उस छूने की बात कर रहा हूँ। वो दूसरे मौजूद होते हुए भी मौजूद नहीं हैं आपके लिए ।
विचारों के होते हुए भी विचारों से अनछुआ रहा जा सकता है।
वहाँ उस कोने में एक सज्जन बैठे हैं। उन्हें उठकर अगर यहाँ से बाहर जाना है, तो यहाँ जितने लोग मौजूद हैं, क्या उनसे उलझते, गिरते-पड़ते बाहर निकलेंगे? कैसे बाहर जायेंगे आप? यहाँ बहुत लोग मौजूद हैं, आप बाहर कैसे जायेंगे? इनके मध्य से अपना रास्ता बनाकर। ठीक? आप यह तो नहीं कहेंगे कि यह सब हैं, तो मेरा इनके साथ नाता बनना ही चाहिये, इनसे घर्षण होना चाहिए, किसी तरह की ज़ोर-आजमाईश होनी चाहिए। वो लोग अपनी जगह हैं, और आपको अपने होने का पता है। आपको पता है कि लोगों की मौजूदगी अनिवार्य है। लेकिन आप उनकी मौज़ूदगी के बावजूद बाहर निकल सकते हैं।
आपको पता है कि जीवन के सामान्य क्रम में विचारों का होना अनिवार्य है। पर विचारों के होते हुए भी क्या अकेले रहने की कला आती है आपको? यदि नहीं आती तो कबीर फिर आपसे ही कह रहे हैं-
“जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच”
इसके बाद कबीर ने उत्तम जन और नीच की बड़ी सहज परिभाषा दे दी है। जो उलझ गया सो नीच, और जिसने अपना अनछुआपन बचा लिया, वो उत्तमजन ।
“उत्यम ते अलगे रहै, निकटि रहै तै नीच”
लेकिन बात जिस तल पर कही जा रही है, उसको उसी तल पर समझियेगा। अलग रहने का अर्थ है कि जो अलग है ही, मैं उसे जानता हूँ। संसार में संसार से अलग कुछ नहीं हो सकता। संसार में जो है, सो संसार का है। संसार में संसार से अलग कुछ नहीं हो सकता। इसे समझने में बहुत लोगों से चूक हुई है, इसलिए इस बात को बहुत ध्यान से समझना ज़रुरी है।
आध्यात्मिकता एक आम आदमी को बहुत डराती है, क्योंकि ऐसे ही वचनों के बड़े ही उल्टे अर्थ किये गए हैं। कबीर कह रहे हैं, “उत्यम ते अलगे रहै”। आम आदमी के मन में जो छवि बैठी हुई है आध्यात्मिकता की, वो यही है कि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक हुआ नहीं कि वो अलग हो जाता है, कट जाता है। किससे कट जाएगा? वो कहते हैं, “संसार से कट जाता है”। कमाल करते हैं।
कोई भी जीव, कोई भी शरीरी, संसार से कैसे कट सकता है? वो जहाँ रहेगा वहीँ संसार है। वो जिससे भी बात करेगा वही समाज है। हाँ, वो यह ज़रुर कर सकता है कि वो अलग समाज बना ले। वो यह ज़रुर कर सकता है कि पहले एक तरह के विचारों में उलझा रहता था, अब दूसरी तरह के विचारों में उलझ जाए। इस बात पर पुनः गौर करियेगा, कि संसार में रहकर के संसार से अलग कोई नहीं हो सकता। हाँ क्योंकि हम टुकड़ा-टुकड़ा जीते हैं, तो एक टुकड़े से दूसरे टुकड़े पर कूद जायें, यह ज़रुर हो सकता है।
आप एक घर में रहते थे, आपने घर बदल लिया। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप घर में नहीं रहते। तो अलग रहने का क्या आशय है? अलग रहने का यह आशय है कि आप अपने परिवार से अलग रहें? अलग रहने का यह आशय है कि समय जिस बिंदु पर ले आया है संसार को, आप उससे हट कर रहें। यह कि नहीं दुनिया चलती होगी हवाईजहाज़ पर, हम अभी भी बैलगाड़ी पर चलेंगे। अलग रहने का क्या आशय है?
क्या अलग रहने का यह आशय है कि बुद्ध और महावीर जिस प्रकार का आचरण करते थे, हम भी वैसा ही आचरण करेंगे, वैसा ही खाना खायेंगे और वैसे ही वस्त्र पहनेंगे, वैसी ही दिनचर्या रखेंगे? और वो जिस भाषा में बोलते थे, वही भाष बोलेंगे। “दुनिया बोलती होगी अंग्रेज़ी, हम तो संस्कृत में बात करेंगे,” अलग रहने का क्या यह अर्थ है? अलग रहने का यह सब अर्थ यदि हम करते हैं, तो हमें आध्यात्मिकता का ‘अ’ भी नहीं पता है।
अलग रहने का यह अर्थ है – संसार से अलग जो है ही, हम उसके प्रति अंधे न हो जाएँ। क्योंकि वो संसार से अलग है, और संसार का मूल है, संसार का आधार है। हम इतने मूर्ख न हो जाएँ कि वृक्ष को देखें और उसकी जड़ को भूल जाएँ।
जब कबीर कह रहे हैं, “उत्यम ते अलगे रहै,” तो उनका अर्थ है कि- ‘जो उत्तम होते हैं, वो अलग के समीप होते हैं’। ऐसे समझ लीजिये, जो मूल के करीब हो गया, वो फूल को सहजता से ही प्राप्त कर लेगा। तो फूल को भूलने में भी कुछ नुकसान नहीं हो जाना है, क्योंकि जहाँ मूल है, वहाँ तो फूल है ही। कुछ दिक्कत नहीं हो जायेगी, कुछ बिगड़ नहीं जाएगा, आप पुनः फूल के पास लौटोगे।
जड़ें जो पानी सोखतीं हैं, उसको जाना कहाँ तक होता है? जाना तो फूल के पास ही होता है न? तो जो मूल तक पहुँच गया, वो फूल तक खुद ही पहुँच जाएगा, संसार उसे उपलब्ध हो ही जाएगा। कोई ‘आध्यात्मिकता’ का यह अर्थ न लगाए कि जो सत्य के पास जाएगा, वो संसार से विलग हो जाएगा। ऐसा बिलकुल भी नहीं है। वो राजपथ पर चलकर संसार में पहुँचेगा, और बिलकुल सही मार्ग से पहुँचेगा।
आप दो तरीकों से फूल को पानी दे सकते हो। आपने देखा होगा कि आप बाज़ार में सब्ज़ी लेने जाते हो, तो दुकानदार अक्सर सब्जियों पर पानी की छीटें मार रहे होते हैं। तो एक तरीका यह है कि फल तक, या फूल तक, या साग तक पानी पहुँचे। दूसरा तरीका यह है कि उसी फल-फूल तक पानी, उसकी जड़ के माध्यम से पहुँचे। आप कैसे पहुँचना चाहेंगे?
अब कौन से पहुँचने में जीवन है? जो जड़ तक पहुँच गया, वो संसार तक खुद पहुँच जाएगा। संसार कोई छूट नहीं जाना है उससे। और जिसने जड़ को नहीं जाना और जो बाहर-बाहर से फूल तक पहुँचना चाहता है, वो पागल है। उसकी ज़िंदगी वैसी ही होगी, जैसे एक टूटे हुए फूल पर छींटे मारे जा रहे हो। जिन दुकानों पर फूल बिकते हों, उन दुकानों पर आप जाईये, वहाँ फूलों पर निरंतर छींटे मारे जा रहे होते हैं। उससे फूल को कितना जीवन मिल जाता है? हाँ, इतना ज़रुर हो जाता है कि वो बिक जाता है। आप समझ रहे हैं?
फूल से किसी का वैर नहीं है। कैसे हो सकता है? मूल की अभिव्यक्ति है फूल। यदि मुझे आपसे प्रेम है तो आपकी अभिव्यक्ति से वैर कैसे हो सकता है मुझे। जो आत्मा के प्रेम में है, उसे शरीर से कैसे बैर हो सकता है। शरीर और है क्या? आत्मा की अभिव्यक्ति ही तो है। जो सत्य को समर्पित है, वो संसार से भाग कैसे सकता है। संसार यूँ ही तो कहीं से नहीं टपक पड़ा है। इस दुनिया में जो कुछ है, वो कहाँ से आया है? उसका स्रोत क्या है? उद्भूत कहाँ से है? उसी एक बिंदु से, शून्यता से। तो हमें संसार से क्या वैर। वैर की तो बात ही छोड़िये, संसार उतना ही पूजनीय है, जितना की संसार का स्रोत।
कोई बच्चा आपको प्यारा लगता है, तो उस बच्चे की तोतली बोली से आपको चिढ़ होगी क्या? बोली तोतली ही है, उसमें तमाम तरह की अपरिपक्वता है, अपूर्णता है, अनाड़ीपन है। आत्मा पूर्ण है, अभिव्यक्ति अपूर्ण है। छोटी-छोटी है, अपूर्ण है, बंटी हुई है। अभिव्यक्ति ऐसी ही दिखाई देती है, जैसे बच्चे की तोतली बोली। पर बच्चा प्यारा, बच्चे की आत्मा प्यारी। और उसकी जो तोतली बोली है, उसके जो ऊबड़-खाबड़ शब्द हैं, जो उसके अनर्गल वचन हैं, जिनमें भाषागत कई त्रुटियाँ हैं, क्या उन्हें आप कहेंगे कि यह पाप हैं? क्या ऐसा कहेंगे कि संसार पाप है? क्या बच्चे की बोली पाप है? क्यों? क्यों? “अरे! व्याकरण शास्त्र नहीं आता इसको। ‘क्या’ को ‘का’ बोलता है। ‘पानी’ को ‘मम्म’ बोलता है। यह तो अधर्म है। नरक में जाएगा”। क्या ऐसा कहेंगे?
और यह तर्क मत दीजियेगा कि बच्चा है, बड़े तो ऐसा नहीं करते। बड़े भी ऐसा ही करते हैं। अभिव्यक्ति तो सदा अपूर्ण ही होती है। कौन-सा वचन है आपका, जिसमें सत्य पूर्णता से समा जाएगा? कौन-सा कृत्य है आपका, जिसमें आपका प्रेम पूरा समा सकता है, कि आप कहें कि जितना प्रेम था सब उड़ेल दिया इस कर्म में? तो अभिव्यक्ति तो सदा अपूर्ण ही होगी। जो अपूर्ण है, वो भी पूजनीय है, क्योंकि वो आ तो पूर्ण से ही रहा है न।
और यह बात आपको संसार नहीं सिखाएगा। संसार झूठ बोलता है। संसार कहता है, “अपूर्ण, पूर्ण है”। आध्यात्मिकता कहती है, “अपूर्ण, अपूर्ण है, पर हम भूलेंगे नहीं कि आ पूर्ण से ही रहा है”। संसार डरा हुआ है, तो इसलिए उसे झूठ बोलना पड़ता है। संसार आपसे कहेगा, “न, अपूर्ण जैसा कुछ है नहीं। यह पूर्ण ही है”। संसार कहेगा, “यह जो तुम्हें प्रेम मिल रहा है, अपनी सीमाओं, अपने बंधनों के बीच, अपने परिवार से, यह ऊँचे से ऊँचा है”। आध्यात्मिकता कहेगी, “नहीं, यह ऊँचे से ऊँचा नहीं है। यह इश्क-ए-मजाज़ी है। यह छोटा है, और इसको छोटा जानो। छोटा है, लेकिन फिर भी सुन्दर है, क्योंकि आ तो ‘वहाँ’ से ही रहा है न। आ तो ‘वहाँ’ से ही रहा है”।
आपकी गंगा बनारस पहुँचती है, तो बड़ी मैली हो जाती है। तो क्या करोगे? क्या त्याग दोगे उसको? क्या कहोगे कि पाप है, अधर्म है। आप भूल तो नहीं सकते कि आ तो ‘वहीँ’ से ही रही है। कहाँ से? उसी शिखर से आ रही है, जिसको पूजते हो। तो आप कहोगे, “यदि मैली है, तो साफ़ करेंगे”। आप यह नहीं कहोगे, “मैली है, त्याग दो, तिरस्कार करो”। पर भूलना नहीं, आप यह भी नहीं कह सकते, “जैसी है, साफ़ है। इसी में नहाओ और इसी को पीयो”।
संसारी आदमी वो होता है, जो कहता है, “न, मैला कुछ है ही नहीं। मेरे परिवार में सब ठीक है, और यह गंगा बिलकुल साफ़ है”। बात महीन है, इसको ध्यान से समझियेगा। आध्यात्मिक आदमी पूरी तरह से स्वीकार करेगा कि गंगा मैली है। पर वो कहेगा, “मैली है, लेकिन आ ‘वहीँ’ से ही रही है। तो मेरा क्या धर्म है? कि मैं साफ करूँगा। मैंने ही मैली की है। मेरे अतिरिक्त है कौन इसे मैला करने वाला? गंगा स्वयं को मैला नहीं करती”।
और संसारी आदमी कहेगा, “न, मैली-वैली कुछ नहीं है, जैसी है, ठीक है। चलो डुबकी लगाओ। और डुबकी लगाने से तमाम तरह के खाज, कोढ़ और बीमारियाँ होते हों, तो हों। और वही पानी पियो, और उससे कॉलरा और डाएरिया हो जाए तो हो”।
यह संसारी आदमी है, जो झूठ में जीता है, जो यह मानेगा ही नहीं कि तुम्हारी गंगा गंदी हो चुकी है। श्रद्धा नहीं है न उसमें। क्योंकि यदि मान लिया कि गंगा गंदी है, तो अब यह दायित्व आ जाता है कि उसे अब साफ़ करो। और “साफ़ कर पाऊँगा, यह शक्ति है मुझमें,” यह कहने के लिए श्रद्धा चाहिये, क्योंकि गंगा को साफ़ करने वाली शक्ति तुम्हारी नहीं हो सकती। वो तो गंगा के पिता की ही हो सकती है। तुम्हें उस स्रोत में जब श्रद्धा नहीं, जहाँ से गंगा उद्भूत होती है, तो तुममें यह श्रद्धा भी नहीं हो सकती कि तुम गंगा को साफ़ कर पाओगे। याद रखना कि तुम नहीं साफ़ करते गंगा को। गंगा साफ़ हो, इसके लिए पहले गंगा के स्रोत में, शिव में श्रद्धा चाहिए। जिसको शिव में श्रद्धा नहीं, वो गंगा को क्या साफ़ करेगा।
तो हम बड़ा सस्ता तरीका ढूँढ़ लेते हैं। हम कहते हैं, “अरे! गंदी ही नहीं है”। साफ़ न करना पड़े। साफ़ क्यों नहीं करेंगे? क्योंकि श्रद्धा नहीं है। और साफ़ न करना पड़े, तो उसके लिए हम झूठ बोलेंगे, बहुत बड़ा झूठ। हम कहेंगे, “कोई गड़बड़ है ही नहीं। सब ठीक चल रहा है। मेरा मन साफ़ है। मेरे रिश्ते साफ़ हैं, मेरा परिवार साफ़ है, मेरा जीवन साफ़ है”। और तुम्हारा मन, जीवन और पूरा संसार, आज ठीक उतना ही गन्दा है, जितनी की बनारस की गंगा। लेकिन यह तुम स्वीकारोगे नहीं।
तुम कभी अपने बंधुओं के पास, मित्रों के पास, और परिवारजनों के पास बैठकर साफ़-साफ़ यह बात नहीं करोगे कि हम अच्छे से जानते हैं कि हमारा-तुम्हार रिश्ता गन्दा है। यह बात करने के लिए गहरी आध्यात्मिकता चाहिए। यह बात करने के लिए, पहले शिव को समर्पित होना पड़ेगा। जीवन में शिव नहीं है न, तो जीवन फिर शव समान है। जीवन जीवन ही नहीं है, शव है।
“उत्यम ते अलगे रहै”
“अलगे रहै,” अलग के पास रहते हैं वो। लेकिन फिर दोहरा रहा हूँ- जो अलग के पास है, वो संसार में पूरे तरीके से प्रविष्ट भी है। आपको अपने पौधे को भोजन देना है, आप चाहते हो फूल का रंग और सुन्दर हो, तो क्या खाद फूल के ऊपर रख दोगे? खाद कहाँ पर रखोगे? ठीक है, आपका लक्ष्य भले ही यह हो कि फूल सुन्दर होना चाहिए, तो इसके लिए खाद कहाँ रखोगे? क्या फूल के ऊपर रख दोगे? खाद कहाँ रखोगे? खाद तो जड़ में ही दोगे न। “अलगे रहै,” जो फूल से अलग है, वहाँ खाद दो। यदि फूल में सुगंध चाहिए, यदि फूल में सुन्दरता चाहिए, तो भूलना मत, “अलगे रहै”। जो फूल से अलग है, जो फूल का प्राण है, वहाँ जाओ। उस पर ध्यान दो।
यह बात महीन है, सूक्ष्म है। जो तुमसे अलग है, वही तुम्हारा प्राण है। तुम स्वयं तुम्हारे प्राण नहीं हो। वो तुमसे अलग भी है, और वही तुम्हारा प्राण भी है। इसलिए उपनिषद् कहते हैं, “वो तुमसे बहुत-बहुत दूर है, कभी छू न पाओगे। और वो तुम्हारे इतने नज़दीक है, कभी छू न पाओगे”। बात के सौंदर्य को देखिये। वो तुमसे इतना-इतना दूर है, कभी छू न पाओगे, और वो तुम्हारे इतना नज़दीक है, कभी छू न पाओगे।
“अलगे रहै”। फूल और मूल का रिश्ता जानिये, और मूल के साथ रहना सीखिये। और इस डर को मन से निकाल दीजिये कि जो मूल के पास जायेगा, उसकी ज़िंदगी से फूल गायब हो जायेंगे। यह बात हमारे अंतर्मन में बड़ी गहरी बैठी हुई है। बैठी है या नहीं? हम आध्यात्मिकता का यही अर्थ समझते हैं न?
उन्नीस, बीस, बाईस साल की उम्र के लोग भी यहाँ आते हैं, तो उनके माता-पिता को बड़ी चिंता रहती है कि हमारा बेटा दुनिया छोड़ कर भाग जाएगा, कि यह करेगा, कि वो करेगा। कैसे छोड़कर भाग जाएगा? *जो शिव को पूजने लगा, वो गंगा को छोड़कर कैसे भाग सकता है? जिसे सत्य से प्रेम हो गया, उसे संसार से भी तो प्रेम ही रहेगा न*। छोड़कर कैसे भागेगा, और कहाँ भागेगा? कहाँ? पर, ऊपर से पानी के छीटें नहीं, जड़ से आये पानी। फूल तक कहाँ से पहुँचना है? फूल तसत्यक किस रास्ते से पहुँचना है? जड़ से पहुँचना है। छीटों से नहीं पहुँचना है।
“निकटि रहै तै नीच”
किसके निकट रहें? उसके निकट रहें जो उससे दूर है, जो अलग है। निकट तो हम रहते ही हैं।
“भले बुरे का बीच,”
कभी भले से निकट होने की इच्छा होती है, कभी बुरे से निकट होने की इच्छा होती है। आकर्षण, खिंचाव, मोह, सत्य नहीं, मर्म नहीं, मोह। निकटता, कि पास आ जाएँ, आ जाएँ, एक तरह की वासना, एक मृगतृष्णा। किसी तरह करीब आ सकें, आ सकें, बिना यह समझे कि तुम जितना करीब आते जाओगे, दूरी उतनी ही ज़्यादा पाओगे।
इसका सत्य, तथ्य यदि जानना है तो उन प्रेमियों से पूछिये जिन्होंने कभी तथाकथित प्रेम किया हो। वो बड़े उदास रहते हैं जब प्रेमी उन्हें मिलता नहीं, और उससे भी ज़्यादा उदास तब रहते हैं, जब मिल जाता है। पहले तो कम से कम यह उम्मीद थी कि जब निकट आएगा, तो उदासी कम हो जाएगी। और जब निकट आकर भी निकट नहीं आता, तब क्या उम्मीद बाँधें?
यह निकटता वास्तव में कभी प्राप्त नहीं होती। जो छींटा ऊपर से मारा गया है, वो फूल के कितना निकट जा सकता है? क्या वो कभी भी फूल की आत्मा में प्रवेश कर पाएगा? जो पानी फूल पर ऊपर-ऊपर से छींटा गया है, वो फूल के कितना निकट जा सकता है? क्या वो कभी भी फूल की आत्मा में प्रवेश कर सकता है?
बड़ी असफलता की स्थिति हो जाती है यह, आप जितना निकट जा सकते थे, आप गए, और फिर भी पाया यही कि दूरी कायम है। अब आप करें तो करें क्या? अब आप यह बहाना भी नहीं बना सकते कि क्या करें, मिलन नहीं हो रहा है। आप जो कर सकते थे, आपने कर लिया।
आप अधिक से अधिक क्या कर सकते थे? आप अधिक से अधिक यह कर सकते थे कि आप विवाह कर लें। आप अधिक से अधिक यह कर सकते थे कि शारीरिक संसर्ग हो जाए, आप परिवार बना लें। वो सब आपने कर लिया। आपने यह भी कर लिया कि चौबीस घंटे शक्ल देखें, पर दूरी तब भी बनी रही। अब कहाँ सिर फोड़ोगे? क्या बहाना दोगे? व्यक्ति उपलब्ध है, जो करना चाहते हो करो। और सब कुछ करने के बाद भी निकटता प्राप्त हुई नहीं। तुम चिपक ही गये, फेविकोल का विज्ञापन बन गये कि कुछ हो जाए, जोड़ ऐसा है कि टूटेगा नहीं। चौबीस घंटे चिपक गए, या मानसिक तल पर चिपक गए, कि चौबीस घंटे तुम्हारा ही ख्याल करेंगे, किसी और का ख्याल आने ही नहीं देंगे। पर पाया कि दूरी अब भी कायम है। अब क्या करोगे?
ओस की बूंद पड़ी हुई है घास के तिनके पर, कितना निकट जायेगी? कितना निकट जायेगी? उसके प्राण तो नहीं बन पाएगी न? नीचता यही है। किसी के भी जीवन में, शरीर के माध्यम से प्रवेश करना नीचता है। किसी के भी जीवन में, विचारों के माध्यम से प्रवेश करना नीचता है। और जीवन में आत्मा के राजपथ से प्रवेश करना उच्चता है। उसी को कबीर कह रहे हैं- ‘उत्तम’ होना। ‘क्या नीचा है, क्या ऊँचा है’, इसकी इससे सुन्दर परिभाषा नहीं हो सकती। और इसी बात को समूचे संसार को परखने का तरीका भी बना लो।
संसार को स्थूल दृष्टि से देखना, पदार्थ रूप से देखना नीचता है। और वस्तुओं के, समय के, विस्तार के सत्य को समझना ही उच्चता है। तुम्हारे सामने एक व्यक्ति आता है, तुम्हें सिर्फ एक शरीर दिखाई देता है, यही नीचता है।
वेदान्त कहते हैं कि तीन तरह के शरीर होते हैं- सूक्ष्म, स्थूल, कारण। तीन तरह के शरीर नहीं, तीन तरह के मन होते हैं। एक मन वो है, जो स्थूल देखता है। एक मन वो है, जो सूक्ष्म देखता है, वो विचारों के तल पर है। और एक मन वो है, जिसने वृत्ति को ही पकड़ लिया है। यह यात्रा है, निम्नतम से उच्चतम की। और एक मन उसके आगे भी है, जो देखता ही नहीं, जो इन तीनों मनों का साक्षी मात्र है।
नीचे से नीचा क्या है, ऊँचे से ऊँचा क्या है, वो जान लो। तुम जाते हो बाज़ार में, तुम्हें कपड़ा दिखाई देता है। तुम्हें बस कपड़ा ही दिखाई दिया। तुमने उसको छुआ, तुमने उसका रंग देखा, तुमने उसकी कीमत देखी, तो तुम निम्नतम तल पर चल रहे हो – यही है ‘स्थूल दृष्टि’।
पर तुम ज़रा ठिठके, तुमने थोड़ा विचार किया, “कहाँ से आता है यह कपड़ा? ज़रुरत है क्या मुझे, या न खरीदूँ तो काम चल जाएगा?” तो तुम स्थूल से ऊपर उठे – यह है ‘सूक्ष्म दृष्टि’। फिर तुम रुक गए। तुमने उत्सव ही बना लिया उस मौके को। तुमने कहा, “यह है कौन, जो यह सारे सवाल जवाब कर रहा है? यह कौन है, जिसे कपड़ा दिखाई दे रहा है? और यह कौन है, जो विचार कर रहा है कि कपड़ा खरीदूँ या न खरीदूँ? और यह कौन है जिसमें यह सारे सवाल उठ रहे हैं?” – तो यह तुम्हारी ‘कारण दृष्टि’ हुई। अब तुम ‘अहम्’ वृत्ति तक पहुँच गए।
पर याद रखना, अभी भी यह सब जो हो रहा है, यह मन में हो रहा है। इससे भी उच्चतर एक बिंदु आता है, जब तुम देखते हो कि यह सब प्रक्रियाएँ चल रही हैं, ठीक वैसे ही जैसे तुम इस कक्ष में बैठे हो, फिर भी अकेले हो, और तुम इन सब प्रक्रियाओं से बिलकुल अकेले हो। तुम बाज़ार में होकर भी नहीं हो।
“निकटि रहै सो नीच”
संसार वो जो स्थूल है। जब संसार स्थूल से सूक्ष्म हो जाता है, तब उसे संसार कहना ही उचित नहीं। अब यह कहना ठीक नहीं होगा कि यह संसार है, उसे अब कह देना कि यह सत्य है। तो नीच कौन? जो संसार के निकट है। क्योंकि संसार के निकट है, इसलिए सत्य को भुलाए बैठा है। याद रखना वो बाहर-बाहर से निकट है संसार के। वो सत्य के मार्ग से नहीं आया है संसार में, वो छीटों से आया है। तो उसकी जो निकटता है, वो भी किससे निकटता है? स्थूल से। क्योंकि संसार का अर्थ ही है – ‘स्थूल’। तो उसकी निकटता स्थूल से है।
लाल रंग का तुम्हें कपड़ा दिखा और तुम उसके बहुत निकट हो गए। क्या वास्तविक निकटता पा ली? हम वास्तविक निकटता तो कभी पाते नहीं। हम किससे निकटता पाते हैं? हम निकटता पाते हैं, छूने में, कि कपड़ा अच्छा था, रंग अच्छा था, हो सकता है सुगंध भी अच्छी हो। हमारे साथ ऐसा तो कभी होता नहीं कि उस कपड़े भर में संसार का सत्य दिख गया हो।
अगर तुम्हें कपड़े में संसार का सत्य दिख जाए, तो तुम नाचने लग जाओ। “यही तो है ‘वो’, कपड़ा कहाँ है, यही तो है ‘वो’। तो फिर रखो कपड़े से निकटता, क्योंकि अब कपड़ा ही मूल बन गया है। अब तुमने फूल में ही जड़ को देख लिया। पर ऐसा होता कहाँ है। जब तुम फूल को देखते हो, कभी ऐसा होता है कि जड़ दिखाई दी हो? सुन्दर गुलाब का फूल है, और सूरज की रोशनी में चमक रहा है, और उसमें तुमको अँधेरे में छिपी हुई जड़ दिखाई देती है।
आध्यात्मिक आदमी वो है, जो मूल में फूल देख ले, और फूल में मूल देख ले। संसारी वो है, जो जब फूल को भी देखे, तो उसे फूल भी समझ में न आये। आध्यात्मिक वो है, जो दो और दो को पाँच कर दे। और संसारी वो है, जो दो और दो को चार भी ठीक से न कर पाए।
जब संसार को देखो, तो संसार के स्रोत की सुरति लगातार बनी रहे, निकट रहो स्रोत के और ऐसे निकट रहो कि स्रोत के जितने अवतार हैं, जितने रूप हैं, जितने प्रस्फुटन हैं, उन सब को समादर दो। उनमें भले-बुरे का भेद न करो। “तुझसे सुख उठा है, सुख आर्द्र है। तुझसे दुख उठा है, दुख भी पूजनीय है। हम नहीं उसमें भले-बुरे का खेल खेलेंगे। बस फूल ही नहीं उठते हैं तुझसे, यह सारे कांटे भी तुझसे ही उठे हैं”।
मूल से फूल भर ही नहीं निकलता, शूल भी निकलता है। तो आध्यात्मिक आदमी वो है जो फूल और शूल को एक समान देखे, क्योंकि निकले तो दोनों मूल से ही हैं। काँटा देखा तो उसकी याद, और फूल देखा तो उसकी याद। काँटा बदल जाएगा, नहीं रहेगा कल। फूल झड़ जाएगा, नहीं रहेगा कल, पर याद अनवरत है। वो गंगा रूकती नहीं, वो लगातार बनी हुई है, वो टूटती नहीं- यह ‘सुरति’ है। यही जीवन संगीत है। जिसने इसको सुना, जिसने इसको साधा, वही जीया।
दोहरा रहा हूँ, मूल को ऐसे देखा कि उसके सारे अवतार प्यारे लगे, फूल हो या शूल। और फूल को जब भी देखा, फूल से आगे देखा। फूल को जब भी देखा, पूरा देखा। मात्र रंग और सुगंध नहीं देखा, फूल की आत्मा भी देखी। मात्र स्थूल नहीं देखा, सूक्ष्मतम भी देखा। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्थूल नहीं देखा।
आप कहते हैं, “हमारे लिए बड़ा आसान हो जाता है, ठीक-ठीक बता दीजिये कि ये देखें या वो देखें”। दिक्कत आपको तब होती है जब कहता हूँ, “दोनों देखो और एक साथ देखो”। यह देखो तो वो दिखे, और वो देखो तो इसकी याद आये।
दोनों को एक साथ साधना है। जैसे वो रस्सी पर चलता है न, न इधर हो सकता है, न उधर हो सकता है। ऐसे चलना है। उसी को कबीर कहते हैं, “खाड़े की धार”। ‘खाड़े की धार’ पर चलना है। न इधर हो सकते हो, न उधर हो सकते हो।
~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।